Saturday, 29 April 2017

Haiku // sabji masale fool

माननीय सदस्यों / मित्रों, १ मई २०१७ से ३ मई २०१७ तक साहित्यिक मधुशाला के मंच को संचालित करने हेतु, एक बार पुनः मुझे आमंत्रित किया गया है। समूह के एडमिन व सदस्यों का आभार। तो १ से ३ मई २०१७ तक आप को  जिस विषय पर हाइकु लिखना है वह है  - 
'सब्जी' यानि कि  शाक, साग, तरकारी, भाजी आदि; सब जी !
जी हाँ, ३ मई तक सुन्दर भाव और बिम्ब डालकर स्वादिष्ट और गुणकारी सब्जी पकाकर आपको हाइकु के रूप में परोसना है। हाँ, किसी को कुछ पसंद होता है, किसी को कुछ; तो हर प्रकार की सब्जी परोसिये, चाहे करेला हो या कद्दू, क्या पता किसको क्या पसंद आये। और आपके हाइकु में खेत से लेकर रसोई, और मुंह तक जाने की यात्रा का कोई भी प्रसंग सम्मिलित हो सकता है। मेरा एक हाइकु - 

घर की भिंडी 
मिल रहा अपने 
स्वेद का स्वाद  

आपकी लेखनी से उत्तम, आनंद पूर्ण व रुचिकर हाइकु के सृजन की अपेक्षा के साथ, आपका -
- एस० डी० तिवारी  

इलायची की गंध 




बिकती सब्जी 
होती जिस रंग की 
जला के बत्ती 

मन करता 
खाने को कभी कभी 
बैगन भर्ता 


किसी का हाथ
बेशर्म बन आलू
लेता है थाम

नीचे को चला
थैले में टमाटर
गया मसला

होने पे बंद
सब्जी मंडी में शुरू
गायों का मेला

कड़वा लागे
पर करेला खा के
मधु तो भागे

सब्जियां हरी
पौष्टिकता से भरी
स्वास्थ वर्धक

बनी जो लौकी 
मुझे नहीं है खाना 
गुड़िया भौंकी 

साग पालक
विटामिन के साथ 
रक्तवर्धक  

रूला देती है
अपने हत्यारे को
कटती प्याज 

सुगंध भरी 
धनिया की चटनी
स्वाद अपनी 

बनी पालक
अनशन करके
बैठे बालक

हरा सलाद
भोजन में शामिल 
उत्तम स्वास्थ्य

घर की भिंडी 
मिल रहा अपने 
स्वेद का स्वाद 

बनी जो तोरी
नाक मुंह सिकोड़ी 
बिटिया मेरी  

किसी का होता 
कटे आलू बेचारा 
भोज भंडारा 

स्वाद जमाता  
आलू सब्जी का राजा  
सबके साथ 

चिढ़ता आलू 
खा जाता है करेला 
चीनी उसकी  

किसी का हाथ  
थाम लेती है प्याज 
हुई बेशर्म  

चले न काम 
मटर हो या चना 
प्याज के बिना   

भाता है मन 
भर कर बैगन 
तवे पे भुना 

भाई न सब्जी
मां व बेटी में ठनी
टिंडे की बनी

स्वाद से भरी
टमाटर पड़ के
सब्जी की तरी

जाते ही भिंडी
दिखाने लगी भाव
खेत से मंडी

सजा सलाद
ऊपर रखकर
धनिया पात



मूली गाजर

पक्का
आलू गोभी का स्थान

***************

कोफ्ता में डाला 
डाला गर्म मसाला 

विस्मृत सब
मसालों का मिश्रण
दादी का दिया

कम या ज्यादा 
कर देता बर्बाद 
नमक स्वाद 

सब्जी व दाल 
पा हल्दी की संगत  
पाते रंगत 

हींग तड़का 
लगते ही दाल में  
घर महका 

सबका हाल 
छींक कर बेहाल 
मिर्च की छौंक 
  
आधी अधूरी 
मसाले की दुनिया 
बिना धनिया 

बनाई पत्नी 
धनिया की चटनी 
महका घर 

मिर्च लगाई 
ऑंखें बुझाने आईं 
मुंह में आग 

देता सलाद 
बुरक काली मिर्च 
उत्तम स्वाद  

आम के साथ 
चटनी  का स्वाद 
लाता पुदीना 

खिल उठता 
जल जीरा का रंग 
पुदीना संग 

गर्मी में देता 
उदर को राहत
दवा पुदीना 


काली कलूटी 
बिना हल्दी के दाल 
स्वाद भी रूठी 

कई रोगों का 
मसालों में शामिल 
मेथी निदान 

सब्जी में पड़  
कई फायदे देती 
भेषज मेथी 

कई रोगों का 
आयुर्वेद में तोड़ 
जीरा बेजोड़ 

अजवाइन 
सब्जी होती सुपाच्य  
साथ में स्वाद 

गर्म मसाला 
थोड़ा सा ज्यादा डाला 
बदहजमी 

हींग तड़का
लगते ही दाल में
घर महका

सबका हाल
छींक कर बेहाल
मिर्च की छौंक

सर्दी में चाय 
अदरक डाल के 
सबको भाय 


गुणों के साथ  

लहसुन व प्याज 

स्वाद का राज


रखना पथ्य 
अधिक मसालों से 
वैद्य का कथ्य 


सब्जी क्या खाक 
मसाला नहीं डाला 


**************

श्वेत गुलाबी 
लगते हैं शराबी 
सेव के फूल 

लाये बसंत 
पतझड़ में भूल    
सेव के फूल 

रूप पे अलि
लुभाये चले आते   
सेव की कली 

गुणों का फल 
देता है एक दिन 
सेव का फूल 

लेकर खड़ी 
पांच पांच पंखुड़ी
सेव की कली 

8888888888888



लेकर खड़ी 
कचनार की कली 
पांच पंखुड़ी 

भाजी बनाने 
कचनार की कली 
बाजार चली 

लान सजा दी  
कचनार की कली  
नाजों की पली 

रंग बिखेर  
कचनार की कली 
बसंती हो ली 

रोगों में कई  
कचनार की कली  
गुणों की वरी

 ********************


गले में डाला 
गूँथ के वरमाला 
चंपा के फूल 

गुणों को जाना 
आयुर्वेद बखाना  
चंपा के फूल 

मानव सत्व   
दर्शाता पांच तत्व  
चंपा का फूल 

सुकून भर 
लेते तनाव हर  
चम्पा के फूल 

गमों से दूर 
लेकर चले जाते 
चंपा के फूल 



करते वास 
रंग रूप व बास  
चंपा के फूल  

गोरी का जूड़ा
महकाता चलता 
चंपा का फूल  

गंध से भरी 
हर एक पंखुड़ी 
चंपा की कली 

करता शुद्ध 
चमन चितवन   


चंपा का फूल 

नन्हां सा दिल 
लगती अनखिली 
चंपा की कली 

देवता देवी 
प्रसन्न कर देती 
चंपा की कली 

Wednesday, 26 April 2017

Use dhundhu kahan


पाती मेरी, पहुँच ना पायी।
लौट कर फिर वापस वो आई।

पता नहीं था, कहाँ पे भेजूं,
दिया नहीं वो अपना पता था।
ढूंढी जहाँ में, न पूछो कहाँ मैं,
जहाँ भी जाती, न उसका पता था।
दर दर मुझे बहुत भटकाई।
पाती मेरी ..

सरि में ढूंढी, मैं सागर में ढूंढी,
कानन किसी व वन में नहीं था।  
टीले व पर्वत, बहारों से पूछी
शायद छुपा मेरे, मन में कही था।
भर भर थी उसकी, छवि समायी।
पाती मेरी ..

थक हार सोची, चिठ्ठी ही डालूं ,
पहले मैं उसके, उत्तर को पा लूँ।
जाऊं फिर मिलने, अपने पिया से,
धर के उसे मैं, गले से लगा लूँ।
धर धर के उसको दूंगी दुहाई।
पाती मेरी ..

Tanhai me rab dikhata hai

तन्हाई में रब दिखता है

किसी को लगता है तो लगे सजा तन्हाई।
मेरे लिए लेकर आई है, मजा तन्हाई।
लिए हूँ कबसे, किसी की मीठी सी यादें,
दिल से पूछे दर्द लेने की, रजा तन्हाई।

तन्हाई थी कि रोज रोज वो सताती रही।
दिल में बैठी हुई, दिन रात रुलाती रही।
दिल की तलाशी में मिल गया और भी कोई,
जली लौ उसकी, अंधे को डग दिखाती रही।

छोड़ जाये कोई तन्हा, है मगर गम नहीं।
दिल बहलाने को दिया उसका, कोई कम नहीं।
चाँद, तारे, बादलों से कर लेंगे, रोज बातें,
खो देंगे किसी की यादों में, मौसम नहीं।

पूछ लेंगे चिड़ियों से, जाकर उनका हाल।
रख लेंगे ला गुलों से, खुशबुएँ सम्हाल।
मौजों से मिल आएंगे, जा दरिया के पास,
इससे पहले कि  कर दें हमें यादें बेहाल।

यूँ तो यादें भुलाना, होता मुश्किल बड़ा।
तन्हाईयों में जीना, होता मुश्किल बड़ा।
कोई ना हो, तब भी होता रब का है साथ,
कर देता आसान, कोई भी मुश्किल बड़ा।

याद करने को रब, करे मजबूर तन्हाई।
कुदरत से कराती बात, भरपूर तन्हाई।
चाहे जिंदगी के शिकवे, शिकायतें, मगर,  
कर न सकती है, उसको कभी दूर तन्हाई।


