Thursday, 26 March 2015

Shri Durga Kathaa


निवेदन 

श्री दुर्गा सप्तशती, देवी भगवती के माहात्म्य का एक अद्भुत ग्रन्थ है। देवी के माहात्म्य का पाठ करना या सुनना अमृतपान करानेवाला तथा एक असीम आनंद का आस्वादन कराने वाला है। यह अनमोल निधि, धारण करने वाले को सभी प्रकार के भय, संतापों से मुक्ति दिलाने वाला तथा मनोवांछित को पूर्ण कराने वाला है। यह माँ भगवती से सन्निकटता प्राप्ति का सरल व सहज साधन है। देवी की अपार महिमा का भेद बड़े बड़े देवता, ऋषि, मुनि, यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं जान सके। सभी देवताओं के प्रताप से देवी का प्रादुर्भाव हुआ। वे अजन्मा हैं परन्तु देवताओं व मनुष्यों के हितों की रक्षा के लिए समय समय पर प्रकट होती रहती हैं। 

इस ग्रन्थ में देवी दुर्गा के आविर्भाव, देवताओं द्वारा अपनी रक्षा व सहायता के लिए देवी का आह्वान तथा देवी के पराक्रम व महिमा का सजीव वर्णन है। 

तीनों लोक में व्याप्त हुईं देव देह की किरणें सारी। 
ेएकत्रित होने पर उनके, प्रकट हुई एक सुन्दर नारी। 
सब डिवॉन से जनित ये देवी, अद्भुत रूप निराली है। 
असुरों को जो नाश करेगी, ऐसी वो देवी काली है। 
सारे जगत में फैली देवी, उन्हीं का रूप, है यह जग। 
नित्य, अजन्मा हैं पर होतीं डिवॉन के कार्य हेतु प्रकट। 

भगवती का माहात्म्य सारा कष्ट दूर करने वाला, मनोवांछित को सिद्ध कराने वाला तथा दुर्लभ से दुर्लभतम वास्तु को भी प्राप्त कराने वाला है।  यह मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामना को पूरी कराने वाला है। जिस प्रकार  गहनतम तिमिर को प्रकाश की एक किरण भी दूर भगा देती है, भगवती का नाम मात्र ही अंतःकरण के घनघोर अंधकारमयी पापों को ध्वस्त कर भवसागर से पार लगाने वाला है। 

देवताओं को असुरों के तरस भययुक्त होने के लिए माँ भगवती की शरण में जाना पड़ा। उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर माता ने कई बार दुर्दांत असुरों का संहार किया तथा देवताओं को उनके भय से मुक्त कराया। 

जो ईश्वर इस जगत का पालक, संहारक, निर्माता है। 
वह भी योगनिद्रा महामाया तुम्हारे अधीन हो जाता है। 
भगवान् शंकर व विष्णु को शरीर देने की तुममें  शक्ति। 
सर्वशक्तिमान, सर्वस्वरूपा की किस प्रकार करें हम स्तुति।   
सब डिवॉन से जनित ये देवी, अद्भुत रूप, निराली है। 
असुरों का जो नाश करेगी, ऐसी वो देवी काली है। 

माँ भगवती शक्ति का स्वरुप है।  उनकी शरण में आने से, वह उपासकों को उनके शत्रुओं की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती है जिससे उन्हें शत्रुओं से भय नहीं सताता तथा वे सरलता से उन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। 

आपका अंश यह जगत है, आप ही हो सबका आश्रय। 
आपकी जिस पर कृपा हो, वह प्राणी हो जाए निर्भय। 
इस जगत की पीड़ा को, करने वाली समूल नष्ट। 
जो आपकी शरणागत हो, उनको देवी क्यों हो कष्ट !

देवी के माहात्म्य का लाभ, अधिक से अधिक श्रद्धालुओं को मिले, उन्हीं की असीम अनुकम्पा से , श्रीदुर्गासप्तशती का अति सहज और सरल हिंदी भाषा में काव्य रूपांतर करने को प्रेरित हुआ। इस लघु ग्रन्थ में भरसक प्रयास किया गया है कि काव्य रचना में  श्रीदुर्गासप्तशती के मूल भाव में परिवर्तन न आये। यद्यपि कोई त्रुटि हो तो उम्मीद करता हूँ श्रद्धालु क्षमा करेंगे और अपने बहुमूल्य सुझाव से हमें अनुगृहीत करेंगे। 

                                                                                       सत्यदेव तिवारी 




श्री सत्यदेव तिवारी अनूदित कृति श्रीदुर्गा कथा श्रीदुर्गासप्तशती का काव्यमय हिंदी रूपांतर है।  महिमामयी माँ के चरित्राख्यान से आलोकित एवं रसात्मकता से अपूर्ण पठनीय एवं हृदयंकारी काव्यात्मक अनुवाद बन पड़ा है। यह त्रयताप हरणकारी एवं चतुष्फलदायिनी, अनिवर्चनीय आनंद का आस्वादन करानेवाली, मणि कांचन सम्भोग करानेवाली, अमृतस्रोत बनकर भवभयहरिणी प्रस्तुति है। संस्कृत छंदों का हिंदी में यथावत सटीक अर्थ समाहित किये गेयात्मकता से परिपूर्ण इसका स्वरुप देवी भक्तों तथा समस्त पाठक वृन्द को आकृष्ट करने से शत प्रतिशत रूप से सक्षम है। इसमें सहज, भावात्मकता से परिपूर्ण प्रस्तुति के लिए श्री तिवारी जी को साधुवाद देता हूँ। और आशा करता हूँ कि उनकी लेखनी अपनी शत  शत रचनाओं से काव्यप्रेमियों को आह्लादित होने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करवाएगी। मैं इस कृति के स्वागत के स्वर्णिम, ज्योतिर्मान प्रभात का आकांक्षी हूँ और पाता हूँ कि सुन्दर भविष्य के गर्भ से आशा की किरणें नरंतर झांक रही हैं। श्री तिवारी और उनकीं प्रस्तुति के प्रति शत शत  शुभेक्षायें सम्प्रेषित हैं। 

नन्द किशोर मिश्रा 
पूर्व संपादक, भाषा, भारतब सरकार 
व 
कार्यकारी सचिव 
अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ, नई  दिल्लीं   



विषय क्रम 

देवी कवच 
अर्गला स्तोत्र 
कीलक 
वेदोक्तं रात्रिसूक्तम 
पहला अध्याय 



अथ देवी कवच 
ॐ नमश्चण्डिकायै 


मार्कण्डेय जी ने कहा, ब्रह्माजी से, भगवन !
मुझे बताईये कोई ऐसा, परम गोपनीय साधन। 

रक्षा करने वाला हो जो, मनुष्यों की सब प्रकार से। 
कहा न हो पितामह पहले, कभी आपने किसी और से। 

ब्रह्मा जी बोले सुनो ब्रह्मन, देवि कवच ही ऐसा साधन। 
सभी प्राणियों का हितकारी, कहता हूँ तुम करो श्रवण।   

देवी की हैं नौ मूर्तियां, कहते जिनको नौदुर्गा।   
शैलपुत्री ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा।  

स्कंदमाता, कात्यायनी, नवरात्रि, महागौरी। 
सिद्धिदात्री नाम हैं उनके, रखे सब भगवान स्वयं ही।   

जो शत्रुओं से घिरा हो, अथवा जल रहा अनल में।  
उसका नहीं अमंगल होता, प्राप्त देवी की शरण में।  

उनके पास नहीं है आता, कोई शोक दुःख या भय।
भक्तिपूर्वक स्मरण मात्र से, होता उनका अभ्युदय।  

करते जो तुम्हारा चिंतन, अवश्य करती उनकी रक्षा। 
तथा पूरी करती हो आप, उनके मन किन सब इच्छा। 

विषम संकट में फंसने पर, भय से आतुर होने पर। 
युद्ध में संकट पड़ने पर, आती नहीं विपत्ति उन पर। 

चामुंडा प्रेत पर आरूढ़, भैंसा वाराही की सवारी। 
ऐन्द्री का वहां ऐरावत है, वैष्णो की गरुण सवारी। 

माहेश्वरी वृषभ पर सवार, कौमारी का वाहन मयूर। 
हरिप्रिया लक्ष्मी पद्मासन पर, कर में लिए कमल का फूल। 

वृषवाहिनी ईश्वरी देवी, करे हैं श्वेत रूप धारण। 
ब्राह्मी देवी हंस पर बैठीं, पहने सर्वांग आभूषण। 

इस प्रकार सभी माताएं, योग शक्तियों से संपन्न। 
अन्यान्य देवियों की शोभा, बढ़ाते हैं आभूषण व रत्न। 

ये देवियां क्रोध से भरीं, भक्तों की रक्षा करने को। 
अपने अपने रथों पर बैठीं, उन्हें भयमुक्त रखने को। 

हाथों में लिए शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल, मूसल।
परसु, पाश, कुन्द, त्रिशूल, खेटक, शार्ङ्ग और तोमर। 

अस्त्रधारण का कारण है, भक्तों को देना अभयदान। 
दैत्यों का करना सर्वनाश, करना देवों का कल्याण।  

महान रौद्ररूपा हो तुम, अत्यंत घोर पराक्रमी।  
अति महान बल है तुममें, उत्साह की भी नहीं कमी। 

महान भय नाशक हो तुम, करती हो सबका उपकार। 
हमारी रक्षा करो हे देवी, तुम्हें हमारा नमस्कार। 

देखना भी कठिन है देवी, जगदम्बिके तुम्हारी ओर। 
आप हो शत्रुओं में भय, बढ़ाने वाली अधिक और। 
   
 रक्षा करो पूर्व दिशा में ऐन्द्री। अग्नि कोण में अग्नि शक्ति। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

दक्षिण दिशा में वाराही, नैऋत्य कोण में खड्गधारिणी। 
नीचे दिशा में वैष्णो देवी, ऊपर की ओर से ब्राह्मणी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

पश्चिम दिशा में वारुणी, व वायव्य कोण में मृग वाहिनी। 
इसी प्रकार है चामुंडा देवी, शव को वाहन बनाने वाली। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 
 
अजिता देवी वाम भाग में, अपराजिता दक्षिण भाग में। 
मेरे शिखा की उद्योतिनी, उमा माथे विराजमान हो।  
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

ललाट की करें मालाधरी, भौहों की रक्षा यशस्विनी। 
नथुनों की रक्षक यमघण्टा, कानों की हों द्वारवासिनी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

भौहों के मध्य में त्रिनेत्री, नेत्रों के मध्य में शंखिनी। 
कपोलों की कालिका देवी, व मूल कानों की शांकरी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

नासिका में सुगंधा देवी, ऊपर के होंठ में चर्चिका। 
जिह्वा में सरस्वती देवी, निचले होंठ में अमृत कला। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

दांतों की देवी कौमारी, कंठ प्रदेश की चण्डिका। 
तालू में स्थित महामाया, तथा घाँटी की चित्रघंटा। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

कामाक्षी देवी ठोड़ी की व सर्वमंगला वाणी की। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

भद्रकाली ग्रीवा में रह, व पृष्ठवंश में धनुर्धरी। 
कंठ भाग में नीलग्रीवा, कंठ नली में नलकूबरी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

भुज में वज्र धारिणी, व कानों में खड्गिनी। 
उंगलियों में अंबिका, दोनों हाथों में दण्डिनी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

मेरे नखों की शूलेश्वरी तथा पेट में कुलेश्वरी। 
नाभि में मेरे कामिनी, गुह्य भाग में गुख्यैश्वरी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

स्तनों में महादेवी, मन में शोक विनाशिनी। 
हृदय में ललिता देवी, उदर में शूलधारिणी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

पूतना-कामिका लिंग, व गुदा की महिषावाहिनी। 
भगवती कटि भाग में, घुटनों की विंध्यवासिनी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

संपूर्ण कामना दात्री महाकाली पिंडलियों की। 
चरणों के पीछे तेजसी, नारसिंही घुट्टियों की। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

उंगलियों में श्रीदेवी, तलवों में तलवासिनी। 
दंष्ट्रकराली नखों की, व केशों की ऊर्ध्वकेशिनी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

रोम छिद्रों में कौबेरी, एवं त्वचा की बगीश्वरी। 
आंतों की देवी कालरात्रि, तथा पित्त की मुकुटेश्वरी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

रक्त, मज्जा, मांस, हड्डी और मेंद की पार्वती। 
चूड़ामणि कफ में स्थित, मेरे केशों की पद्मावती। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

नखों की ज्वालामुखी, शुक्र की देवी ब्रह्माणी। 
अहंकार, मन व बुद्धि की रक्षा करें धर्मधारिणी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान वायु की वज्रहस्ता। 
छत्रेश्वरी छाया की व, प्राणों की कल्याण शोभना। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

रस, रूप, गंध, शब्द, स्पर्श आदि की योगिनी। 
सत्व, रज, गुणों की रक्षा करें नारायणी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

यश, कीर्ति, धन, लक्ष्मी व विद्या की देवी चक्रिणी। 
चण्डिके! मेरे पशुओं की और मेरे गोत्र की इंद्राणी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

वाराही मेरे आयु की तथा धर्म की वैष्णवी। 
महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की व भार्या की देवी भैरवी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

मेरे पथ की सुपथा व, मार्ग की रक्षक क्षेमकरी। 
सर्वत्र व्याप्त विजयादेवी सब तरह के भयों से मेरी। 
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

राजदरबार में महालक्ष्मी, स्थान कवच में कहा नहीं। 
जो भी है रक्षा से रहित, सब देवी द्वारा हो सुरक्षित। 
सब भयों, आपत्ति, विपत्तियों से   
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना।   

आप ही हो विजयदायिनी, आप ही हो पापनाशिनी। 
देवी ! मेरा कल्याण करो, हर पल हे कल्याणदायिनी।
रक्षा करना, देवी! मेरी रक्षा करना। 

देवी कवच के बिना कोई, चल न सकता एक पग भी। 
कवच से धन लाभ, सुरक्षा, होती कामनाओं की सिद्धि। 

देवी कवच दिलाने वाला, मनुष्य को सदा ही विजय। 
जो कवच का पाठ करता, होती अभीष्ट की निश्चय। 

इस कवच से ऐश्वर्यवान, मनुष्य सुरक्षित और निर्भय। 
त्रिलोक में होता पूज्यनीय, युद्ध में न होती पराजय। 

दैवी कलाएं प्राप्तं होतीं, जो करता है इसका पाठ। 
प्रतिदिन तीनों संध्याओं को, नियम से श्रद्धा के साथ। 

देवताओं को भी दुर्लभ है, देवी का यह अद्भुत कवच। 
देवी कवच से मनुष्य अजेय, शताधिक वर्ष रहे जीवित। 

मकरी चेचक कोढ़ आदि, नष्ट हो जाते सब व्याधि। 
कनेर, अफीम, भांग, धतूरा; दूर हो जाते विष सभी।         

नष्ट मकरी, चेचक, कोढ़; सांप, बिच्छू या कृत्रिम विष। 
कनेर, अफीम, भांग, धतूरा; कवच से नहीं प्रभाव तनिक।   

तंत्र-मन्त्र, योग व टोक, भूतल के अभिचारिक प्रयोग। 
नष्ट हो जाते देखते ही, कवच का हो हृदय में योग।  

नभ भूमि पर विचरने वाले, जल में प्रकट होने वाले गण। 
उपदेश से सिद्ध होने वाले व, निम्न कोटि के देव व गण। 

कुल में प्रकट होने वाले या साथ में उत्पन्न होने वाले,
माला, डाकिनी, शाकिनी तथा अंतरिक्ष में विचरने वाले - 

गृह, भूत,पिशाच, यक्ष, बेताल हों या हों राक्षस,
कुष्मांड, भैरव, अनिष्टकारक देवता हों या ब्रह्म राक्षस। 

भाग जाते हैं देखते ही, सब के सब उस मनुष्य को,
धारण कर रखा है जिसने, देवी के इस कवच को। 

कवचधारी व्यक्ति को सदा राजा से भी मिलता सम्मान। 
मनुष्य के तेज में वृद्धि करे तथा बढ़ने वाला है मान। 

कवच का पाठ करने वाला, कीर्ति विभूषित हो भूतल पर। 
प्रगति पथ पर चलता है वह, अपने सुयश में वृद्धि कर। 

पहले कवच का पाठ कर, जो करे सप्तशती का पाठ।  
उसका संतान कुटुंब रहे, जब तक धरा वन-कानन साथ। 

महामाया के प्रसाद से, जो देवताओं को भी दुर्लभ। 
देहांत होने पर भी पाता, वह मनुष्य नित्य परमपद।  

धारण करता वह मनुष्य, रूप अति सुन्दर व दिव्य। 
भागी होता आनंद का व, पाता है कल्याणमय शिव।

        इति देवी कवच सम्पूर्ण 




अथ अर्गलास्तोत्र 

ॐ नमः चण्डिकायै 

ॐ जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते॥

सबकी पीड़ा हरने वाली। हे देवी! तुम्हारी जय हो।। 
चामुंडा देवी जय हो। कालरात्रि की जय हो।।   
हे देवी! तुम्हारी जय हो। हे देवी! तुम्हें नमन हो।।

सबमे व्याप्त रहने वाली। विधाता को वर देने वाली।। 
हे देवी! तुम्हारी जय हो। हे देवी! तुम्हें नमन हो।।

मधुकैटभ की वधकर्ता हो। महिषासुर की प्राणहंता हो।। 
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

भक्तों को सुख देने वाली। रक्तबीज का अंत करनेवाली।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

चण्ड मुंड  को निष्प्राण किया। शुम्भ निशुम्भ का नाश किया।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

धूम्रलोचन की मर्दनकारी। सबसे वन्दित चरणों वाली।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

संपूर्ण सौभाग्य दायिनी हो। व शत्रुओं की विनाशिनी हो।।
देवी रिपुओं का नाश करो मुझे रूप दो जय दो यश दो

अचिंत्य रूप चरित्रों वाली। पापों को नष्ट करने वाली।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

जो शीश झुकाते चरणों में। व भक्ति से स्तुति करते हैं।।
भक्ति पूर्वक संसार में। जो तुम्हारी पूजा करते हैं।।
उनके रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

मुझे परम सुख सौभाग्य दो। सुंदर स्वास्थ्य आरोग्य दो।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

द्वेषियों के द्वेष को नष्ट करो व मेरे बल की वृद्धि करो।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

देवी मेरा कल्याण करो। उत्तम संपत्ति प्रदान करो।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

हे देवी तुम्हारे चरणों पर, मणियों को सिर के मुकुट की।। 
सदा ही घिसते रहते हैं, देवता दानव दोनों ही।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

भक्तों को विद्वान करो। यशस्वी लक्ष्मीवान करो।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

प्रचंड दैत्यों के दर्प का, तुम हो दलन करने वाली।।
मुझ शरणागत की माता, तुम हो रक्षा करने वाली।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

तुम चतुर्भुज परमेश्वरी हो।  ब्रह्मा जी से प्रशंसित हो।।
विष्णु स्तुति करते हैं, देवी! तुम्हारी भक्ति से।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

शचीपति इंद्र से परमेश्वरी। सद्भाव से तुम हो पूजित।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

प्रचंड भुजदण्डों वाले, दैत्यों की दर्प विनाशिनी हो।। 
व अपने भक्तजनों को, अति आनंद प्रदायिनी हो।।
देवी! रिपुओं का नाश करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।।

मन अनुकूल चलने वाली, तुम मनोरम पत्नी देती हो।। 
दुर्गम संसार के सागर से भी, तुम पर लगा देती हो।।

उत्तम कुल को देवी, तुम उद्भव देने वाली हो।।
उमापति महादेव से भी, प्रशंसित होने वाली हो।।

इस स्तोत्र का पाठ कर जो महा स्तोत्र का पाठ करे।।
सप्तशती की जप संख्या का सर्वश्रेष्ठ फल को प्राप्त करे।।

इस स्तोत्र के पाठ से वह, प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त करे।। 
देवी! रिपुओं का नाश करो।  मुझे रूप दो, जय दो, यश दो।

