तू जब चाहे, तभी मिलती है।
अपने में ही रमी मिलती है।
मैं चाहता रोज रोज तुझको,
तू है कि कभी कभी मिलती है।
डोलती कभी उलझनें लेकर,
झंझटों में फंसी मिलती है।
खो जाती है जाने कहाँ तू,
झमेलों में घिरी मिलती है।
कभी पंख सी हवा में उड़ती,
बर्फ सी कभी जमी मिलती है।
कभी फूलों के संग महकती
कभी शूल में अटकी मिलती है।
कभी भटकती अज्ञात डगर पर
कभी थकी ठहरी मिलती है।
कभी हाट बाजारों में घूमती,
राहतें ढूंढती मिलती है।
क्यों नहीं रोजाना तू मुझको,
ऐ मेरी जिंदगी! मिलती है?
सत्य देव तिवारी, एडवोकेट
राम
जिंदगी कितनी बदल गयी है
लगता है, हाथ से निकल गयी है।
जिंदगी तू कितना बदल गयी है।
मशीनों की अब दास हो गयी तू।
समझ रही बिंदास हो गयी तू।
तन मन खुद आसक्त कर रही,
वातावरण विषाक्त कर रही।
आडम्बर में खुद को छल गयी है। जिंदगी ...
टी. वी. फोन तक सिमट गयी तू।
भौतिकतावाद में लिपट गई तू।
निर्मूल की बातों के चक्कर में,
रहती बंधु, मित्रों के टक्कर में।
बचपन तक को मसल गयी है। जिंदगी ...
गुरु, श्रेष्ठ जनों से ज्ञान पा लेती,
सहज खा पीकर समय बिता लेती।
तू सादगी में लगती थी सुन्दर,
क्यों ढो रही सिर पे आडम्बर?
फैशन के लिए मचल गयी है। जिंदगी ...
आलस, रोग से दूर थी रहती।
प्रकृति प्रेम में चूर तू रहती।
सच्चाई से पड़ी है भटकी।
आपाधापी में रह गयी अटकी?
सुख-चैन खुद ही निगल गयी है। जिंदगी ...
चारों ओर से कांटे फंसाकर,
सुविधा की गाड़ी पर चढ़ा कर,
जिंदगी अब तू खींची जा रही,
फिर भी आँखें मिंची जा रही।
किस दलदल में फिसल गयी है! जिंदगी ….
स्वभाविक गति से चलती जा रही थी।
शान से आगे बढ़ती जा रही थी।
पड़ गयी जाने तू किस दौड़ में!
शीघ्र पहुँचने की कहाँ, होड़ में!
खो कहाँ तेरी मंजिल गयी है। जिंदगी …
एस डी तिवारी
उर्मिला
उर्मिला उरमिला, खिलखिलाने लगी ।
कष्ट चौदह बरस के, भुलाने लगी।
हो चली ख़त्म, चौदह वरष की विरह,
नैन राहों, पिया के, बिछाने लगी।
उरमिला, उर्मिला का, सदा यूं रहा,
देख आँखे, लखन को जुड़ाने लगीं।
खो दिया जिंदगी की, सुनहरी घडी,
फल मधुर हर एक पल का पाने लगी।
बीत कैसे गया, रह अकेले समय,
याद करके व्यथा, सब बताने लगी।
सींच डाली चमन, प्यार में शुष्क मन,
कुम्हलाये गुलों को खिलाने लगी।
बुझ चुके सब दिवे, हृद के जल गये,
रोशनी से दिवाली मनाने लगी।
५.
कलियों सी खिल जाती, वो इठलाती थी।
अंजानी थी, फिर भी मिलने आती थी।
रुन झुन करती, बजती जब पायल उसकी,
मधु सी मीठी, कानों में घुल जाती थी।
घर का द्वार खुला रह जाता, जब जब भी,
उड़न परी सी, वह घर में घुस जाती थी।
इत्र न फूल लगाती, पर खुशबू उसकी,
मेरे घर की, मंद हवा महकाती थी।
बाँहों में बंधी, आलिंगन पाश मुझे,
रेशम ढेरी का, एहसास कराती थी।
छुप भी पाता तो कैसे, मिलना उससे,
मेरे कपड़ों में, दाग लगा जाती थी।
कह जाती दिल की, पर जब तुतलाती थी,
समझ न आती, फिर भी अतिशः भाती थी।
कुछ काल अभी संग, व्यतीत कर पाता,
उसकी माँ आ, बांह पकड़ ले जाती थी।
६.
उनकी मशहूरी ने हमें, बेगाना बना दिया।
उनको तो ज़माने का नजराना बना दिया।
अपने फन में, हुए वो मसगूल कुछ ऐसे;
उन्हें, उनकी फनकारी का दीवाना बना दिया।
गुजरे वक्त ने उन्हें कर दिया, मशहूर इतना;
मुद्दत की उल्फत को बचकाना बना दिया।
पहले तो पकड़ लेते थे, कभी डोर उनकी;
कटी पतंग सी उन्हें अब, जमाना बना दिया।
घूमते रहे हम, पीछे-पीछे, महफ़िल-महफ़िल;
उनकी महफ़िलों का हमें, परवाना बना दिया।
ढूंढते रहते हैं उन्हें अब, बीमार दिल को लिए;
मालूम पड़ता है, उनको दवाखाना बना दिया।
कैसे कहें कि वो केवल हमारे हैं एसडी;
फन की दाद ने, गैरों में ठिकाना बना दिया।
खोये पल
कहाँ से लाऊँ ढूंढ कर के, वो खोये पल।
लगता कोई सपना देखा ज्यों बीते कल।
'अपनी ऑंखें बंद कर लो' ये बोलना,
'हाँ, अब खोलो' कहके, मुट्ठी खोलना।
गर्मियों की वो बर्फ सी अब गए हैं पिघल।
कहाँ
से लाऊँ ढूंढ कर के, वो खोये पल।
बाँहों में बाहें डाल के, चलना अपना साथ,
हँसना कह किसी की, कोई भी ले के बात।
करते संग मस्तियाँ, जाते थे दिन ढल।
कहाँ
से लाऊँ ढूंढ कर के, वो खोये पल।
पीछे से आकर मेरी, ऑंखें मूंद देना,
‘मैं हूँ कौन' बोलो, तुम्हारा पूछ लेना।
नाम
तुम्हारा लेकर, हम हाथ लेते धर।
कहाँ
से लाऊँ ढूंढ कर के, वो खोये पल।
खाते संग दोनों, आइसक्रीम, पानी-पूरी,
झुरमुट में बैठ करते, बातें, पर अधूरी।
लगता था पल बस भर, घंटों जाते निकल।
कहाँ
से लाऊँ ढूंढ कर के, वो खोये पल।
श्रमिक
पत्थर तोड़कर भी,
नाम मिला ना दाम मिला।
बस छोटा सा काम मिला।
सर्दी व
बारिश गहरी में,
गर्मी की दोपहरी में,
कभी सड़क बनी, कभी महल बना,
तनिक नहीं आराम मिला। बस छोटा सा ...