सनम बनाया उसे

तन्हाईयों में मैंने, पाया उसे।
अपने जान औ दिल में, बसाया उसे।
सोया दिल में था, वो तो छुप के कहीं
झकझोर बड़ी मुश्किल, जगाया उसे।
दर्द रखे तड़पता था दिल ये निस दिन
हाल दिल का फिर अपने, बताया उसे।
मैं अकेले, तुम्हीं साथ देना मेरा
सनम अपना कह कर, बुलाया उसे।
अकेले कहाँ तू, कहा - अरे बावरे
तवज्जु कहे का नहीं, फ़रमाया उसे।
बादल, ये झरने, दिए पर्वत तुझे
दिखाया तारे, तब जान पाया उसे।
अकेलापन लगता, अब नहीं है मुझे
दिल से अपन जब मैंने, लगाया उसे।

- एस० डी० तिवारी 

Tuesday, 25 April 2017

Haiku May 17 umra / dard / peya


नहीं दिखता   
गर्म पानी में बिम्ब  
क्रोध में सच 

मैंने जो खाया   
कोई और लगाया 


वृक्ष का फल 

चढ़ता रवि 
एक एक कर के 
नभ की सीढ़ी  

उतरा रवि 
अँधेरे से पहले 
व्योम छत से 


पेंदी में गुड़  
टटोलता बुढ़ापा 
उम्र की हांड़ी 

सबसे प्यारे
तब थे बाबा दादी
अब हैं पोते 

हुस्न जवानी 
कितना भी गरूर 
ढल ही जानी

हो गयी पानी 
गल गल कर के 
उम्र की बर्फ 

रोज खा जाती 
खुद का एक दिन 
पापिन उम्र 

उम्र को काश 
कुछ बढ़ा सकते  
फ्रिज में रख 

संवर कर 
उम्र नहीं छुपती
झुर्री बेशक 

छुक छुकाती
आई आखिरी अड्डा  
उम्र की गाड़ी 

उम्र की शक्ल 
वैसी ही बन जाती 
जैसा हो काम

पचास हुए 
बुढ़ापे का शैशव  
प्रारम्भ हुआ  

दर्पण बन 
बुढ़ापा दिखलाता   
उम्र का चित्र 

******
मिल ही जाते 
दुश्मन और दर्द 
बिना ही मांगे 

वक्त के साथ 
भर जाता है दर्द 
सीख देकर  

कुछ न कुछ  
गुर सिखा जाता है 
आकर दर्द 

धुल जाता है 
किसी को हँसाकर  
खुद का दर्द 

लिख सकता 
दर्द को कौन भला  
कागज पर 

मिलता मुफ्त 
भगाने में लगता   
दर्द को दाम  

दवा लगता 
किसी से पूछ लेना 
उसका दर्द  

व्यर्थ में नहीं 
धोने हेतु बहता   
दर्द को आंसू 

अपना दर्द 
अपनों से कह के 
बढ़ाया और 

रात ज्यों सोती  / जागी क्या रात 
जाग खड़ा हो जाता / गया  
दर्द बेदर्द 

अकेलापन 
देता दर्द में जोड़  
दर्द का बोझ 

दिन से ज्यादा 
मुआ रात सताता 
कोई भी दर्द 

वक्त के साथ 
भरता चला जाता 
कैसा भी घाव 

दर्द के बिना 
कठिन समझना 
ख़ुशी के पल 

वैद बुलाऊँ
या उनको मनाऊं  
दिल का दर्द

हमने खाया   
कोई और लगाया 
वृक्ष का फल 

फलों की मंडी  
आते ही सज गयी   
फलों का राजा  

खिल उठता 
दिल जब देखता 
हँसते फूल 

नशा से जल्दी 
बेहोश कर देता  
धन का मद 

उसका नाम 
कितना भी पी जाओ 
होगा न कम  

नहीं दिखता   
गर्म पानी में बिम्ब  
क्रोध में सच 


****************

कितना भोला 
बचपन में होता 
चाँद को रोता

मिलती कभी  
जवानी में तन्हाई 
चाँद को रोता 

झड़ते बाल 
बुढ़ापे में सिर से 
चाँद को रोता 

*****

सागर प्यासा 
सरिता के जल का 
नदी वर्षा  की   

चल दी नदी  
पी सिंधु से मिलने 
सावन मास 

लेकर चली 
सागर को पिलाने 
सरि सलिल 

हो के विकल 
पर्वतों से निकल 
चल दी नदी

प्यास बुझाने 
नदी निहारे मेघ 
मैं पी की राह 

हर्षित सिंधु 
सरि से होगी भेंट  
आ गए मेघ  

सागर प्यासा 
सरिता के जल का 
नदी वर्षा की  

चल दी नदी  
पी सिंधु से मिलने 
सावन मास 

लेकर चली 
सागर को पिलाने 
सरि सलिल 




जमाता रंग 
होकर जल जीरा    
पुदीना संग 


पौष्टिक पूर
नारियल पानी से 
मोटापा दूर 

मन हो तर 
गर्मियों में पीकर 
गर्मी के पेय 

दिवस गर्म 
मांगे दिल बेशर्म 
पीने को ठंडा  

गन्ने का रस 
गिलास भर बस !  
हुई न तृप्ति 

घड़ा बुलाता 
घुंघरू बजाकर 
बेल का रस 

जगी तमन्ना 
गर्मियों में पीने की 
आम का पन्ना   

गर्मी का दौर 
दिल मांगता और 
शीतल पेय 

जमाता रंग 
होकर जल जीरा    
पुदीना संग 

नाश्ता में साथ 
एक गिलास छाछ 
हो तो क्या बात 

मजेदार जी  
गर्मी से दे राहत  
नीबू शिकंजी 

है सर्वोत्तम 
गर्मी में ज्यादा पानी 
भोजन कम 

खिल उठता 
दिल जब देखता 
हँसते फूल 


पूछता - तू है 
किसका भगवान
बंटा  इंसान 

ईमान बेच 
कितना आसान था 
पैसे कमाना

नहीं चाहिए 
खुद को दिखाने को 
किसी का मंच 

मुफ्त में मिला  
बेशक अनमोल 
पाता ना मोल 

उतार देता 
सत्गुरु का संगत 
माया का नशा 

कोई न जाने 
कब किसका भाग्य 
सोये से जागे





Tuesday, 18 April 2017

Bolate moti / apani baat

-- की कविता का रसास्वादन, आज हर व्यक्ति कर रहा है। अतुकांत और छंद लय से  मुक्त होने के कारण हाइकु लिखने में बहुत से रचनाकारों को सहजता का अनुभव होता है, और उन्हें अपने भाव प्रकट करने में झिझक नहीं होती। हिंदी काव्य की अन्य विधाओं में छंद की वाध्यता होने के कारण, अनेक लोग, मन में अच्छे भाव आने के पश्चात् भी कविता नहीं लिख पाते, और उनके भाव या विचार कहीं कहीं विलुप्त हो जाते हैं। वैसे हाइकु लिखना भीं इतना सरल नहीं है। इसे लिखने के लिए पर्याप्त अध्ययन अभ्यास की आवश्यकता होती है। हाइकु, एक अति सूक्ष्म कविता होने के बाद भी बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम होता है, जिसके कारण इसकी लोकप्रियता सतत बढ़ती जा रही है। हाइकु को यदि 'गागर में सागर' कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाइकु की लोकप्रियता सारगर्भिता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दुनिया कि हर भाषा में हाइकु लिखे जा रहे हैं। हाइकु लीखने की विस्तृत विधि और जानकारी मेरी अन्य पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में दी गयी है। मात्र सत्रह अक्षरों की यह कविता पाठक को अपने भीतर डूबने के लिए प्रेरित करती है और जो इसमें डूबता है, वही सही आनंद उठा पाता है। मुझे हाइकु लिखना और पढ़ना कितना पसंद है, इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि मैं अब तक लगभग दस हजार हाइकु लिख चुका हूँ, और मेरी यह यात्रा निरंतर चलतीं जा रही है।   

वैसे तो हाइकु की विधा अतुकांत होती है। इसमें कोई स्वर या लय की आवश्यकता नहीं होती परन्तु हिंदी काव्य में, अगर छंदों में लय हो तो उसका आनंद बढ़ जाना स्वाभाविक है। मैंने अनुभव किया कि हाइकु में भी काव्य के विभिन्न आयाम बड़ी सुंदरता से समाहित हो सकते हैं, जिसका वर्णन मेरी पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में विस्तार पूर्वक है। हाइकु में भी काव्य का कोई भी रस या भाव इसके छोटा होने के कारण वंचित नहीं रहता मुझे स्वरबद्ध कविता बहुत अच्छी लगती है, सच मानो तो कविता गुनगुना न लें तो वह कविता कैसी? इस पुस्तक में मैंने, यथासंभव हाइकु की श्रृंखलाओं में भी किसी किसी रूप में स्वर और गति लाने का प्रयत्न किया है। मैंने देखा कि एक पंक्ति को स्तम्भ बनाकर, उसी धुरी पर अनेकों हाइकु लिखे जा सकते हैं। यह पुस्तक इस बात का जीता जागता उदहारण है। वैसे तो प्रत्येक हाइकु अपने आप में एक पूर्ण कविता है। मैंने फेस-बुक पर भी एक समूह में एक पंक्ति देकर, हाइकुकारों को उसे अपने हाइकु में समाहित करते हुए दो और पंक्तियाँ जोड़कर, अपने हाइकु लिखने का आह्वान किया जिसमें अनेकों हाइकुकारों ने केवल खूब बढ़ चढ़ कर भाग लिया, अपितु उसका भरपूर आनंद भी उठाया। मैंने देखा कि दिए हुए पांच वर्णों के साथ बारह वर्ण और जोड़कर, अनेकों नए हाइकु का प्रादुर्भाव हुआ। मेरी इस विधि ने लोगों को हाइकु लिखना, सीखने में भी बड़ी मदद की। 
  
