कविता की चिंगारी
कविता की चिंगारी को, मशाल बनाकर मानूंगा।
शब्दों को गूँथ माला, कमाल बनाकर मानूंगा।
दिखलायेगी राह प्रीति की, ऐसी जयोति जलाऊंगा।
तम, उर के निकाल, दिलों में प्रकाश मैं भर जाऊंगा।
चल पड़े जो शांति, अहिंसा और विकास के पथ पर,
युवा शक्ति को प्रेम का, भूचाल बनाकर मानूंगा।
सूरज के उगते ही और कमलदल खिलते ही।
दिन भर के आये नए विचार, शाम के ढलते ही।
लेकर कलम शब्दों में ढाल, साहित्य के सागर में,
सुन्दर सी एक नाव विशाल, बनाकर मानूंगा।
वही बोलूंगा, जो कुछ देखूंगा, झांक कर निडर मैं।
गाड़े हुए सब लोक विरुद्ध, उन कार्य कलापों को,
खोद डाले जड़ से जो, कुदाल बनाकर मानूंगा।
शब्दों को जोड़ तोड़ कर, और कुछ मीठे रस भर।
वेदना और संवेदना की गहराई तक जाकर।
जीवन के सभी पहलुओं और दिलों को छूकर,
कविता को जीवन का सुर ताल बनाकर मानूंगा।
भूत को टटोलते, भविष्य के गर्भ में झांककर।
सोच की गहराई में डूब, भाव को निकालकर।
अंतरिक्ष के पार तक, झांकने की खिड़की खोल,
दिव्यदृष्टि दूरबीन विकराल बनाकर मानूंगा।
शत्रु, सीमा पार से यदि, आँख कभी दिखलाता है।
बिना बात हमारे प्रहरी को, युद्ध हेतु उकसाता है।
शौर्य भर दूँ वीरों में, विजय पताका फहराएंगे,
कविता को अपनी, अरि का काल बनाकर मानूंगा।
शब्दों के तीर से यदि, दिल कोई आहत होगा।
छंदों के प्रभाव से हृदय के घाव में राहत होगा।
समाज में नफ़रत की कोई आग अगर फैलाये,
छंद, घृणा से बचने का ढाल बनाकर मानूंगा।
कल्पनाओं से दिखाऊं, जन जन को सृष्टि सारी।
अलख जगा दूँ प्रेम का, हो जाये दुनिया प्यारी।जीवन में मिठास हो सबके, मोहक संगीतों का,
गीतों को अपने, मृदंग झाल, बनाकर मानूंगा।
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