हे देवी तुम्हारी जय हो। हे देवी तुम्हें नमन हो।



अथ कीलक 
 नमः चंडिकाय

मारकंडे जी कहते हैं
विशुद्ध ज्ञान जिनका शरीर, तीनों वेद हैं नेत्र दिव्य।
मस्तक पर अर्थ चंद्र मुकुट धारण करते हैं वे शिव।

भगवान शिव का स्मरण, करते पाने को कल्याण।और जो करते हैं उन शिव को भक्तपूर्वक नमस्कार।

मंत्र सिद्धि में कीलक, सप्तशती स्तोत्र का करे निवारण। 
कल्याणकारी है अन्य मन्त्रों के निरंतर जप के बराबर।

सिद्ध होते हैं उनके भी उच्चाटन आदि जैसे कर्म।
प्राप्त हो जाती है उन्हें समस्त वस्तुओं की, दुर्लभ।

अन्य मन्त्रों के जप बिना इस स्तोत्र से करते स्तुति।
सच्चिदानंद स्वरूपिणी देवी की उन्हें भी होती सिद्धि।

कार्य सिद्धि को उन्हें चाहिए ना साधन औषधि या मंत्र।
 जप बिना ही सिद्ध हो जाते उच्चाटनादि अभिचारिक कर्म।

सप्तशती व अन्य मन्त्रों को समान जान हुई शंका।
दोनों हैं समान फलदायी तब दोनों में कौन सा अच्छा।

जिज्ञासुओं की शंका जान शंकर जी ने उन्हें समझाया।
सप्तशती का संपूर्ण स्तोत्र श्रेष्ठ कल्याणमयी बतलाया।

चंडी का सप्तशती स्तोत्र शंकर ने कर दिया गुप्त।
सप्तशती पाठ से होने वाला समाप्त न हो सकता पुण्य।

हो सकती अन्य मन्त्रों के जप जन्य पुण्य की समाप्ति। 
सप्तशती ही कराने वाला सर्वश्रेष्ठ फल की पप्राप्ति।

अतः कीलन को जानकर और करके उसका परिहार। 
आरंभ करना चाहिए सप्तशती स्तोत्र का पाठ।

सप्तशती स्तोत्र होय निर्दोष, हो कीलक-निष्कीलन का ज्ञान। 
इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरंभ करते विद्वान।

स्त्रियों में सौभाग्य आदि जो कुछ होता है दृष्टिगोचर। 
ऐसा जो भी होता है वह देवी के प्रसाद का है फल।

इस कल्याणमयी स्तोत्र का सदा करना चाहिए जप। 
मनुष्यों को दिलाने वाला है या सदा सर्वश्रेष्ठ फल। 

मंद स्वर में पाठ करे तो होती स्वल्प फल की प्राप्ति। 
उच्च स्वर में पाठ करने से संपूर्ण फल की होती प्राप्ति। 

कल्याणमयी अंबा की स्तुति करना चाहिए सभी मनुष्य को। 
पाये ऐश्वर्य, संपत्ति, मोक्ष, शत्रु नाश, सौभाग्य आरोग्य को।

इति देवी कीलक संपूर्ण



वेदोक्तम रात्रि सूक्तम 

रात्रि रूपी देवी देखती हैं जग के सब कर्मों जीवो को। 
कर्मानुसार फल देने को धारण करतीं विभूतियों को।

यह अमर देवी व्याप्त कर संपूर्ण जगत में स्थित।
अज्ञान रूपी अंधकार को भगातीं देकर ज्ञान ज्योति।

रात्रि देवी आ, अपनी बहन उषा देवी को करतीं प्रकट। 
जिससे अयोध्या में अंधकार स्वतः ही हो जाता है नष्ट।

जैसे रात्रि के समय पक्षी घोसलों में है करते शयन। 
रात्रि में सब सुख से सोते, हे रात्रि देवी हों प्रसन्न।

उन रात्रि देवी की गोद में सुख-पूर्वक सोते हैं सभी। 
गैरों से चलने वाले प्राणी ग्राम वासी हों कीट या पक्षी।

वासना मयी वृकी तथा पाप मय वृक को दूर हटाओ। 
काम आदि शत्रुओं को भी हे देवी हमसे दूर भगाओ।

हे रात्रि देवी सुखपूर्वक तरने के योग्य हो जाओ।
हमारे लिए मोक्षदायनी एवं कल्याण कारिणी बन जाओ।

है उषा देवी पास आया है अज्ञान रूपी यह अंधकार। 
ऋण की भांति दूर करो करती धन देकर जिस प्रकार।

हे रात्रि देवी गौ के समान तुम हो सबको दूध देने वाली। 
तुम्हारी स्तुति करता हूं मैं पूरी करो मनोकामना हमारी। 

तुम्हारी कृपा से काम आदि शत्रुओं को लिया है जीत।
मेरे हविष्य को ग्रहण करो हे व्योम स्वरूप परमात्मा पुत्री।


प्रथम अध्याय 


ध्यान :
भगवान विष्णु की शयन काल में
मधु कैटभ क वध करे वदे,
ब्रह्माजी स्तवन कईला पर
कमल से जन्म लेवे वाली,
नीलमणि की समान कान्तिवाली,
वोहि महाकाली क हम सेवन करत बानीं।
जे अपनी दस हाथन में -
खड्ग, चक्र, परिध, धनुष, बाण, गदा, शूल,
भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण कईले बानीं।  
दिव्य आभूषण से जिनकर अंग विभूषित बा;
जिनकर तीन नेत्र, दस मुख अउर दस पैर बा
वोहि महाकाली क हम मनन करत बानीं।


श्री दुर्गाय नमः 
पहला अध्याय

मईया की महिमा अपरंपार,

बोलो मईया की जय जयकार।

मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा 
बताते हुए मधु कैटभ का प्रसंग सुनाना

विनियोग
प्रथम चरित्र के ब्रह्म ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छंद, 
नंदा शक्ति, रक्तदांतिका बीज, अग्नि तत्व और ऋग्वेद स्वरूप है। 
श्री महाकाली देवता की प्रसन्नता के लिए प्रथम चरित्र के 
जप में विनियोग किया जाता है।

ध्यान :
कमल से जन्म लेने वाली जिनका ब्रह्मा जी ने किया था स्तवन,
उन नीलमणि के समान कांति वाली महाकाली देवी का करता हूं मनन। 
वह अपने दस हाथों से खड़ग, चक्र, परिधि, धनुष, बाण, गदा, 
शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख भी धारण करती है सदा। 
विष्णु के सो जाने पर करने वाली मधु कैटभ का वध,
दिव्य आभूषणों से विभूषित जिनके हैं अंग समस्त। 
नीलमणि के समान है उनके शरीर की कान्ति,
वे तीन नेत्रों वाली हैं व दस मुख, दस पैरों से युक्त।

 
महामाया की कृपा से, सुरथ लोक क स्वामी भईलं।
दूर तक फइलल उनकर ख्याति, राजा बड़नामी भईलं।
राजा क बढ़ल प्रताप। बोला मईया क जय जयकार।

कहता हूँ विस्तार पूर्वक, मार्कण्डेय जी ने कहा।  
सुनो सूर्यपुत्र सावर्णि के, उत्पत्ति की यह कथा।
सूर्य कुमार सावर्णि, जिन्हें आठवां मनु भी कहते। 
मन्वंतर के स्वामी हुए, महामाया के अनुग्रह से।
वह प्रसंग सुनो सविस्तार। बोलो मईया की जय जयकार।
 
स्वारोचिष मन्वंतर में, चैत्र वंश में उत्पन्न हुए
पूरा भूमंडल अधीन था, सुरथ नामक राजा के।
प्रजा का ध्यान रखते थे वे, अपने ही पुत्रों के जैसे।
दंडनीति थी बड़ी प्रबल, धर्म पालन में आगे सबसे।
रहें प्रजा के  पालनहार। बोलो मईया की जय जयकार।

कोला विधवंसी नामक क्षत्रिय शत्रु हो गए फिर भी उनके
वे कोलाविधवंसी क्षत्रिय नृप सूरत से युद्ध कर बैठे।
यद्यपि वे थे संख्या में कम पर सूरत हो गए परास्त। 
अपने पुर आकर लगे रहने निज देश पर रह गया अधिकार।

उस काल प्रबल शत्रुओं ने ठाने उनसे करने को रण। 
महाभाग राजा सुरथ पर वहां भी कर दिया आक्रमण।
दुरात्मा और दुष्ट मंत्रियों ने राजा का बल देख क्षीण। 
उनकी सेना तथा कोष को राजधानी में लिया छीन।

तदन्तर सुरथ का प्रभुत्व हो चुका था पूर्णतः नष्ट। 
यह स्थिति देखकर उन्हें हुआ बहुत ही घोर कष्ट।

घने जंगल को कूच किया घोड़े पर होकर के सवार। 
लोगों से बहाना बनाया जा रहे करने को शिकार।
मेधा मुनि का आश्रम देखा, देख रह गए चकित व दंग। 
हिंसा त्याग शांत भाव से रहते हिंसक जीव विहंग।

मुनि व शिष्यों ने मिलकर राजन का किया सत्कार । 
राजा सुरथ ने आश्रम में बिताया सुंदर कुछ काल।
पर राजा चिंतित होकर बार-बार यह करते सोच।
कैसा होगा वह राज काज, कैसे होंगे राज्य के लोग।
राजा करने लगे चिंता ममता से ही आकृष्ट चित्त।
पूर्व जनों ने जिसे संजोया नगर आज है मुझसे रिक्त।


मेरे दुराचारी भृतगढ़ और धर्मी हो न गए हो कहीं। 
धर्मपूर्वक अब उसकी रक्षा वह करते होंगे या नहीं। 
मेरा वह प्रधान हाथी जो मदवर्षक शूरवीर था।  
शत्रुओं के अधीन होकर जाने कैसा भोग भोगता। 
पीछे चलते थे नित मेरे पाने को कृपा धन भोजन। 
वह भी करते होंगे अब तो अन्य राजाओं का अनुसरण। 
जो कुछ मैंने जमा किया अपनी परिश्रम और कष्ट से।  
कोष रिक्त हो गया होगा अब भोगियों के अधिक खर्च से।
विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक व्यक्ति को देखा। 
तुम कौन हो ? यहां आने का कारण क्या? राजा ने पूछा। 
क्यों दिखते हो अनमने से? क्यों हो इतने शोकग्रस्त।  
वैश्य ने यह प्रश्न सुनकर कर जोड़ बोला प्रेम पूर्वक।
राजन मैं हूं समाधि वैश्य, धनी कुल में हुआ उत्पन्न। 
दुखी होकर वन में आया छोड़कर मैं अपने प्रियजन। 
मेरे दोस्त स्त्री पुत्रों ने कर डाला मेरा यह हाल। 
धन के लोभ के कारण ही मुझे घर से दिया निकाल। 
मेरे विश्वसनीय बंधुओ ने मेरा धन ले किया है दूर। 
और मैं अपने स्त्री पुत्रों से इस समय गया हूं बिछुड़। 
मेरे स्त्री पुत्रों के बारे में बार-बार आता है विचार। 
वे सब कुशल सदाचारी हैं या घर लिया है अनाचार। 
राजा ने वैश्य से पूछा स्नेहा क्यों तुम्हारा चित्त में 
कर न सके स्वजन तुम्हारे अंतर उचित और अनुचित में 
जिन स्त्री पुत्र बंधुओ ने धन लोभ में घर से निकाला। 
उनके लिए व्यग्र दिखते हो जिन्होंने तुम्हें दूर कर डाला। 
वैश्य बोला ठीक कहते हो पर मैं नहीं हो सकता निष्ठुर। 
स्वयं नहीं जानता क्यों हूं उनके लिए मैं इतना व्याकुल!
धन के लोभ में तज दिया पितृ स्नेह व पति प्रेम को। 
मेरा मन व्याकुल है तब भी, क्यों उन्हीं के कुशल छेम को।
गुणहीन बंधुओं के प्रति भी, प्रेम मग्न होता मेरा चित्त। 
लंबी सांस लेता हूं मैं व उनके लिए होता व्यथित।
उनमें प्रेम अभाव पर निष्ठुर नहीं हो सकता मेरा मन। 
इन सब का कारण क्या है समझ नहीं पाता हूं राजन। 
मारकंडे जी कहते हैं - तब सुरथ और वह समाधि वैश्य। 
मेधा मुनि के आश्रम पहुंचे और वर्ताव किये यथायोग्य। 
राजा ने मेधा मुनि से कहा एक बात पूछता हूं - भगवान! 
मेरा चित्त वश में नहीं है, सोच दुखी होता है मेरा मन।  
राज्य हाथ से चला गया पर ममता मेरी बनी हुई है। 
वैश्य भी सज्जनों से विलग स्नेह उन्हीं से जनी हुई है। 
यह राज्य अब मेरा नहीं अच्छी तरह से जानी हो। 
फिर भी मैं दुखी होता हूँ, इनके लिए अज्ञानी हो। 
वैश्य को इसके स्त्री पुत्रों व भृत्यों ने छोड़ दिया है। 
अपमानित कर निकाल घर से इससे मुख मोड़ लिया है। 
स्वजनों ने परित्याग कर दिया यह उनके प्रति रखना प्रीत। 
हम दोनों दुखी हैं मुनिवर समझ ना आती है यह रीति। 
देखा जिन में प्रत्यक्ष दोष, ममता जनित उनसे हम मूढ़। 
विवेक शून्य उनकी चिंता में समझ ना पायें रहस्य यह गूढ़। 
हम दोनों विवेकी फिर भी, मात्र इसी मोह के कारण। 
हम में मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखती, ऋषिवर करो इसका निवारण। 
तब ऋषि ने उन दोनों को, मां भगवती की कथा सुनाई। 
विष्णु की योगनिद्रा रूपा, महामाया की महिमा बताई। 
विषय मार्ग का ज्ञान सभी को, विषय भी सबके अलग-अलग। 
जैसे मनुष्य समझदार हैं, वैसे ही है चराचर पशु खग। 
कुछ प्राणी दिन में देखते कुछ देखते हैं रात में। 
पशु पक्षी भी मनुष्यों के समान होते कई बात में। 
मनुष्य अवश्य समझदार हैं पर केवल वे नहीं है ऐसे। 
पशु पक्षी मृग आदि भी, समझदार हैं प्राणी होते। 

इन पक्षियों को तो देखो, भूखे रहकर भी ये खग। 
अपने बच्चों की चोंच में, अन्न डालते हैं मोह वश। 
मनुष्य समझदार होकर भी, देखो है यह लोभ का मारा। 
उपकार का बदला पाने को, करता है पुत्र की अभिलाषा। 
ऐसा होता है इस जग में, महामाया के मोह के कारण। 
समझ होकर भी मनुष्यों के, नहीं वश में उसका मन।
यद्यपि किसी भी प्रकार की, कमी नहीं इनकी समझ में। 
संसार के सामंजस्य हेतु ही, महामाया ने डाला भ्रम में। 
महामाया देवी डाल देतीं, मोह में ज्ञानियों को भी। 
वही जगत की सृष्टि करतीं, मुक्ति देतीं मनुष्यों को भी। 
वे सनातनी देवी हैं तथा अधीश्वरी सम्पूर्ण ईश्वरों की। 
वे ही हैं हेतुभूता - पराविद्या, मोक्ष व संसार बंधनों की। 
राजा ने पूछा भगवन! जिन्हें कहते हैं महामाया। 
कैसे हुआ आविर्भाव उनका, चरित्र कैसे अस्तित्व में आया।      
जैसा देवी का प्रभाव हो, और उनका स्वरुप है जैसा। 
आप से सुनना चाहता हूँ, कहिये हे ऋषिवरवेत्ता। 
ऋषि बोले ज्ञानियों को मोह में, डाल देती हैं महामाया। 
इस जगत की जननी हैं वह, उनका भेद कोई ना पाया। 
वे देवी हैं नित्यस्वरूपा, विश्व को कर रखा है व्याप्त। 
अनेकों प्रकार से होता है, उन देवी का प्राकट्य तथापि। 
सारे जगत में फैली देवी, उन्हीं का रूप है यह जग।    
नित्य, अजन्मा हैं पर होतीं, फ़र्वों के कार्य हेतु प्रकट। 
कल्पकाल के अंत में जब, सम्पूर्ण जगत था निद्रामय। 
हरि विष्णु एकार्णव जल में योगनिद्रा का ले आश्रय। 
सो रहे थे योगनिद्रा में, वे शेषनाग की शय्या पर।
कर्ण मेल से मधु व कैटभ, उत्पन्न हो गए दो असुर। 
दोनों दुष्ट हो गए तत्पर, ब्रह्माजी का करने को वध। 
प्रभु विष्णु के नाभिकमल में, ब्रह्माजी थे विराजमान तब। 
ब्रह्माजी ने उन असुरों को, देखा जो आया अपने पास। 
भगवान् विष्णु को जगाने का, करने लगे तब वे प्रयास।
प्रभु विष्णु को जगाने हेतु, अपना करके एकाग्र मन। 
उनके नेत्रों में रहने वाली, योगनिद्रा का किया स्तवन। 
जो विश्व की अधीश्वरी हैं, जगत को करने वाली धारण। 
जग का संहार करने वाली, करने वाली सबका पालन। 
भगवती निद्रा तेज स्वरुप, प्रभु विष्णु की अनुपम शक्ति। 
भयाकुल हो ब्रह्माजी फिर, करने लगे उन्हीं की स्तुति। 
ब्रह्माजी ने कहा देवि! तुम स्वाहा, तुम्ही स्वधा हो। 
स्वर तुम्हारे ही स्वरुप हैं, तुम्हीं जीवनदायी स्वधा हो। 
तीन मात्राओं के रूप में, हे देवि! तुम्हीं हो स्थिति। 
विशेष रूप से अनुच्चारणीय, उस अर्थ मात्रा में निहित। 
तुम्हीं तो हो संध्या देवि! सावित्री तथा जननी परम। 
इस विश्व ब्रह्माण्ड को, तुम्हीं तो कराती हो धारण। 
सृष्टिरूप में कराती हो, तुम ही जगत की सृजन। 
स्थिति रूप में होता है, तुमसे ही इसका पालन। 
संहार रूप धारण करके, कराती हो संहार जगत का। 
कल्प काल के अंत में, बनाती हो ग्रास सभी का।                           
तुम महामेधा, महास्मृति, महादेवी और हो महामाया। 
महा-सुरी, महामोहरूपा हो, और तुम्हीं हो महाविद्या। 
तीनों गुण उत्पन्न करती, उन सबकी प्रकृति तुम्हीं हो। 
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि व मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।       
बोध स्वरूपा बुद्धि तुम हो, लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, ईश्वरी। 
शांति और क्षमा तुम्हीं हो, तुम्हीं हो देवी ह्रीं व श्री। 
शंख, चक्र, गदा, खड्ग, शूल, धनुष हो तुम धारण करती। 
परिध, भुशुण्डि, मस्तक, बाण भी माता तुम हो धरती। 
इस सुन्दर जगत में देवी, तुम सौम्य और सौम्यतर हो। 
जितने सुन्दर पदार्थ जग में, उन सबसे ही सुन्दर हो। 
जितने सुन्दर पदार्थ जीव हैं, सबकी सूरत तुमसे है। 
सत असत जो है जग में, उन सबकी शक्ति तुमसे है। 
जो ईश्वर इस जगत का पालक, संहारक, निर्माता है। 
वह भी योगनिद्रा महामाया, तुम्हारे अधीन हो जाता है।      
         