इतना सारा परिश्रम कर,
कमा पाता बस पेट भर,
झोपड़ों में करता है बसर,
उसको न
अपना धाम मिला। बस छोटा सा ...
बीमारी उसकी हवा हो जाती,
पसीने से ही दवा हो जाती,
श्रम के धन पर इतराता;
खाने को नहीं हराम मिला। बस छोटा सा ...
हाथ का लिए भरोसा भागे,
फैलाता ना किसी के आगे,
संतुष्टि उसके मन से झांके,
पर झंझट और झाम मिला। बस छोटा सा ...
डूबने को रंग में
एक दिन दे दे सजन, डूबने को रंग में।
धूप खिले, फूल खिले, आमों पर बौर लगे,
मौसम हसीन लगे, ऋतु बसन्त में।
एक दिन ...
लाल लाल गाल है, लाल ही गुलाल है,
हरी मेरी चुनरी, उड़ी हवा के संग में।
एक दिन ...
खेलूंगी होली खूब, रंगो में भीग भीग,
लाजो लिहाज छोड़, होली की उमंग में।
एक दिन ...
भर पिचकारी रंग, डालूंगी आज सजन,
हर मतवाले पर, होली की हुड़दंग में।
एक दिन ...
तू जिस रंग ढला, मैं भी तेरे संग ढली,
आज भी लगा दे पिया, रंग मेरे अंग में।
एक दिन ...
कविता की चिंगारी
कविता की चिंगारी को, मशाल बनाकर मानूंगा।
शब्दों को गूँथ माला, कमाल बनाकर मानूंगा।
दिखलायेगी राह प्रीति की, ऐसी जयोति जलाऊंगा।
तम, उर के निकाल, दिलों में प्रकाश मैं भर जाऊंगा।
चल पड़े जो शांति, अहिंसा और विकास के पथ पर,
युवा शक्ति को प्रेम का, भूचाल बनाकर मानूंगा।
सूरज के उगते ही और कमलदल खिलते ही।
दिन भर के आये नए विचार, शाम के ढलते ही।
लेकर कलम शब्दों में ढाल, साहित्य के सागर में,
सुन्दर सी एक नाव विशाल, बनाकर मानूंगा।
राजनीति के दलदल, और कुशासन के घर में।
वही बोलूंगा, जो कुछ देखूंगा, झांक कर निडर मैं।
गाड़े हुए सब लोक विरुद्ध, उन कार्य कलापों को,
खोद डाले जड़ से जो, कुदाल बनाकर मानूंगा।
शब्दों को जोड़ तोड़ कर, और कुछ मीठे रस भर।
वेदना और संवेदना की गहराई तक जाकर।
जीवन के सभी पहलुओं और दिलों को छूकर,
कविता को जीवन का सुर ताल बनाकर मानूंगा।
भूत को टटोलते, भविष्य के गर्भ में झांककर।
सोच की गहराई में डूब, भाव को निकालकर।
अंतरिक्ष के पार तक, झांकने की खिड़की खोल,
दिव्यदृष्टि दूरबीन विकराल बनाकर मानूंगा।
शत्रु, सीमा पार से यदि, आँख कभी दिखलाता है।
बिना बात हमारे प्रहरी को, युद्ध हेतु उकसाता है।
शौर्य भर दूँ वीरों में, विजय पताका फहराएंगे,
कविता को अपनी, अरि का काल बनाकर मानूंगा।
शब्दों के तीर से यदि, दिल कोई आहत होगा।
छंदों के प्रभाव से हृदय के घाव में राहत होगा।
समाज में नफ़रत की कोई आग अगर फैलाये,
छंद, घृणा से बचने का ढाल बनाकर मानूंगा।
कल्पनाओं से दिखाऊं, जन जन को सृष्टि सारी।
अलख जगा दूँ प्रेम का, हो जाये दुनिया प्यारी।
जीवन में मिठास हो सबके, मोहक संगीतों का,
गीतों को अपने, मृदंग झाल, बनाकर मानूंगा।
ताई कितनी भोली है
ताई! तू कितनी भोली है
घर में मेरे, प्रेम मधुर रस, तूने ही तो घोली है। ताई ...
जिम्मेदारी की चादर ओढ़े तू।
रखती है परिवार को जोड़े तू।
बच्चों से रुखा हो जाती तो,
माँ की भी एक ना छोड़े तू।
कुटुंब के एक एक जन की, लगती तू हमजोली है। ताई ...
माँ कौशिल्या सी रहती है तू।
राम, भरत को समझती है तू।
देवरानी के जाये बच्चों से,
उतना ही प्यार करती है तू।
बच्चों के लिए बराबर, ममता का द्वार खोली है। ताई ...
भोर को, लगता तू ही जगाती।
होते सुबह काम में लग जाती।
तुझे बच्चों के स्कूल की चिंता,
पुचकार, उन्हें नाश्ता करवाती।
प्यार भरी कोयल के जैसी, मीठी तेरी बोली है। ताई ...
दादी के जैसा, दबंग दिखती तू।
न्याय की कोई मूर्ति लगती तू।
बाँट-बखरा में औरों का ख्याल,
अपनों से कहीं, ज्यादा रखती तू।
घर की हर बात को तू तो, प्यार के तराजू तोली है। ताई ...
