SD Tiwari

Tuesday, 30 December 2014

hindi haiku 31 dec 14

समेट देती
लेखनी पन्नों में ही
पूरा ब्रह्माण्ड

चुप करा दे
लेखनी में ताकत
युद्ध करा दे

देखो तो ज्ञानी
लेखनी में दोनों ही
आग व पानी

पानी भर के
चली आग लगाने
लेखनी मेरी


मेरी लेखनी
बरसती है आग
पीकर पानी


गुत्थी वो मेरी
सुलझाने में जलीं
मोमबत्तियां

बहता जाता
समय सरिता में
जीवन पानी

अपना देश
कहने को आजाद
दबंग राज

उखड जाती
फुलाने में गुब्बारा
अपनी साँस

जब खोला था
शादी का एलबम
वर्षों हो गए

संभाले रखा
मियां ने शेरवानी
बेटे के लिए

ना छम्मो आती
ना रहा पनघट
कुआँ उदास

भीगे अक्षर
आंसू में बार बार
पहला खत

अपने होते
रूलाने में रहता
जिनका हाथ

लोगों को लोग
अक्सर भूल जाते
रंजिशें याद

बिना बाती के
दीया का क्या वजूद
बूझी रहती


दीवार टंगी
मुझे देखती रोज
दादा की फोटो

लौ लग जाती
पतंगों को लौ देख
लौ ही जलाती

मुखड़ा देखे
तीन दिन हो गए
आ जाओ धूप

बन जाती है
उधार लेन देन
प्रेम की कैची

उड़ा पाती है
रिश्तों की पतंग को
विश्वास डोर

ओढ़ के बैठी 
कोहरे का घूँघट
शर्माती धूप

ठण्ड में कम
घमंड में अधिक
होती अकड़

होतीं सुगम
मित्रों की शुभेच्छा से
दुष्कर राहें

पढ़ लेता मैं
उनके हाइकू में
मेरे विचार  

पाएं नौकरी
आरक्षण के बल
योग्य विहीन

आपाधापी में
अपनापन लुप्त
खोखले रिश्ते

ढूंढ लेता हूँ
बचपन अपना
बच्चों के बीच

भोज का नहीं
भगवान तो प्यारे
भाव का भूखा

खिलखिलाता
शिशु भागता आगे
माँ पीछे पीछे

नीम कसैली
विशुद्ध कर देती
वायु विषैली

लिए है खड़ी
एक एक पंखुड़ी
पुष्प की शोभा 

कोई पंखुड़ी
यदि टूट जाती है 
फूल कुरूप

ना जाते दूर
हवा में उड़कर
भारी चट्टान 
 
Posted by S. D. Tiwari at 22:21 No comments:
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Monday, 29 December 2014

Aaz ka haiku // ghazal


लहर /दर्पण/ वनस्पति /अंधकार/ प्रकाश/ दिन-रात/ नया / नयी-दुल्हन/ त्यौहार

माँ का आँचल / जीवन की धूप में / शीतल छाँव /
हिस्से लायेंगे / जीवन के दुष्कृत्य / नर्क की आग !
- साधना वैद
नभ में खेले
संग किरणों के
सूर्य अकेले  - ललित मिश्रा

थक के चूर
रजनी चली सोने
उगे भास्कर
  ददम त्रिपाठी

स्वर्णिम आभा
प्रकाशमान नभ
रवि मुस्काये  - गिरिजालय जोशी

चिंता की अग्नि
जला देगी तुझको
बिन मौत ही rajiv goel


ईर्ष्यागन में
तिल तिल जलता
मानव मन  lalit mishra


धन के लोभी
दुल्हन ही दहेज़
इसे सहेज  - गिरिजालय जोशी

जीवन- पथ
कर्म -चक्र चालित 
सौभाग्य- रथ  - महिमा वर्मा  


आज का हाइकू (१७.२.२०१५ 
चाँद निकला
निशा मन मुदित
सूरज ढला  - ब्राह्मणी वीणा 

आज का हाइकू (१६.२.२०१५)
सूर्य सौंपते
निशा को सत्ता सारी
शाम को रोज  - मुकेश भद्रावले