मेरी इस पुस्तक में लगभग एक हजार से भी अधिक हाइकु का संकलन है, जिसमें सभी की सभी हाइकु श्रृंखला हैं। प्रत्येक श्रृंखला के सभी हाइकु या तो एक ही पंक्ति की धुरी पर हैं या एक ही विषय वस्तु पर आधारित हैं।  इन श्रृंखलाओं में मैंने प्रवाह लाने का प्रयत्न किया है। श्रृंखला की कड़ी होने के साथ, अपने विशेष गुणों के कारण, प्रत्येक हाइकु स्वतंत्र भी है। अपने उन्हीं विशिष्ट गुणों के कारणएक एक हाइकु मोती के समान मूल्यवान होता है, इसीलिए मुझे इस पुस्तक का नाम 'मोतियन की लड़ी' अधिक उपयुक्त लगा। मेरे अधिकतर हाइकु पाठकों द्वारा सराहे जाते हैं और उनका भरपूर प्यार मिलता है। मैं आशान्वित हूँ कि आपका स्नेह और शुभकामनाएं भविष्य में भी निरंतर मिलती रहेंगी 

एस. डी. तिवारी, एडवोकेट 

जाकर कहीं
सुंदरता बसती
पहाड़ों में ही

इतनी भाई
घाटी की सुंदरता
अकेले लौटा

चाँद भी देख
हिमालय की शोभा
शरमा जाता

पूरी दुनिया
पर्वत पर चढ़
दिखे सुन्दर

पास हो जाता
पहाड़ चढ़ कर
प्रभु का घर

अक्सर आते
मेघ मुख चूमने
पहाड़ों पर

कोई न कोई
कैसा भी पहाड़ हो
रास्ता तो होगा



कवि परिचय
नाम               :  सत्य देव तिवारी पुत्र श्री वंश नारायण तिवारी
जन्म तिथि     :  २० दिसम्बर, १९५५
जन्म स्थान    :   ब्रह्मनौली (हंसराज पुर), जनपद गाज़ीपुर, उ. प्र.
शिक्षा             :   एम० काम०, एलएल० बी०, कार्मिक प्रबंध में डिप्लोमा
काव्य विधाएँ   :   हाइकु, गीत, गजल, मुक्तक, दोहा, कुंडलियां, कह मुकरी, तांका, छंद मुक्त काव्य एवं
                           कहानियां
व्यवसाय        :    ३० वर्ष तक भारत सरकार के उपक्रम में प्रबंधकीय पदों पर सेवा के पश्चात् दिल्ली                                            में वकालत
पता               :   ५७ सी, ऊना एन्क्लेव, मयूर विहार फेज १, दिल्ली ११००९१
मोबाइल          : 7982202009, ९८६८९२४१३९
ईमेल              : sdtiwari1@gmail.com
सम्मान           : १. अधूरा मुक्तक फेसबुक साहित्यिक मंच द्वारा 'साहित्य रत्न' सम्मान
                         २. छंद मुक्त विधा में स्वर्णकार तेजमन स्मृति सम्मान
पुस्तकें            : हिंदी : हाइकु शास्त्र, नन्हीं, बोलते मोती, मोतियन की लड़ी, दिल्ली के झरोंखे, मुहब्बत के                                 मोती, तेरे नाम के मोती, पांच दाने मोती,  गुनगुनाती हवा,  दुनिया गिर गयी, गीत गुंजन,
                        चाँद के गांव,  कविता तो बोलेगी, क्या सखि साजन  प्यार का पिंजरा, हाइकु रामायण,  श्री दुर्गा                          कथा, आशिक अली की होली, बसे विदेश, विदेश की चटनी, इनकी उनकी
                         अंग्रेजी : द सिंगिंग ब्रीज, बर्ड्स ऑफ़ चांटिंग वर्ड्स




यमुना नदी के तट पर बसी, दिल्ली एक अतीव प्राचीन नगरी है। इसका हजारों वर्ष लम्बा और रुचिकर इतिहास सभी भारतवासियों के मन मानस पर आच्छादित है। दिल्ली का इतिहास सहस्रों वर्ष पूर्व महाभारत काल से प्रारम्भ  हो जाता है, जब पांडवों ने इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाई। पांडवों के वंशजों की राजधानी इन्द्रप्रथ कब तक रही, निश्चितपूर्वक नहीं कहा जा सकता। कालांतर में सत्ता का केंद्र उत्तर पूर्वी भारत की ओर चला गया और राजनितिक शक्ति का केंद्र मुख्यतः मगध रहा। एक बड़े अंतराल के पश्चात दिल्ली में राजपूतों  का आगमन हुआ और तोमर तथा चौहान वंश का राज्य स्थापित हुआ। तत्पश्चात खिलजी, तुगलक, लोदी, मुग़ल और फिर अंग्रेज आये। सभी शासक दिल्ली के आस पास नया शहर बसाते गए जिनमें मुख्यतः सूरज कुंड, लाल कोट, दीनपनाह, किला राय पिथौरा, फिरोज़ाबाद, जहांपनाह, तुगलकाबाद, दीनपनाह, शाहजहानाबाद और लुटियन्स क्षेत्र आदि थे ।आज की दिल्ली इन सभी शहरों के समूह के साथ, और अधिक विस्तृत रूप है। अनेकों खंडहर और इमारतें दिल्ली के इतिहास का जीवित प्रलेख हैं। दिल्ली कितनी ही बार उजड़ी और बसी, इसकी मिटटी रक्तरंजित और धरती अनेकों वीर गाथाओं से भरी पड़ी है। पृथ्वीराज चौहान की वीरता की कहानियों से कौन नहीं परिचित है। 

बदलते परिवेश के साथ साथ यहाँ की संस्कृति भी बदलती रही।  दिल्ली का गौरवपूर्ण  इतिहास और संस्कृति अपने आप में अद्वितीय है। दिल्ली आज स्वतंत्र और लोकतंत्र भारत की राजधानी है। अब यह किसी एक राजा की संपत्ति नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात् दिल्ली का स्वरुप बड़ी तेजी से बदला और इसकी जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई । कहते हैं कि  दिल्ली भारत का दिल है और मैं कहता हूँ दिल्ली यहाँ के वासियों के दिल में है। यहाँ पर जो भी एक बार बस जाता है, दिल्ली उसके दिल में बस जाती है। 

स्वतंत्रता के पश्चात्, अपार हर्ष के साथ, दिल्ली अनियोजित ढंग से बसती और बढ़ती रही। जिसके कारण इस नगर को कई समस्यायों से जूझना पड़ रहा है। फिर भी यहाँ की संस्कृति, कला, सहिष्णुता, रोजगार के अवसर लोगों को स्वयं से बांधे रखी। खेल और कला के क्षेत्र में इस शहर ने सराहनीय प्रदर्शन दिखाया। खेल और कला के प्रति लोगों की रूचि ने यहाँ अनेकों रंगमंच और स्टेडियम के निर्माण को प्रेरित किया। दिल्ली ने जहाँ आधुनिक जीवन शैली को अपनाया है वहीँ परम्परागत मूल्यों को भी बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत सरकार का पुरातत्व विभाग ने इसकी ऐतिहासिक धरोहर को बचाये रखने में बड़ी सार्थक भूमिका निभाई। दिल्ली में एक छोटा भारत बसता है और यहाँ देश के लगभग सभी त्यौहार मनाये जाते हैं। दशहरा, दिवाली, होली, ईद, बैसाखी, पोंगल, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी इत्यादि इस शहर को पूरे वर्ष स्फूर्ति से भरपूर और रंगमय बनाये रखते हैं। 

खाने पीने के शौकीनों के लिए दिल्ली स्वर्ग जैसा है। दिल्ली जितने स्वाद बसाये हुए है विश्व में शायद ही कहीं और मिले। देश के विभिन्न प्रकार के व्यंजन तो यहाँ हैं ही, विदेशों के भी सभी प्रकार के लोकप्रिय व्यंजन दिल्ली में खाने को मिलते हैं। दिल्ली की चाट, दही भल्ले, छोले भठूरे, आलू की टिक्की, कचौड़ी, कुल्फी फालूदा, समोसा, जलेबी, इडली, डोसा, टिक्का और इनके अतिरिक्त पिज्जा, बर्गर, चाउमीन; न जाने कितने ही स्वादिष्ट व्यंजन मन को मोह लेते हैं। 

दिल्ली में हर रहने वाले को कई प्रकार के खट्टे मीठे अनुभवों का सामना करना पड़ता है। दिल्ली की संकरी गलियों से लेकर सत्ता के गलियारों तक से रूबरू होना पड़ता है। दिल्ली में जहाँ न्याय का सर्वोच्च मंदिर है, वहीँ इसके दामन पर जघन्य और घिनौने अपराध के धब्बे भी । गीता चोपड़ा और निर्भया जैसे वीभत्स काण्ड को भी दिल्ली ने देखा है। आज के रहन सहन में लोगों को अनेकों समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। जहाँ तकनिकी विकास और आधुनिकीकरण ने कई सुविधाओं का प्रतिपादन किया वहीँ कई चुनौतियाँ भी खड़ी कीं। 
यातायात की समस्या, दुर्घटनाएं, जीवन में नीरसता, व्यव्हार में रूखापन, पैसे कमाने की होड़, अवसरवाद, निर्धन की दयनीय स्थिति, मानवता का ह्रास, दया व प्रेम का आभाव जैसी कई विषम परिस्थितियों से दिल्ली को निरंतर सामना करना पड़ रहा है।  