गांव से शहर
अपनापन हो गया दूर, गांव से शहर आ गए।
बचपन बड़ा था मगरूर, गांव से शहर आ गए।
नीले आसमान को फांद, चले आते सूरज चाँद,
टिमटिम तारों की त्याग, चमकती लहर आ गए।
चिड़ियों की चीं चीं नहीं, में बकरी की कहीं,
और न मेढक की टर्र, जाने किस डहर आ गए।
तज; कोयल के गान, गेहूं, सरसों की मुस्कान,
जगाता मुर्गे की बांग, रोजाना सहर, आ गए।
छूटा नदी का कूल और मिला न स्विमिंग पूल,
कहाँ मन महकाते फूल? कौन से ठहर आ गए?
पेड़ की ठंडी छाँव, चू कर गिरे रसीले आम;
पीने, छोड़ अपने गांव, धुएं का जहर आ गए।
संस्कार से परे, मन महँगी कार की मंशा धरे,
बासी खाने डिब्बा बंद. खड़ी दोपहर आ गए।
वास्तविकता को छोड़, दिखावे का चोला ओढ़,
अपनी खुद सुध बुध पर, ढाने कहर आ गए।
सपने को मरते देखा
मैंने सपने को मरते देखा,
माटी में कहीं बिखरते देखा।
सपने लेकर वह जन्म लिया,
या जनमते ही सपने जागे,
देश दुनिया में कहीं भी जाये,
सबसे सदैव ही आगे भागे।
उसको निर्धनता का अभिशाप,
औरों का भाग्य सुघरते देखा।
खेतों में काम, कर के घर आता,
जाके कहीं तब, स्कूल वो जाता;
मात पिता के साथ में मिल कर,
घर के काम में हाथ बंटाता।
खूंटे से कभी जब खुल गया तो,
बछड़े को पछाड़ धरते देखा।
स्कूल में तो प्रथम आ जाता,
आगे की राह कौन दिखाता !
बाहरी दुनिया का पता नहीं था,
स्कूल से आगे कहाँ वो जाता !
प्रशिक्षण को पैसा पास नहीं,
धन का अभाव अखरते देखा।
लगे नजर ना उसे किसी की,
बांधा था माँ ने काला धागा।
लाल, श्रृंग को छूकर आये,
देवी, देवों से मन्नत माँगा।
उड़ने को मिला आकाश नहीं,
पंखों को पुनः बटुरते देखा।
सोचा, हो जाये पुलिस में भर्ती,
संभवतः वहीँ भाग्य भी जागे।
दौड़ लेगा वह चोरों के पाछे,
दौड़ सकता जो देश के आगे।
प्रतिभा बड़ी पर कद छोटा था,
खुलने से द्वार नकरते देखा।
माटी का जन्मा रहा माटी में,
प्रतिभा भी हो गयी मटियामेट।
माटी को कर दिया जीवन अर्पित,
सपनों को रखा माटी में समेट।
गेहूं बाली, सरसों के फूलों पर,
मकरंद के संग विचरते देखा।
उर भरा सदा उत्साह, लगन,
और विजय का पावक होता।
सपनों को हवा मिल जाती तो,
वह आज देश का धावक होता।
हताश, निराशा हाथ में लेकर,
आस को ताक पर धरते देखा।
निःसन्तान
सातवीं होली भी बीत गयी,
गर्मी, बरसात, शीत गयी।
इसकी गोद अब भी खाली,
बोल जाती, हर गांव वाली।
उम्मीद की किरण अस्त हो गयी।
सुन सुन कर वो त्रस्त हो गयी।
भांति भाँति की बातें होतीं,
क्या करे! सोच के पस्त हो गयी।
छोटी, बड़ी, जो आती, कह जाती।
करती भी क्या! बेचारी सह जाती।
खुद के अंदर ही, कमी लगती,
होठों को सिले ही, वो रह जाती।
पिछले जन्म का अवश्य पाप है।
किसी महात्मा का अभिशाप है।
पास पड़ोस या सगे सम्बन्धी,
रोज रोज का एक ही अलाप है।
व्याह में गोद भराई ना की होगी।
आँचल में बालक ना ली होगी।
देवता देवी का विचार न होगा,
अष्टमी का व्रत ना की होगी।
कोई कहता, प्रभु की माया है।
कोई कहता, ये ऊपरी साया है।
कोई किसी का किया बताता,
कोई कहता, प्रेतों की छाया है।
एक तो गोद खाली का मलाल।
ऊपर से लोगों के तानों का जाल।
दूसरों को आखिर क्या लेना देना,
सुर बिगड़ते, देते अपनी ताल।
पंडित जी ने कहा, मेरी मानो।
रोजाना कुत्ते को रोटी डालो।
पड़ोस वाली ताई ने बताया,
बालकनाथ के दरबार जा लो।
ज्योतिषी ने बताया, ग्रहों का दोष।
कोई कहता, ईश्वर का संयोग।
निवारण होगा, कर घोर तपस्या,
अपूर्ण स्त्री सा उसे आंकते लोग।
मंदिर में हर दिन दीप जलाओ।
जाकर, कहीं झाड़ फूंक कराओ।
बस नन्दोई जी ही कहते,
कहीं ठीक से इलाज कराओ।
एक जान थी, क्या क्या करे।
किसकी करे, किसे मना करे।
जो कुछ सुनती, करती गयी,
मजबूर, क्या हां, क्या ना करे।
कोख के लिए, कुछ भी करती।
जाना होता तो पहाड़ भी चढ़ती।
औलाद की चाहत बेशक मन में,
दुनिया की बोली ज्यादा खलती।
एक अजनबी साधु ने बोला,
बलि दिए बिन, कुछ न होगा।
पिछले जन्म के शाप का परिणाम,
बलि देकर ही, निदान होगा।
मक्कार! ऐसे क्या पाप कटेगा!
पाप करके, पाप घटेगा!