आज का हाइकू (१५.२.२०१५)

हाथ जो फेरा 
मिटी रेखा चिंता की 
जब भी माँ ने   - योगेन्द्र वर्मा 

आज का हाइकू (१४.०२.२०१५)

क्रोध का सूर्य
अपनी ही ज्वाला में
चिता सा जला,     - दिनेश चाँद पाण्डेय

आज का हाइकू (१३.२.२०१५)
टूट ही गया
तिलिस्म कोहरे का
बिखरी धूप। - शिवजी श्रीवास्तव

आज का हाइकू (१२.०२.२०१५)
लक्ष्य दुरूह
आत्मविश्वास अस्त्र
जय मुट्ठी में  - निशा मित्तल

आज का हाइकू (११.२.२०१५) 
पेट की आग
ठंडी अंगीठी पर 
पकाती भूख - राजीव गोयल 
  
आज का हाइकू (१०. २. २०१५) 
सत्य चिंगारी 
असत्य राख तले
नहीं दबा है 
- शत्रुघ्न पाठक 

9.2.2015


बत्ती की सख्ती
अमा हेकड़ी भूली
अंधेर मिटा  - विभा श्रीवास्तव

आज का हाइकू (८.२.२०१५)

महक उठा
घर चहक उठा
आई दूल्हन

        - एस० डी० तिवारी

(यह हाइकू कुछ सदस्यों द्वारा सुझाया गया है)

      ..   यह कोमल संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाला मनोहर हाइकु है। घर में नव वधू का आगमन साथ में उल्लास,हर्ष और नवीन सपनों को जगाने वाला होता है। उस समय घर के प्रत्येक सदस्य के मन में अभिनव भावों का संचार होता है। वधू के आते ही चारों ओर नवीन चेतना का संचार होता है। बस्तुतः हमारे देश में विवाह समझौता मात्र न होकर एक पवित्र /धार्मिक संस्कार है अतःदुल्हन का आगमन एक अलग प्रकार के आनन्द की सृष्टि करता है। घर का महकना और चहकना जहाँ एक ओर आलंकारिकता की सृष्टि कर रहा है वहीँ पवित्र भावों का भी व्यंजक है।
                                                        - शिवजी श्रीवास्तव

आज का हाइकू (७.२.२०१५)
तेरा विश्वास
जीत पाया जो मै तो
जीवन धन्य  - ललित मिश्रा

आज का हाइकू (६.२.२०१५)
लम्बा था कश
मस्ती में धुआँ पूछे
जलाया किसे  - अरुण सिंह रुहेला

आज का हाइकू (५.२.२०१५)

टूटा विश्वास
ज्यो काँच के टुकडे
कभी ना जुडे।      - प्रिन्स वर्मा

4.2.2015
नन्ही बिटिया
बनकर दुल्हन
हुयी सयानी  - अमित अग्रवाल

आज का हाइकू (३.२.२०१५)

दीवार झांके
खिड़की से बाहर
है चाँद कहाँ      - राजीव गोयल

जैसा कि मैंने पहले भी कहा है हाइकू लिखने कि साथ पढ़ना भी एक कला होती है. हाइकू पढ़कर अपनी सूझ का प्रयोग कर समझना होता है. उपरोक्त हाइकू में प्रथम पंक्ति 'दीवार झांके' खिड़की से बाहर तो अटपटा लगेगा अगर इसे ऐसे पढ़ें 'दीवार, झांके खिड़की से बाहर' यानी कोई और है जिसे दीवार के कारण बाहर नहीं दिख रहा, वह खिड़की से झांक रहा है. चूकि हाइकू में विराम आदि का प्रयोग नहीं होता अतः पाठक को समझने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना होता है.     - एस० डी० तिवारी


आज का हाइकू (२.२.२०१५)
सँस्कार छोड़
पशुवत हो जाते,
अज्ञानी जन  - महिमा वर्मा

आज का हाइकू (०१.०२.२०१५

भीतर झाँको
बंद नयन कर
सुहानी झाँकी     - शांति पुरोहित

आज का हाइकू (३१.१.२०१५)