भगवान शंकर व विष्णु को, शरीर देने की तुममें  शक्ति। 
सर्व शक्तिमान सर्वस्वरूपा  की, किस प्रकार करें हम स्तुति।
अपना प्रभाव दिखा करके, भगवान विष्णु को जगा दो। 
मधु व कैटभ दो असुरों को, मारने की लगन लगा दो। 
ऋषि कहते हैं - राजन, ब्रह्मा जी ने की ऐसे स्तुति। 
प्रभु विष्णु को जगाने हेतु, तमोगुण अधिष्ठात्री योगनिद्रा की। 
मधु कैटभ को मारने का, धारण किए हुए उद्देश्य।  
क्योंकि भगवान विष्णु ही, उसके प्राण सकते थे वेध। 
 योगनिद्रा अव्यक्त अजन्मा, प्रभु के नेत्र, मुख, वक्षस्थल।  
 नासिका बाहु  और हृदय से, वहां तब  बाहर निकल।
 स्तुति सुन  प्रकट हो गईं,  देवी ब्रह्मा जी के सम्मुख। 
 विष्णु शैय्या से जाग उठे, योग निद्रा से होकर मुक्त।
 मधु कैटभ  थे दुरात्मा, बहुत ही पराक्रमी बलवान।
 क्रोध से आंखें लाल किए, लेने को ब्रह्मा जी के प्राण।
 इस दृश्य ने श्री हरि को, कर दिया बहुत ही क्रुद्ध।   
 विष्णु ने फिर उनसे किया, सहस्रों वर्षों तक बाहुयुद्ध।
 देवी ने उन्मत्त असुरों को माया जाल में डाले रखा। 
विष्णु को वर देने को बोले वे असुर देख उनकी वीरता।
विष्णु ने झट अवसर देख मांगा बस इतना सा वर। 
मेरे हाथों से तुम दोनों, मधु और कैटभ जाओ मर।
धोखे में आने पर असुर, जलमग्न देखे संपूर्ण जगत। 
बोले धरा निर्जल हो जहां, वहीं करना हमारा वध।
तथास्तु कहकर विष्णु ने, जांघ पर रखी उसकी गर्दन। 
अपना चक्र उठाया और, झट से कर दिया मर्दन।
मधु कैटभ के वध का यह, हुआ पूर्ण पहला अध्याय। 
स्वयं प्रकट महामाया का, आगे का कहता हूं प्रभाव।

 इति  पहला अध्याय संपूर्ण


 दूसरा अध्याय
 
देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना  का वध 

 विनियोग 
ॐ माध्यम चरित्र के विष्णुऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक छन्द,  शाकंभरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्व और यजुर्वेद स्वरूप है। श्री महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए मध्यम चरित्र के पाठ में वियोग किया जाता है।

ध्यान 
 मैं कमल के आसन पर बैठी 
भगवती महालक्ष्मी का करता हूं भजन। 
प्रसन्न मुख वाली महिषासुर मर्दिनी 
भगवती महालक्ष्मी का करता हूं भजन। 
जिनके हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, 
बाण, बज्र,  पदम, धनुष, कुण्डिका, 
दंड, शक्ति, खड्ग, ढाल, 
शंख,  घंटा, मधु पात्र, शूल,  पाश 
और चक्र करती हैं धारण 
उन भगवती महालक्ष्मी का करता हूं भजन।


पूर्व काल में देव दैत्यों में, छिड़ गया घोर संग्राम। 
देवताओं के नायक इंद्र थे, महिषासुर था असुर प्रधान।   

सौ वर्षों तक चला युद्ध, हो गए परास्त देवता। 
असुरों को अब कैसे जीतें, लगे ढूंढने ढंग देवता। 

 असुरों का स्वामी महिषासुर, जा बैठा इंद्रासन पर।  
 बन गया वह अधिष्ठाता, देवों के अधिकार छीनकर। 
 
भगवान शंकर और विष्णु, जिस स्थल थे विराजमान। 
ब्रह्मा जी को साथ लेकर देवता पहुंचे उस स्थान। 

देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम का हाल सुनाया। 
असुरों से पराजित होने का, सारा ही वृतांत बताया। 

देवताओं को महिषासुर ने, स्वर्ग लोक से निकाल दिया है। 
 पृथ्वी पर विचरण करते सब, उसने ऐसा हल किया है।

 
हमने कह डाली आपसे, दैत्यों की करनी सारी। 
उनका वध कैसे हो प्रभु जी, कैसे दूर हो संकट भारी। 


 देवताओं की बात सुनकर, शिव, विष्णु हुए कुपित। 
कर देंगे तीनों लोक को, अब इन असुरों से रहित। 

अति क्रोध में भरे हुए शिव, भृकुटी को अपनी दिया तान। 
चक्रपाणि विष्णु के मुख से, हुआ प्रकट एक तेज महान। 
 
ब्रह्मा शंकर व इंद्र आदि के, शरीर से निकला भारी तेज। 
पर्वत सा लगने लगा जब, तेज पुंज मिल हुआ एक। 


देवताओं ने होते देखा, संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त। 
उनके दिव्य देह से निकला, अद्भुत अतुल्य पुंज  प्रकाश। 
 
तीनों लोक में व्याप्त हुई, देव देह की किरणें सारी। 
एकत्रित होने पर उनके, प्रकट हुई एक सुंदर नारी। 

शंकर के तेज से मुख बना, यमराज के तेज से बाल। 
चंद्र के तेज से वक्ष स्थल, इंद्र के तेज से कटि भाग। 

विष्णु के तेज से भुजाएं बनी, ब्रह्मा के तेज से दो चरण। 
सूर्य तेज से पैर की उंगली, अग्नि तेज से तीनों नयन। 

पृथ्वी तेज से नितंब भाग, वसुओं से हाथ की उंगली। 
वरुण के तेज से बने, देवी के जंघा  व पिंडली। 


भौहें बनी संध्या के तेज से, व कुबेर के तेज से नाक। 
प्रजापति के तेज ने बनाये, देवी के चमकते हुए दांत। 
 
वायु के तेज से कान बने, देवों के तेज से अन्यान्य। 
कल्याणमयी अद्भुत देवी का, हुआ इस तरह आविर्भाव। 

 महिषासुर के सताए देवता, देवी को देख हुए प्रसन्न। 
भांति भांति के शस्त्रों से वे, देवी को किए संपन्न। 

पिनाकधारी प्रभु शंकर ने, अपने शूल से शूल निकाला। 
विष्णु ने चक्र से निकाल चक्र, देवी भगवती को दे डाला। 
 
वरुण ने शंख भेंट किया, अग्नि ने दी शक्ति अस्त्र। 
वायु ने उन्हें धनुष दिया व बाणों से भरे दो तरकस। 

देवताओं के राजा इंद्र ने, जिनके हैं नेत्र सहस्र। 
अपने वज्र से उत्पन्न कर देवी को दिया एक बज्र। 

 तथा ऐरावत हाथी से उतार कर भेंट किया एक घंट। 
वरुण ने पाश दिया, यम  ने काल दंड से दंड। 
 
सूर्य ने देवी के रोमकूपों में, भर दिया किरणों  का तेज। 
प्रजापति ने स्फटिकाक्ष की माला देवी को की भेंट। 

कॉल ने चमकती हुई ढाल और देवी को दी तलवार। 
ब्रह्मा जी ने कमंडल दिया क्षीरसागर ने उज्जवल हार। 

साथ ही दिए दिव्य वस्त्र कभी न होने वाले जीर्ण। 
बाहों के लिए श्वेत केयूर और दिए दिव्य चूड़ामणि। 

रत्न अंगूठी गले की हसली, कानों के लिए दिव्य कुण्डल।  
पैरों के लिए विमल नूपुर, और दिए अर्धचंद्र उज्जवल। 
 
विश्वकर्मा ने निर्मल फरसा व अस्त्र अनेकों किए भेंट। 
सिर उर की कमल की माला तथा दिया कवच अभेद्य। 

हिमालय ने दी सिंह सवारी व भांति भांति के रत्न। 
नागों के राजा शेषनाग जो पृथ्वी को करते धारण। 

भेंट किया मणियों से शोभित, एक नाग हार बहुमूल्य। 
जलधि ने भी भेंट किया, कमल का अति सुंदर फूल। 

धनाध्यक्ष कुबेर ने दिया मधु से भरा भारत एक पान-पात्र। 
देवताओं ने सम्मान किया देवी का देकर शस्त्रास्त्र। 

तत्पश्चात करने लगे वे, उच्च स्वर में अट्टहास। 
उनके भयंकर गर्जना से, गूंज उठा सारा आकाश। 

देवी का यह रूप देख देवों में था अति उन्माद। 
बारंबार वे हर्षित होते, पुनि पुनि करते थे ननाद। 

सब देवों से जनित ये देवी, अद्भुत रूप निराली है।  
असुरों  का जो नाश करेगी ऐसी वो देवी काली है। 

देवी ने किया सिंह नाद कहीं भी नहीं समा सका। 
उच्च वेग के प्रतिध्वनि से, महासागर भी कांप उठा। 

सारे विश्व में हुई हलचल, पृथ्वी भी लगी डोलने। 
सिंहनाद के घोर गुंजन से, पर्वत समस्त लगे कांपने। 

देवताओं और ऋषियों ने भगवती का सत्कार किया। 
प्रसन्न हो सिंहवाहिनी का सब ने जय जयकार किया। 

दैत्य ने देखा जो हुआ संपूर्ण जगत को क्षोभग्रस्त। 
असुरों का नाश करने वाली प्रकट हो गई अद्भुत शक्ति। 

 इस धरा पर ले लिया है सिंह वाहिनी ने अवतार सुनो। 
आने वाला प्रलय हो जैसे, वो देवी की हुंकार सुनो। 

देख त्रिलोक को क्षोभग्रस्त असुरों ने भी कसी कमर। 
अब जो होगा देखा जाएगा उन्हें तो करनी है समर। 
 
सेना  को सज्जित  किया अस्त्र-शस्त्र हथियारों से। 
कवच भी धारण कर लिया बचने को देवी के वारों से।
  
महिषासुर क्रोध में बोला, आह यह हो रहा है क्या। 
फिर असुरों ने घिरकर के सिंहनाद की और वो दौड़ा। 

 देवी गर्जन को लक्ष्य बना, बढे दैत्य आगे की ओर। 
चकित रह गए देख उनकी फैली ज्योति चारों ओर।  

 देवी प्रभा से हो रहा था तीनों ही लोग प्रकाशित। 
मुकुट के प्रकाश से उनके नभ में खींची थी रेखा सी। 

देवी के चरणों का भार, पृथ्वी से भी भारी था। 
चमक उठे तीनों ही लोक, अद्भुत तेज चमत्कारी था। 

सातों पातालों तक पहुंची देवी के धनुष की टंकार। 
बिजली सी कौंध  गई, निकली जो म्यान से तलवार। 

सहस्त्र भुजाओं वाली देवी खड़ी हुई थी अडिग अचल। 
सभी दिशाएं आच्छादित थीं उनकी  भुजाओं से तत्पल। 

देवी का दैत्यों के साथ तदन्तर छिड़ा भयंकर युद्ध। 
महिषासुर चला लड़ने को होकर के अत्यंत क्रुद्ध। 

तरह-तरह के शस्त्रास्त्रों का तदन्तर होने लगा प्रयोग। 
उनके परस्पर टकराने से बिजली सी थी  जाति कौंध। 
 
 सेनानायक महिषासुर का चिक्षुर नामक असुर महान।  
 करने लगा युद्ध देवी से कुशल योद्धा के समान। 

चामर भी लड़ने लगा ले दैत्यों की चतुरंगिनी सेना। 
शूरवीरों का ढेर लगा था, थी कई अक्षौहिणी सेना 

लोहा लिया उदग्र दैत्य ने साठ हजार रथियों के साथ। 
बाष्कल दानव के पास थी रथियों की संख्या साठ लाख। 

महादनु दैत्य भी आया लेकर रथी एक करोड़। 
तलवार की भांति तीखे थे उस दानव के एक-एक रोम। 
 
पांच कोटि सेना लेकर, ,महादैत्य असिलोमा  आया। 
बादल घिर आया हो जैसे चारों ओर अंधेरा छाया। 
 
परिवारित राक्षस आया लेकर हाथी और घुड़सवार। 
और सहस्रों दैत्य आ गए करने को देवी पर वार। 
 
पांच अरब रथियों से घिरकर लेने लगा लोहा विडाल।  
भांति भांति के शस्त्रों से लैस परशु, खड्ग व भिन्दिपाल। 
 
सहस्त्र कोटी हाथी घोड़ा से महिषासुर घिरा हुआ था। 
स्वयं भी देवी से लड़ने को रणभूम में खड़ा हुआ था। 

दैत्यों की भारी सेना से भर गई थी पृथ्वी सारी। 
चप्पे चप्पे पर असुर थे, थी कोई जगह न खाली। 
 
दैत्य लेकर तोमर, शक्ति, खड्ग परशु मूसल आदि। 
अस्त्र शस्त्रों का प्रहार कर, करते युद्ध देवी के साथ। 

कुछ दैत्यों ने पूरे बल से, देवी पर किया खड्ग प्रहार। 
करने लगे उद्योग फिर वे जिससे दें देवी को मार। 

बोध क्या था उन दुष्टों को, देवी की है महिमा अपार। 
समाया है जिसके अंदर संपूर्ण जगत का ही सार। 

क्रोधित देवी ने खेल-खेल में वर्षा की शस्त्रों की अपने। 
दैत्यों के तब अस्त्र-शस्त्र, एक-एक कर लगे कटने। 

बिना थके करती रहीं, देवी वर्षा अस्त्र शास्त्रों की। 
शीश कटकर गिरने लगे, लाखों असुर सहस्रों की। 

सिंह असुरों में आगे बढ़ा, मानो फैल रहा दावानल। 
होने लगा क्षीण दैत्यों का सारा उत्साह, सारा बाल। 

जितने विश्वास थोड़े देवी ने उठ खड़े हुए बन के गण। 
भिन्दिपाल, खड्ग, पट्टिश ले,  करने लगे असुरों से रण।
  
असुरों का नाश करते गण, बजा रहे थे नगाड़ा शंख। 
उस  युद्ध महोत्सव में बहुतेरे, देवि-शक्ति से बजाते मृदंग। 

देवी ने त्रिशूल, गदा, खड्ग, शक्ति आदि से कर प्रहार। 
कर डाला बहुत सहज ही सैकड़ो महादैत्यों का संहार। 

कितनों को मूर्छित कर मारा घंटे की भयंकर नाद कर। 
बहुतों को धरा पर घसीटा अपने पाश से बांधकर। 
 
खड्ग से किया देवी ने कई महादैत्यों का संहार। 
दो दो टुकड़े करती उनका, चलती जब उनकी तलवार। 
 
मूसल की मार से कितने, दैत्य करने लगे रक्त वमन।  
शूल से ढेर हुए पृथ्वी पर, छाती फट जाने के कारण। 
 
धरती पर सो गए कितने उनकी गदा से घायल होकर। 
बाण समूहों की वृष्टि से, टूट गई असुरों की कमर। 

कट कट अंग लगे गिरने, गिरे उन असुरों के झुंड। 
कईयों की बाहें छिन्न हुई, कईयों  के गिरे  कट मुंड। 
 
मध्य भाग से विदीर्ण हुए, अनेकों असुरों के शरीर। 
जंघे कट जाने से कितने जाते थे पृथ्वी पर गिर। 

बहुत से दैत्य का देवी ने दो टुकड़े कर डाला चीर। 
एक-एक बांह, आंख, पैर वाला कर दिया शरीर। 

मस्तक कटने पर भी कई, हथियार ले हो जाते खड़े। 
करने लगते युद्ध देवी से, सर रहित ही उनके धड़े। 

युद्ध के बाजों की लय पर, दूसरे कबंध थे नाचते। 
कई खड्ग, शक्ति तथा शृष्टि लिए युद्ध को दौड़ते। 

ठहरो  ठहरो  का कर दैत्य, युद्ध को ललकारते देवी को। 
इधर देवी ने दैत्य लाशों से पाट दिया था धरती को। 

घोर युद्ध में देवी ने किये, धराशाई हाथी घोड़े रथ। 
चलना फिरना असंभव हुआ, धरती गई इन सबसे पट। 

रक्त सरिताएं में बह निकली, धरनी हो गई थी लाल। 
जगदंबा ने नष्ट कर दिया, पल में असुर सेना विशाल। 

जैसे काठ के भरे देर को, आग भस्म कर देती क्षण में। 
वैसे ही कर दिया नष्ट, दैत्य सेना को देवी ने रण में। 

सिंह हिलाता जब गर्दन दैत्यों के उड़ जाते प्राण। 
पंजे से नोच नोच कर, कितनों को देता निर्वाण। 

दैत्यों का होता सर्वनाश देखकर देवता हर्षाये। 
नभ में खड़े सभी देवता, भगवती पर पुष्प बरसाए। 
 
इति  दूसरा अध्याय संपूर्ण



तीसरा अध्याय 

सेनापतियों सहित महिषासुर का वध 
ध्यान 
जगदंबा के श्री अंगों की कांति 
उदयकाल के सहस्रों सूर्यों के समान। 
लाल रंग की रेशमी साड़ी पहने 
गले में मुंडमाला है शोभायमान। 
कर-कमलों में धारण किए हैं मुद्राएं 
जपमालिका, विद्या, अभय वर नामक 
मुखारविंद तीन नेत्रों से सुशोभित 
चंद्रमा के साथ रत्नमय मुकुट मस्तक पर। 
वह देवी हैं कमाल के आसन पर विराजमान,
उनको है मेरा भक्ति पूर्वक प्रणाम। 

दैत्यों की सेना को देख इस प्रकार होते तहस-नहस। 
दैत्य सेनापति चिक्षुर आया लेकर अपनी सेना समस्त। 

करने लगा युद्ध देवी से भरकर के मन में अति क्रोध। 
वह लड़ रहा  परमेश्वरी से क्या था उसे मूर्ख को बोध। 

जैसे बादल बरस रहा हो, देवी पर बाणों की वर्षा की। 
सहज था अनुमान लगाना, उसे राक्षस के मनसा की। 
 
 देवी ने तब अपने बाणों से, उसके बाणों को काट दिया।  
 चिक्षुर के घोड़े सारथी को, शीघ्र उन्होंने मार दिया। 

अपने बाणों से देवी ने काट डाला चिक्षुर का ध्वज। 
धनुष भी काट दिया उसका। और अंगों को बींधा सहज। 

नष्ट हो गए उस असुर के, सभी रथ घोड़े सारथी। 
खड्ग ढाल लेकर दौड़ा वह भगवती की ओर महारथी। 

सिंह मस्तक पर चोट कर देवी भुजा पर किया प्रहार। 
बांह से छूते ही टूट गई, दैत्य की वह तेज तलवार। 

शूल हाथ में लिया फिर आंखें कर क्रोध से लाल। 
मां भगवती पर चला दिया शूल वह दानव विकराल।
 
उसका वह शूल हो रहा था आभा की तरह प्रज्वलित। 
देवी ने क्षण में कर दिया उसके शूल को खंडित। 

देवी ने शूल से किया उस दैत्य के भी खंड-खंड। 
इस प्रकार से हो गया चिक्षुर दैत्य का चिर अंत।
  
चिक्षुर के मरने के पश्चात, आ गया हाथी पर चढ़कर। 
देवताओं को सताने वाला अत्यंत दुष्ट दानव चामर। 

उसने भगवती पर किया अपनी शक्ति का प्रहार। 
शक्ति को प्रभावहीन किया देवी ने कर तीव्र हुंकार। 

शक्ति को निष्प्रभाव देख चामर हुआ अधिक क्रोधित। 
देवी द्वारा चलाए शूल को बाणों से कर दिया खंडित। 
 
तब देवी का सिंह उछलकर चढ़ बैठा हाथी मस्तक पर। 
करने लगा बाहु युद्ध फिर चामर से वह जोर लगाकर। 
 
लड़ते-लड़ते गिर पड़े वे दोनों ही पृथ्वी पर आकर। 
अति क्रोध में भरे ही दोनों करने लगे प्रहार परस्पर। 

तभी शेर ने नभ में उछल, दैत्य पर किया तेज प्रहार।  
सिर धड़ से अलग हो गया पंजों से की ऐसी मार। 

