Thursday, 12 July 2018

Bheed tantra


भीड़ तंत्र

भीड़ ने निर्णय ले लिया है।
उसे मृत्यु की सजा दे दिया है।
पीट पीट कर मारना है।
दया नहीं स्वीकारना है।
दलील की सुनवाई नहीं,
चिल्लाता रहा मेरी खता नहीं।
वह अपराधी है कि नहीं?
किसी को सही पता नहीं।
भेंड़ हैं कि भीड़ है!
एक को देख लिया था।
आँख, कान सब मूंद करके,
आत्मा को भीड़ में फेंक दिया था।

कोई मुँहनोचवा कहता,
कोई बच्चा चोर, तो बलात्कारी कह के;
कोई गो हत्या का दोषी मान,
पीट रहा था, रह रह के।

कुछ एक के मन में द्वन्द था।
मगर उनका भी मुंह बंद था।
जो हो रहा, क्या वह अपराध नहीं है?
क्या मानवता की छाप यही है?
तेवर इतना प्रचंड क्यों?
दोष सिद्ध हुए बिना, दण्ड क्यों?
प्रश्न मन में गूंज रहे थे।
साहस नहीं उनसे पूछें,
स्वयं से ही पूछ रहे थे।
वह तो भीड़ थी,
ये डर  से ओत प्रोत थे।
इतनी बड़ी ज्वाला समक्ष,
मात्र नन्हाँ खद्योत थे। 

पुलिस अपने काम की अभ्यस्त थी।
वहां थी, पर तटस्थ थी।
आग बुझने के प्रतीक्षा में थी,
घटना देखने में व्यस्त थी।
ये नहीं सोचना कि लापरवाही होगी।
काम में नहीं कोताही होगी।
बाद में कार्यवाही होगी।
कुछेक को पकड़, वाहवाही होगी।

उसे जान बचाना समस्या हो गयी।
बेचारे की हत्या हो गयी।

अब समाचार बनेगा,
राजनीति की क्रीड़ा होगी।
सांत्वना के आंसू से धुलती,
उसके परिवार की पीड़ा होगी। 

प्रशासन अधमरा है,
या ऐसी ही परंपरा है?
गुंडा तत्व के आगे,
आखिर अस्त्र क्यों धरा है?
सब  समाप्त हो जाने पर,
विचारक अब सोच रहे हैं। 
उत्तर नहीं मिल पा रहा,
अपना सिर नोच रहे हैं।

एस. डी. तिवारी 




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