दिल्ली की अच्छाईयों का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता हैकि यहाँ आने वालादिल्ली का ही  होकर रह जाता है और दिल्ली  उसके मन में रस बस जाती है। प्रत्येक वर्ष  दिल्ली की जनसँख्या बढ़ जाना 
इसका प्रमाण है। दिल्ली की कई बातें जहाँ हरेक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं वहीँ कई अन्य बातें दिल को झकझोर भी देती हैं। इन्हीं अनुभवों के आधार पर मैंने अपनी रचनओं के द्वारा कुछ खट्टे मीठे व्यंजन आपको परोसने का प्रयत्न किया है। मेरी अनेकों रचनाएँ आभासी दुनियां यानि के इंटरनेट की विभिन्न वेब साईटों पर भी प्रकाशित होती रहती हैं, जहां पाठकों का भरपूर प्यार और सराहना मिलती रहती है। मैं उन सभी पाठकों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। उम्मीद है आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद निरंतर मिलता रहेगा, क्योंकि आपके स्नेह से प्रेरित मेरी कलम रुकने वाली नहीं है।

                                                                                                 
एस० डी० तिवारी

मेरी बात

प्रकृति से भला किसे प्रेम नहीं होगा। सच मानें तो प्रकृति ही है, जो कवि को जन्म देती है। प्रकृति अपनी गोद में अनुपम छटा के अतिरिक्त, अनगिनत अचंभित कर देने वाले तत्व समाये हुए है। प्रकृति की छटा मानव जाति को बरबस ही अपने वश में कर लेती है। हमारी एक एक सांस प्रकृति से जुडी है। साहित्य में प्रकृति का वर्णन आदि काल से होता चला आया है। प्रकृति के बिना साहित्य रिक्त सा प्रतीत होगा। जहाँ प्रकृति के बिना जीवन संभव नहीं है, वहीँ प्रकृति हमारे जीवन के हर पल को सफल बनाती है।

प्रकृति  का वर्णन करने के लिए जापानियों ने सत्रहवीं शताब्दी में काव्य की एक नयी विधा का प्रादुर्भाव किया। मात्र सत्रह मात्राओं की उनकी नन्हीं सी कविता, जिसे हाइकु का नाम दिया गया, अमरत्व को प्राप्त हो गयी। सर्व प्रथम मात्सुओ बाशो ने हाइकु लिखना प्रारम्भ किया। उसके पश्चात् योसा बुशान और काब्याशी इस्सा के नाम जुड़े, फिर तो अनेक हाइकुकार जुड़ते गए। हाइकु की यात्रा शताब्दियों से अनवरत चली आ रही है। हाइकु सत्रह मात्राओं या वर्णों की एक नन्हीं सी कविता होती है जिसे ५-७-५ के क्रम में लिखा जाता है। यानि की पहली पंक्ति में पांच वर्ण, दूसरी पंक्ति में सात वर्ण और तीसरी पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं। अन्य विधाओं में छंद की वाध्यता होने से अनेक लोग, मन में अच्छे भाव उत्पन्न होने के पश्चात् भी कविता नहीं लिख पाते और उनके भाव या विचार कहीं न कहीं विलुप्त हो जाते हैं, हाइकु में लय या सुर की कोई बाध्यता नहीं होती। वैसे हाइकु लिखना भीं इतना सरल नहीं है। इसे लिखने के लिए पर्याप्त अध्ययन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। हाइकु एक अति सूक्ष्म कविता होने के अतिरिक्त भी बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम होता है। इसके रोमांचित कर देने की क्षमता के कारण इसकी लोकप्रियता सतत बढ़ती जा रही है। हाइकु में प्रकृति, प्राकृतिक परिदृश्य, प्रकृति के व्यवहार, प्रकृति की क्रीड़ा, मानव जीवन में प्रकृति इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। जल, वायु, अग्नि, भूमि, पशु, वनस्पति, फूल, फल,  नदी, झरना, समुद्र, वर्षा, इंद्रधनुष, पेड़, पत्थर, पहाड़, सूरज, चाँद, तारे, नभ, मेघ, जीव जंतु आदि अनेकों ऐसे सन्दर्भ हैं जो हाइकु के प्रमुख विषय वस्तु होते हैं। वैसे नियमानुसार हाइकु की विषय वस्तु प्रकृति ही होती है पर जीवन व दैविक विषयों पर भी हाइकु लिखे जाते हैं जिन्हें सेनर्यू कहते हैं।  हिंदी हाइकु जगत में सेनर्यू को भी हाइकु ही कहा जाता है क्योंकि हाइकु और सेनर्यू में विषय के  अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं होता है। 


प्रारम्भ में आभासी दुनिया यानि कि इंटरनेट के द्वारा उचित मंच मिल जाने के कारण मेरा ध्यान अंग्रेजी काव्य की ओर गया।  मेरी अंग्रेजी की कवितायेँ विभिन्न वेबसाइटों पर प्रकाशित होती रहीं जहाँ पाठकों की टिपण्णी  व सराहना, और अधिक लिखने की प्रेरणा देती रहीं। अंग्रेजी कविता लिखने के क्रम में ही  हाइकु पढ़ने और लिखने का अवसर मिला। हाइकु की कला औरा सारगर्भिता ने मुझे इतने आकृष्ट किया कि मुझे भी हाइकु लिखने का आदी बना दिया। अंग्रेजी में हाइकु लिखना इतना सरल तो नहीं था पर मैंने जो भी प्रयास किया पाठकों द्वारा बहुत सराहा गया और आगे लिखने की प्रेरणा देता रहा। अंग्रेजी में हाइकु मात्राओं के आधार पर  लिखे जाते हैं। सत्रह मात्राओं की गणना और उन्हें तीन पंक्तियों में बांटना बड़ा कठिन काम लगता था। मैंने जब अपनी मातृभाषा यानि हिंदी में लिखना प्रारम्भ किया तो एक असीम आनंद की अनुभूति हुई और लगा का जैसे जीवन का सच्चा लक्ष्य मिल गया हो। फिर तो हाइकु मेरे जीवन में रस बस गया और देखते ही देखते मैंने सत्रह वर्णों की हजारों कवितायेँ लिख डालीं। मैंने अनेकों हाइकु फेस बुक आदि के द्वारा पाठकों को उपलब्ध कराया, जहाँ उनका भरपूर प्यार मिला। आज हाइकु की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी है कि हजारों हाइकुकार खूब बढ़ चढ़ कर हाइकु लिख रहे हैं। कुछ हाइकुकार समझते हैं कि बात को किसी अन्य वस्तु की उपमा देकर या छायावादी रचनाओं के द्वारा ही अच्छा हाइकु लिखा जा सकता है परन्तु इसके उलट, सीधी सादी बात को ही कलात्मक ढंग से कहकर भी अच्छा हाइकु लिखा जा सकता है, महत्वपूर्ण है उसके भीतर चौंकाने वाला तत्व। हाइकु में साधारण बात को ही असाधारण तरीके से कहा जाता है। जीवन के हर कदम पर हाइकु है और हर पहलू या विषय पर हाइकु लिखा जा सकता है। बात को कहने की कला ही हाइकु को हाइकु बनाता है। हाइकु लिखने की विस्तृत जानकारी मेरी अन्य पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में दी गयी है।  


मेरी सत्रह वर्णों की कुछ नन्हीं, नन्हीं कवितायेँ इस पुस्तक 'नन्हीं' में संग्रहित हैं। सत्रह वर्णों के अतिरिक्त कुछ आधुनिक और एक पंक्तीय हाइकु भी इस पुस्तक में दिए गए हैं। आप सभी से अपेक्षित हूँ कि आपका प्यार और आशीर्वाद निरंतर मिलता रहेगा और मेरी लेखनी अबाध्य रूप से चलती रहेगी। आपका  -

एस० डी० तिवारी   


बोलते मोती
मेरी बात
हाइकु की यात्रा, शताब्दियों से अनवरत चली आ रही है। हाइकु, सत्रह वर्णों की एक नन्हीं सी कविता होती है जिसे ५-७-५ के क्रम में लिखा जाता है। यानि की पहली पंक्ति में पांच वर्ण, दूसरी पंक्ति में सात वर्ण और तीसरी पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं। हाइकु की विषय वस्तु, मूलतः प्रकृति होती है, किन्तु जीवन से सम्बंधित हाइकु भी खूब बढ़ चढ़ कर लिखे जाते हैं।  जिस साहित्य में जीवन से सम्बंधित रस का समावेश न हो, वह अधूरा ही रहता है। साहित्य भी तो जीवन का ही एक अंग है। जीवन सम्बन्धी व दैविक विषयों पर लिखे हाइकु को जापानी व अंग्रेजी में सेनर्यू कहते हैं, किन्तु हिंदी में यह हाइकु के ही नाम से प्रचलित है। वैसे हाइकु और सेनर्यू में, विषय के अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं होता। हाइकु काव्य की एक जापानी विधा है, जिसका प्रादुर्भाव सत्रहवीं सदी में जापान में हुआ था। अन्य विधाओं में छंद की वाध्यता होने से अनेक लोग, मन में अच्छे भाव या विचार उत्पन्न होने के पश्चात् भी बहुत से लोग कविता नहीं लिख पाते और उनके भाव या विचार कहीं न कहीं विलुप्त हो जाते हैं। हाइकु में लय या सुर की कोई बाध्यता नहीं होती। हाइकु की विशेषता होती है, इसके अंदर का घुमाव। हाइकु लिखना भी इतना सरल नहीं है, इसे लिखने के लिए पर्याप्त अध्ययन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। हाइकु सूक्ष्मतम कविता होने के बावजूद भी बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम होता है। इसके रोमांचित कर देने की क्षमता होती है जिसके कारण इसकी लोकप्रियता सतत बढ़ती जा रही है।