ऐसों को तो जेल भेज दो,
तेरा ये उपदेश वहीँ जमेगा।
सास भी बेटे को चढ़ा रही थी।
नादानी का पाठ पढ़ा रही थी।
वंश चलने का वास्ता देकर,
दूसरे व्याह को बढ़ा रही थी।
बीतते ही, वो आठवीं होली।
उल्टी हुई, जा सास से बोली।
आव भाव देख, भांप ली सास,
वाह, बहू! तू तो पेट से हो ली।
डॉक्टर आयी, माथापच्ची की।
सबके संशय को नक्की की।
बताई, बनने वाली है, ये माँ
व्याह के समय, यह बच्ची थी।
महानगर की शाम
महानगर की शाम का अपना ढंग होता है।
काली रातों में निराला रंग होता है।
जमीन पर सितारे, धुएं में अनंत होता
है।
बाजारों में रौनक, होटलों में उमंग
होता है।
ढूंढ रहा कोई किसी का संग होता है।
मायूस! जिसका बटुआ तंग होता है।
महानगर में मन रंगीन हो जाता
शाम होने पर,
दोस्त मिल जाते हाथ में जाम होने पर,
भाव होता दाम होने पर,
दुआ सलाम होती काम होने पर,
धाक होती बड़ा धाम होने पर.
किसी को कोई जानता नाम होने पर,
भीड़ जुट जाती झाम होने पर,
दोस्त भी दूर हो जाते, तमाम होने पर।
काम के चक्कर में,
आठ दस घंटे की जेल होती।
दिन भर की कैद से शाम को ही बेल होती।
यातायात में सरकती कैब होती।
पल पल बदलती लेन होती।
चालन निकाल रही तेल होती।
गंतव्य तक पहुँचने में बुद्धि फेल
होती।
शाम तलक सबकी हालत,
हो जाती है खस्ती।
शाम होने पर, आती थोड़ी चुस्ती।
क्योंकि कहीं महँगी, कहीं सस्ती,
बिकने लगती है मस्ती।
रफूचक्कर हो जाती,
दिन भर की सुस्ती।
अँधेरे में ही रूबरू होतीं,
बड़ी बड़ी हस्ती।
किसी की रोती,
किसी की किस्मत हंसती।
करने में मौकापरस्ती,
कालिख पोत लेती बस्ती।
सबके सामने पैसा कमाने का सवाल होता।
पैसे के लिए, क्या क्या कमाल होता!
कोई बना दलाल होता,
कोई चल रहा कुटिल चाल होता,
कोई डाल रहा फांसने का जाल होता।
कोई बेच रहा ठगी का मॉल होता।
पैसे के लिए, पूछो न क्या हाल होता!
कोई धरे मोटी खाल होता,
सही गलत का नहीं मलाल होता।
असल जिंदगी की शुरुआत;
शुरू होती, होते ही रात।
अँधेरा बढ़ने के साथ
महानगर की तस्वीर होती अधिक साफ।
बनाने को अपनी बात
और देने को दूसरों को मात,
लोग लगाने लगते हैं घात।
नहीं हिचकिचाते -
करने में गैरों से भी मुलाकात,
और जाने कैसे कैसे करामात!
कुछ ऐसी हो जाती शाम सुहानी,
अजनबी से भी मिलन रूहानी।
जैसे जैसे अँधेरा गहराता है,
देखने में अक्सर आता है,
जुड़ता गजब गजब का नाता है,
मिलने का सिलसिला, दूर तलक जाता है।
मेला लग जाता -
जाम छलकाने वालों का,
मन बहलाने वालों का,
झूठी कसम खाने वालों का,
करार की रकम पाने वालों का,
काली योजनाएं बनाने वालों का,
गोरखधंधा चलाने वालों का,
रात की कालिख में
जन, धन, मन काला बनाने वालों का।
नगरी शाम को ही चमकती है,
लाखों बत्तियां जलती हैं,
कहीं पर महफ़िलें सजती हैं,
कहीं पार्टियां चलती हैं,
हुस्न की मंडी सजती है,
घुँघुरु की घंटी बजती है,
कहीं दोस्तों में छनती है,
किसी की चीलम सुलगती है,
जल रही हर बत्ती
कोई न कोई कहानी कहती है।
महानगर कभी कहाँ सोता है!
कोई जश्न में, कोई शोक में रात खोता
है।
महानगर की शाम का
जो विचित्र चरित्र होता है,
वर्णन करना अत्यंत कठिन,
यहाँ शाम को जो कुछ होता है।
धड़ लिए चलता हूँ
आत्मा तो पहले मर चुकी है,
धड़ लिए चलता हूँ।
चेतन की अब क्या बात करूँ!
जड़ लिए चलता हूँ। धड़ लिए ...
ना झुकता, ना मुड़ता हूँ मैं,
काठ के उल्लू सा रहता हूँ मैं,
आसमान में दृष्टि रखता;
अकड़ लिए चलता हूँ। धड़ लिए ...
कैसे काला ना होऊं, बताओ!
मैं मतवाला न होऊं, बताओ!
खान में कोयले की चट्टानों से,
रगड़ लिए चलता हूँ। धड़ लिए ...
राहों में यूँ गिरते फिसलते,
गोता लगाते, कभी सम्हलते,
मिले न सहारा तो कीचड़ की;
पकड़ लिए चलता हूँ। धड़ लिए ...
पासवर्ड
आजकल
जरूरी है एटीएम व क्रेडिट कार्ड।
जिसके
लिये याद रखना, पिन व पासवर्ड।
इसके
अतिरिक्त ईमेल और कम्प्यूटर फाइल।
पासवर्ड
से ही खुलते सिमकार्ड, मोबाइल।
भरना
हो पानी, बिजली, फोन का बिल।
करना
हो बैंक खाते का बैलेंस हासिल।
गैस
का बिल या रेल, जहाज का टिकट।
आनलाइन
एकाउन्ट नहीं तो समस्या विकट।
क्योंकि
ये सब हो चुके हैं कम्प्यूटरीकृत।
इन
कामों के लिये कम्प्यूटर ही अधिकृत।
स्कूल
की फीस हो या करों का भुगतान।
आनलाइन
करो अन्यथा रहो परेशान।
चलन
में सोसल साइट और बैंक खाता।
बड़ी
समस्या, यदि कम्प्यूटर नही आता।
सबके
लिये है अलग अलग पहचान कोड।
और
विलग ही खोलने का पास कोड।
सभी
एजंसियों की अलग पासवर्ड प्रणाली।
पासवर्ड
बनाने में हो जाय दिमाग खाली।
एक
बार मैने पासवर्ड बनाया तो सन्देश
पढ़ा।
खेद!