युद्ध भूमि में उदग्र का भी हुआ अवसान इस प्रकार। 
देवी के हाथों से खाकर, शिला वृक्ष की भारी मार। 

दांत मुक्के और थप्पड़ से, कराल को किया धराशाई। 
देवी का क्रोध थमा नहीं अब उद्धत की बारी आई। 

भिन्दिपाल से मारा बाष्कल बाणों से ताम्र और अंधक। 
त्रिशूल से अग्रास्य, उग्रवीर्य व दैत्य को महाहनु नामक। 
 
दुर्धर और दुर्मूख को अपने बाणों से भेजा यमलोक। 
विडाल का सिर काट दिया किया खड्ग से ऐसी चोट। 
 
महिषासुर अपनी सेना का देख रहा था यूं होते अंत। 
भैंसे का रूप धर गणों को उसने सताना किया आरंभ। 
 
देवी के गण लगे करने उस युद्ध में महिषासुर से। 
किसी को थुथुन से मारता किसी को पूंछ और खुर से। 

कितनों के तो पेट में उसने, अपनी तेज सिंह को भोंके। 
कितनों को उड़ा दिया उसके निश्वास वायु के झोंके।

महिषासुर के तीव्र गर्जन से आ गया कईयों को चक्कर। 
कुछ को धरती पर गिराया, मरे, वे माथे से दबाकर। 

तत्पश्चात वह महा-असुर देवी सिंह को मारने चला। 
यह देख जगदंबा को आया उस काल में क्रोध बड़ा। 

इधर अत्यंत क्रोध के मारे महिषासुर भी हुआ पागल। 
उसके उग्र चिंघाड़ से जैसे फटकर गिरने लगे हों बादल। 

अपने मोटे भारी खुरों से, धरती को लगा खोदने। 
ऊंचे ऊंचे पर्वतों को सींगों से ही लगा फेंकने। 
 
टुकड़े हो होकर धरा पर, गिरने लगे समूचे बादल। 
समुद्र सारे लगे उफनने, जैसे कि पानी रहा उबल। 

पर्वत सभी उड़ने लगे, होकर के सब खंड-खंड। 
तब देवी ने निःश्वास वेग से छोड़ा भयंकर वायु प्रचंड। 

चंडिका ने महिषासुर का देखकर यह भारी उत्पात।  
अपना पाश उस पर फेंका, उस दानव को दिया बांध। 

महिषासुर के बंध जाने पर, भैंसे का रूप दिया त्याग। 
सिंह बनकर प्रकट हो गया बारंबार वह करता ननाद। 
 
जगदंबा जो उद्यत हुईं काटने को उसका मस्तक। 
पुरुष रूप में लगा दिखने, लेकर वह हाथों में खड्ग। 
 
बाणों की वर्षा से जब देवी ने उसको दिया बींध।  
एक महान गजराज रूप में वह दानव हो गया परिणीत। 

अपने सूँड़ों से लगा खींचने देवी के सिंह को विशाल।  
उसके सूंड़ को देवी ने काट दिया तब खड़ग  निकाल। 
 
फिर से भैंसा बन गया, पहले की तरह वह मायावी।  
लगा देने त्रास सभी को महिषासुर वह दुष्ट पाजी। 

तीनों लोकों के चराचर होने लगे बहुत ही व्याकुल। 
कैसे हो अंत दुष्ट का सेना सहित उसका समूल। 

आग बबूला  हो गईं देवी, उनकी ऑंखें हो गई लाल। 
मां चंडिका ने देखा जब इस असुर का मायाजाल। 

मधु का प्याला हाथ लिया और तुरंत किया मधुपान।  
मदमस्त होकर तत्पर हुईं उससे करने को संग्राम। 

मधु-मद से मुख लाल हुआ तब उछलकर के देवी। 
तीव्र गति से महादैत्य के ऊपर वह चढ़ जा बैठीं। 

रों के तले उसे दबाया, शूल से दबाया उसका कंठ। 
बोलीं अरे दुष्ट अब बोल करती हूं मैं तेरा अंत। 

महिषासुर के मुख से तब प्रकट हुआ एक और असुर। 
देवी ने उसको कर दिया, अपनी शक्ति से झट भंगुर। 

किसी ने न जानी अब तक, देवी की शक्ति की माया। 
उस बड़े दानव का मस्तक बड़े खड़ग से काट गिराया। 
 
महिषासुर का अंत हुआ, हुआ बड़ा ही चमत्कार। 
दैत्यों की सेना भाग गई, वहां से करके हाहाकार। 

गंधर्व लगे भरने सरगम, अप्सरायें करने लगीं नृत्य। 
देवों का बड़ा चैन मिला, देवी ने किया ऐसा कृत्य। 
 
 इति तीसरा अध्याय संपूर्ण


चौथा अध्याय
 इंद्र आदि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति 

 ध्यान :
उनके श्री अंगों की आभा है श्याम मेघ के समान
वे अपने कटाक्षों से शत्रुओं को करती हैं भय प्रदान 
आबद्ध चंद्रमा की रेखा शोभा पाते जिनके मस्तक पर 
तीनों लोगों को तेज से परिपूर्ण करतीं 
आरूढ़ हो सिंह स्कंध पर 
अपने हाथों में धारण करतीं - शंख, चक्र, त्रिशूल, कृपाण, 
उन जया नाम त्रिनयनी दुर्गा देवी का करें ध्यान। 
सिद्धि की इच्छा करने वाले, करते हैं जिनकी सेवा 
तथा जिन्हें घेरे रहते हैं सब ओर से सब देवता। 

महाअसुर महिषासुर और सेना को पहुँचाया सुरधाम। 
हे देवी सभी देवता करते तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम। 
 
तुममें समाहित है देवी संपूर्ण देवताओं की शक्ति। 
जगत व्याप्त देवी हो तुम देवता करते तुम्हारी भक्ति। 

देवी जगदंबा तुम हो सब देवताओं की शक्ति स्वरूप। 
सबका कल्याण करती हो, करती तब समर्थ व शुभ। 

जिसका वर्णन करने में, हो ना पाया कोई भी समर्थ। 
उन देवी के आगे सब प्राणी सभी देवता हैं नतमस्तक। 

तुम्हारी ज्योत से मिट जाए अंतःकरण का अंधकार। 
हे देवी! भगवती माता! तुम्हें सहस्रों नमस्कार। 

ब्रह्मा, शेष, महेश आपके प्रभाव का न कर सकते वर्णन।  
अशुभ भय का नाश करती और संपूर्ण जग का पालन। 

पुण्यात्माओं के घर लक्ष्मी, सत्पुरुषों के यहां वन श्रद्धा। 
कुलीन जनों के यहां रहती तुम धरकर रूप लज्जा का। 

बुद्धि रूप में उनमें बसतीं जो रखते हैं शुद्ध विचार। 
दरिद्रता से भर देती हो होते जो पापी दुराचार। 
 
आपका यह अचिन्त्य रूप, असुरों का करने वाली मर्दन। 
युद्ध में प्रकट चरित्रों का कैसे हम कर पाएं वर्णन। 

आपसे ही है इस भरे संपूर्ण जगत की उत्पत्ति। 
आपके स्मरण मात्र से ही नष्ट होती सारी विपत्ति। 

सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण तीनों गुण तुम में व्याप्त। 
तेरा संसर्ग न जान पड़ता, तो भी इन दोषों के साथ। 

शिव, विष्णु भी अब तक, जान न पाए तुम्हारा पार। 
कैसे समझ सकेगा तुमको, यह सारा मिथ्या संसार। 
 
आपका अंश यह जगत है, आप ही हो सबका आश्रय। 
आपकी जिस पर कृपा हो, वह प्राणी हो जाए निर्भय। 

यज्ञ में जिसके उच्चारण से, देवता करते तृप्ति का लाभ। 
आप ही हो वह मूल मंत्र और वह स्वाहा हो आप। 

पितरों को तृप्त करने वाली, आपही देवी वह स्वधा हो। 
मोक्ष प्राप्त का साधन, त्रयी, जितेंद्रिय शब्द स्वरूपा हो।  

आप ही हो वह पराविद्या, मुनि जन करते जिसका अभ्यास। 
वेदों के पाठ से युक्त हो, आप हो उन्हें मोक्ष की आस। 

आप हो वह मेधा शक्ति, जिससे शास्त्रों का होता ज्ञान। 
दुर्गम भव से पार वह उतरे, जिसने लिया आपको जान। 

इस जगत की पीड़ा को, करने वाली समूल नष्ट। 
जो आपकी शरणागत हो, उनको देवी क्यों हो कष्ट। 

विष्णु के उर में बसती तुम, चंद्रशेखर द्वारा सम्मानित। 
सुंदर छवि हो धारण करती, मुख मंद-मुस्कान से शोभित। 

पूर्ण चंद्रमा जैसी कान्ति, सुंदर मुखारविंद पर शान्ति। 
आश्चर्य ऐसी देवी को देख, महिषासुर हो गया आक्रांत। 

जब क्रोधित हुई काली मां, चेहरे पर छाई लालिमा। 
देखो तो लगता था ऐसे. हो उदयकाल का चंद्रमा।  

महिषासुर ने देखा यह हाल, वह भी वह क्रोध से लाल। 
भौहें तन गयीं देवी की, तब धारण किया रूप विकराल। 

क्रोधित रूप देख देवी का, लगा स्वयं आ गए यमराज। 
आश्चर्य जो महिषासुर के देखते ही न निकले प्राण। 
 
महिषासुर की सेना विशाल, क्षण में हो गई कवल काल। 
आपके क्रोध से नष्ट हो जाते, दुष्ट मनुष्यों के कुल तत्काल। 

आप जब हो जाओ प्रसन्न देवी, साक्षात परमेश्वरी बन। 
जगत का अभ्युदय करती हो, देव करते आपका आवाहन। 

जिन पर आप हो प्रसन्न। वही पाते हैं यशवर्धन। 
वही सुख को प्राप्त होते सम्मानित होते वे ही जन। 

जो मन से करते भक्ति कर्म, शिथिल न होता उनका धर्म। 
सब गुणों से अलंकृत होते, कोई न जाने तुम्हारा मर्म। 

तुम्हारी कृपा जिन पर होती, मिट जाते उनके सब कष्ट। 
रोग, व्याधि आदि भी देवी तुम्हारे प्रभाव से होते नष्ट। 

प्राप्त होते उन्हें पत्नी पुत्र, पाते वे सुन्दर पुष्ट बदन। 
तेरा प्रसाद भी वे ही पाते, सार्थक होता उनका जीवन। 

आपकी अनुकंपा से ही पुण्यात्मा करते धर्मानुकूल। 
उनका हो जाता सर्वनाश, जाते आपकी महिमा भूल। 

तीनों लोकों में देने वाली, आप ही मनोवांछित फल। 
श्रद्धापूर्वक भक्ति करे जो आपकी कृपा पाए अविरल। 

आपका स्मरण करने से, होती है आत्मा की शुद्धि। 
ऐसे जन का भय हर लेती उसको देती हो सद्बुद्धि। 

आपके सिवा कौन है तत्पर करने को सबका उपकार। 
असुर शक्ति को नष्ट करके भयमुक्त करें सारा संसार। 

दैत्य पिशाच इस जग में करते रहते अनेकों पाप। 
इन असुरों का मृत्यु बन स्वर्गलोक पहुंचती आप। 

कर सकती हो असुरों को दृष्टि मात्र से ही भस्म। 
पर शस्त्रों से वध करती ताकि पा सकें लोक उत्तम। 

आपके खड्ग की चमक से असुरों की आंखें गई न फूट।  
क्योंकि दर्शन करते थे वे आपका आनंदमय रूप। 

आपका शील के प्रभाव से बुरे भी छोड़े दुराचरण। 
निर्भर हो जाए वो प्राणी आ जाये आपकी शरण। 

आपका ऐसा रूप है देवी, ऐसा नहीं और कोई दूजा। 
सदाचारियों के चित्त बसती जो करते हैं आपकी पूजा। 

आपका बल और पराक्रम, करने वाला दैत्यों का नाश। 
देवों को जो जीत चुके थे और  देते थे उनको त्रास। 

दैत्यों ने तुमसे किया छल और दुष्टों ने की कपट। 
इन सबको बैकुण्ठ भेज कर, शत्रुओं पर की दया प्रकट। 

हृदय में आपकी कृपा है, युद्ध में रखती निष्ठुरता। 
शत्रुओं को भय देती हो, भक्तों को मनोरम सुंदरता। 

शत्रुओं का नाश करके, रक्षा की समस्त त्रिलोक की। 
तथा उन सबको मार करके, राह दिखाए परम मोक्ष की। 

दैत्यों का संहार करके, करने वाली हमको निर्भय। 
हे माते! वरदायिनी, देवी तेरी हो भगवती जय जय। 

अम्बिके! हमारी रक्षा करो, खड्ग से और शूल से। 
रक्षा करो घंटे की ध्वनि से, चक्र, गदा, त्रिशूल से। 

रक्षा करो हमारी ईश्वरी! पूरब पश्चिम दक्षिण दिशा में। 
अपने त्रिशूल को घुमाकर रक्षा करो उत्तर दिशा में। 

रक्षा करो माते! हर दिशा में, हर जगह हर पल में। 
रक्षा करो पर्वत पर हमारी, वायु में जल स्थल में। 

रक्षा करो त्रिलोक की अपने, सुंदर भयंकर रूप के द्वारा। 
रक्षा करो सभी विपत्ति से, सब बाधाओं से हमारा। 

देवी आपके कर-पल्लव में सुशोभित होते जो भी अस्त्र। 
रक्षा करो उन सब के द्वारा सब ओर से और सर्वत्र। 

देवताओं ने पूजा स्तुति की जगन माता की इस प्रकार।  
उसे जगदम्बिके माँ देवी को, शीश झुका कर नमस्कार। 

नंदनवन के दिव्य पुष्प व चंदन गंध आदि लेकर। 
दुर्गा देवी की अर्चना की, भक्ति पूर्वक सब ने मिलकर। 

देवी बोली प्रसन्न मन हो, देवों को करते हुए प्रणाम। 
जिस वस्तु की हो अभिलाषा, ऐसी वस्तु तुम लो मांग। 
 
देवों ने अपनी अर्चना से, देवी का मन लिया था जीत। 
व देवी के किये उपकार से पहले ही थे वे अनुगृहीत।  

तुमसे हम क्या मांगे देवी, देवता बोले हो प्रसन्नचित। 
महिषासुर दैत्य को मारकर, हमारा तुमने किया है हित। 

फिर भी कुछ देना चाहो तो, बस दे दो इतना सा वर। 
जब-जब हम याद करें, कृपा करो दर्शन से हम पर। 

जो भी मनुष्य करे आपकी, इन स्तोत्रों द्वारा स्तुति। 
प्रसन्न हो प्रदान करना माँ धन, वैभव, स्त्री, समृद्धि। 

देवों ने जब प्रसन्न किया, जगत का करने को कल्याण। 
भद्रकाली देवी तब हो गयीं तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान। 

ऋषि ने देवों से प्रकट हुई देवी की यह कथा सुनाई। 
तीनों लोगों का हित करने हेतु ही वे अस्तित्व में आयीं। 

फिर देवताओं के हित में, करने शुम्भ निशुम्भ का वध। 
गौरी देवी के शरीर से, देवी फिर से हुईं प्रकट।  

देवी की महिमा का अब, कहता हूं आगे का प्रसंग। 
अवतरित हुई जो करने को, शुम्भ निशुम्भ का अंग भंग। 
 
 इति चौथा अध्याय संपूर्ण


 पांचवा अध्याय 

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड मुण्ड से उनके रूप की प्रशंसा 
उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
 
 विनियोग 
इस उत्तम चरित्र के रूद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टप छंद है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्व है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वती की प्रसन्नता के लिए उत्तर चरित्र  के पाठ में इसका विनियोग किया जाता है 

ध्यान  
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जो अपने कर कमलों में धारण करती हैं घंटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष, बाण 
जिनकी मनोहर कांति है शरद ऋतु के शोभा संपन्न चंद्रमा के समान 
गौरी के शरीर से प्रकट दैत्य मर्दनी वे तीनों लोक की हैं आधारभूता 
मैं निरंतर भजन करता हूं उन महासरस्वती देवी का 

आदिकाल में शुम्भ निशुम्भ असुरों का बाल हो चला प्रचंड। 
इंद्र के हाथ से त्रिलोक छीन वे करने लगे अति घमंड। 
 
सूर्य, चंद्र, यम, कुबेर, वरुण का दोनों ने छीना अधिकार। 
वायु अग्नि भी उनके वश में, सर्वत्र मच गया हाहाकार। 
 
अपमानित कर, अधिकार छीन, उन्हें स्वर्ग से दिया निकाल।
देवताओं ने स्मरण किया जगदम्बा को उस संकट काल। 

देवी जगदम्बा ने दिया था, देवताओं को ऐसा वर। 
आपत्तियों का नाश करेंगी, आपत्ति में स्मरण करने पर। 

गिरिराज हिमालय पर गए, यह विचार कर देव सभी। 
करने लगे स्मरण, स्तुति; माँ भगवती विष्णु माया की। 

देवता बोले शिवा, प्रकृति, भव, नित्य, जगदम्बा रौद्र निनके नाम। 
उन महादेवी गौरी धात्री को देवताओं का सतत प्रणाम। 

ज्योत्स्ना-मयी, चन्द्ररूपिणी, सुखस्वरूपा, सिद्धिरूपा। 
हमारा अभिनन्दन स्वीकारो, इस जगत की आधाररूपा!

