Saturday, 24 January 2015

Dil ho ya sheesha - ghazal दिल हो या शीशा

दिल और शीशा


कौन नासमझ! दिल को कहता है शीशा। 
अरे दिल तो है दिल औ शीशा है शीशा। 

खा खाकर  के चोट, खंड होता है दिल, 
पड़े चोट एक, टूट  जाता है शीशा। 

सिसकता किये बिन आवाज टूटा दिल,  
गिरता जब चीख मार रोता है शीशा। 

तड़पता दिल टूट कर अपने ही दर पर,
चटक करके दूर तक, छिटकता है शीशा। 

सह लेता टूटा दिल, चुपके ही पीर को,
दर्द औरों को चुभ के देता है शीशा। 

भटकता है टूटा दिल, मिल जाय राह उसे, 
राह से हटाते जब, टूटता है शीशा

होता 'देव' टूटा दिलटूट के तार तार,
आंच पर पिघल फिर से, जुड़ता है शीशा। 

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एस. डी. तिवारी 

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