चाहिये कम से कम, एक अक्षर बड़ा।
जब
वैसा किया ’आपका पासवर्ड छोटा है’।
बिना
किसी विशिष्ट चिन्ह के खोटा
है।
ठोक
ठठाकर, जब पासवर्ड पूरा कर लिया।
सन्देश पढ़ा, सारी! किसी अन्य को दे दिया।
इतने
सभी पासवर्डों का ऐसा मकड़जाल।
याद
करने में ज्ञानी भी हो जाय बेहाल।
यदि
भूल गये तो ऐसा भी हो सकता है।
घर
का ताला बन्द, बाहर सोना पड़ सकता है।
अलीबाबा
के हाथ लगा चोरों का कोडवर्ड।
अकूत
धन से भर लिया था वह अपना घर।
चुरा
लिया जब उसको, कासिम, उसका भाई।
कोड
भूल जाने कारण अपनी जान गंवाई।
आँख के मुहावरे
आंखें देखने के लिये होती हैं
दिखाने के लिये नहीं।
आंखें मिलाने के लिये होती हैं
चुराने के लिये नहीं।
आंखों में देखने से बल मिलता है,
आंख बचाने से छल दिखता है।
आंख मटक्की में मजा है मगर
आंख गड़ाने से हल मिलता है।
किसी की आंखों में ना भी बसो
किसी की आंख से गिरना नहीं।
आंखें मलने से बचना है तो,
आंख बन्द करके चलना नहीं।
यूं तो आंख मार दिया पर
बात समझ आई तो आंखें झुक गईं।
सामने आंखों में क्या है?
जानने के लिये फिर उठ गईं।
उनकी सुंदरता की
आंच ऐसी,
काश! कुछ देर ऑंखें
सेंक लेते।
उन आँखों में झट
समा गए,
इससे पहले वे ऑंखें
फेर लेते।
अब कभी आंखों से दूर होते हैं
तो आंखें भर आती हैं।
कभी आखों के सपने जाते
कभी आंखों में रात जाती है।
जिसके आंख में पानी नहीं
उसकी कोई कहानी नहीं।
जिसके आंख में सपने नहीं
उसकी तो जिन्दगानी नहीं।
आंखों का तारा ना भी बनो
किसी आंख की किरकीरी न बनो।
किसी की आंख ही
बन जाओ
अगर आंख की पुतरी ना बनो।
तुम यहीं कहीं हो
नदी जब मचलती, आगे को चलती,
गीत गा के ये कहती, तुम यहीं कही हो।
समझ हम ये जाते, सागर किनारे,
जब लहरें गरजतीं, तुम यहीं कहीं हो।
बतियाते हैं मुझसे, चहकते जब पक्षी,
लगता है सच्ची, तुम यहीं कहीं हो।
कानों में आती पवन की सरसराहट,
आहट लग जाती, तुम यहीं कहीं हो।
पेड़ों पर बजाकर, हाथों से करतल,
जताती हैं पत्ती, तुम यहीं कहीं हो।
कहता मन तत्पल, झरने की कलकल,
संगीत जब सुनाती, तुम यहीं कहीं हो।
सारंगी बजा के, रातों को जगा के,
झिंगरन है बताती, तुम यहीं कहीं हो।
तिरंगे में लिपट आया है
तिरंगे में लिपट कर आया है।
दूध न पानी, खून से नहाया है।
संजोये हुए था जिंदगी के सपने,
छीन लिया समय से पहले ही रब ने।
जवानी में देश की सेवा की ठानी,
बुढ़ापे में संवारेगा गांव को अपने।
यौवन राष्ट्र की भेंट चढ़ाया है।
तिरंगे में लिपट कर आया है।
किसी का भाई और किसी का लाल था।
अरि के लिए खड़ा सीमा पर काल था।
कर रखा राष्ट्र को वो साँसे समर्पित,
सुरक्षा के हेतु धरा रूप विकराल था।
भय से उसके रिपु बहुत थर्राया है।
तिरंगे में लिपट कर आया है।
गत वर्ष पति बना, पिता बनने वाला था।
देश भक्ति में खुद को पूरा ढाला था।
इन खुशियों से दूर बहुत, महावीर वो,
सीमा पर डंटा देश का रखवाला था।
वतन के लिए प्राण गंवाया है।
तिरंगे में लिपट कर आया है।
आज देश, गांव, आसमान रो रहा है।
खेतों की फसल व खलिहान रो रहा है।
राष्ट्र के कर्म वीर का शव जलाकर,
भभक भभक कर श्मशान रो रहा है।
आया है, वो शहीद की काया है।
तिरंगे में लिपट कर आया है।
सैनिक हिंदुस्तान के
सैनिक हिंदुस्तान के, वीर तुम महान हो।
तुम निडर जवान हो, देश की तुम शान हो।
देश पे कुर्बान तुम, आन हो तुम देश की।
देश की ही रक्षा में, लगा दिए हो जिंदगी।
तुम हो तो राष्ट्र है, तुमसे ही हैं हम खड़े।
कैसी भी हों ताकतें, तुम रहे अडिग, अड़े।
पहाड़ तोड़ बढे चले, आंधी हो, तूफान हो। सैनिक ...
संग हो न साथ हो, कोई भी विषाद हो।
देश भक्ति का बड़ा, तुम लिए उन्माद हो।
घाटी हो, पहाड़ हो, तुम निडर बढ़े चले।
करते तुम बहादुरी से, दूर सब मुश्किलें।
कारण वीरता के, विश्व में पहचान हो। सैनिक ...
हाथ में सजा रहे, राष्ट्र की ध्वजा रहे।
तुम्हारे हौसलों से सब, शत्रु वीर लजा रहे।
तिरंगा झुके नहीं! तुम कभी रुके नहीं।
दिन हो या रात हो, कर्मों से चुके नहीं।
आती कोई आपदा, उसका भी निदान हो। सैनिक ...