हाइकु लिखना जितनी बड़ी कला है, उसे समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह एक अपूर्ण कविता होती है, और पाठक को इसके अर्थ की व्याख्या करके पूरा करना होता है। यह इतनी चतुराई से लिखा जाता है कि इसके द्वारा लेखक एक दिशा दे देता है, परन्तु अपने गंतव्य तक पाठक पहुँच जाता है।  अति सूक्ष्म कविता होने और बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात कहने के कारण, हाइकु समझना भी इतना सरल नहीं होता।  कई बार तो एक बार पढ़कर पता ही नहीं चलता कि हाइकु में क्या कहा गया है। जब थोड़ा मनन करते हैं और गहराई में जाते हैं तो बात समझ में आती है। हाइकु की विशेषता होती है इसमें अर्थ का घुमाव या चौंकाने वाला तत्व, जो इसे रोचक और सुन्दर बनाती है। जीवन के हर कदम पर हाइकु है, बस लिखने वाला होना चाहिए। मैंने कई हजार हाइकु लिखे हैं जो अलग अलग पुस्तकों में प्रकाशित हैं। मेरी एक अन्य पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में हाइकु लिखने की विस्तृत जानकारी  दी गयी है।  

इस पुस्तक में जीवन की विभिन्न पहलुओं को नन्हीं नन्हीं कविताओं के द्वारा दर्शाया गया है। हाइकु में जीवन को उतरना कितना रोचक है, यह इस पुस्तक को पढ़कर ही ज्ञात होगा। हाइकु नन्हीं कविता होकर भी कितनी कुशलता से जीवन दर्शन करता है आप यहाँ जान पाएंगे।  आप सभी से एक बार फिर अपेक्षा करता हूँ कि आपका स्नेह  और आशीर्वाद सतत मिलता रहेगा और मेरी लेखनी अबाध्य रूप से चलती रहेगी। आपका  -


एस० डी० तिवारी 

चंपा के फूल / पांच दाने मोती /  
मेरी  बात 

आज हाइकु काव्य से कौन नहीं परिचित है। मुझे तो अब हाइकु लिखने का एक व्यसन सा हो चुका है, जिसके परिणाम स्वरुप मैंने अब तक कई हजार हाइकु लिख डाला। हाइकु, मात्र सत्रह अक्षरों का एक सूक्ष्म काव्य होने के बावजूद भी मैंने अनुभव किया है कि इसमें, काव्य के विभिन्न आयाम बड़ी सुंदरता से समाहित हो सकते हैं, और काव्य का कोई भी रस या भाव इसके छोटा होने के कारण वंचित नहीं रह सकता। वैसे जापानी कवि प्राकृतिक और जीवन सम्बन्धी विषयों पर ही हाइकु लिखते थे। प्रकृति से सम्बंधित हाइकु को हाइकु, तथा जीवन सम्बन्धी व दैविक विषयों पर लिखे हाइकु को सेनर्यू कहते हैं। वैसे हिंदी में दोनों में कोई अंतर नहीं है। हाइकु ५-७-५ वर्णों के क्रम में नन्हीं सी कविता होती है जिसके लिखने विस्तृत जानकारी मेरी अन्य पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में दी हुई है।  

हाइकु, काव्य की अतुकांत विधा होती है। अतुकांत अथवा छंद व लय से मुक्त होने के कारण, हाइकु लिखने में बहुत से रचनाकारों को सहजता का अनुभव होता है, और उन्हें अपने भाव प्रकट करने में झिझक नहीं होती। छंद की वाध्यता होने से अनेक लोग, मन में अच्छे भाव आने के पश्चात् भी अपनी कविता को मूर्त रूप नहीं दे पाते और उनके भाव या विचार कहीं न कहीं विलुप्त हो जाते हैं।हाइकु उनके लिए एक वरदान है। इसके छोटा होने के कारण छंद रचना में सरलता का अनुभव होता है। हाइकु एक अति सूक्ष्म कविता होने के बाद भी बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम होता है, जिसके कारण इसकी लोकप्रियता सतत बढ़ती जा रही है। किन्तु यह लघु कविता होने के पश्चात् भी हाइकु लिखना इतना सरल नहीं है। हाइकु काफी मनन और चिन्तन के पश्चात् ही लिखा जा सकता है। इसे लिखने के लिए पर्याप्त अध्ययन व अभ्यास की आवश्यकता होती है। 

यूँ तो हाइकु में किसी स्वर या लय की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु हिंदी काव्य में, अगर छंदों में लय हो तो उसका आनंद बढ़ जाना स्वाभाविक है। हम लोग बचपन से ही लयबद्ध कवितायेँ पढ़ते सुनते आये हैं, यही कारण है कि अभी भी मुझे स्वरबद्ध कविता ही अच्छी लगती है। मैंने तो यथासंभव हाइकु में भी किसी न किसी रूप में स्वर और गति लाने का प्रयत्न किया। किन्तु यह वर्णों पर आधारित काव्य होने और मात्र सत्रह अक्षरों में ही अपनी बात कहने के कारण, स्वतंत्र हाइकु में तो स्वर दिया जा सकता है, पर किसी श्रंखला में एक स्वर देना, अत्यंत कठिन कार्य है। इस पुस्तक 'पांच दाने मोती' जिसमें, पांच पांच हाइकु की श्रृंखलाएं हैं, मैंने कुछ श्रृंखलाओं में स्वर  लाने का प्रयत्न किया है। हाइकु हेतु अधिक महत्वपूर्ण हैं, उसके तत्व। स्वरबद्ध करने के कारण, यदि उसका मूल रूप विकृत होने लगे तो यह प्रयोग सर्वथा व्यर्थ हो जायेगा। इसका एक सरल उपाय ढूंढकर, मैंने एक पंक्ति को स्तम्भ बनाकर, या यूँ कहें अंतिम पंक्ति को रदीफ़ अथवा पदांत बनाकर, कई हाइकु की श्रृंखला रचने का प्रयोग किया और अपनी पुस्तक 'मोतियन की लड़ी' लिखा। मैंने फेस-बुक पर भी एक समूह में एक पंक्ति देकर, हाइकुकारों को उस पंक्ति को अपने हाइकु में समाहित करते हुए दो और पंक्तियाँ जोड़कर, हाइकु लिखने का आह्वान किया, जिसमें अनेकों हाइकुकारों ने, न केवल खूब बढ़ चढ़ कर भाग लिया, अपितु उसका भरपूर आनंद भी उठाया। 

मेरी इस पुस्तक में भी लगभग एक हजार हाइकु का संकलन है, जो पांच पांच हाइकु की श्रृंखलाओं में व्यवस्थित हैं। इनमें से प्रत्येक हाइकु, किसी श्रृंखला की एक कड़ी होने के साथ स्वतंत्र भी है, अतः हरेक का अपना पृथक अर्थ और आनंद है। इस पुस्तक 'पांच दाने मोती' की हाइकु श्रृंखलाएं चंपा के फूल की पांच पंखुड़ियों समान, एक ही विषय पर पांच पांच कड़ियों में हैं। चंपा या कचनार के नन्हें फूलों में पांच पांच पंखुड़ियां होती हैं और अनेकों रंग में होने के साथ, वे विविध गुणों से संपन्न होते हैं। चंपा के फूल के कई उपयोग भी होते हैं, जैसे, बाग़ की शोभा, सुगन्धित व स्वच्छ वातावरण बनाना, पोषक खाद्य, औषधि में प्रयोग आदि। 
                        करते वास 
                     रंग रूप सुबास   
                       चंपा के फूल  
इस पुस्तक की पांच पांच हाइकु की श्रेणी अपने अंदर अनेकों विषय और पहलू समेटे हुए हैं। मेरी अन्य हाइकु रचनाओं को आपकी भरपूर सराहना और प्यार मिला । मैं आशान्वित हूँ, आपका आशीर्वाद और स्नेह, भविष्य में भी निरंतर मिलता रहेगा।

एस. डी. तिवारी


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मेरी बात
मुहब्बत के मोती
श्रृंगार, प्रेम और विरह रस की कवितायेँ तो आपने गजल, मुक्तक, शेर, रुबाई, दोहे आदि में खूब पढ़ी होंगी। इस पुस्तक में मैंने, इश्क, मुहब्बत, उल्फत, प्रेम, प्यार, विरह,  तन्हाई, अनुराग, विरक्ति आदि विषयों पर अपने भाव को मात्र सत्रह अक्षरों के हाइकु छंदों में समेटने का प्रयत्न किया है। मेरे विचार से, हाइकु का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। जापान से आया सत्रह मात्राओं का हाइकु अब हिंदी साहित्य में न ही मात्र रस बस गया है, अपितु बहुत लोकप्रिय हो चुका है। हां, हिंदी में, मात्राओं के आधार पर नहीं, अपितु वर्णों के आधार पर यानी सत्रह अक्षरों में हाइकु लिखे जाते हैं। इसमें मात्राओं और आधे अक्षरों को गिनती में नहीं जाता। जैसा कि आप को विदित है हाइकु, प्रमुख रूप से प्रकृति और जीवन सम्बन्धी विषयों पर लिखे जाते रहे हैं। वैसे प्रेम, श्रृंगार और विरह भी जीवन के अभिन्न अंग हैं। प्रारम्भ में तो प्रेम रस पर हाइकु लिखने का साहस नहीं जुटा पा रहा था, पर जब लिखने लगा तो उनके आनंद के वशीभूत, यह पुस्तक लिख डाला। यह मेरा हाइकु लिखने की सनक का ही परिणाम है। मैंने देखा कि सत्रह अक्षरों के सीमा होने के बावजूद, एक एक हाइकु भरपूर दम रखता है, तथा बड़ी से बड़ी और अपनी पूरी बात कहने में सक्षम है। हाइकु पढ़ने या सुनने में भी शेर से कम आनंद की अनुभूति नहीं है। और तो और हाइकु छंदों में गीत, गजल, मुक्तक आदि भी बखूबी लिखा जा सकता है। समयाभाव या जो भी कारण हो, आजकल बड़ी कवितायेँ पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। हाइकु जैसी छोटी कविता तो क्षणों में पढ़ा जा सकता है। पर हाँ पढ़ कर हाइकु के गागर में डूबना होता है, तभी उसमें भरे सागर की अनुभूति होती है। हाइकु का प्रत्येक छंद अपने आप में एक पूर्ण कविता है। हाइकु का सविस्तार वर्णन मेरी अन्य पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' में किया गया है। इस पुस्तक में लगभग एक हजार हाइकु हैं। आप समझ सकते हैं, एक हजार परंपरागत कविताओं को समाहित करने के लिए कई पुस्तकों की आवश्यकता पड़ जाएगी। परन्तु हाइकु में यह संभव है, तभी तो इसे 'गागर में सागर' कहते हैं।
हाइकु लिखने के साथ इसे पढ़ना भी एक कला है। यह एक संक्षिप्त और सूक्ष्म कविता होती है जिसे पाठक अपना विवेक प्रयोग करके समझता है। ऐसा शायद ही होता है, लिखने वाले को अपनी ही रचना पुनः पढ़ने का जी करे परन्तु 'मुहब्बत के मोती' का विषय और इसमें समाहित तत्व इतने रुचिकर हैं कि इसे मुझे भी बार बार पढ़ने का मन होता है। इसका एक और मुख्य कारण है कि भाव या विचार मस्तिष्क में स्थायी नहीं होते। यह तो बरसात के पानी की तरह है, पुस्तक के तालाब में धारण नहीं किया तो एक अज्ञात समुन्दर की ओर बह जाता है। जो बातें व विचार कविता के लिखते समय मस्तिष्क में होती हैं, आवश्यक नहीं कि वे पुनः भी आएं।
आपके प्यार और आशीर्वाद का तो मैं पहले ही अनुगृहीत हूँ, साथ ही अपेक्षित और आशान्वित हूँ कि भविष्य में भी आपकी सतत शुभकामनाएं और प्रेरणा, मेरी लेखनी को शक्ति प्रदान करती रहेंगी तथा हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपने एक नूतन लक्ष्य की ओर सफलता पूर्वक अग्रसर करती रहेंगी।