नमस्कार हो नैऋती को, दुर्गा, दुर्गपारा, सर्वाणी को। 
सारा, ख्याति, कृष्णा को, धुमारा देवी सर्वकारिणी को। 

प्राणियों में नाम विष्णुमाया, अत्यंत सौम्य तथा रौद्ररूपा। 
उन देवी को करते नमन, हम सब देवता शीश झुका। 

बुद्धिरूप में तुम हो स्थित, शक्तिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है।

शांतिरूप में तुम हो स्थित, कान्तिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है। 

भ्रान्तिरूप में तुम हो देवी, क्षान्तिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है। 

सुधारूप में तुम हो स्थित, श्रद्धारूप में तुम हो
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है। 

निद्रारूप में तुम हो स्थित, तन्द्रारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है। 

चेतनारूप में तुम हो स्थित, वेदनारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है। 

छायारूप में तुम हो देवी, मायारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है बारंबार नमस्कार है।                 
  
प्यास रूप में तुम हो देवी, श्वास रूप में तुम हो, 
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

जातिरूप में तुम हो देवी, भक्तिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

लज्जा रूप में तुम हो देवी, सज्जारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 
 
वृत्तरूप में तुम हो देवी, स्मृतिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

विधातारूप में तुम हो देवी, दातारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

सृष्टिरूप में तुम हो देवी, वृष्टिरूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

दयारूप में तुम हो देवी, जयारूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

लक्ष्मीरूप में तुम हो देवी, जननी रूप में तुम हो,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 

जीव इंद्रियों की अधिष्ठात्री, चैतन्य रूप में सर्वत्र व्याप्त,
तुम्हें हमारा नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। 
 
जिनकी स्तुति करने से, होती अभीष्ट की प्राप्ति। 
हे कल्याण की साधनभूता! मंगल करो हरो विपत्ति। 

भक्ति से स्मरण करने पर, विपत्तियां नष्ट करें तत्काल। 
हमारा भी संकट दूर करो, हे जगदंबा! तुम्हें नमस्कार। 

देवता कर रहे थे स्तुति, गंगा नहाने आयीं उस क्षण। 
किसकी स्तुति करते हो सब? पार्वती ने पूछा कारण। 

शुम्भ निशुम्भ से पराजित, ये देवता करते मेरी स्तुति। 
पार्वती के देह से प्रकट हुई, बोलीं शिवा देवी भगवती। 

पार्वती के कोष से जन्मी, कौशिकी कहलायीं अम्बिका। 
पार्वती का रंग काला पड़ा और नाम पड़ गया कालिका। 

कालिका देवी तत्पश्चात, जा बसीं हिमालय पर्वत पर। 
शुम्भ के भृत चण्ड मुण्ड ने देखा उनका रूप मनोहर। 

जाकर वह शुभ से बोले, अति आश्चर्य की है बात। 
एक स्त्री के दिव्य-कान्ति से, हिमालय प्रकाशित होता आज। 

वह है अत्यन्त ही मनोहर, देखा नहीं वह रूप किसी ने। 
उसके अंगों की प्रभा ने, सबके ही चैन पर छीने। 

उसके अंग अंग है सुंदर, सर्वोत्तम है उसका रूप।  
आंखें तो ऐसी सुन्दर हैं, कमलों से भरा कोई अनूप। 

सब दिशाएं प्रकाशित उससे, है उपस्थित हिमालय पर। 
बना सके उसे नायिका, नहीं है कोई नायक पर। 

हे दैत्यराज! आप धन-धान्य, हाथी-घोड़ों से संपन्न। 
सभी तरह के मणि-मंजूषा, भरे पड़े हैं सारे रत्न। 

घर में है पारिजात का वृक्ष, ऐरावत हाथी, उच्चैश्रवा घोड़ा। 
आंगन में शोभित विमान, जिसमें जुता हंसों का जोड़ा। 

ब्रह्माजी से छीने अपने, वह रत्नभूत अद्भुत विमान। 
कुबेर से भी छीना आपने महापद्म निधि जिसका नाम। 

समुद्र ने भी भेंट किया है, आपको किंजल्किनी माला। 
केसर सुशोभित कमल जिसके, जो कभी नहीं सकते कुम्भला। 

आपके घर वरुण का छत्र, करता जो सोने की वर्षा। 
प्रजापति का श्रेष्ठ मुकुट, आपके ही घर में रखा। 

उक्रांतिदा नामक भृत्य की, शक्ति आपने ली है छीन। 
वरुण के पाश लिया निशुम्भ ने उसको कर अधिकार विहीन। 
 
अग्नि ने अर्पित किए आपको, शुद्ध किए हुए दो वस्त्र। 
इस प्रकार से कर लिया आपने एक-एक रत्न एकत्र। 

इस कल्याणमयी देवी को, स्त्रियों में जो रत्न स्वरूप। 
अपने अधिकार में क्यों नहीं, कर लेते हे दैत्य भूप। 

दूत बना सुग्रीव को भेजा, सुन चण्ड मुण्ड का कथन। 
शुम्भ ने दी आज्ञा जाओ, उस देवी से कहो मेरे वचन। 
 
मेरी बातें कहना उनसे, और करना ऐसा उपाय। 
जिससे देवी प्रसन्न होकर, मेरे पास स्वयं चली आए। 

देवी थी जहां पर स्थित, पर्वत का रमणीय प्रदेश। 
दूत कोमल वचन में बोला, जाकर निशुम्भ का संदेश। 

देवी शुम्भ का मैं हूं दूत, जिसके पास सभी रतन धन। 
कोई देवता उनकी आज्ञा का, कर नहीं सकता उल्लंघन। 

उसे महादैत्य ने मेरे द्वारा, भेजा है तुमको संदेश। 
मेरे अधिकार में सब रत्न, तीनों लोकों में हूं श्रेष्ठ। 

इन्द्र ने ऐरावत हाथी, देवों ने अश्वराज उच्चैश्रवा। 
गंधर्वों नागों ने मिलकर, सब रत्नभूत मुझको दिया। 

हे देवी! हम तुम्हें मानते, इस संसार में रत्न समान। 
रत्न उपभोग करने वाले शुम्भ की बात जाओ मान। 

तुम रमणी हो, रत्नस्वरूपा, तुम्हारे यह चंचल कटाक्ष। 
तुम्हारी इस सुंदरता का, तीनों लोक खड़ा है साक्ष्य। 

पाओगी महान ऐश्वर्य, कर लो जो मेरा वरण। 
मेरी पत्नी तुम बन जाओ, आ जाओ मेरी शरण। 

कल्याणमयी भगवती दुर्गा, दूत का सुनकर यह कथन। 
गंभीर भाव से बोलीं, मुस्कुराकर वे मन ही मन।  

दूत तुम सत्य कहते हो, तनिक नहीं इसमें मिथ्या। 
शुम्भ है त्रिलोक का स्वामी, पर मैंने भी की है प्रतिज्ञा। 

मैंने की है यह प्रतिज्ञा, मेरे सामान जो हो बलवान। 
संग्राम में मुझे पराजित कर, तोड़ दे मेरा अभिमान। 

वही बनेगा मेरा स्वामी, यही किया है मैंने प्रण। 
मिथ्या करूं इस प्रण को, तुम्हीं कहो मैं किस कारण। 

शुम्भ निशुम्भ शीघ्र पधारें, करें नहीं तनिक बिलम्ब। 
पाणिग्रहण कर ले मुझसे, मुझे जीत करके शुम्भ। 

दूत बोला भगवती से, तुम घमंड में भरी हुई हो। 
शुम्भ निशुम्भ ऐसे वीर हैं, उनसे तनिक न डरी हुई हो। 
 
युद्ध में न ठहरा कोई देवता, उनकी वीरता के कारण। 
युद्ध में तुम अकेली स्त्री, कैसे करोगी उनसे रण। 
 
शुम्भ निशुम्भ के पास चलो, चाहो जो गौरव की रक्षा। 
वरना खींचेंगे केश पकड़कर, खोवोगी अपनी प्रतिष्ठा। 

देवी तब विनम्र हो बोलीं, दूत कहते हो तुम ठीक। 
शुम्भ निशुम्भ हैं बलवान, और पराक्रम के प्रतीक। 

पर मैं भी कर सकती क्या! ऐसी जो प्रतिज्ञा कर ली। 
जाकर तुम उनसे कह दो, चाहे करें, जो मन में भर ली। 
 
 इति पांचवा अध्याय संपूर्ण 


छठा अध्याय 
धूम्रलोचन वध 

ध्यान 

वे बैठी हैं नागराज के आसन पर, नागों के फणों में सुशोभित। 
मणियों की विशाल माला से उनकी देह-लता हो रही उद्भासित। 
वे हाथ में लिए हुए हैं माला, कुम्भ, कपाल, व कमल। 
तीन नेत्र उनकी शोभा बढ़ाते व अर्धचंद्र का मुकुट मस्तक पर। 
सूर्य सम तेज वाली, करने वाली सर्वज्ञेश्वर भैरव के अंक में निवास। 
मैं चिंतन करता हूँ उन परमोत्कृष्ट पद्मावती देवी का। 

देवी का यह कथन सुन, दूत हुआ बहुत निराश। 
सविस्तार समाचार बताया, जाकर दैत्यराज के पास। 

दैत्यराज क्रोधित हो उठा, उस दूत के सुनकर वचन। 
उसने फिर आदेश दिया, बुलाओ सेनापति धूम्रलोचन। 

धूम्रलोचन को दी आज्ञा - सेना लेकर अपने साथ। 
जाओ देवी दुष्टा को लाओ, बल पूर्वक तुम मेरे पास।  
        
घसीटते हुए तुम उसको लाना, पकड़ कर के उसके केश। 
यदि कोई रक्षा को आये, नहीं छोड़ना उसको शेष। 

चाहे हो वह कोई देवता, हो गन्धर्व या फिर यक्ष। 
नहीं छोड़ना जीवित किसी को, मार डालना उसे अवश्य। 

शुम्भ-आज्ञा से धूम्रलोचन, आसुरी सेना ले साथ हजार। 
हिमालय पर पहुंचकर उसने, भगवती से बोलै ललकार -

झट से प्रसन्नता पूर्वक तू शुम्भ निशुम्भ के पास चल। 
या बाल पकड़कर ले जाऊं, तुझे घसीटते हुए इसी पल। 

देवी बोलीं तुम्हारे स्वामी व तुम स्वयं भी हो बलवान। 
उस पर यह विशाल सेना, कैसे हो सके तुमको हानि। 

मैं भी क्या कर सकती हूँ, ले जाओ जो बल पूर्वक। 
ऐसे सुन देवी की वाणी, धूम्रलोचन गया विदक। 

वक्ष फुलाकर धूम्रलोचन, दौड़ पड़ा देवी की ओर। 
क्या पता था उस पापी को, उनपर न चलता कोई जोर। 

'हुँ' शब्द के उच्चारण से, देवी ने जो किया हुंकार। 
भस्म हो गया धूम्रलोचन, दैत्यों में मची हाहाकार। 

दैत्यों की विशाल सेना पर, देवी ने किया शस्त्र प्रहार।
एक एक कर गिरने लगे, दैत्य शवों का लगा अम्बार। 

देवी वाहन पंचानन ने, क्रोध में की भयंकर गर्जन। 
कूद पड़ा वह असुर सेना में, हिलाते हुए अपनी गर्दन। 

कुछ दैत्यों को दातों काटा, कईयों को पंजों से मारा। 
कितने दैत्यों को पटककर, दाढ़ों से घायल कर डाला। 

कितनों के पेट को फाड़े, घुसा करके अपने नख। 
थप्पड़ मार कितनों के सिर, कर दिए धड़ से विलग। 

सिर के बाल हिला करके, कई असुरों को किया आसक्त। 
फिर उन सबके पेट फाड़कर, सारा का सारा चूसा रक्त। 

क्रोध से भरा महाबली वह, देवी का वाहन पंचानन। 
दैत्य सेना का कर डाला, क्षण भर में उसने दलन। 

शुम्भ को जब पता चला, दैत्य सेना का हुआ सफाया। 
कुपित होकर तुरंत उसने, चण्ड मुण्ड को वहां बुलाया। 

उन महादैत्यों को आज्ञा दी, जाओ लेकर बड़ी सी सेना। 
केश पकड़कर उस देवी को, साथ लाना या बांध देना। 

अम्बिका को बांधकर तुम, साथ लेकर शीघ्र आना। 
अपनी सेना का प्रयोग कर, सभी अस्त्र शस्त्र चलाना।

लाने में हो संदेह तनिक भी, कर डालना उसकी हत्या। 
सिंह को भी जीवित न छोड़ना, तुमको है यह मेरी आज्ञा।

इति छठवां अध्याय सम्पूर्ण  
                       
    

सातवां अध्याय 
 
चण्ड और मुण्ड का वध 

ध्यान 
 रत्न जटित सिंहासन पर बैठे पढ़ते हुए तोते का सुन रहीं शब्द।  
 अपना एक पैर कमल पर रखे हैं, मस्तक पर धारण करती हैं अर्धचंद्र। 
 कल्हार पुष्पों की माला धारण कर वे वीणा बजाती हैं। 
लाल रंग के वस्त्र पहने व अंगों में कसी चोली शोभा पाती है। 
 हाथ में शंख पात्र, ललाट में बिंदी, बदन पर मधु का प्रभाव पड़ता है जान।
उन श्याम वर्ण की मातंगी देवी का मैं हृदय से करता हूं ध्यान।
 
शुम्भ की आज्ञा से शस्त्र ले, रण को चले चण्ड मुण्ड। 
साथ वे लेकर चले विशाल चतुरंगिणी सेना का झुंड।

जा पहुंचे हिमालय के स्वर्णमय में ऊंचे शिखर पर। 
जहां देवी मुस्कुरा रही थीं, बैठी अपने वाहन शेर पर। 

किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने संभाली  तलवार। 
देवी भगवती को पकड़ने, दैत्य सब हो गए तैयार।

पकड़ने का यत्न सोचता, दैत्य झुण्ड आ हुआ खड़ा।
उसी समय क्रोध के मारे, देवी का मुख काला पड़ा। 

ललाट में मौहें टेढ़ी हुईं, हुई तुरंत काली प्रकट। 
विकराल मुखी थीं काली वह, कर में लिए पाश खड्ग।

चीते के चर्म की साड़ी पहने, व विचित्र खट्वाङ्ग धरे।  
नरमुण्ड माला से शोभित, अत्यंत भयंकर जान पड़े। 
 
बचा हड्डियों का ढांचा था, सूख गया शरीर का मांस। 
क्रोध के मारे लाल हो चलीं, भीतर को धंस गई थीं आंख।

जीभ लपलपाने के कारण, वे होती थीं डरावनी प्रतीत। 
मुख उनका ऐसा विशाल था, जो देखे होये भयभीत। 

उनकी भयंकर गर्जना से, संपूर्ण दिशाएं गूंज गईं। 
बड़े वेग से कालिका देवी, दैत्य सेना पर टूट पड़ीं। 

देत्यों का वे वध करतीं, और करतीं वे उनका भक्षण। 
मुंह में डाल देतीं उनको, अपने एक ही हाथ पकड़।

रक्षक योद्धा हाथी घोड़े, मुंह में डाल जातीं चबा। 
कइयों के बाल पकड़ मारतीं, कईयों को गला दबा। 

खा जातीं बड़े-बड़े रथों को, और साथ में रथी सारथी।
किसी को पैरों से कुचलकर, किसी को धक्के दे मारतीं। 

दैत्यों के अस्त्र छोड़ने पर, देवी को अति आती खीस। 
मुंह से पकड़ अस्त्र-शस्त्र को, दांतों से वे देती पीस। 

कितनों को तलवार से काटा, बहुतों को खट्वाङ्ग से पीटे। 
कितनों को दांतों में दबा, झकझोर धरनी पर घसीटे।

रौद डाला रण में काली ने, दैत्यों की सेना को सारी। 
सेवा के संहार के बाद अब आयी चण्ड की बारी। 

रोष में भर चण्ड फिर दौड़ा, भयानक काली देवी की ओर। 
मुण्ड ने बाणों की वर्षा की, लगाकर अपना पूरा जोर। 

हजारों भयानक चक्र चला, देवी को कर दिया आच्छादित। 
सभी चक्र देवी के मुंह में, समा जाते थे बाणों सहित।  

मानो सूर्य के अनेकों मंडल, बादलों में कर रहे प्रवेश। 
देवी के मुख में जा कहीं, लुप्त हो गए हों दिनेश। 

काली ने रोष में भरकर, किया अति विकेट अट्टहास।  
चण्ड मुण्ड का काल आ गया, हो चला उन्हें आभास। 

देवी के विकराल मुंह में, दिखाई दिए जो दांत धवल। 
दांतों की प्रभा की चमक से, लगता फट गए हों बादल। 

देवी ने ले बड़ी तलवार, 'हं' मंत्र का किया उच्चारण। 
चण्ड का मस्तक काट दिया, एक हाथ से केश  पकड़।

चण्ड के मरने पर दैत्यों में मच गया अति भारी शोर। 
उसको मारा गया देख, मुण्ड दौड़ा देवी की ओर। 

देवी ने तब रोष में भरकर, दिया अपनी तलवार चला। 
मुण्ड को घायल कर उन्होंने, धरती पर उसे दिया सुला। 

बची खुची बाकी सेना तब, भय अकुल हो लगी भागने। 
काल कवल वह राक्षस होता, देवी के जो आता सामने।

चण्ड मुण्ड के मस्तक हाथ, लेकर गईं चण्डिका के पास। 
काली ने चण्डिका से बोला, करते हुए प्रचंड अट्टहास। 
 
देवी! चण्ड मुण्ड असुरों को, मैं करती हूं तुमको भेंट। 
शुम्भ निशुम्भ के प्राण पखेरू, आप स्वयं ही  देना वेध।

चण्ड मुण्ड के शव को देख, चण्डी देवी हुई प्रसन्न। 
कल्याणमयी मधुर वाणी में, काली से बोलीं यह वचन। 

देवी तुमने मेरी आज्ञा से, चण्ड मुण्ड को दिया है मार ,
चामुंडा देवी के नाम से, जानेगा तुम्हें यह संसार। 

इति सातवां अध्याय संपूर्ण

 

आठवां अध्याय
 
रक्त बीज वध 

 ध्यान 
 
जिनके शरीर का रंग है लाल, नेत्रों में लहरा रही करुणा। 
पाश अंकुश बाण और धनुष हाथों में पाते शोभा।  
अणिमा आदि सिद्धमयी किरणों से आवृत्ता  
उन कांतिमयी भवानी का मैं हूं ध्यान करता। 

चण्ड मुण्ड के मरने पर, शुम्भ के मन में आया क्रोध। 
मन ही मन ठान लिया, वह देवी से लेने का प्रतिशोध। 

शुम्भ की आज्ञा पाकर, युद्ध हेतु कूच करने को। 
दैत्यों की संपूर्ण सेना, चल दी देवी से लड़ने को। 

छियासी दैत्य सेनापति, उदायुध थे जिनके नाम। 
अपनी सेनाओं को लेकर, युद्ध हेतु किया प्रस्थान। 
 
कम्बु के चौरासी नायक, कोटिवीर्य कुल के पचास। 
अपनी वाहिनियों से घिरे, पहुंचे युद्ध स्थल के पास। 

धौम्र कुल के सौ सेनापति, सेना को करके सज्जित। 
शुम्भ आदेश से कूच किया युद्ध के लिए सेना सहित।  

कालक, दौर्द, मौर्य और, कालकेय भी हों तैयार। 
मेरी आज्ञा से आगे बढ़ें, अपने अपने ले हथियार। 

इस प्रकार आज्ञा देकर और लेकर बड़ी सेना का झुण्ड। 
युद्ध के लिए प्रस्थित हुआ, असुरों का महाराजा शुम्भ। 

चण्डी ने जब आती देखा, उसकी अत्यंत भयंकर सेना। 
धनु टंकार से गुंजा दिया, धरा आकाश का हर कोना। 

तदन्तर देवी का सिंह भी, दहाड़ने लगा एक और से। 
देवी का घंटा भी तत्क्षण, घनघनाने लगा जोर जोर से। 

धनु-टंकार, सिंह की दहाड़ से गूँज उठीं सारी दिशाएं। 
घंटे की घनघनाहट ने भी, गगनभेदी नाद मचाये। 

काली ने विकराल किया मुख, करने को तब भीषण ध्वनि। 
उनके ननाद से डोल गई, पूरी की ही पूरी धरनी। 

तुमुल की ध्वनि सुनकर, दैत्यों ने की तनिक न देर। 
चारों ओर से आकर उन्होंने, काली देवी को लिया घेर। 

असुरों का करने को विनाश, और देवताओं का अभ्युदय ,
काली देवी स्वयं सक्षम थीं, उनको था न तनिक भी भय। 

ब्रह्मा, विष्णु, कार्तिकेय, शिव व इन्द्रादि की दिव्य शक्ति। 
चण्डिका के पास आ गयीं, अत्यंत पराक्रम से युक्त।

जिस देवता का जो रूप था, और जो भी था उनका वाहन। 
वैसी ही वेश-भूषा में व लेकर ठीक वैसे ही साधन। 

देवों की शक्तियां आ गयीं, वहां काली देवी के पास। 
असुरों से युद्ध करने हेतु, व करने को उनका नाश। 

हंसयुक्त विमान पर बैठी, अक्षसूत्र व कमण्डल शोभित। 
ब्रह्माजी की शक्ति ब्रह्माणी, सबसे पहले हुई उपस्थित। 

महानाग का कंगण पहने, माथे चंद्र कर में त्रिशूल। 
महादेव जी की शक्ति आयी, वृषभ पर होकर आरूढ़। 
  
कार्तिकेय जी की शक्तिरूपा, सवार होकर मयूर पर। 
शक्ति लेकर दैत्यों से लड़ने, उन्हीं का आयीं रूप धर।

शंख, चक्र, गदा हाथ में, होकर गरुड़ पर विराजमान। 
आयीं लिए धनुष, खड्ग शक्ति प्रदत्त विष्णु भगवान्।

वाराह शरीर के रूप में, श्री हरि ने किया प्रदत्त। 
धरे यक्षवाराह का रूप, थी उनकी विचित्र शक्ति। 

नारसिंही शक्ति आ गयी, धारण कर नृसिंह शरीर। 
गर्दन के बालों के झटकों से, तारे टूट कर जाते गिर। 