राष्ट्र विरोधी ताकतें, बन न सकीं रूकावटें।
मातृ भूमि हेतु बढे, पीछे न कदम हटे।
देश हित जहाँ कहीं, तुम बढे चले वहीँ।
षड्यंत्रों को मात दे, तुम कहीं रुके नहीं।
राष्ट्र के नागरिकों का, तुम अभिमान हो। सैनिक ...
नदी
नीर विमल,
बड़ी चपल,
चली मचल,
नदी निकल।
कल कल, छल छल।
देख सकल,
जटिल डगर,
रही मगर,
बहुत विकल।
कल कल, छल छल।
लड़ी सतत,
व्यथा निगल,
बही बना पथ,
नदी विरल।
कल कल, छल छल।
बढ़ी निडर,
गांव शहर,
सरि सजल,
थमी न पर।
कल कल, छल छल।
चिता जल रही थी
नदी के किनारे, संध्या अँधेरे,
धधकती किसी की चिता जल रही थी।
लपटों में अपने, शव को लपेटे,
लकड़ी पर अग्नि शिखा पल रही थी।
लेकर उजाला, चल दी थी ज्वाला;
धुंए में ले यादें, हवा चल रही थी।
धरा रो रही थी, गगन रो रहा था,
अश्कों में भीगी, निशा ढल रही थी।
गांव से उठ ऊँची, गूंजती रुलाई,
चीरती सन्नाटा, तूफां भर रही थी।
था लाल किसका, पति या पिता था,
रोने की चीखें, बयां कर रही थी।
चुनी अस्थियों को, अंदर समाने,
रोती नदी वह, इल्तजा कर रही थी।
नीड़ को लौटी, पेड़ों पे टोली,
पंछियों की शोक सभा कर रही थी।
घोंघा बसंत
कभी भीतर बैठ, कभी खोल पर सवार,
चले घोंघा बसंत।
हैं पहने कवच ताकि बनें न शिकार,
चले घोंघा बसंत।
पांव को जमाते, मतवाली लिए चाल,
घंटे में खिसक, करते पूरे कदम चार;
चले घोंघा बसंत।
धीरज, चैतन्य धरे, कभी मानें न हार,
हौले हौले, बरसात में, गाते मल्हार;
चले घोंघा बसंत।
खाया पिया जो कुछ भी सबको डकार,
अपमान की फिकर को कूड़े में डार;
चले घोंघा बसंत।
जाने ना भाव क्या, सजाने बाजार,
रजवाड़े के पिछवाड़े होने शुमार;
चले घोंघा बसंत।
वंशवाद की सियासत
वंशवाद की ढाल सियासत।
कैसे हो खुशहाल सियासत।
कहती अपने को जन प्रतिनिधि,
राजा भांति निहाल सियासत।
अपने घर भर भर कर निसदिन
होती मालामाल सियासत।
माल हड़पने राष्ट्र का सब
चमचे रखती पाल सियासत।
खुद से फुरसत हो तो करती
जनहित का भी ख्याल सियासत।
भर्त्सना का असर न दिखता
रखती मोटी खाल सियासत।
कोई कुछ भी कहता, अपनी
रांध गलाती दाल सियासत।
सत्ता में लाने वंशज को
बुन लेती है जाल सियासत।
अपने कारनामे पे इतराता मोबाइल फोन।
कोने कोने तक चैट कराता मोबाइल फोन।
आधुनिक दुनिया का बना अनोखा साथी
गुगल, चुगल, युगल कराता मोबाइल फोन।
पूरी दुनिया कर दिया कम्बख्त ने मुट्ठी में
पल में कहीं का दृश्य दिखाता मोबाइल फ़ोन।
दूर होने पर करता किसी प्रिय सा व्याकुल
जो पूछो सब कुछ बताता मोबाइल फोन।
विज्ञान की क्रान्ति पर जीवन की अशांति
नहाते, खाते कभी बज जाता मोबाइल फोन।
नियमित खर्च में हिस्सा, स्वास्थ्य अधर्मी,
रेडियोधर्मी किरण फैलाता मोबाइल फोन।
बच्चों का खेल सिमट गया इस यंत्र में छोटे
बाहरी दुनिया से तोडा नाता मोबाइल फोन।
निगले की उगले मुंह का सांप छछूंदर
समझ न पाता, बड़ा सताता मोबाइल फ़ोन।
गजलें
१.
खुदा के शहर में देखा, दिया है न बाती है।
जाणूं न कैसे मगर, रात जगमगाती है।
सड़कें न सेतु कहीं, हवाओं के जैसी फिर भी,
जाणूं न कैसे उड़ी, गाड़ी चली जाती है।
पंखा न कूलर वहां, लगे वातानुकूल नहीं;
दिल को जुड़ाने वाली, बयार महकाती है।
नहाने का घर नहीं, देखा न घाट कहीं;
बारिशों के पानी में, दुनिया नहाती है।
महंगे लिवास नहीं, पहने न गहने कोई;
जाणूं न कैसे मगर, खूबसूरती लुभाती है।
बागों में फल लदे, खेतों में अन्न भरे;
फरिश्तों की भीड़ बैठ, जी भरके खाती है ।
सोने न जगने की, चिंता है करता कोई;
उसका ही नाम बस, सुख चैन बरसाती है।
३.
दिल को ना सख्त, किया होता।
कोई लूट कर, ले लिया होता।
किस किस पर, मर मिटा होता,
कमजोर अगर, ये हिया होता।
हक़ ज़माने, आ जाता जमाना,
नरम तनिक भी, जिया होता।
किस तरह आ पाते तुझ तक,
कैसे तू मेरा पिया होता।
डगमगा देते राहें बेईमान,
जिंदगी कैसे जिया होता।
टूट जाता ये कहीं पर अगर,
टूटे दिल को कैसे सिया होता।
घूमता दिल के टुकड़े लेकर,
तुझे लाकर, क्या दिया होता।
७.
