गर अधूरी
बिलवा दे पापड़
मन की चाह
चाह न जागे
वैभव देखकर
मन की जीत
तैरें सपने
मानो मन हो गया
तरणताल
दबा बेचारा
सिर पर रख के
कर्ज का भार
लगा रहता
माँ का कोमल मन
बस उसी में
बिना पंख के
मन भरे उड़ारी
तारों के पार
धन अभाव
मन की बड़ी चाह
पड़ा कष्ट में
मोक्ष तो चाहे
मरने से डरता
मन बावरा
जेब है खाली
भोजन भी मंहगा
भूख बड़ी है
मन का पंछी
पिंजरे में जकड़ा
उड़ान ऊँची
बस के बनी
मेरे मन मंदिर
प्रेम की देवी
आएगा अब
जाने वो कब तक
मन उदास
कह लेने दो
मन हल्का हो जाय
मन की बात
मन में तम
बाहर उजियारा
अंधे के सम
दिखा देता है
भले बुरे कर्मों को
मन दर्पण
सावन आया
साजन नहीं आया
मन में आग
सावन माह
मन की ऊँची पेंग
नव दम्पति
चूम लेने को
जी चाहे बार बार
नन्हा सा शिशु
मन में रहे
घनघोर अँधेरा
ज्ञान के बिना
मन की इच्छा
जीतनी न्यूनतम
जन को अच्छा
छोड़ आया मैं
घुंघराली जुल्फों में
चित्त अपना
इतनी भाई
हिमालय की वादी
अकेला लौटा
मन वश में
जीवन हो यश में
गीता का ज्ञान
मनमोहन
मोहा राधा मीरा को
व मेरा मन
प्रेरणा देती
ढूंढने हेतु राह
मन की चाह
दर्द ही ढोता
मनुष्य जो रखता
मन में गांठ
सबसे बड़ा
जिसकी जरूरत
सबसे कम
उसका होता
मन मैल जो धोता
स्वच्छ जीवन
दिखलाता अपने
मन दर्पण
मन ले ख़ुशी
सज धज के चली
पिया की गली
धारण करे
काम क्रोध व लोभ
मन बीमार
ध्यान व ज्ञान
करने के हैं तंत्र
काबू में मन
मन पे काबू
सुन्दर जीवन का
उत्तम जादू
दाम ना कौड़ी
मन खाने को दौड़े
गर्म फुलौड़ी
पाप की काई
मन पे तो ले जाता
गहरी खाईं
छाने ना पाय
मन पर विकार
करो उपाय
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