फटा बिछौना
खुरदुरी खटिया
सख्त जीवन      -  साधना वैद

आज का हाइकू (३०.१.२०१५)

दीये कम थे
रोती रही देहरी
ज्यादा गम थे       - योगेन्द्र वर्मा

आज का हाइकू (२९.१.२०१५)

खुश किसान 
धारे पीत वसन
धरा चहकी        - डी डी एम त्रिपाठी 

आज का हाइकू (२८.१.२०१५)

सच को सच
मत कहना यारो
पिट जाओगे   -महेंद्र वर्मा "धीर"

आज का हाइकू (२७.१.२०१५)
फटा कंबल
हाड़ कँपाती ठंड
बोझिल रात - पियूष द्विवेदी 

आज का हाइकू (२६. १ २०१५)
सीख दे गयी
जीवन में ठोकर
जब भी मिली  - परवीन मालिक 

आज का हाइकू (२५. १ .२०१५ )
तुम पतंग
मैं डोर बन पाता
चाँद छू आते। - शिवजी श्रीवास्तव

आज का हाइकू (२४.१.२०१५)
निर्मल मन
खुशहाल जीवन
सत्य की राह  - गिरिजालय जोशी

आज का हाइकू (२३.१.२०१५)
मोह-लालसा,
स्वर्ण मृग की खोज,
छलावा हाथ.- - दिनेश चंद पाण्डेय

आज का हाइकू (२२.१.२०१५)
बेटी व बेटा
जब होते समान
क्यों कन्यादान - शशि त्यागी 

आज का हाइकू (२१.१.२०१५)
जीवन ताप
साथ तुम्हारा जैसे
घना बादल  - रमेश उपाध्याय

आज का हाइकू (२०.१.२०१५)
मूक लाचार
पशु चाहता प्यार
जीव निस्वार्थ  - वीणा



आज का हाइकू (१८.१.२०१५)
न्याय की देवी
अन्याय की सहेली
आँखों पे पट्टी, -संदीप कुमार

आज का हाइकू (१७.१.२०१५)
रश्मि अमृत
रवि -घट छलकी
धरा जीवंत    - महिमा वर्मा

यहाँ प्रकृति का चित्रण, रूपक अलंकार का सुन्दर प्रयोग  करते हुए, किया गया है.  सूर्य को घड़ा व उसकी किरणों को अमृत की उपमा दी गयी है और सूर्य के किरणों को पाकर धरा प्रकाशित यानी जीवंत हो उठती है. जीव जंतु चहक उठते हैं व अपनी क्रिया में लग जाते हैं, पेड़ पौधे खिल उठते हैं जो धरा के जीवंत होने का परिचायक है.
-एस० डी० तिवारी  

आज का हाइकू (१६.१.२०१५)
कठघरे में
हँसता मुस्कुराता
कातिल खड़ा
- अब्दुल समाद राही


आज का हाइकू (१३.१.२०१५)
पतंग प्रिया
राह ताकें ऊँचे से
बहुरो पिया  -शिवमूर्ति तिवारी

आज का हाइकू (१४.१.२०१५)
सागर प्यासा
धरे जल अथाह
नदी नीर का         - एस० डी० तिवारी

आज का हाइकू (१५.१.२०१५)
मन छलका
बहती है कविता
न बाँध बना   -saतीश चंद गुप्ता

 आज का हाइकू (१२.१.२०१५)
सखियाँ मिली
खूब पकी खिचड़ी
रोटियाँ जली
- अभषेक जैन


 आज का हाइकू (१०.१.२०१५)
  सूनी बगिया
उड़ गए पखेरू
फिर ना लौटे       - आशा लता सक्सेना

आज का हाइकू (९.१.२०१५)
ओ मछुआरे
ढला उम्र का सूर्य
जाल समेटो      - शिवजी श्रीवास्तव