साथ हमारे, उन्होंने भी वही दूरी सही होगी।
बेवफाई के पीछे, कोई मजबूरी रही होगी।
मोहब्बत का सिला, उनको भी रास आया होगा;
मोहब्बत के सिवा और, बातें जरूरी रही होंगी।
काटे होंगे हमें याद कर, तन्हाईयों में दिन;
यूँ मिलने की ख्वाइश, हमसे पूरी रही होंगी।
दिन तो बिताये होंगे दीवारों से बातें करके;
खामोश बीत जाती, हर शाम सिंदूरी रही होगी।
आता होगा मगर भाता ना होगा मधुमास;
कोयल की कूक भी लगती बेसुरी रही होगी।
दिल के दर्द कभी छुपाये, कभी छुपा न पाये होंगे;
डोलती हवाओं से, आधी अधूरी कही होगी।
किया होगा जरूर जतन, हाल बुरे काटने का;
वक्त न सीधा चला होगा, टेढ़ी धुरी रही होगी।
८.
जायेगी ये आवाज, दुनिया से, गजब होयेगा।
तुमने गाया इतना, जब जाओगे, जग रोयेगा।
तुम तो होगे मगन, उस जहां में, बाबुल के घर,
तुम्हारी आवाजों को लिए, जग यह संजोएगा।
होगी ना पैदा फिर से, कोई इक आवाज नयी,
नये ऐसे गीत कोई, फिर कभी ना पिरोयेगा।
रोओगे तुम भी देख, अपने चाहने वालों को,
बारिशों के संग आंसू, बरस कर भिगोएगा।
बहुतेरे दीवाने तेरे, मिश्री से तरानों के,
इश्क में डूबा कोई, रातों को कैसे सोयेगा।
गुनगुनाओगे जब तुम, वहां पर भी गीत कोई,
हवाओं से सुन के यहाँ, ये जहान मगन होयेगा।
आवाज से युदा हो के, रोएंगे ही हम एसडी,
तुम्हारी याद में ये, रेडियो भी बड़ा रोयेगा।
पीपल के नीचे
होता है अति पावन स्थल, पीपल के नीचे।
मिलती दैविक छाँव शीतल, पीपल के नीचे।
दुनिया से विदा हो गया, इस गांव का कोई,
यादों में रोता घंट सजल, पीपल के नीचे।
अंतिम यात्रा की मिलती है, अंतिम छाँव,
प्राणी को बिताकर कुछ पल, पीपल के नीचे।
घास चरकर जुड़ाने आतीं, भैंसें और गैयाँ,
जाती उनकी दोपहरी ढल, पीपल के नीचे।
करते बसेरा मैना, तोता; कौवा खाता गोदा,
कहीं शाख पर गाती कोयल, पीपल के नीचे।
पीपल पर देवों का वास, बुद्ध ने पाया ज्ञान,
होता संतों का ध्यान सफल, पीपल के नीचे।
भेषज पीपल, पर्यावरण कर देता स्वच्छ,
विशुद्ध हवा का पंखा झल, पीपल के नीचे।
आत्मिक शक्ति और पूजा का शुद्ध स्थान,
पनपे न पतवार अनर्गल, पीपल के नीचे।
गांव प्यारा, नहीं भूलता
सीधा सादा सा बीता कल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
गोधूलि बेला में पुलिया पर बैठ कर,
चरवाहों को आते, पशु समेट कर,
पंछी गगन में, जमीं पर धूल उड़ते,
देखना थोड़ी दूर नदी की धार मुड़ते;
क्षितिज का सिंदूरी आँचल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
उखाड़ कर ताजी मूली, गाजर खाना।
आम के लिए, बाग़ में दौड़ लगाना।
खेत से तोड़ कर रसीला गन्ना चूसना।
सोने से पहले परस्पर पहेली पूछना।
नहाते जिसमें, पोखरे का जल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
खेल में कंचे की गोली, जीत के लाना।
टेढ़ी पगडण्डी पर, साईकिल दौड़ाना।
आये अतिथि के स्वागत में जुट जाना।
त्यौहारों पर पहन, नए वस्त्र इतराना।
नाग पंचमी का वो दंगल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
गांव ने दिया
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया।
राष्ट्र के प्रमुख अंग गांव ने दिया।
हरा है कृषक, कृषि से हरियाली है।
केसरिया, सैनिकों की बलिहारी है।
श्वेत, श्रम का स्तम्भ गांव ने दिया।
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया।
बाकी सब तो हैं चक्र की तीलियाँ।
गांव के सहारे ही है उनकी दुनियां।
पेट भरने को अन्न गांव ने दिया।
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया।
आधुनिकता में भी संयम रखा है।
संस्कृति को देश की कायम रखा है।
लोक कला की उमंग गांव ने दिया।
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया।
पर्यावरण की जंग गांव लड़ता।
सीमा पर प्रहरी भी गांव भेजता।
कामगारों की पतंग गांव ने दिया।
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया।
कह मुकरी
कमर से थी उसी में लिपटी,
उसको पाकर रहती सिमटी,
सुंदरता पर गयी मैं वारी।
क्या सखि साजन? नहिं सखि साड़ी।
शब्द पिरो कर गूंथे माला,
भारी कि न जाता सम्भाला,
उसी माला से उसकी छवि।
क्या सखि साजन? नहिं सखि कवि।
उस बिन जाड़ा बहुत सताता,
रात होते ऊपर पड़ जाता,
ना हो वो, हो जाऊं बेकल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि कम्बल।
आते ही आ जाता आंसू,
मैं उससे बचना ही चाहूँ,
खूब रुलाया उसने आज।
क्या सखि साजन? नहिं सखि प्याज।
लगता कितना सीधा सादा,
