आदमी में मजे से आग, लगा देता है आदमी।
आदमी में लगी आग से, मजा लेता है आदमी।
धधकने लग जाती कहीं पे, लगायी वो उसकी आग,
आंच की ठंडक में उसकी, जुड़ा लेता है आदमी।
जो नहीं लगाता आग वह, होता कहाँ किसी से कम,
आग को लगायी और की, हवा देता है आदमी।
आग लगाने के जुनून में, जले चाहे घर किसी का,
सेंक उस पर अपनी रोटी, पका लेता है आदमी।
आग लगाने का खेल कुछ, सुहाता उसको इस तरह,
जिंदगी लगा बुझा कर ही, बिता लेता है आदमी।
आग लगाने की कइयों की, एक फितरत ही होती,
खेल में इस कभी खुद को भी, जला लेता है आदमी।
लगी आग घर में और के, उसे लगती है आतिशी,
'देव' खुद के घर लग जाये, छटपटाता है आदमी।
- एस. डी. तिवारी
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