समेट देती
लेखनी पन्नों में ही
पूरा ब्रह्माण्ड
चुप करा दे
लेखनी में ताकत
युद्ध करा दे
देखो तो ज्ञानी
लेखनी में दोनों ही
आग व पानी
पानी भर के
चली आग लगाने
लेखनी मेरी
मेरी लेखनी
बरसती है आग
पीकर पानी
गुत्थी वो मेरी
सुलझाने में जलीं
मोमबत्तियां
बहता जाता
समय सरिता में
जीवन पानी
अपना देश
कहने को आजाद
दबंग राज
उखड जाती
फुलाने में गुब्बारा
अपनी साँस
जब खोला था
शादी का एलबम
वर्षों हो गए
संभाले रखा
मियां ने शेरवानी
बेटे के लिए
ना छम्मो आती
ना रहा पनघट
कुआँ उदास
भीगे अक्षर
आंसू में बार बार
पहला खत
अपने होते
रूलाने में रहता
जिनका हाथ
लोगों को लोग
अक्सर भूल जाते
रंजिशें याद
बिना बाती के
दीया का क्या वजूद
बूझी रहती
दीवार टंगी
मुझे देखती रोज
दादा की फोटो
लौ लग जाती
पतंगों को लौ देख
लौ ही जलाती
होतीं सुगम
मित्रों की शुभेच्छा से
दुष्कर राहें
पढ़ लेता मैं
उनके हाइकू में
मेरे विचार
पाएं नौकरी
आरक्षण के बल
योग्य विहीन
आपाधापी में
अपनापन लुप्त
खोखले रिश्ते
ढूंढ लेता हूँ
बचपन अपना
बच्चों के बीच
भोज का नहीं
भगवान तो प्यारे
भाव का भूखा
खिलखिलाता
शिशु भागता आगे
माँ पीछे पीछे
नीम कसैली
विशुद्ध कर देती
वायु विषैली
लिए है खड़ी
एक एक पंखुड़ी
पुष्प की शोभा
कोई पंखुड़ी
यदि टूट जाती है
फूल कुरूप
ना जाते दूर
हवा में उड़कर
भारी चट्टान
लेखनी पन्नों में ही
पूरा ब्रह्माण्ड
चुप करा दे
लेखनी में ताकत
युद्ध करा दे
देखो तो ज्ञानी
लेखनी में दोनों ही
आग व पानी
पानी भर के
चली आग लगाने
लेखनी मेरी
मेरी लेखनी
बरसती है आग
पीकर पानी
गुत्थी वो मेरी
सुलझाने में जलीं
मोमबत्तियां
बहता जाता
समय सरिता में
जीवन पानी
अपना देश
कहने को आजाद
दबंग राज
उखड जाती
फुलाने में गुब्बारा
अपनी साँस
जब खोला था
शादी का एलबम
वर्षों हो गए
संभाले रखा
मियां ने शेरवानी
बेटे के लिए
ना छम्मो आती
ना रहा पनघट
कुआँ उदास
भीगे अक्षर
आंसू में बार बार
पहला खत
अपने होते
रूलाने में रहता
जिनका हाथ
लोगों को लोग
अक्सर भूल जाते
रंजिशें याद
बिना बाती के
दीया का क्या वजूद
बूझी रहती
दीवार टंगी
मुझे देखती रोज
दादा की फोटो
लौ लग जाती
पतंगों को लौ देख
लौ ही जलाती
मुखड़ा देखे
तीन दिन हो गए
आ जाओ धूप
बन जाती है
उधार लेन देन
प्रेम की कैची
उड़ा पाती है
रिश्तों की पतंग को
विश्वास डोर
ओढ़ के बैठी
कोहरे का घूँघट
शर्माती धूप
ठण्ड में कम
घमंड में अधिक
होती अकड़
तीन दिन हो गए
आ जाओ धूप
बन जाती है
उधार लेन देन
प्रेम की कैची
उड़ा पाती है
रिश्तों की पतंग को
विश्वास डोर
ओढ़ के बैठी
कोहरे का घूँघट
शर्माती धूप
ठण्ड में कम
घमंड में अधिक
होती अकड़
होतीं सुगम
मित्रों की शुभेच्छा से
दुष्कर राहें
पढ़ लेता मैं
उनके हाइकू में
मेरे विचार
पाएं नौकरी
आरक्षण के बल
योग्य विहीन
आपाधापी में
अपनापन लुप्त
खोखले रिश्ते
ढूंढ लेता हूँ
बचपन अपना
बच्चों के बीच
भोज का नहीं
भगवान तो प्यारे
भाव का भूखा
खिलखिलाता
शिशु भागता आगे
माँ पीछे पीछे
नीम कसैली
विशुद्ध कर देती
वायु विषैली
लिए है खड़ी
एक एक पंखुड़ी
पुष्प की शोभा
कोई पंखुड़ी
यदि टूट जाती है
फूल कुरूप
ना जाते दूर
हवा में उड़कर
भारी चट्टान
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