दिल और शीशा
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एस. डी. तिवारी
कौन नासमझ! दिल को कहता है शीशा।
अरे दिल तो है दिल औ शीशा है शीशा।
खा खाकर के चोट, खंड होता है दिल,
पड़े चोट एक, टूट जाता है शीशा।
सिसकता किये बिन आवाज टूटा दिल,
गिरता जब चीख मार रोता है शीशा।
तड़पता दिल टूट कर अपने ही दर पर,
चटक करके दूर तक, छिटकता है शीशा।
सह लेता टूटा दिल, चुपके ही पीर को,
दर्द औरों को चुभ के देता है शीशा।
भटकता है टूटा दिल, मिल जाय राह उसे,
राह से हटाते जब, टूटता है शीशा।
होता 'देव' टूटा दिल, टूट के तार तार,
आंच पर पिघल फिर से, जुड़ता है शीशा।
एस. डी. तिवारी
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