करके जाता, झूठा वादा,
गये पीछे, सुध नहीं लेता।
क्या सखि साजन? नहिं सखि नेता।
सावन में वो मचाता धूम,
जी चाहता है नाचूँ झूम,
देख देख मन होता पागल।
क्या सखी साजन? नहिं सखि बादल।
सदैव वह, आँखों पे रहता,
करूँ दूर भी, कुछ ना कहता,
साथ चाहती हूँ मैं बेशक।
क्या सखि साजन? नहिं सखि ऐनक।
खुद नंगा सबको पहनाता,
सूता थामे नाच दिखाता,
घेरे रखता कोना घर का।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चरखा।
निहारूं रोज मैं कई बार,
कटि से लिपटा, गई मैं वारि,
पड़ा बहुत मुझे पर महंगा।
क्या सखि साजन? नहिं सखि लहंगा।
रात में तो निभा दिया साथ,
छोड़े चला होते ही प्रात,
कैसे कहूं उसे मैं अपना।
क्या सखि साजन? नहिं सखि सपना।
हाइकु
गालों पे तिल
देख कर उनके
अटका दिल
गुम थी सिट्टी
थमाया था उसको
पहली चिट्ठी
रखी अभी भी
खुशबू बिखराती
पहली पाती
दिल बेकाबू
देखकर हो जाता
हुस्न का जादू
सनम आया
जैसे ही हुई शाम
चाँद शर्माया
स्वेद से भीगे
एक ही थी रुमाल
मुख थे पोंछे
महकती हूँ
दिलों में बसती हूँ
मुहब्बत हूँ
होती प्रतीक्षा
शाम की हरदम
जवां थे हम
देखीं हजारों
हो पाईं बस दो ही
ऑंखें अपनी
आँखों से पी ली
बड़बड़ा न उठूं
होठों को सी ली
सामने आये
हमारी राहें रुकीं
निगाहें झुकीं
समय लगा
पहली बार लिखा
प्यार की चिट्ठी
खोल रखे थे
हिय के दरवाजे
प्रिय के वास्ते
हम जो फिरे
कई चेहरे फिरे
बेरोजगार
वैद की दवा
प्रेम का वो रोगी था
हो गयी हवा
हाथ उठाये
लेने को अंगड़ाई
लगा बुलाये
प्रेम नगरी
सामने जो भी होता
अपनी रोता
तोड़ दे भले
रौंद न मेरा दिल
पैरों के तले
मेरा वो थूके
उनका गुस्सा हम
प्यार ना कम
सिर मैं फोड़ी
मुंह खुलवाने में
चुप्पी न तोड़ी
साथ ले गए
करके वो तारीफ
मेरी मुस्कान
मेरे ऊपर
बरसाई तू प्यार
भीगा हूँ यार
शूल पिरोई
पहनी विरह के
यामिनी रोई
लाये सौगात
कुछ कहे न बोले
रख के चले
वर्षों बाद भी
थी पुस्तक में पड़ी
पुष्प पंखुड़ी
ढलकी उम्र
आंसुओं में बह के
तन्हा रह के
बेचैन जिया
जिया क्या खाक जिया
नहीं थे पिया
जल्दी से भाग
खेला तो जला देगी
प्यार की आग
बनाया अँधा
तेरा इश्क न छोड़ा
काम का बंदा
देख उनके
जैसे ही पीछे दौड़े
मुंह वे मोड़े
मेरे ही कूचा
आकर वे मटके
हाल न पूछा
रहा न गया
पास गए दिल की
कहा न गया
दौड़ लगाए
बहुत जख्म खाये
प्यार में अँधा
करके प्यार
पाए उनसे युदा
मेरे विचार
सताते रहे
हम उनसे प्यार
जताते रहे
पागल बन
दिल ने उन्हें चाहा
फिर कराहा
गम का दीद
हुआ जब दिल को
खो गयी नींद
तुम्हारे बिन
चैन के पल
कोई ले गया छीन
तुम्हारे बिन
भूत का डेरा
लगता घर मेरा
तुम्हारे बिन
लगता न जी
वीरानियों में इन
तुम्हारे बिन
मुरझा गए
फूल होकर खिन्न
तुम्हारे बिन
काटी थी रातें
हमने तारे गिन
तुम्हारे बिन
साल सी रात
लगे सदी सा दिन
तुम्हारे बिन
आंखें बुझी सी
मन रहता खिन्न
तुम्हारे बिन
मन का चैन
तन्हाई ने ली छीन
तुम्हारे बिन
डसतीं रातें
बन कर सांपिन
तुम्हारे बिन
बातें चाँद की
तारे करते
टिमटिमा करके
बातें चाँद की
धरा करती
चांदनी में नहा के
बातें चाँद की
श्रृंगार किये
जगी रात को भाये
बातें चाँद की
सुहाग रात
किये बिन न पूरी
बातें चाँद की
महकने दो
फूलों से क्यों करते
बातें चाँद की
उठा क्या ज्वार
सागर है करता
बातें चाँद की
जुगनुओं की
करते टोली चली
बातें चाँद की
रवि सो जाता
जब होने लगती
बातें चाँद की
राह की दूरी
कट जाती करते
बातें चाँद की
उठा तूफान
दिल में तो मैंने की
बातें चाँद की
बोला पत्थर
मैंने बनाया
कहता मेरा घर
बोला पत्थर
बना पत्थर !
तू दिल रख कर
बोला पत्थर
चलाता छैनी
निर्मोही दिल पर
बोला पत्थर
मुझे टक्कर
रोयेगा मारकर
बोला पत्थर
वैसे का वैसा
सदियों रहकर
बोला पत्थर
खाया ठोकर
चला अँधा होकर ?
बोला पत्थर
मुझे भी लगी
तू मारा कसकर
बोला पत्थर
रखे तू सोना
नगीना मैं मगर
बोला पत्थर
ताज महल
मुझसे ही सुन्दर
बोला पत्थर
मूर्ति मुझमें
काढ़ ले गढ़कर
बोला पत्थर
दादा की छड़ी
खूँटी पे टंगी
रखती निगरानी
दादा की छड़ी
याद दिलाती
घर का ही हिस्सा थे
दादा की छड़ी
चला था साथ
पकड़ कर मैं भी
दादा की छड़ी
याद है अभी
जब जोर की पड़ी
दादा की छड़ी
खूँटी पे टंगा
घर का इतिहास
दादा की छड़ी
ढूंढनी पड़ी
मुझे ही जब खोई
दादा की छड़ी
टंगी है पर
सबकी मनमानी
दादा की छड़ी
बची है अब
बस यही निशानी
दादा की छड़ी
कोने में खड़ी
ऊपर धूल पड़ी
दादा की छड़ी
थी यह टंगी
कभी तीसरी टांग
दादा की छड़ी