एस० डी० तिवारी


तेरे नाम  के मोती
मेरी बात

सत्रह वर्णों के हाइकु की यात्रा, शताब्दियों से अनवरत चली आ रही है। हाइकु, सत्रह वर्णों की एक नन्हीं सी कविता होती है जिसे ५-७-५ अक्षरों के क्रम में लिखा जाता है। यानि की पहली पंक्ति में पांच वर्ण, दूसरी पंक्ति में सात वर्ण और तीसरी पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं। हाइकु की विषय वस्तु, मूलतः प्रकृति होती है, किन्तु जीवन व दैविक विषयों  पर भी हाइकु भी लिखे जाते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में सेनर्यू कहते हैं, किन्तु हिंदी में यह हाइकु के ही नाम से प्रचलित है। वैसे हाइकु और सेनर्यू में, विषय के अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं होता।
इस पुस्तक में मेरे केवल दैविक विषयों पर लिखे हाइकु का संकलन है। मैंने अनुभव किया कि अपनी बात कहने के लिए बहुत अधिक शब्दों की आवश्यकता नहीं है अपितु सारगर्भिता की आवश्यकता है। एक प्रचलित कहावत है 'अक्लमंद के लिए इशारा ही काफी' यह बात इन सत्रह अक्षरों की कविता से सिद्ध हो जाती है।

 हाइकु लिखना भी इतना सरल नहीं है, इसे लिखने के लिए पर्याप्त अध्ययन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। हाइकु सूक्ष्मतम कविता होने के बावजूद भी बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम होता है। इसके रोमांचित कर देने की क्षमता होती है, जिसके कारण इसकी लोकप्रियता सतत बढ़ती जा रही है। हाइकु में लय या सुर की कोई बाध्यता नहीं होती। किन्तु कई स्थान पर स्वर के द्वारा  मैंने इसे रोचक बनाने का प्रयत्न किया है। हाइकु लिखना जितनी बड़ी कला है, उसे समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह एक अपूर्ण कविता होती है, और पाठक को इसके अर्थ की व्याख्या करके अथवा पुरे परिदृश्य की परिकल्पना करके पूरा करना होता है। हाइकु का सविस्तार वर्णन मेरे एक अन्य पुस्तक 'हाइकु  शास्त्र' में दिया गया है। 



यह इतनी चतुराई से लिखा जाता है कि इसके सूक्ष्म कविता होने और बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में लिखे जाने बाद भी सम्पूर्ण भाव प्रकट हो जाता है। थोड़े से शब्दों के द्वारा लेखक एक दिशा दे देता है, और पाठक अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है। अति सूक्ष्म कविता होने और बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात कहने के कारण, कई बार हाइकु पढ़कर, थोड़ा मनन करना पड़ता है। इस पुस्तक की सक्षिप्त कविताओं में ईश्वर की महिमा के  वर्णन के साथ 'गीता का निचोड़' भी हाइकु छंदों में दिया गया है। जिस प्रकार प्रभु की महिमा अपरम्पार है और बड़े से बड़े ज्ञानी, ऋषि, मुनि, देवता भी थाह नहीं लगा पाए, श्रीमद्भागवत गीता भी एक बहुत ही सार गर्भित रचना है और उसकी सम्पूर्ण व्याख्या बड़े बड़े विद्वान भी नहीं कर पाते। गीता की व्याख्या पर कितनी ही पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। मैंने इसके उलट उस सार गर्भित रचना को और संक्षिप्त करने का दुःसाहस किया है। मैं इस महान ग्रन्थ श्रीमद्भागवत गीता का विद्वान तो नहीं हूँ, यह उसमें समाहित तथ्यों व ज्ञान का पुनः स्मरण कराने का प्रयास भर है। मेरी इस कृति को क्षमा करते हुए पाठक गीता के उपदेशों के सारांश का पुनः स्मरण कर सकते हैं। विस्तृत  लिए श्रीमद्भागवत गीता की मूल रचना का अध्ययन किया जा सकता है।   


मेरी इस पुस्तक में समाहित ईश्वर की महिमा को स्मरण कराती, नन्हीं नन्हीं मोती जैसी सत्रह अक्षरों में आपको प्रभु के दर्शन का अवसर अवश्य मिलेगा, ऐसा मुझे विस्वास है। एक बार फिर आपके आशीर्वाद व प्यार की आकांक्षा रखते हुए, अपनी यह हाइकु रचना आपको समर्पित कर रहा हूँ।

एस० डी० तिवारी


गुनगुनाती हवा
अपनी बात
गजलों भरी शाम, तो अगला दिन भी आलीशान। ग़ज़ल के, खासतौर पर शाम को, कानों में घुसते ही मस्ती का आलम छा जाता है। गजल कविता की एक ऐसी विधा है जो सीधे ही दिल में उतरती है। क्योंकि यह दिल से लिखी जाती है, दिल से गायी जाती है और दिल से ही सुनी भी जाती है। हिंदी में लिखी जाने वाली गजलों को गीतिका का नाम दिया गया है, और गीतिका में शेर, युग्म हो गए।  इसी प्रकार मिसरा, पद; मतला, मुखड़ा; मकता, मनका;  काफ़िया, समान्त; रदीफ़, पदांत और बहर, मापनी हो गए। भाषा और शब्दों के अतिरिक्त, गजल और गीतिका में कोई विशेष अंतर नहीं है।

गीत और गजल के प्रति मेरे अगाध प्रेम ने ही इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रेरित किया। किसी गुरु अथवा उस्ताद से ग़ज़ल या गीतिका सीखने का अवसर तो मुझे नहीं मिला, परन्तु रेडियो, टेलीविज़न आदि पर सुनकर व समझकर और इंटरनेट के द्वारा पढ़कर, मैंने भी कुछ हिंदी में गजलें लिखने का प्रयास किया है। वैसे तो उर्दू के विशिष्ट शब्दों के बिना गजल का शबाब सही तरीके से नहीं निखर पाता, पर मेरा यह भी मानना है कि कविता की कोई भी विधा, किसी भाषा या मजहब की मोहताज नहीं होती। महत्वपूर्ण होता है शब्दों को कुशलता पूर्वक उस विधा में ढालना। मैंने हिंदी में गीत, मुक्तक, दोहे, कुंडलियां, कह मुकरी, अतुकांत कविता और यहाँ तक कि जापानी विधा का काव्य, हाइकु व तांका भी खूब लिखा। यहाँ पर मैंने हिंदी गजलें अथवा गीतिका लिखने का प्रयास किया है। न तो मैंने उर्दू का अध्ययन किया है, न ही शेर और शायरी के अधिक सम्पर्क में रहा हूँ, इस कारण उर्दू में गजल लिखना मेरे लिए कठिन कार्य है। हाँ, गजलें सुनने का शौक जरूर रहा है, गजल सुनते वक्त तो मैं उसी में डूब जाता हूँ। उर्दू के बहुत से ऐसे शब्द हैं, जो हिंदी में रस बस गए हैं और अब उनका हिंदी से विलग होना असंभव है। मेरी इस पुस्तक 'गुनगुनाती हवा' की रचना हिंदी में है, किन्तु उर्दू के वो शब्द जो हिंदी और खड़ी  बोली की आम बोल चाल में घुल मिल गए हैं, इन रचनाओं में सम्मिलित हैं। मेरे मन में जो भाव आये, उन्हें युग्म छंदों में उतार दिया। सभी गजलों या गीतिकाओं के पदों के बहर में अरकान यानि कि स्वरकावली का प्रयोग नहीं कर पाया हूँ, मैंने बस मन से ही गाकर लयबद्ध करने का प्रयत्न किया है, यद्यपि प्रयत्न किया है कि मापनी से भटकाव न के बराबर मिले।  