उक्त हाइकू में कवि मानव जीवन को मछुआरे की उपमा दे रहा है. जिस प्रकार शाम होने पर मछुआरे को जल समेटना होता है और घर जाने की तैयारी करनी होती है उसी प्रकार मनुष्य को बुढ़ापा आने पर घर जाने, यानी ईश्वर के पास जाने की तैयारी में सांसारिक जाल समेत कर स्वयं को उस योग्य बनाने का सन्देश देता है. इस हाइकू जो दो बिम्ब हैं एक अमुक समय हो गया और दूसरा उस समय पर किसको क्या करना है. यहाँ प्रथम व अंतिम पंक्ति दोनों ही विस्मयकारी पंक्ति (अहा के क्षण) हो सकती हैं 'ओ मछुआरे ढला उम्र का सूर्य', यहाँ पाठक के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है ढला सूर्य, तो क्या? अंतिम पंक्ति इस रहस्य को खोल देती है. इसी प्रकार पहली पंक्ति भी विस्मयकारी पंक्ति (अहा के क्षण) हो सकती है 'ढला उम्र का सूर्य, जाल समेटो' यहाँ यह जिज्ञासा उठती की यह सन्देश किसके लिए है. जो पहले ही बता दिया गया.  

एस० डी० तिवारी


आज का हाइकू (८.१.२०१५)

शिशु किलका
देख नभ में चाँद
रोटी का भान। - Ddm Tripath

आज का हाइकू (७.१.२०१५)
उड़ा के आँधी
गरीब की झोंपड़ी
रोई बहुत
.  - Rajeev Goel 
   
आज का हाइकू (६.१.२०१५)
मित्र का फ़र्ज़
सुख दु:ख का साथी
वक्त बेवक्त
-पंकज जोशी

आज का हाइकू (५.१.२०१५)
हल्कू झबरू,
एक दूजे का साथ,
पूस की रात।    - संदीप कुमार

आज का हाइकू (४.१.२०१५)
टूटती रही
विश्वास की पत्तियाँ
झूठ का पेड़   - pushpa tripathi

आज का हाइकू (३.१. २०१५)
मौन मयंक
हर्षित उड़ुगण
निशा निःशब्द - Sadhana Vaid


आज का हाइकू (२.१.२०१५)
भोर का तारा
भयभीत सा भागा
सूरज जागा      -शांति पुरोहित

1.1.2015
नूतन वर्ष 
सर्वोत्तम दिन हो 

प्रत्येक दिन  - एस डी तिवारी 

आज का हाइकू (३०.१२.२०१४)
भू के गहने
पर्वत पशु नदी
वृक्ष झरने

- गिरिजालय जोशी

आज का हाइकू (२८.१२.२०१४)
करता छल 
जाड़े में तरसाता
आम का फल   - महेंद्र वर्मा 

आज का हाइकू (२६.१२.२०१४)
चढ़ गया मैं
झुके कंधे पिता के 
बढ़ गया मैं  - शिवजी श्रीवास्तव

आज का हाइकू (२७.१२.२०१४)
गुम हो गयी 
पाक साफ़ जिंदगी 
मैं के मेले मे -कन्हैया प्रसाद तिवारी

आज का हाइकू (२५.१२.२०१४)
घमंडी सूर्य
मेघों के चंगुल मे
भूला गुरूर   - योगेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल के शेर में तुकान्त शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर समाप्त होता हो।
ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाहे वैत कहा जाता है। ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को दीवान कहते हैं जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो। उर्दू का पहला दीवान शायर कुली कुतुबशाह है।
ग़ज़ल के प्रकार
तुकांतता के आधार पर ग़ज़लें दो प्रकार की होती हैं-
मुअद्दस ग़जलें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में रदीफ़ और काफ़िया दोनों का ध्यान रखा जाता है।
मुकफ़्फ़ा ग़ज़लें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में केवल काफ़िया का ध्यान रखा जाता है।
भाव के आधार पर भी गज़लें दो प्रकार की होती हैं-
--
मुसल्सल गज़लें-
जिनमें शेर का भावार्थ एक दूसरे से आद्यन्त जुड़ा रहता है।
ग़ैर मुसल्सल गज़लें-
जिनमें हरेक शेर का भाव स्वतन्त्र होता है।
ग़ज़लों का आरम्भ अरबी साहित्य की काव्य विधा के रूप में हुआ। अरबी भाषा में कही गयी ग़ज़लें वास्तव में नाम के ही अनुरूप थी अर्थात उसमें औरतों से बातें या उसके बारे में बातें होती थी।