गजराज ऐरावत पर सवार, लिए हुए हाथ में वज्र। 
इंद्र की शक्ति भी आयी, नेत्र थे जिनके सहस्र।

तदन्तर चंडिका से कहा, शक्तियों से घिरे महादेव ने। 
इन असुरों का संहार करो, देवताओं का काम बने। 

सभी देवों के शरीर से, परम उग्र और भयानक। 
समक्ष न कोई टिक पाए, हुई अम्बिका शक्ति प्रकट।    

करने वाली तीव्र ननाद, शत शिवाओं से भी तेज। 
तत्पर थीं चंडिका युद्ध को, सभी शक्तियों को सहेज। 

तब अपराजिता देवी बोलीं, धूमिल जट वाले महादेव से।
आप दूत बनकर जाईये, समीप शुम्भ निशुम्भ के। 

कहिये उन दोनों से और समस्त उपस्थित दानवों से। 
न हो कि युद्धस्थल पल में, बिछ जाए दैत्य शवों से। 

वे जीवित रहना चाहते जो, पातळ लोक को जाएँ लौट। 
देव करें यज्ञ का उपभोग, इंद्र पाएं अपना त्रिलोक। 

बल के घमंड में रखते जो, तुम सब युद्ध की अभिलाषा। 
तुम्हारा मांस खाएंगी शिवायें, बुझाएंगी रुधिर से पिपासा। 

देवी ने बनाया इस प्रकार, भगवान शिव को अपना दूत। 
'शिवदूती' नाम पड़ गया, करने पर उन्हें दूत नियुक्त। 

महादैत्य क्रोध में भर गए, बोले यह जब शिव भगवान। 
क्रोध में भर उस ओर बढ़े, कात्यायनी जहाँ थीं विराजमान।

वहां उन्होंने रोष में भरकर, उनपर किया अस्त्रों की वृष्टि। 
कोई छोड़े बाण शक्ति और कोई लेकर आया सृष्टि। 

देवर ने तब उठाया धनुष, छोड़ा उसने भयानक बाण।
देवी ने काटे अस्त्र शत्रुओं के, लेने लगीं उन सबके प्राण। 

शत्रु अस्त्रों के नष्ट करतीं, उनके समक्ष जैसे हों तृण। 
और अपने शूल प्रहार से, दैत्यों को कर देतीं विदीर्ण। 

खट्वाङ्ग से मार मार कर, निकाल देतीं उनका कचूमर। 
मूर्छित होकर गिराने लगे, दैत्य सभी एक एक कर।

ब्रह्माणी जिस ओर दौड़तीं, कर देतीं पल में भस्म -
कमंडल का जल छिड़ककर, शत्रुओं का ओज पराक्रम। 

कार्तिकेय-शक्ति ने शक्ति से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से,
करने लगीं संहार दैत्यों का, बच न पाता कोई भूल से। 

सैकड़ों का रक्त बह निकला, चलाया जब वैष्णवी ने चक्र। 
सैकड़ों धराशायी हुए जो, इन्द्रशक्ति का गिरा वो वज्र।

वाराही ने थूथुन से मार, कितनों का वक्ष डाला वेध। 
गिर पड़े चक्र की चोट से, हो विदीर्ण कितने ही दैत्य। 

सिंहनाद करते नरसिंही, युद्धभूमि में जहाँ भी जातीं। 
अपने नखों से नोच नोच, दैत्यों को वे खा जातीं।  

कितने ही असुर गिर पड़ते, शिवदूती का सुन अट्टहास। 
शिवदूती तब बना लेतीं, उन असुरों को अपना ग्रास। 

दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए, क्रोधित देख मातृगणों को। 
व तरह तरह से मरते देख, बड़े बड़े महा असुरों को। 

भागते देख युद्ध से दैत्यों को, मातृगणों के भय से। 
रक्तबीज क्रोध में भरकर, आया युद्ध के उद्देश्य से। 

रक्तबीज को मिला हुआ था, ऐसा एक विशेष वरदान। 
रक्त बूँद नीचे गिरते ही, असुर प्रकटता उसी समान।

रक्तबीज करने लगा युद्ध, इन्द्रभक्ति से गदा ले हाथ। 
तब ऐन्द्री ने बज्र से किया, रक्तबीज पर झट प्रतिघात।

बज्र से घायल होने पर, बहुत सा रक्त लगा टपकने। 
समान रूप वाले योद्धा, वहां स्वतः ही लगे पनपने। 

जीतनी बूदें गिरीं रक्त की, उस दानव के शरीर से। 
रक्तबीज उत्पन्न हो गए, उस समान बलवान वीर से। 

रक्तज़ात असुर करने लगे, भयंकर शास्त्रों का प्रहार। 
फिर से घायल होने पर, पनपते असुर कई हजार।

मातृगणों से उन दैत्यों का, होने लगा युद्ध घनघोर। 
दैत्य सेना इतनी हो गयी, नहीं गणों का चलता जोर। 

वैष्णवी ने रक्तबीज पर, अपने चक्र का किया प्रहार। 
अंदरि ने भी उस दैत्य पर, गदा से कर दिया वार।

चक्र से घायल होने पर, रक्त के फ़व्वारे बह निकले। 
दैत्य संख्या इतनी हो गयी, सम्पूर्ण धरा पर जा फैले। 

कौमारी ने शक्ति से और वाराही ने किया तलवार से। 
माहेश्वरी ने आहत किया, उसको त्रिशूल के वार से। 

सैकड़ों असुर उत्पन्न होते, शक्तियों से आहत होने पर। 
दैत्य ने भी किया प्रहार, मातृशक्तियों पर जमकर। 

जगत को असुरों से व्याप्त, देख देवता हुए भयाकुल। 
कैसे होंगे नष्ट ये दैत्य, इतनी संख्या में समूल। 

चंडिका ने काली से कहा, देवताओं को देख उदास। 
तुम अपना मुंह फैलाओ, दैत्य रक्त से बुझाओ प्यास। 

शास्त्रपात से गिरने वाले, रक्त बिंदुओं को खा जाओ। 
उनसे उत्पन्न दैत्यों को, तुम अपने मुख में समाओ। 

रक्त व उससे पनपे दैत्यों का जो करोगी तुम भक्षण। 
नए असुर पैदा होने का, बचेगा नहीं कोई कारण। 

रक्तपान व दैत्यों का तुम, भक्षण करते रहो विचरती। 
रक्तबीज का रक्त जिससे, कदापि छू न पाए धरती। 

जीवित दैत्यों को खाने से, न होंगे नए दानव उत्पन्न। 
इस प्रकार क्षीण होने पर, होगा रक्तबीज का अंत। 

काली से यह कह चण्डिका ने, रक्तबीज को शूल से मारा। 
काली ने अपना मुख खोला, रक्त पि लिया उसका सारा। 

अपनी गदा से चण्डिका पर, रक्तबीज ने किया प्रहार। 
उस गदापात का देवी पर, तनिक भी न पड़ा प्रभाव। 

रक्तबीज के घायल शरीर से, निकला तब बहुत सा रक्त। 
काली ने सब मुख में लिया, वह दैत्य हो गया आशक्त। 

काली के मुख में रक्त से, उत्पन्न होते जो महादैत्य। 
झट से काली चट कर जातीं, और पनपने का ना भय।

तब देवी ने रक्तबीज को, मारा कर शास्त्रों का प्रयोग। 
मरने पर पूरा हुआ सकल देवताओं का मनोयोग। 

होकर के गिरा धरती पर, रक्तबीज तब रक्तविहीन। 
देवता अति हर्षित होकर, देवी स्तुति में हुए लीन। 

रक्तबीज का वध करके, देवी ने किया ऐसा कृत्य। 
मातृगण भी मस्त होकर, करने लगे हर्ष से नृत्य। 

इति आठवां अध्याय सम्पूर्ण 



नवां अध्याय 

निशुम्भ वध       

ध्यान 
वो अपनी भुजाओं में सुन्दर अक्षमाला 
पाश, अंकुश व वरदमुद्रा करते हैं धारण। 
वे तीन नेत्रों से सुशोभित हैं 
तथा अर्धचंद्र है उनका आभूषण। 
बंधूक, पुष्प और सुवर्ण के सामान,
रक्त पीत मिश्रित है उनका वर्ण 
मैं उन अर्धनारीश्वर के श्री विग्रह की 
निरन्तर लेता हूँ शरण। 

राजा सुरथ ऋषि से बोले, रक्तबीज का हुआ जो बध। 
देवी का अद्भुत माहात्म्य, भगवन आपने दिया वो कह। 

रक्तबीज के मरने पर आया, शुम्भ निशुम्भ को क्रोध। 
उसके आगे के वृतांत का, ऋषिवर! आप हमें दें बोध। 

ऋषि ने तब उन्हें बताया, रक्त बीज का होने पर अंत। 
समाचार सुन शुम्भ निशुम्भ, हुए आश्चर्य चकित व सन्न। 

उनके क्रोध की सीमा न रही, निशुम्भ दौड़ा देवी की ओर। 
उसकी विशाल सेना भी दौड़ी, मचाते हुए अति भयंकर शोर। 

असुरों की विशाल सेना थी, उनके आगे पीछे आस पास। 
होंठ चबाते हुए क्रोध में, करता देवी-वध का प्रयास। 

महापराक्रमी शुम्भ भी, अपनी विशाल सेना के साथं। 
चण्डिका को मरने पहुंचा, मातृगणों से युद्ध पश्चात्।    

देवी से शुम्भ निशुम्भ का, घोर युद्ध छिड़ गया तभी।
होने लगी बाणों की वर्षा, गिरने लगे हों मेघ सभी। 

देवी ने उनके बाणों को, काट स्व-शस्त्रों की की वर्षा। 
दानव पतियों को आहत किया, छाया उनके आगे तम सा। 

निशुम्भ ले एक हाथ में ढाल, और दूसरे में तलवार। 
देवी वाहन सिंह मस्तक पर, झट से कर दिया प्रहार। 

सिंह के चोटिल होने पर, देवी ने क्षुरप्र बाण निकाला। 
निशुम्भ की चमकती तलवार, बाणों से पल में काट डाला। 

देवी ने खण्ड खण्ड किया, आठ चाँद जड़ित ढाल को। 
तब निशुम्भ उद्यत हुआ, चलने पर एक नयी चाल को।       

ढाल तलवार के कट जाने पर उस असुर ने शक्ति चलाई।
 देवी ने चक्र से टुकड़े किए युक्त उसके काम न आई।

 अब निशुंभ ने शूल उठाया, क्रोध के मारे वह जल उठा।
 देवी को मारने को दौड़ा, वह अपना पूरा बल लगा।

 एक-एक कर प्रयोग किया, दैत्य ने अपनी शक्ति संपूर्ण।
 पर देवी ने अपने शस्त्रों से काट -काट कर दिया चूर्ण।

 देवी ने देखा निशुंभ को आते, हाथ में लेकर फरसा।
 घायल कर धरा पर सुलाया अपने बाणों  की करके वर्षा।

 निशुंभ के धराशाई होने पर, शुभ हो पड़ा अति क्रोधित।
 रथ पर बैठकर वह अपने आयुधों  से हुआ सुशोभित। 

चंडिका का वध करने की उस दुष्ट दानव ने ठानी। 
ऐसा मन में उद्देश्य लिए,  आगे बड़ा निशुंभ अभिमानी। 

अपनी बड़ी आठ भुजाओं से वह ढक लिया सारा आकाश। 
तम सा छा गया धरा,  पर दिखता ना था रवि का प्रकाश।
 कुंभ को आते देख देवी ने, की धनुष की आवाज दूसह। 
व शंख बजाया इतना तेज, की स्थान से हटा पीछे वह।
 देवी घंटे का घनघोर घनन, घन-घन घन-घन घन घनन घनन। 
देत्यों का तेज लुप्त हो गया घंटे की अति  ऊंची थी गर्जन। 
आरंभ किया तादानंतर* देवी का वाहन पंचानन।
 गजराजों का भी मद चूर  हो, ऐसी थी दहाड़ जिसको सुन।
   सभी दिशाएं गुंजी ध्वनि से, गूंज उठे धरा आकाश। 
फिर काली ने उछल तेजी से, पृथ्वी पर देव मारा हाथ। 
इससे ऐसा ननाद हुआ पहले का शोर विलीन हुआ। 
शिवजूती के अमंगल ध्वनि  से असुरों का अपशकुन हुआ।
 सुन शब्दों को सभी असुर, डर के मारे थर्राने  लगे।
 सब जगह व्याप्त आवाजों से सब के सब घबराने लगे।
 कुंभ को भरा अधिक क्रोध मे, देवी ने देख बोले  वचन।
 खड़ा रहे तू अरे दुष्ट दानव करूंगी ठंडी मैं तेरी तपन।

 नभ में खड़े देव सब बोले, जय हो जय, देवी की जय हो। 
तभी शुम्भ ने शक्ति चलाई, जैसे पर्वत कोई अग्निमय हो। 
देवी ने शक्ति को हटाया, फेंक  करके एक भारी लूक। 
शुभ के चलाएं बाणों को कर दिया देवी ने टूक टूक।
 शुम्भ ने किया तब सिंहनाद, मानो हो गया हो वज्रपात। 
लगता था मेघ गरजते हों, बाणों की होती हो बरसात। 
शुम्भ भी अपने कौशल से, देवी वाहनों के करता टुकड़े। 
तथा देवी काट डालतीं, शुम्भ ने जो भी अस्त्र छोड़ें।
 फिर देवी ने क्रोध में भरकर, शूल से किया ऐसा प्रहार। 
शुम्भ मूर्छित हो गिर पड़ा, बंद हो गई उसकी हुंकार ।

 जब निशुंभ को चेतना आई, होकर वह पागल मतवाला। 
काली व सिंह को बाणों से, दैत्य ने आहत कर डाला।
 फिर दैत्यराज ने बनाकर अपनी बाहें दस हजार। 
चंडीका को आछादित किया  करके चक्रोँ का प्रहार।

 दुर्गम दुख निवारक दुर्गा होकर के अत्यंत कुपित। 
बाणों से चक्रोँ को काटकर निशुंभ को कर दिया चकित। 

 चंडिका को मारने हेतु, अपनी गदा लिए हाथ में।
 बड़े वेग से दौड़ा निशुंभ, दैत्य सेना को ले साथ में।

 उसको आते देख चंडिका ने, झट निकाल अपनी तलवार।
 उसकी गदा को काट डाला, जिसकी थी  तीखी सी धार।
 देवों को सताने वाला, निशुंभ बढ़ा ले हाथ में शूल।
 देवी ने उसका वक्ष भेदा,  तेज चला कर अपना शूल।
 देवी के शूल से जैसे ही, निशुंभ का वक्ष हुआ विदीर्ण। 
उसकी छाती से एक अन्य, महाबली हो गया उत्तीर्ण। 
' खड़ी रह' 'खड़ी रह' कह कर, वह बली देवी को ललकारा। 
देवी ने हंसकर खडग से उसका मस्तक विलग कर डाला।
 तलवार से कटकर पृथ्वी पर, वहां गिर पड़ा उसका सिर।
 बड़ा भयंकर हृदय विदारक दृश्य उत्पन्न हो गया फिर।
 देवी का वाहन सिंह वहां, असुरों का गर्दन लगा खाने। 
बिना गर्दन के शव पड़े, तनिक नहीं जाते पहचाने। 
काली और शिवदूती ने किया, आरंभ देत्यों का भक्षण। 
असुरों को उनके सर्वनाश का प्रकट होने लगे थे लक्षण।
 कौमारी शक्ति से विदीर्ण नष्ट हुए कई दैत्य बड़े। 
 ब्रह्मा के मंत्र पुत्र जल से, बल खो हुए कई भाग खड़े।
कितने असुर गिरे होकर, माहेश्वरी त्रिशूल से घायल।
 बाराही-तुण्ड के आघात से, कितनों का निकला कचूमर।
 देत्यों के टुकड़े कर डाले, वैष्णवी ने अपने चक्र से।
 कितनों के प्राण हर लिए, देवी ऐंद्री ने वज्र  से।
बहुत से असुर नष्ट हो गए, कराये कई भाग परिहास।
 कितने ही बन गए काली, शिवदूती व  सिंह के ग्रास।

 इति नवाँ  अध्याय संपूर्ण

 दसवां अध्याय 
शुम्भ  वध 

शुम्भ  वध 
ध्यान
 सूर्य, चंद्रमा और अग्नि, यही हैं तीन नेत्र उनके, 
हाथों में धनुष, बाण, अंकुश, पाश और शूल धारण किये,  
जो अपने मस्तक पर अर्धचंद्र करती हैं धारण, 
मैं उन शिव स्वरूपा भगवती का करता हूं चिंतन।

 शुम्भ ने जब देखा अपने, प्यारे भाइयों को मारा गया। 
अपनी विशाल सेना को, स्वयं के सामने संहारा गया।
 होकर के अत्यंत कुपित वह, देवी अंबिका को ललकारा। 
जगत तारिणी दुर्गा को उसने, दुष्ट कहकर के पुकारा। 
 बोल दूसरी स्त्रियों के बल का, सहारा ले लड़ने वाली। 
बल के अभियान में आकर, घमंड से अकड़ने वाली।
 स्वयं से लड़ने की देवी को, शुम्भ ने दे डाली चुनौती। 
तब देवी ने उसे बताया, ये सारी है मेरी विभूति।
 सब की सब मेरा ही रूप, नहीं ये कोई मेरी सहेली। 
मेरे सिवा और कौन है, संसार में मैं हूं अकेली। 
 अपनी ऐश्वर्या शक्ति से मैं, उपस्थित हुई अनेकों रूप में। 
\यह सारी मेरी विभूतियां, देखो समा रही है मुझ में।
 अंबिका देवी के शरीर में, सभी देवियों लीन हुईं। 
देवी तब अकेले रह गई, अन्यान्य रूप विहीन हुईं। 
मैं हूं अकेली खड़ी युद्ध में, तुम भी हो जाओ स्थिर। 
देवी ने दैत्य को ललकारा, आरंभ हुआ महायुद्ध फिर।
 सब देवताओं और दानवों के देखते-देखते ही भयंकर। 
देवी शुम्भ में युद्ध छिड़ गया जो बहुत ही था वह प्रलयंकर।

  तीखे शस्त्र दारुण अस्त्रों का, होने लगा प्रयोग अचानक।
 दोनों का युद्ध सब लोगों को, लगने लगा बड़ा भयानक।
 बाणों की बरसात हुई, फिर देवी ने दिव्यास्त्र छोड़े। 
शुम्भ ने कुछ काट डाले, कुछ बाणों को वापस मोड़े।
 शुम्भ ने छोड़े दिव्यास्त्र, परमेश्वरी ने कर हुंकार।
अस्त्रों को ऐसे नष्ट किया, कर रही हों जैसे खिलवाड़।
शुम्भ ने सैकड़ो बाण चला, देवी को किया अच्छादित। 
क्रोधित देवी ने कर दिया, उसके धनुष को खंडित।
अपने धनुष के कटने पर, शक्ति ले लिया दैत्यराज ने।
 देवी ने अपना चक्र छोड़ा, उसकी शक्ति को काटने।
शक्ति के कटने पर शुम्भ ने, ढाल ली चंद्र सी चमकती।
 फिर देवी पर धावा बोला, हाथ ले तलवार दमकती।
उसके आते ही चंडिका ने, छोड़े तीखे तीर कमान से। 
काटा देवी ने खडग व ढाल, उज्जवल किरणों के समान से।
 जब मार दिए गए युद्ध में, उसे दैत्य के घोड़े सारथी। 
देवी को मारने को उद्यत, हो गया निशुंभ महारथी।
 शस्त्र सब पहले ही कट चुके, अब उठाया उसने मुदगर।
 देवी ने मुद्गर भी काटा, अपने तीक्ष्ण बाण छोड़कर।
 बड़े बैग से असुर वह दौड़ा, देवी की ओर मुक्का ताने।
 वह मुक्का देवी के वक्ष में जड़ने को मन में ठाने। 
दैत्यराज ने मुक्का जड़कर, देवी से की हाथापाई।
 तब देवी ने चाँटा मारा, शुभ हो गया धराशायी।
 किंतु पुनः वह दैत्यराज, सहसा खड़ा हो गया उठकर। 
फिर वह उछला और देवी को ले गया आकाश में ऊपर।
 आकाश में खड़ा हो गया, न जाने किस प्रकार।
 देवी भी युद्ध करने लगीं, शुभ से बिना लिए आधार।
 देवी और शुम्भ दोनों, हो गए युद्ध में तन्मय। 
युद्ध देखकर सभी चराचर, देवता और मुनि हुए विस्मय।
 बहुत देर तक युद्ध चला, फिर देवी ने उसे दिया झटक।
 अपने हाथों से उठाकर, शुम्भ को धरा पर दिया पटक।
 धरती पर गिरने के बाद वह, दुष्ट आत्मा पुनः हुआ खड़ा। 
चंडिका को मारने हेतु, बड़े वेग से शुम्भ तब दौड़ा।