मेरी इस प्रकार की रचनाओं की यात्रा की यह शुरुआत भर है। दिल से जो उदगार निकलते गए, मैं कलम से पन्ने पर उतारता गया। एक गजल 'गुनगुनाती हवा' में तो इतना उत्साहित हो गया कि मैंने पैंतीस युग्म लिख डाले। इस किताब के अशआर, असरदार और रसदार हों, इस पर मैंने ध्यान देने का प्रयत्न किया है। इस पुस्तक की मेरी अधिकतर रचनाएँ धारावाही गीतिका यानि की मुसल्सल गजलों के रूप में ही हैं। 'गुनगुनाती हवा' के अतिरिक्त मेरी अनेकों हाइकु रचनाएँ तथा दो मुक्तक रचनाएँ 'दुनिया गिर गयी' और 'प्यार का पिंजरा' भी आपके दिल तक पहुँचने के लिए लालायित हैं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त भी मेरी कई काव्य रचनाएँ शीघ्र आपके पास तक पहुंचेंगी। मेरी गजल और मुक्तक रचनाएँ, विभिन्न वेब पृष्ठों पर प्रकाशित होकर, पाठकों का प्यार बटोरती रहीं, जो मेरी रचना हठधर्मिता को और अधिक प्रेरित करती रहीं । 

गजल और गीत की दुनियां में तो बहुतेरे सूरज, चाँद, सितारे मौजूद हैं, मैं भी अपनी रचनओं की एक नन्हीं सी चिंगारी लेकर आप के पास आया हूँ। इस चिंगारी को अगर आप की हवा मिल जाय तो हो सकता है, लौ बनकर जगमग रौशनी भी करे। मुझे उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि आप का स्नेह मेरी इस यात्रा को रौशन करेगा और मेरा आगे जाने का मार्ग सुदृढ़ बनेगा।

एस० डी० तिवारी, एडवोकेट


दुनिया गिर गयी
अपनी बात
कुछ तो मानव प्रकृति ही ऐसी है कि वह ज्ञान के आभाव में, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अनैतिक कार्य भी करने पर आमादा हो जाता है, और कुछ आधुनिक जीवन प्रणाली। हमारा जीवन पहले से बहुत बदल गया है, जिसके कारण मनुष्य के व्यवहार में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। पहले लोगों में भाईचारा, एक दूसरे के प्रति संवेदना, देश और समाज के प्रति कर्तव्यों क एहसास हुआ करता था, वहीँ अब सभी स्वकेन्द्रित होकर, अपने अपने चक्कर में पड़े हैं। अपने हित के लिए, दूसरों का अहित करने से भी नहीं चूकते। मनुष्य के इस व्यवहार के परिवर्तन में हमारे नेतृत्व और विज्ञान का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधानों ने जहाँ आधुनिक उपकरणों से जीवन को सहज, सरल और सुविधाजनक बनाया है, वहीँ मनुष्य को भौतिकवाद में धकेल, उसकी लालसा को भी बढ़ाया है। भौतिक सुविधाओं और साधनों की लब्धि के लिए मनुष्य के व्यवहार में अद्वितीय परिवर्तन हुआ है। एक ओर तो लोगों के लोभ, दर्प, क्रोध, समाज के प्रति उदासीनता में वृद्धि हुई है, वहीँ नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। उसके अंदर प्रेम, धैर्य, सहनशीलता और मानवीय भावों का निरंतर अवमूल्यन होता जा रहा है। अमीर गरीब की खाईं बढ़ती जा रही है। प्रकृति से लोगों की दूरी बढ़ती जा रही है। नई नई मशीनों, उपकरणों और मंहगी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए लोग अनैतिक रूप से धन कमाने का प्रयत्न कर रहे हैं। ये सब वस्तुएं सामायिक सुख तो अवश्य देती हैं, परन्तु लम्बी अवधि में जीवन की उलझन बढ़ जाती है। 
समाज के विकृति स्वरुप, और लोगों में असंतोष के लिए, हमारे नेतृत्व की बहुत बड़ी भूमिका है। राजनीति और सत्ता का दुरुप्रयोग निरंतर होता रहा है। पहले लोग राजनीति में सम्मान के लिए आते थे, जो जितना चरित्रवान और निष्ठावान नेता होता था, उसका उतना बड़ा नाम होता था। अब नेता की नियत, लोक कल्याण की कम और धन कमाने की अधिक होती है। चुनाव जीतने के पश्चात्, वे अनैतिक रूप से धन कमाने में लग जाते हैं और अनेकों नेता तो देखते देखते ही अकूत धन के स्वामी हो जाते हैं। नेताओं के रसूक को देख, नए नेता भी  अपना स्थान बनाने के लिए उनसे बढ़ चढ़ कर नए नए तरीके ढूंढते हैं, जिसमें झूठे आश्वासन और समाज को बांटने तक का कार्य सम्मिलित है। आम जन तो नेतृत्व का ही अनुकरण करता है। वह भी किसी न किसी माध्यम से अधिक से अधिक धन कमाने के फेर में पड़ जाता है। अधिकारी भी वेतन के अतिरिक्त और अधिक धन कमाने के लिए भ्रष्ट आचरण अपनाने लगते हैं। इस तरह की नियति अनेकों दुष्परिणामों की ओर लिए जा रही है। अपराध बढ़ रहा है, आम जनता में असंतोष पनप रहा है, परस्पर प्रेम और विस्वास  का लोप हो रहा है, संबंधों में कटुता आ रही है। इन्हीं सब बातों को मैंने अपनी पुस्तक 'दुनिया गिर गयी' में कुछ मुक्तक और कुंडलियों आदि के छंदों द्वारा, अपनी कुछ बातें कहने का प्रयत्न किया है। सदा की भांति मैं आपके स्नेह का आकांक्षी हूँ। 

एस डी तिवारी 



प्यार का पिंजरा
अपनी बात 
प्रेम के बिना यह संसार नीरस है, तथा प्रेम और विरह के बिना कोई भी साहित्य अधूरा। इस जग में, कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो अपने जीवन में, अनुरक्ति व विरक्ति से अछूता रहा हो। अनेकों महाकवि प्रेम और विरह की गाथाओं के महाकाव्य लिखकर, अमर हो गए। प्रेम गाथा के अतिरिक्त, प्रेम विषय पर मुक्त कवितायेँ भी खूब लिखी गयी हैं। प्रेम गाथा की कवितायेँ, किसी निश्चित नायक और नायिका की कहानी के आस पास घूमती हैं जबकि मुक्त कवितायेँ सार्वभौम होती हैं और अनेकों व्यक्ति से सम्बन्ध रखती हैं। किसी विषय पर मुक्त छंद लिखना अधिक कठिन होता है, क्योंकि कम शब्दों में ही अपनी पूरी बात भावपूर्ण तरीके से कहनी होती है। प्रेम के प्रसंगो में भी विभिन्न आयाम होते हैं, जैसे प्रियतम व प्रियतमा का मिलना या बिछुड़ना, प्रकृति, फूल, मौसम, पशु, पक्षी, पौधा, नदी, वस्तु, घूमना, साथ रहना, स्थल, भेंट, याद, धोखा, खाना, योजना, परिस्थिति, सम्बन्ध, खलनायक, आदतें, बहादुरी, निर्बलता, आय, आयु, नशा इत्यादि। इन आयामों के भाव को उभारते हुए अनेकों छोटी बड़ी प्रेम व विरह से सम्बंधित कवितायेँ व गीत पढ़ने, सुनने को मिलते हैं। 

प्रेम एक ऐसा विषय है, जिसका सटीक और पूर्ण रूप से वर्णन करना असंभव सा है। यही कारण है, सदियों से प्रेम विषय पर अनेकों ग्रन्थ लिखे जाने के पश्चात् भी नए नए ग्रन्थ लिखे जाते हैं और उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं होती। जैसा कि कहा जाता है, प्रेम एक अगाध सागर है। महाकवि कबीर के शब्दों में -

अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाय।
गूंगा केरी शर्करा, बैठे ही मुस्काय।

कबीर के अनुसार प्रेम का मात्र अनुभव ही किया जा सकता है, उसका वर्णन नहीं। जिस प्रकार कोई गूंगा मिष्ठान खाकर उसकी मिठास का अनुभव तो कर सकता है पर बोलने की क्षमता नहीं होने के कारण उसका वर्णन नहीं कर सकता। 

और प्रेम की गहराई का वर्णन करते हुए अमीर खुसरो का यह दोहा -
खुसरो दरिया प्रेम की, उलटी वाकी धार।
जो उतरा डूब गया, जो डूबा सो पार।

कबीर का एक और दोहा देखिये -
पहले अगन विरह की, पाछे प्रेम की प्यास।
कहे कबीर तब जानिए, नाम मिलन की आस।  

यानि विरह के पश्चात् मिलन होने पर प्रेम का महत्व कितना बढ़ जाता है, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।  ठीक उसी प्रकार, जैसे मरुस्थल में किसी प्यासे को जल मिल जाय। वैसे संत कबीर यह दोहा ईश्वर  के प्रति प्रेम को इंगित करता है। 