यमाताराजभानसलगा 


1. बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212
 
ये चमन ही अपना वुजूद है इसे छोड़ने की भी सोच मत
नहीं तो बताएँगे कल को क्या यहाँ गुल न थे कि महक न थी
——————————————–
2. बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22
 
प्या ‘स’ को प्या ‘र’ करना था केवल
एक अक्षर बदल न पाये हम
——————————————–
3. बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन
221 2122 221 2122
 
जब जामवन्त गरजा, हनुमत में जोश जागा
हमको जगाने वाला, लोरी सुना रहा है
 ——————————————–
4. बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़यलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
 
भुला दिया है जो तूने तो कुछ मलाल नहीं
कई दिनों से मुझे भी तेरा ख़याल नहीं
 ——————————————–
5. बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
 
क़िस्मत को ये मिला तो मशक़्क़त को वो मिला
इस को मिला ख़ज़ाना उसे चाभियाँ मिलीं
 ——————————————–
6. बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122
 
कहानी बड़ी मुख़्तसर है
कोई सीप कोई गुहर है
——————————————– 
7. बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
 
वो जिन की नज़र में है ख़्वाबेतरक़्क़ी
अभी से ही बच्चों को पी. सी. दिला दें
 ——————————————–
8. बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
122 122 122 12
 
इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी
 ——————————————–
9. बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212
 
सीढ़ियों पर बिछी है हयात
ऐ ख़ुशी! हौले-हौले उतर
 ——————————————–
10. बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आख़िर
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
212 212 212 2
 
अब उभर आयेगी उस की सूरत
बेकली रंग भरने लगी है
——————————————– 
11. बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212
 
जब छिड़ी तज़रूबे और डिग्री में जंग
कामयाबी बगल झाँकती रह गयी
 ——————————————–
12. बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 22
 
बड़ी सयानी है यार क़िस्मत, सभी की बज़्में सजा रही है
किसी को जलवे दिखा रही है कहीं जुनूँ आजमा रही है
 ——————————————–
13. बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212
 
ये नस्ले-नौ है साहिबो
अम्बर से लायेगी नदी
 ——————————————–
14. बहरे रजज़ मुसद्दस मख़बून
मुस्तफ़इलुन मुफ़ाइलुन
2212 1212
 
क्या आप भी ज़हीन थे?
आ जाइये – क़तार में
 ——————————————–
15. बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212
 
मैं वो नदी हूँ थम गया जिस का बहाव
अब क्या करूँ क़िस्मत में कंकर भी नहीं
 ——————————————–
16. बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
 
उस पीर को परबत हुये काफ़ी ज़माना हो गया
उस पीर को फिर से नयी इक तरजुमानी चाहिये
 ——————————————–
17. बहरे रमल मुरब्बा सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122
 
मौत से मिल लो, नहीं तो
उम्र भर पीछा करेगी
 ——————————————–
18. बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22
 
सनसनीखेज़ हुआ चाहती है
तिश्नगी तेज़ हुआ चाहती है
 ——————————————–
19. बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 212
 
अजनबी हरगिज़ न थे हम शह्र में
आप ने कुछ देर से जाना हमें
 ——————————————–
20. बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
 
ये अँधेरे ढूँढ ही लेते हैं मुझ को
इन की आँखों में ग़ज़ब की रौशनी है
 ——————————————–
21. बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 21222 212
 
वह्म चुक जाते हैं तब जा कर उभरते हैं यक़ीन
इब्तिदाएँ चाहिये तो इन्तिहाएँ ढूँढना
 ——————————————–
22. बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़यलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
 