 देत्यों के राजा शुम्भ को अपनी और जो आते देखा।
 अपना तेज त्रिशूल चलाकर, देवी ने उसकी छाती भेदा।
शूल से घायल होकर वह, दैत्य धरा पर गिर पड़ा।
 गिरने से समुद्रों द्वीपों में, जैसे आ गया तूफान बड़ा।
 प्राण पखेरू उड़े उसके पृथ्वी पर्वत में आया कंपन। 
उस दुरात्मा के मरने से, सारा जगत हो गया प्रसन्न।
 अव्यवस्थाएं समाप्त हुई, आकाश हो गया स्वच्छ।
 उल्का पात शांत हो गया, व्यवस्थित सब दिखता प्रत्यक्ष।
 नदियाँ भी सब बहने लगीं, अपना अपना ले सही मार्ग। 
उस दैत्य के मरने के बाद, सब प्राणियों में आया सौहार्द।
 कुंभ के मरने पर देवों का, हृदय गया था हर्ष से भर।
 गंधर्व गण भी गाने लगे, तरह-तरह के गीत मधुर।
 अन्य गंधर्व बजाने लगे, अति मनोहारी वाद्य।
 तत्काल बहने लगी वहां, सुंदर और पवित्र वायु।
 अग्नि शाला की बुझी आग, अपने आप ही जल उठी। 
संपूर्ण दिशाएं शांत हुईं, सूर्य की किरणे  चमक उठीं।

 इति  दसवां अध्याय संपूर्ण


 11वां अध्याय

 देवताओं द्वारा  देवी की की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान

ध्यान 

 उनके हाथों में वरद, अंकुश, पाश एवं अभय-मुद्रा पाते हैं शोभा।
 उनके मुख पर छाई रहती है मुस्कान की अद्भुत छाया।
 तीन नेत्रों व उभरे स्तन से युक्त उनके श्री अंगों की आभा उदित सूर्य समान।
और उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट, उन मुक्तेश्वरी देवी का करता हूं ध्यान।
                                                 
  हर्षित देवताओं के दिव्य से, आकाश व धरती चमक उठे।
 अभीष्ट की प्राप्ति होने पर उनके मुख कमल दमक उठे।
 इंद्र आदि देवताओं ने धरा रूप में है जो स्थिति।
 अग्नि को आगे करके वे, कात्यायनी की  की स्तुति।
 सारे जगत को धरने वाली शरणागत की पीड़ा हरने  वाली
 जगन्नमाता  विश्वेश्वरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
  तुम हो अधीश्वरी चराचर की,,आधार हो तुम्हीं जगत की। 
जगत की अधीश्वरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 धरा रूप में तुम हो स्थित, जल के रूप में देती तृप्ति। 
महापराक्रमी परमेश्वरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 अनंत बलयुक्त, शक्ति वैष्णवी, प्रसन्न हो तो मोक्ष पाते सभी। 
शिवदूती माहेश्वरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
संपूर्ण जगत को रचने वाली, विश्व को वश में रखने वाली, 
हे विश्वेश्वरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
सकल विद्याएं तुम्हारे स्वरूप, सब स्त्रियां तुम्हारा ही रूप। 
सत्यानंद स्वरुपिनी* प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
तुम हो देवी जगदंबा जो, पूरे विश्व को व्याप्त करे।  
तुम हो स्तवन के योग्य देवी सभी पदार्थों से परे।
देवी अनंता प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
तुम हो परावाणी, परामाया, पराविद्या हो और हो पराकाया।
अभव्या नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
इस जगत की कारण भूता, तुम देवी हो सर्वस्वरूपा। 

सबके मन में विराजमान, तुम हो देवी बुद्धिरूपा।
बुद्धिदायिनी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
तुम हो देवी मोक्ष प्रदानी, कल्याण कारिणी, शक्ति दानी। 
भवमोचनी  प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
कला काष्ठ आदि को रूप दात्री, विश्व उपसंहार कि तुम में शक्ति।
 महेश्वरी देवी प्रसन्न हो तुमको बारंबार नमन हो।
तुम देवी मंगलमयी हो सब प्रकार की मंगल कारक। 
कल्याणदायिनी शिवा प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
वत्सला हो शरणागत की, पुरुषार्थ सिद्ध करने वाली।
तीन नेत्रों वाली गौरी, तीनों लोक जीतने वाली, 
त्रिनेत्री गौरी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
तुम शक्तिभूता सृष्टि की, पालन और करती संहार।
 सनातनी सर्वगुणमयी हो और हो गुणों की आधार।
सनातनी देवी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।   
शरण में आये दीनों की रक्षा में आप संलग्न।    
पीड़ितों की पीड़ा दूर कर, नारायणी हो जाती हो  मग्न। 
देवी नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 

तुम ब्राह्मणी का रूप धर बैठी हंस युक्त विमान पर।
तथा छिड़कती रहती हो देवी हाथों से ब्रश मिश्रित जल ।
 ब्रह्माणी देवी प्रसन्न हो तुमको बारंबार नमन हो।
 महान वृषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी। 
माहेश्वरी के रूप में त्रिशूल चंद्र व सर्प धारिणी।
 माहेश्वरी प्रसन्न हो तुमको बारंबार नमन हो।
 मोर मुर्गों से घिरी महाशक्ति धारण करने वाली। 
कौमारी रूप में स्थित भयानक चक्र धरने वाली।
 कौमारी रूपा प्रसन्न हो तुमको बारंबार नमन हो।
 वैश्विक शक्ति रूप नारायण शंख, चक्र, धनुष, गदा
 इत्यादि उत्तम आयुध तुम धारण करती हो देवी सदा।
अमेय विक्रमा प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 वाराही रूप धरने वाली पृथ्वी दाढ़ों पर रखने वाली।
भयंकर नृसिंह रूप में दैत्यों का नाश करने वाली। 
नृसिंही नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 मस्तक पर किरीट और कर में करती महावज्र  धारण।
सहश्र नैनो वाली व करने वाली वृत्तासुर के प्राण हरण।
 इंद्रशक्ति रूप नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 भयंकर रूप धारण कर विकट गर्जना करने वाली। 
शिवदूती का रूप धरकर असुरों का संहार  करने वाली। 
त्रिभुवन की रक्षा करने वाली सबकी पीड़ा हरने वाली।
शिवदूती नारायणी प्रसन्न हो,  तुमको बारंबार नमन हो।
मुंड माला से भी घोषित मुंड का वर्णन करने वाली।
 अपने दाढ़ो के कारण विकराल मुख बदन वाली।
चामुंडा रूपी नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि और स्वधा,
 ध्रुवा महारात्रि हो तुम महा अविद्या रूप तथा।
 सर्वविद्या नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 मेघा, वरा, सरस्वती, भूति, तामसी, बामभ्रवी,
नियता, इशा, रूपिणी तुम्हारे नाम हैं कई।
 महाकाली नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 सर्वरूपा सर्वेश्वरी तथा सर्व शक्तियों से संपन्न। 
भयों से हमारी रक्षा करो और करो हमें निर्विघ्न। 
 दिव्यरूपा दुर्गे प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 प्रचंड ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाली।
 दैत्य संहारक तुम्हारा त्रिशूल भय से बचाए हे  भद्रकाली।
 ज्वालाजी नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 तीन लोचनों से विभूषित सौम्य रूप तुम्हारा है।
सभी प्रकार के भयों से रक्षा करो हमारा हे।
त्रिनयनी नारायणी प्रसन्न हो तुमको बारंबार नमन हो।
 तुम्हारे घंटे की ध्वनि पूर्ण जगत को व्याप्त करके,
 महादेत्यों के भी तेज को पल भर में नष्ट कर दे। 
चंद्रघंटा नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो। 
जैसे माता अपने पुत्रों की रक्षा करती दुष्कर्मों संतापों से,
 तुम्हारा घंटा सदा करे देवी हम लोगों की पापों से।
 दुर्गा नारायणी प्रसन्न हो, तुमको बारंबार नमन हो।
 तुम्हारी चमकती खडग, असुरों के रक्त से रंजित।
 हमारा मंगल करे, तुम्हारे हाथों में हो सुशोभित।
 रोगों को भी नष्ट कर देती तुम जिन पर होती प्रसन्न।
 उन पर आती नहीं विपत्ति जो आते तुम्हारी शरण। 
जिन लोगों पर देवी तुम हो जाती हो कुपित।
 पल में नाश कर देती हो उनकी कामनाएं मनवांछित।
 तुमने अपने स्वरूप को विभक्त करके नाना प्रकार। 
धर्मद्रोही महादेत्यों का कुपित हो किया संहार।
 यह सुकर्म भला और देवी कर सकता था कौन 
 शास्त्रों व वेदों में तुम्हारे सिवा किसका है वर्णन।
 विद्याओं और शास्त्रों में ज्ञानदीप दिखाने वाली। 
तथा विश्व को ममता रूपी अंधकार में भटकाने वाली।
जहां राक्षस हों, शत्रु हों, सर्प हों भयंकर विषधारी।
 दावानल हो या दस्युओं की दुष्ट सेना हो भारी।
 वहां और भवसागर में रहकर तुम हमारे साथ। 
करती हो देवी कल्याणी संपूर्ण विश्व की रक्षा। 
विश्वेश्वरी तुम करती हो, इस विश्व का पालन।
 व विश्वरूपा हो करती हो संपूर्ण विश्व को धारण। 
तुम्हारे सामने भक्ति पूर्वक, जो भी अपना शीश झुकाता।
 वह भक्त इस विश्व का हो जाता है आश्रयदाता।
 असुरों का वध करके देवी जैसे की हो हमारी रक्षा।
शत्रुओं से निर्भीक रखो इस प्रकार हमको सदा। 
नष्ट करो सारे जगत का घोर पाप और उत्पात। 
दूर करो सभी उपद्रव महामारी अथवा संताप।
हम तुम्हारे चरणों में, विश्वार्तिहारिणी प्रसन्न हो हम पर। 
त्रिलोक वाहिनी परमेश्वरी!  हम लोगों को दो वर।
 देवी बोलीं हे देवगण! वर देने को मैं हूं तैयार।
 मांग लो ऐसा वर तुम जगह का हो जिससे उपकार।
देवता बोले ही सर्वेश्वरी शत्रुओं का करती रहो नाश।
 तीनों लोकों की समस्त बढ़ाओ को करो शांत।
 तब देवी ने देवताओं को भविष्य की घटनाएं बताईं। 
शत्रुओं का कैसे नाश करेंगी अपनी वह योजनाएं बतायीं।
 वैवश्वत के अंतराल पर जब आएगा अट्ठाईसवां युग। 
उत्पन्न होंगे दो अन्य दानव, नाम होगा शुम्भ निशुम्भ।
 उत्तीर्ण हूँगी यशोदा के गर्भ से मैं नंद गोप के घर। 
नाश करूंगी उन असुरों का, रहूंगी फिर विंध्याचल जाकर।
 पृथ्वी पर लूंगी अवतार, अति भयंकर रूप धरूंगी।
 वैप्रकृति नामक दानवों का अपने हाथों वध करूंगी।
 उन भयंकर महादेत्यों का जब बनूंगी मैं कवल  कॉल। 
उनके भक्षण करने से मेरे दांत होंगे अनार से लाल।
 मृत्युलोक में मनुष्य सभी एवं स्वर्ग लोक में देवता। 
मेरी स्तुति करते हुए कहेंगे मुझे रक्त दंतिका।
 पृथ्वी पर सौ वर्षों तक अवर्षा से होगा जल संकट।
 मुनियों के स्तवन पर हूँगी अयोनिजा रूप में प्रकट।
 तब मुनियों को निहारूंगी की खोले अपने सौ नयन। '
शताक्षी' नाम से मेरा सब मनुष्य करेंगे कीर्तन। 
जल संकट से जब होगा खाद्य पदार्थों का अभाव।
नाना शाकों का होगा मेरे शरीर से आविर्भाव।
इन शाकों से करूंगी संसार का भरण पोषण।
जब तक वर्षा नहीं होगी ऐसे होगा प्राणों का रक्षण।
 तब मैं शाकंभरी नाम से धरा पर हूँगी विख्यात। 
उस अवतार में वध करूंगी, दुर्गम नमक महादैत्य  का।
 दुर्गा देवी रूप में मेरा नाम हो जाएगा प्रसिद्ध। 
फिर मैं जाऊंगी करने मुनियों की तपस्या को सिद्ध।
 मुनियों की रक्षा करुंगी करके भी रूप भीम धारण।
हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का करूंगी भक्षण।
 मुनि सब नत मस्तक हो करेंगे मेरी ही स्तुति। 
भीमा देवी के रूप में मेरी होगी सर्वत्र ख्याति। 
 जब मचाएगा अरुण दैत्य तीनों लोकों में उपद्रव।
 उसका वध करूंगी बनकर छ पैरों वाले असंख्य भ्रमर।
 'भ्रामरी' नाम से उस काल मेरी स्तुति करेंगे लोग। 
एवं इसी नाम से फैलेगी मेरी ख्याति चारों ओर।
 दानवी बाधा उत्पन्न होगी जब-जब भी इस प्रकार।
 शत्रुओं का संहार करूंगी तब तब मैं लेकर तलवार।

 इति ग्यारहवां अध्याय संपूर्ण

 12वां अध्याय 
 देवी चरित्रों के पाठ का महात्म्य 

ध्यान 
 बिजली के समान है उनके श्री अंगों की प्रभा 
हाथ में ढाल व तलवार लिए कन्याएं खड़ी करने को सेवा।
 सिंह के कंधे पर बैठे प्रतीत होतीं अति भयंकर 
उनका स्वरूप अग्निमय है तथा चंद्र मुकुट है मस्तक पर।
 अपने हाथों में रखतीं चक्र, गदा,
 तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा।
मैं  ध्यान करता हूं उन तीन नेत्रों वाली देवी दुर्गा का।

 देवी ने देवताओं से कहा जो हो करके एकाग्रचित्र।
 इन स्तुतियों का पाठ कर मेरा स्तवन करेगा नित।
 उसकी सारी बाधाएँ मैं निश्चय ही दूर करूंगी।
 उसके घर को मैं रतनों व प्रसन्नताओं से भरूंगी। 
पाठ करेंगे मधु कैटभ  वध व महिषासुर के नाश  का। 
तथा पढ़ेंगे प्रसंग जो जन शुम्भ निशुम्भ के घात का।                  
 
अष्टमी चतुर्दशी नवमी को जो होकर के एकाग्रचित। 
भक्ति पूर्वक श्रवण करेगा यह (महात्मय) मित्रों सहित। 
उनके पास न आएगा पाप, न ही पाप जनित आपत्तियां।
ना होगी दरिद्रता उनके घर, न ही घेरेंगी विपत्तियां।
 ना भोगना पड़ेगा उन्हें प्रेमियों के बिछोह का कष्ट।
 तथा न ही सता पाएंगे किसी तरह के प्राणी दुष्ट। 
भय नहीं होगा राजा से और शत्रुओं के छल से।
 नहीं करेंगे वह दस्यु से, शस्त्र से, अग्नि, जल से। 
सदा पढ़ना, सुनना चाहिए मेरे माहात्म्य को भक्ति पूर्वक।
 यह है अति कल्याण कारक सब तरह का बाधा निवारक।
 यह शांत करने वाला है महामारी उपद्रव समस्त। 
व करने वाला है तीनों ही प्रकार के उत्पतों को ध्वस्त।
नहीं छोड़ती उस स्थान को, होता मेरे महात्म्य का पाठ। 
वह मंदिर मेरा घर होता और वही करती मैं वास। 
बलिदान पूजा होम तथा महोत्सव के अवसर पर। 
मेरे चरित्र का पाठ करे या महात्म्य का करे श्रवण। 
विधि को समझ या बिन जाने करे जो बलि हो या पूजन। 
भक्ति से किया अर्पण को प्रसन्नता से करती हूं ग्रहण। 
जो सुने शरद की पूजा पर इस माहात्म्य को भक्ति पूर्वक। 
प्रसाद से धन-धान्य, सुत पाए व मुक्त हो बाधाओं से सब।
मेरे प्रादुर्भाव की कथाएं तथा युद्ध में किए पराक्रम 
मनुष्य वह निर्भय हो जाता भक्ति से सुने मेरा महात्म्य। 
मेरा महात्म्य श्रवण करने से लोगों के शत्रु हो जाते नष्ट। 
उन्हें कल्याण की प्राप्ति होती कुल में होता सब आनंद।
सर्वत्र शांति कर्म में तथा दिखाई देने पर बुरे स्वप्न। 
ग्रह जनित पीड़ा होने पर या आने पर कोई विघ्न। 
मेरी महिमा सुनने से हो शांत सभी पीड़ा उपस्थित।
मनुष्यों द्वारा देखा दुःस्वप्न हो शुभ सपनों में परिवर्तित। 
ग्रहों के प्रभाव से अभिभूत पीड़ित हो जाए जो बालक। 
मेरा (महत्व) उसके लिए है अत्यंत कल्याण कारक।
 यह महात्म्य दुराचारियों के बल का करता है नाश। 
संगठन में फूट होने पर मित्रों को फिर लाता पास। 
इसके पाठ मात्र से नष्ट होते राक्षस, भूत, पिशाच। 
यह महात्म्य कराने वाला है मेरी निकटता की प्राप्ति। 
पशु, पुष्प, धूप, दीप, गंध आदि द्वारा करने से पूजन।
या जो होता हम करने से करने से ब्राह्मणों को भोजन।
तरह-तरह के लोगों का अर्पण करने, देने से दान।
मेरी एक वर्ष तक आराधना करती जो प्रसन्नता प्रदान।
मेरे इस उत्तम चरित्र का करने से बस एक बार श्रवण।
 पापों को हर लेता है और मैं होती उतनी ही प्रसन्न। 
मेरे जन्म का कीर्तन समस्त भूतों से करता रक्षा।
मेरा युद्ध विषयक चरित्र दुष्ट देत्यों का संहार करता।
मेरे चरित्र के सुनने पर नहीं सताता शत्रु का भय। 
संघर्ष की स्थिति होने पर वे सदा ही पाते विजय। 

देवताओं तुमने व ब्रह्मर्षियों ने मेरी जो की है स्तुति। 
व ब्रह्माजी की स्तुति देने वाली कल्याणमयी बुद्धि। 
किसी निर्जन स्थान में हों या किसी घने जंगल में। 
सूने मार्ग में फंसे हों या घिरे वोन दावानल में। 

लुटेरों के दाव में पड़ने पर शत्रुओं के पकड़े जाने पर। 
क्रोधी राजा के आदेश से सैनिकों द्वारा जकड़े जाने पर। 
जंगल में जंगली जंतुओं के चंगुल में फंस जाने पर। 
सिंह, बाघ, हाथी आदि के पीछे पड़ जाने पर। 
महासागर में किसी भी बड़े तूफान के आने पर। 
नाव में बैठे हों तब नाव के डगमगाने पर। 
आने पर भयंकर युद्ध में अत्यंत भयानक बाधाओं के। 
शास्त्रों से घायल होकर पीड़ित होने पर व्यथाओं से।                      
 