प्रेम और विरह रस की कवितायेँ अनेकों विधाओं में लिखी जाती हैं। जिस प्रकार भौंरा फूल देखते ही मंडराने लगता है, यह नहीं देखता किस पौधे का फूल है; उसी प्रकार प्रेम या इश्क के विषय में कविता किसी भी विधा में हो, पाठक को अनायास ही आकर्षित करती है। हिंदी काव्य में मुक्तक एक अति लोकप्रिय विधा है। मुझे मुक्तक लिखना और पढ़ना बहुत पसंद है। वैसे तो मैंने प्रेम रस की बहुत सी बातें, मात्र सत्रह अक्षरों के छंद हाइकु में भी कहीं हैं। सत्रह वर्णों का छंद हाइकु भी बहुत कुछ कह देता है। प्रेम और विरह रस पर आधारित मेरी हाइकु रचनाओं की पुस्तक 'मुहब्बत के मोती' भी पाठकों के लिए उपलब्ध है। शब्दों का गहराई से आनंद लेने वालों को वो हाइकु छंद रोमांचित करने वाले सिद्ध होंगे। किन्तु छंदों में लय का समावेश भी हो तो पाठक का आनंद थोड़ा और बढ़ जाना स्वाभाविक है। छोटी लयबद्ध कविताओं की विधाओं में, मुझे मुक्तक या चतुष्पदी बहुत अच्छी लगी। मन में उत्पन्न भावों को कलमबद्ध करने के लिए, मुक्तक छंद काव्य की श्रेष्ठतम विधाओं में से एक है। मुक्तक के द्वारा अपनी भाव को लयबद्ध करके कहने पर, कविता में चार चाँद लग जाता है।  मुक्तक जैसा कि नाम ही है प्रत्येक छंद मुक्त भाव रखता है। मैंने, इस पुस्तक 'प्यार का पिंजरा' को लिखने के लिए, मुक्तक छंदों का चयन किया। पिंजरे में रहने वाले प्राणी को बंधन में तो अवश्य रहना पड़ता है, परन्तु छोड़ कर जाने में डर भी है कि वह अपने स्वयं के प्रयास से जीवन को सुचारु रूप से चला पायेगा य नहीं। प्यार में बंधे रहने पर उसके मन को जिस अलौकिक शांति और संतुष्टि की अनुभूति होती है उसकी परिकल्पना करना कठिन है, मगर बंधन में रहना किसे अच्छा लगता है। प्रेम का बंधन कुछ ऐसा ही है, बंधन में रहने पर भी कष्ट, और छूट जाने पर भी कष्ट। आशा करता हूँ, आप इन रचनाओं का आनंद लेने के साथ, अपने स्नेह से मुझे अनुगृहीत करेंगे। 

एस. डी. तिवारी, एडवोकेट



गीत गुंजन
अपनी बात
कविता तो मेरी स्नायु में रसी बसी है।  आरम्भिक जीवन में जीवन यापन की प्राथमिकता होने के कारण, शिक्षा के विषय साहित्य से हटकर चुनना पड़ा, किन्तु साहित्य के प्रति मेरी रूचि कभी कम नहीं हुई। कहावत है, देर से आये दुरुस्त आये, अंततः मुझे अपना सही स्थान मिल ही गया। मैंने जब लिखना प्रारम्भ किया तो लेखनी थमने का नाम नहीं ली और यह यात्रा अनरवत चलती रहेगी, ऐसा पूर्ण विस्वास है। मैंने साहित्य का सेवन करके अनुभव किया कि साहित्य एक ऐसी औषधि है, जो व्यक्ति को कभी बूढ़ा नहीं होने देती। और तो और साहित्य की सतत साधना किसी को भी अमरत्व की ओर ले जाती है। मुझे कविताओं से विशेष प्रेम होने के कारण, मेरी रूचि काव्य रचनाओं में ही अधिक रही और काव्य की अनेकों विधाओं को जिनमें  गीत, गीतिका, गजल, नवगीत,  मुक्तक, कुंडलियां, दोहे, हाइकु, टांका  इत्यादि प्रमुख हैं, अपनाया। मेरी इस पुस्तक 'गीत गुंजन'  की रचनाओं में गीत, नवगीत, गीतिका, मुक्तक, लोक गीत आदि गीत की कुछ विधाओं का समिश्रण है। इन गीतों में जीवन, प्रकृति, प्रेम, विरह, देश भक्ति, राजनीति, दैव भक्ति  इत्यादि अनेकों विषय समाहित होने के साथ कुछ लोकगीत भी हैं। बचपन में सुने स्त्रियों के गाये भोजपुरी लोकगीत जैसे सोहर, कजरी, झूमर, विवाह गीत आज तक मेरे कानों में गूंजते हैं। उन लोकगीतों का मूल रूप, आज, व्यावसायिक उपक्रमों ने रिकॉर्डिंग करके विकृति कर दिया है। उन गीतों को स्त्रियों के मुख से सीधे सुनने का आनंद तो अकल्पनीय है। इस पुस्तक में भी, मैंने दो चार गीत भी कलम बद्ध करने का प्रयत्न है।

आजकल अतुकांत कविता भी खूब बढ़चढ़ कर लिखी जा रही हैं और लोकप्रिय भी हो रही हैं, परन्तु गाने योग्य लयबद्ध कविता में जो रस और आनंद है और कहाँ। मेरा तो  यही मानना है कि भाव के साथ कविता में तुक, लय और प्रवाह हो और जिसे गाया जा सके, वही कविता वास्तविक कविता होती है। परन्तु यह भी सत्य है कि कई बार लयबद्ध नहीं कर पाने के कारण मन में उभरे सुन्दर और बहुमूल्य  भाव विलुप्त हो जाते हैं, ऐसे में लय का मोह त्याग कर किसी न किसी रूप में उन भावों को कलमबद्ध कर लेना ही उचित होगा। मैंने भी अतुकांत और अर्धतुकांत काव्य की अनेकों रचनाओं के साथ हाइकु की भी कई पुस्तकें लिखी हैं। अपने स्वभाव के अनुसार, मैंने अपने हाइकु भी यदा कदा लयबद्ध करने का प्रयत्न किया है।

इस पुस्तक के अतिरिक्त लयबद्ध छंदों में मैंने, मुक्तक रचनाओं की दो पुस्तकें 'दुनिया गिर गयी' तथा 'प्यार का पिंजरा' तथा हिंदी गजल की एक पुस्तक ' गुनगुनाती हवा' भी लिखा है। बचपन में पढ़ी पाठ्यपुस्तकों की कवितायेँ, विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीत और पुरानी फिल्मों के गीत, मेरी कविताओं के प्रेरणा स्रोत हैं। कविता के प्रति मेरा लगाव कितना है, यह मैंने इसी पुस्तक के एक छंद में प्रतिबिंबित किया है।

भाव भरे मन येकविता जनने को, व्याकुल हर बार हुआ। 
मैं रीझ गया हूँ भावों परमुझको कविता से प्यार हुआ।
शब्दों के फूल किया अर्पणसपना मेरा साकार हुआ,
कविता की खातिर फिर तोजीवन अपना न्यौछार हुआ। 

मुझे विस्वास है कि आपका स्नेह पाकर, मेरी काव्य रचना निर्बाध रूप से चलती रहेगी और आने वाले समय में अनेकों रचनाएँ पाठकों तक पहुंचेंगी।  आपकी शुभकामना और स्नेह सदैव आकांक्षी -

एस. डी. तिवारी






आशिक अली की होली

भावों का भंडार 'आशिकअली की होली'

आजकल की कहानियां अधिकांशतः वस्तु-परक और अपराध बोध की ही होती हैं।  मनुष्य की प्रकृति और व्यावहार में अत्यंत परिवर्तन आ चुका  है और वह भौतिकता की ओर ही भाग रहा है जिसके कारण उसकी संवेदना, सहनशीलता और भावनात्मक दृष्टिकोण का निरन्तर ह्रास हो रहा है। मानव भौतिकतावाद के वश मानव जाति लोभ का शिकार होता जा रहा है जिस कारण उसमे अपराध की प्रवृत्ति में निरंतर वृद्धि हो रही है।  साहित्य तो समाज का दर्पण है, अतः कहानियां भी उसी रंग में रंगी हुई लिखी जा रही हैं। ऐसे समय में श्री एस. डी. तिवारी, लीक से हटकर, साफ सुथरी कहानियों का संग्रह 'आशिक अली की होली' लेकर आये हैं। इस कहानी संग्रह में एक बड़े अंतराल के पश्चात् इस प्रकार की भावों से भरी कहानियां पढ़ने को मिली हैं।

एक कहानी 'मिनी की चाय' अनायास ही रविंद्रनाथ टैगोर लिखित कहानी 'काबुलीवाला' की याद दिला देती है। मिनी की एक प्याली की चाय के लिए दीनानाथ जी को कितने समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और इस चाय ने मिनी और दीनानाथ को भावनात्मक रूप से सदा के लिए जोड़ दिया। वहीँ 'आशिकअली की होली' सामाजिक सद्भावना, प्रेम  और इसके फलस्वरूप प्रसन्नता को क्या सुन्दर ढंग से उजागर किया है। 
तिवारी जी की एक कहानी 'पखड़ू का एक्का' गांव और समाज के कई पहलुओं पर प्रकाश डालती है। गांव के विभिन्न क्षेत्रों के कामगारों की समाज में भूमिका तथा समाज की उनके ऊपर निर्भरता के साथ समाज को जोड़े रखने की शक्ति, इस कहानी के महत्वपूर्ण पहलू हैं। कहानी में अपने काम के प्रीति कामगारों की कर्तव्यनिष्ठता और उनके सामाजिक उत्तरदायित्व को  बड़े विनोदपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
वहीँ 'नदी रो पड़ी' अपने गांव से बिछुड़े लोगों की भावनात्मक वेदना को बड़े सुन्दर तरीके से दर्शाती है।

'भंडारा' और 'खँडहर की खुदाई' कहानियों में तिवारी जी की व्यंग्य की धार देखने लायक है। इसी प्रकार
'दो बीबी का सौहर',  'कड़ाहा में बिछौना'  'शादी लाल की शादी' जैसी कहानियां हास्य से ओत प्रोत हैं तथा कुछ कहानियां सामाजिक परिवेश में घूमती समाज के कई बिम्ब सजीव दर्शाती हैं। कुल मिलाकर इस पुस्तक की कहानियां पाठक को बांधे रहती हैं और अपने आप को बार बार पढ़वाती हैं। श्री एस. डी. तिवारी अपनी इस कृति पर साधुवाद के पात्र हैं तथा इस संग्रह 'आशिकअली की होली' के प्रकाशन पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ।


प्रकाशक