गोया चूमा हो तसल्ली ने हरिक चहरे को
उस के दरबार में साकार मुहब्बत देखी
 ——————————————–
23. बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]
फ़यलात फ़ाइलातुन फ़यलात फ़ाइलातुन
1121 2122 1121 2122
 
वो जो शब जवाँ थी हमसे उसे माँग ला दुबारा
उसी रात की क़सम है वही गीत गा दुबारा
 ——————————————–
24. बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
 
कल अचानक नींद जो टूटी तो मैं क्या देखता हूँ
चाँद की शह पर कई तारे शरारत कर रहे हैं
 ——————————————–
25. बहरे हज़ज मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122
 
हवा के साथ उड़ कर भी मिला क्या
किसी तिनके से आलम सर हुआ क्या
 ——————————————–
26. बहरे हज़ज मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222
 
हरिक तकलीफ़ को आँसू नहीं मिलते
ग़मों का भी मुक़द्दर होता है साहब
 ——————————————–
27. बहरे हजज़ मुसमन अख़रब मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़ 
मफ़ऊल मुफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
 
आवारा कहा जायेगा दुनिया में हरिक सम्त
सँभला जो सफ़ीना किसी लंगर से नहीं था
 ——————————————–
28. बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
 
हम दोनों मुसाफ़िर हैं इस रेत के दरिया के
उनवाने-ख़ुदा दे कर तनहा न करो मुझ को
 ——————————————–
29. बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्फूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
 
ख़ूब थी वो मक़्क़ारी ख़ूब ये छलावा है
वो भी क्या तमाशा था ये भी क्या तमाशा है
 ——————————————–
30. बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़
फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
212 1212 1212 1212
 
लुट गये ख़ज़ाने और गुन्हगार कोइ नईं
दोष किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं
 ——————————————–
31. बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
 
गिरफ़्त ही सियाहियों को बोलना सिखाती है
वगरना छूट मिलते ही क़लम बहकने लगते हैं
 ——————————————–
32
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
 
मुझे पहले यूँ लगता था करिश्मा चाहिये मुझको
मगर अब जा के समझा हूँ क़रीना चाहिये मुझको
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''Wake up, my heart ! This world is no place  to sleep
Among these ruins, it's not proper to sit
safe and secure.
Why ask the drowsy  sleepers what it's like,
that sweet sleep for which there is no answer?
In the grave,no friend feigns faithfulness.
only in the ruins beneath the dust
can the weary dwell content.

Since the drunk do not know time's tyrannies,
nothing's better for the sober than wine
and a simple meal.
It's wrong to ask life's savour from heaven,
or piddling cup that holds no proper hope.
Saqui , send round to Khusrau, a drop
from the goblet of love,
for there is no headier wine than that.''
                                                 Khusrau
2)
Ghazal 1148
'' Stealthly he came through my door last night,
hair like a thief's lasso strung over his shoulders.
I stumbled  to my feet, lost my footing,
and fell faint when he sat down.
Gazing on his beauty, I was stunned
and laid waste, swooning and drunk.
His bewitching , half-intoxicated eyes:
gazelle  fawn in a rabbit sleep.

Whosoever sees you for just one day
forgets the Kingdom  of this world and the next,
without you, nectar turns  to nettles, 
and nettles  turn to nectar in your hand.
Put a ring in Khusrau's ear,
He is your slave and heeds your call.'' 





शत्रु बनाती
अमर्यादित वाणी
तोल के बोल

सिमटे वृक्ष
मिजाज हवाओं के
गए बदल

- गिरिजालय जोशी 


वर्षा की बूँदें / सुवासित कर दें / शुष्क धरा को ! के स्थान पर 
शुष्क धरती
सुवासित हो जाती 
वर्षा कि बूंदे 

सुझाव 
असंख्य तारे
बिखरे अम्बर में
अकेला चाँद

आपके आदेशानुसार अपने चंद हाईकू आपके पास भेज रही हूँ !

भस्म हुई मैं / जग ज्योतित कर / दीपशिखा सी /                                                                   
भस्म हो गयी
जग ज्योतित कर 
दीपशिखा भी 




Posted by S. D. Tiwari at 04:50 No comments:
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