जो जन करे भक्ति से मेरे इस चरित्र का स्मरण। 
वह मनुष्य हर संकट से मुक्त हो जाता है तत्क्षण। 
मेरे प्रभाव से नष्ट हो जाते सिंह आदि हिंसक जंतु। 
मेरे चरित्र के स्मरण से दूर भागते दस्यु और शत्रु। 
देवताओं से अपने चरित्रक अद्भुत माहात्म्य को कहतीं 
अंतर्ध्यान हो गयीं प्रचंड पराक्रम वाली भगवती। 
शत्रुओं के मर जाने पर समस्त देवता होकर निडर। 
करने लगे यज्ञ भाग का उपयोग अधिकारों को पाकर। 
जगत विध्वंसक देव शत्रु शुम्भ निशुम्भ के मरने पर। 
अतुल भयंकर पराक्रमी के प्राण देवी द्वारा हरने पर। 
बचे हुए शेष सब दानव आ गए अत्यंत शोक में। 
जान बचाकर भाग चले वे जा पहुंचे पाताल लोक में। 
इस प्रकार भगवती अम्बिका बार बार होकर प्रकट। 
हम सबकी रक्षा करती हैं व निर्भय करती हैं यह जग। 
वे ही जगत को जन्म देतीं सबको करतीं जीवन प्रदान। 
प्रार्थना करने पर प्रसन्न हो देतीं समृद्धि, तुष्टि, विज्ञान। 

वे ही इस विशाल विश्व को मोहित कर चक्कर में डालतीं। 
महा प्रलय व विनाश काल में महामारी का रूप धारती। 
स्वयं अजन्मा होने पर भी सृष्टि रूप में होतीं प्रकट। 
महाकाली देवी व्याप्त हैं इस ब्रह्माण्ड में समस्त। 
सनातनी देवी रक्षा करतीं समयानुसार सभी भूतों की। 
महामारी बन नष्ट भी करतीं असुरों और नीच दुष्टों की। 
लक्ष्मी बनकर उन्नति देतीं समय में वे अभ्युदय के। 
कारण बनतीं विनाश का वे आभाव में दरिद्र मनुष्य के। 
पुष्प धुप गन्धादि से करने पर उनका पूजन। 
पुत्र, धर्म, प्रगति देतीं व स्तुति करने पर देतीं धन। 

इति बारहवां अध्याय सम्पूर्ण 

तेरहवां अध्याय 
सुरथ व वैश्य को देवी का वरदान 

ध्यान 
जो उगते सूर्य मंडल की आभा को करतीं धारण
और अपने हाथों में करती हैं धारण पाश, अंकुश, वर,
जिनके तीन नेत्र व चार भुजाएं हैं एवं हाथों में अभय की मुद्राएं हैं 
उन शिवा देवी का मैं करता हूं ध्यान।

 ऋषि बोले वर्णन किया, मैंने राजन! देवी के महात्म्य का। 
 धारण करतीं जो इस जग को, उनके ही अद्भुत प्रभाव का। 
प्रभु विष्णु की माया रुपी भगवती द्वारा जनित मोह  से। 
तुम यह वैश्य व अन्य लोग व्यथित हैं अपनों के भी बिछोह  से। 
उनके द्वारा मोहित होते सब, होते रहेंगे विवेकी  जन भी। 
उन परमेश्वरी शरण में जाओ, इच्छा पूरी करेंगी मन की।
 जो अंतःकरण से करता है उन भगवती का आराधना।
 भोग, स्वर्ग, मोक्ष पाता  है करता है पूरी मनोकामना। 
ममता और राज्य अपहरण से पहले ही हो चुके खिन्न। 
महर्षि मेधा मुनि के दिव्य वचन राजा सुरथ ने सुन।
उत्तम व्रत पालन करने वाले महाभाग महर्षि को कर प्रणाम।
 विरक्त होकर वे और वैश्य तपस्या को कर दिए प्रस्थान। 
नदी तट पर रहकर दोनों करने लगे घोर तपस्या। 
उत्तम देवी सूक्त का जप देवी में पूरा ध्यान लगा। 
उनकी मिट्टी की मूर्ति बना वे दोनों नदी के तट पर। 
देवी अराधना करने लगे करने पुष्प, धूप से और हवन कर।
पहले आहार को कम किया फिर होकर के निराहार।
देवी का चिंतन लगे करने अपना मन लगा लगातार।
जगत को धारण करने वाली इस पर होकर अति प्रसन्न।
बोलीं राजा और वैसे से देते हुए साक्षात दर्शन।
 है नरेश व कुलनंदन वैश्य हूं संतुष्ट तुम्हारी प्रार्थना से। 
जो अब चाहे मांगो मुझसे मैं दूंगी तुम्हारी याचना से।
तब राजा ने वर माँगा राज्य पुनः पा लेने का। 
टैगा शत्रुओं की सेना को बल पूर्वक नष्ट करने का। 
और देवी से माँगा नृप ने पुनर्जन्म में अनश्वर राज्य।
बनाने को बलशाली राजा हो सके न जो कभी पराज्य।
नहीं लगता था संसार में अब वैश्य वर्य का चित्त।
सांसारिक बंधनों से वे हो चुके पूरी तरह विरक्त। 
चुकी वह वैश्य वैर्य था अति चतुर और बुद्धिमान। 
ममता व अहं नष्ट करने का माँगा उसने देवी से ज्ञान। 
देवी बोलीं थोड़े दिनों में हे राजन ! शत्रुओं को मारकर। 
अपना खोया हुआ राज्य लोगे शीघ्र ही प्राप्त कर। 
अब वहां तुम्हारा राज्य सदैव ही रहेगा स्थिर। 
तथा भगवन विवस्वान के अंश से तुम जन्म लेकर। 
धरती पर मेरी कृपा से अपनी मृत्यु के पश्चात्। 
सावर्णिक मनु के नाम से तुम जग में होओगे विख्यात। 
हे वैश्यवैर्य पूरी होगी जो है तुम्हारी सुन्दर सोच।   
सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा पा जाने को तुम्हें मोक्ष। 
देवी अंतर्ध्यान हुईं सुन अपनी भक्तिपूर्वक स्तुति। 
देकर उन दोनों के उनके मांगे हुए वर मनोवांछित। 

इति तेरहवां अध्याय सम्पूर्ण 



ऋगवेदोक्त देवीसूक्तम 

ध्यान  

चंद्रमुकुट जिनके मस्तक पर,
 सिंह की  पीठ पर जो विराजमान।
 शंख चक्र धनुष बाण से सज्जित 
 कान्तिवाली मरकत मणि के समान 
चार भुजाओं में अस्त्र हैं जिनके 
होती हैं तीन नेत्रों से सुशोभित। 
बाजूबंद, हार,कंकण, करधनी व
रुनझुन करते नुपुरों से विभूषित। 
कानों में झिलमिलाते रहते हैं 
सुंदर कुण्डल, रत्न जटित 
वे भगवती दुर्गा दूर करें 
हर तरह की हमारी दुर्गति।  

 देवी सुक्तम
 महर्षि अम्भृण की थी एक, वाक नाम की सुंदर कन्या।
 ब्राह्मग्याननी थीं  व प्राप्त था उन्हें देवी के साथ अभिन्नता। 
 वे कहती हैं
 मैं सच्चिदानंद मयी सर्वात्मा,  रूह, वसु और आदित्य 
तथा विश्व देव के रूप में गुजरती रहती हूं नित्य।
 मैं ही धारण करती हूं मित्र वरुण दोनों को। 
इंद्र व अग्नि को तथा अश्विनी कुमारो को। 
मैं त्वष्टा प्रजापति को, सोम शत्रुओं की नाशक। 
तथा पूषा और भग को मैं ही करती हूं धारण। 
देवताओं को उत्तम हविष्य व सोमरस देता जो यजमान। 
उसे उत्तम यज्ञ का फल और धन करती हूं प्रदान। 
संपूर्ण जगत की अधीश्वरी, उपासकों को धन देने वाली।
साक्षात्कार योग्य परब्रह्म को स्वयं से अभिन्न जानने वाली।
सब देवताओं में प्रधान स्थिति में अनेक भावों में। 
सब कुछ मेरे लिए करते हैं देव रहने वाले अनेक स्थानों में।
कोई अन्न भी खाता है, मेरी ही शक्ति से खाता है।
 सांस लेता है, बात सुनता है वह मेरी ही सहायता से। 
कोई भी काम करने में, मैं ही करती सबको समर्थ। 
मेरे बिना कुछ भी नहीं, नहीं किसी शब्द अक्षर में अर्थ।
मुझे न जाने इस रूप में, वह पाता दीन दशा को। 
सुनो - श्रद्धा से जो प्राप्त हो ब्रह्मत्व के इस उपदेश को। 
देवों व मनुष्यों द्वारा सेवित, इस दुर्लभ तत्व का वर्णन। 
कराती हूँ तुम सबसे सुनो हे बहुश्रुत आज स्वयं। 
मैं जिस जिस मनुष्य की करना चाहती हूँ रक्षा। 
शक्तिशाली बना देती हूँ, उसे औरों की अपेक्षा। 
उसे बनती सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्ष ज्ञान संपन्न ऋषि। 
बनाती मेधाशक्ति युक्त व संहारती असुरों को ब्रह्मद्वेषी। 
रूद्र के धनुष को चढ़ाती हूँ, करने को असुरों का वध। 
शत्रुओं से युद्ध कराती हूँ, रक्षा हेतु जो हैं शरणागत। 
मैंने ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी व आकाश को जना है। 
मुझसे ही समुद्र में जल व सम्पूर्ण सृष्टि की कल्पना है। 
कारण रूप से आरम्भ करती, समस्त विश्व की रचना। 
वायु की भांति चलती हूँ, दूसरों की प्रेरणा के बिना। 
सदैव ही व्याप्त रहती हूँ, मैं इस भुवन में समस्त। 
अपने शरीर से करती हूँ, स्वर्गलोक का स्पर्श। 
स्वेच्छा से ही होती हूँ, प्रवृत्त मैं अपने कर्म में। 
पृथ्वी, आकाश दोनों से परे, स्व महिमा से इस धर्म में 

       --- 
 
 - सत्यदेव तिवारी 
  


देवी आराधना 

तुम्हारी ज्योति से मिट जाता, अंधकार घनेरा मन का। 
तुम्हारी जय जयकार, हे देवी ! तुम्हें हमारा नमस्कार है। 

असुरों का मर्दन करती हो, दुष्टों का भक्षण करती हो।
इस जग का आधार हो देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

सबको वश में रखने वाली, इस सृष्टि को रचने वाली। 
जग की पालनहार हो देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

जो भी करोगी सब अच्छा है, तेरा नाम ही बस सच्चा है। 
मिथ्या यह संसार, हे देवी ! तुम्हें हमारा नमस्कार है।
  
सत्पुरुषों को मुक्ति देती हो , कुलीनों की रक्षा करती हो।
दुष्टों का संहार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

बड़े तपस्वी ज्ञानी व ध्यानी, सब देवता और ऋषि मुनि। 
कोई न पाया पार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।


प्राणियों के एक-एक पग में, जो भी संभव है इस जग में। 
तेरा है चमत्कार, हे देवी ! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

कोई विकार न तन में आए, दुष्ट विचार न मन में आए। 
देना सुंदर स्वच्छ विचार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

 विपत्तियों को तुम हर लेना, हमको सुख शांति देना।
 समृद्ध हो घर परिवार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

कानों में बस नाम पड़ जाए, जो भी सुमिरे वो  तर जाए। 
तुमको बारंबार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

शत्रुओं को नष्ट कर क्षण में, विजय दिलाती हो तुम रण में। 
रक्षा करना हर प्रहार से देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

हमको अच्छा स्वास्थ्य देना, पुष्ट बदन, आरोग्य रखना। 
ना हो रुग्ण बीमार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

स्वच्छ स्वास हर पल देना, प्यास लगे तो जल दे देना। 
भूख लगे तो आहार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

मेरे द्वारे जो भी आए, तुम्हारी कृपा से भोजन पाए। 
देना प्रचुर आहार, है देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

अँधियारा जीवन में छाये, भवसागर में हम फंस जाएं। 
भव से करना पार, है देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

मान खंडित कभी न करना, मान सम्मान पूरा रखना। 
मिले नित सदव्यवहार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

घेर न पाए कोई पाप, सब पापों से बचाना आप। 
सदा करूं सदाचार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है। 

धन की कमी कभी ना रखना, सुख संपत्ति से घर को भरना। 
ऋण का न आए भार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

संकट भय को दूर करना, सब ओर से सुरक्षित रखना। 
ना सताए भय संताप, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

सदा ही अपने शरण में रखना, अपराधों को क्षमा भी करना। 
भक्ति देना अपार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

जीवन में सुख शांति पाएँ,  प्रगति के पथ पर चलते जाएँ। 
बढ़ता रहे व्यापार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है। 

वंश कुटुंब भी चलता जाए, तुम्हारी शरण में पलता जाए। 
सुखी हो घर परिवार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

सुख समृद्धि में वृद्धि करना, मन मनसा की सिद्धि करना। 
जग की तारणहार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

मेरे बल बुद्धि को बढ़ाना, मन इच्छा को पूरी करना। 
काम न रुके मझधार, हे देवी! तुम्हें हमारा नमस्कार है।

  (इति सत्यदेव तिवारी रचित देवी आराधना संपूर्ण)


 क्षमा प्रार्थना

सहस्रों अपराध होते रहते, माँ दास समझकर क्षमा करो।  
अबोध समझकर क्षमा करो, अज्ञान समझकर क्षमा करो। 

नहीं जानता पूजा का ढंग, नहीं जानता आवाहन विसर्जन। 
मैं मंत्र क्रिया भक्ति से हीन, तुम्हारी कृपा से पूरा हो पूजन। 
याचक समझकर क्षमा करो, बालक समझ कर क्षमा करो।
  
जगदंबा कहकर तुम्हें पुकारे, जो सैकड़ो अपराध करके भी। 
ब्रह्मादि को भी सुलभ नहीं, उसको प्राप्त कराती वह गति।  
अपराधी समझ कर क्षमा करो, पापी समझकर क्षमा करो।  

भूल से मैंने जो भी किया, न्यूनता की है या की अधिकता। 
तुम्हारी ही शरण में आया, क्षमा सब तुम करना माता।  
मूर्ख समझ कर क्षमा करो, पुत्र समझकर क्षमा करो।

सच्चिदानंद स्वरूप परमेश्वरी, जग की माता देवी सुरेश्वरी। 
प्रेम से स्वीकारो मेरी पूजा, तुम करने वाली सब की रक्षा।  
बुद्धिहीन समझ कर क्षमा करो, दीन समझ कर क्षमा करो।

मेरे इस जप को ग्रहण करो, तुम्हारी कृपा से मुझको सिद्धि हो। 
पुत्र तुम्हारे करोड़ों जग में, इस जग की तुम ही जननी हो।  
देवी मुझ पर दया करो, सब अपराधों को क्षमा करो।

 (इति  सत्यदेव तिवारी रचित क्षमा प्रार्थना संपूर्ण)



देवी अपराध क्षमा याचना 

मन्त्र न जानूं माता, यंत्र न जानूं रे। 
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

स्तुति विधान न जानूं, तेरा मैं ध्यान न जानूं। 
तुम्हारी मुद्राएं न जानूं, करना मैं विलाप न जानूं। 
जानूं अनुशरण करना, माता क्लेश तुम हरना। 
अपराध जो भी किये, हे माँ तुम क्षमा करना।
भव से तुम करना पार, हे जग की पालनहारी। 
कृपा न होगी तुम्हारी, कौन सुनेगा हमारी !
पूजा की विधि न जानूं, स्तवन न जानूं रे।  
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

आलसी मेरा स्वाभाव, धन का भी है भाव। 
माता क्षमा तुम करना, मेरी विपत्ति को हरना। 
सेवा में जो भी कमी है, कारण चाहे कोई है।
माता क्षमा तुम करना, अपनी शरण में रखना। 
माता अपर्णा देवी, तुम्हारे मन्त्रों का अक्षर। 
उत्तम फल देता है, कानों में जो जाए पड़।
तेरे स्तोत्र न जानूं, ऋचाएं न जानूं रे।  
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

सुनने से एक अक्षर, मन्त्रों का यह देता फल। 
वे क्या पते होंगे! विधि पूर्वक जो करते जप।
उत्तम वक्ता हो जाता, मुर्ख व चांडाल भी। 
वाणी का उच्चारण करता, मधुपाक के समान भी।  
 चिरकाल तक निर्भय हो, स्वर्ण मुद्राओं से संपन्न।
विहार करता रहता है, तुम्हारी कृपा से निर्धन। 
तू ही है भवतारिणी, मैं बस इतना जानूं रे। 
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

पूत हो सकते कपूत, अपराधों को जाना भूल। 
 माता न होती कुमाता, हे देवी भाग्य विधाता। 
मैंने जो त्याग किया, और जो भी की है सेवा। 
उचित वह कदापि नहीं है, अप्रसन्न तदापि नहीं हो। 
धन  भी न किया समर्पित, मुझ अधम पर यद्यपि। 
जो स्नेह तुम करती हो, उसका भी कारण यही है। 
जप ना मैं जानूं माता, तप भी ना जानूं रे।     
 मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

कुपुत्र तो हो सकता है, पर नहीं होती कुमाता। 
क्षमा सबको कर देती, शरण में जो भी आता। 
सुन लो माता पारवती, तुम्हारी करता हूँ विनती। 
तुम्हारी कृपा न होगी, हो जाऊंगा अवलम्ब रहित। 
ना किया तुम्हारा पूजन, ना ही किया है चिंतन। 
निहित न हुई भावना, ना किया तुम्हारा आराधन। 
फिर भी स्वयं प्रयत्न कर, कृपा रखती अनाथ पर। 
माता तुम हो दयामय, मुझ जैसे को देती आश्रय। 
तू ही तो है जग की जननी, मैं इतना जानूं रे। 
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

सूर्यों का हार पहनते, तुमसे ही पाकर शक्ति। 
विष का भोजन करते प्रभु भूतनाथ पशुपति। 
दुर्गे! विपत्तियों में फंसकर करता तुम्हारा स्मरण। 
ना समझना मेरी शठता, ले लेना अपने शरण। 
ना कराती माता उपेक्षा, पुत्र करे चाहे अपराध। 
तुम्हारी मुझ पर कृपा है, आश्चर्य की क्या है बात। 
मुझसे पातक नहीं है, तुम सम पाप हारिणी। 
फिर भी सब उचित करोगी मैं इतना जानूं रे। 
मैं तो बस रटना देवी, नाम तेरा जानूं रे।  

   
 


एक दिन राजा सुरथ पर, उनहीं क बलशाली दुश्मन।
देखावे के नीचा राजा के, कइ देहलं पुरजोर आक्रमण।
राजा क हो गइल हार। बोला मईया क जय जयकार।
 
राजा क मंत्री देखलं जब, राजा क भइलश शक्ति क्षीण।
दाव लगाइके दौलत उनकर, ले लेहलं कुल मिल के छीन।
रहल न राजा क अधिकार। बोला मईया क जय जयकार।   

हो गइल राजा सुरथ क, प्रभुत्व पूरी तरह से नष्ट।
आपन दशा देख राजा के, लागल घोर सतावे कष्ट।
जागल मनवा में वैराग। बोला मईया क जय जयकार।
 
मन दुखी भइला से राजा, जंगल में जाये के सोचलं।
अपनी खास लोगन से उ, शिकार क बहाना बनवलं।
चललं अश्व पे होके सवार। बोला मईया क जय जयकार।
 
कइसन होई राज काज? होइहं कइसे राज क लोग?
कइसे होई प्रधान उ हाथी? का भोगत होई भोग?
आवे लागल मन में विचार। बोला मईया क जय जयकार।
 
होइहं केहू अउरी अधीन; जे हमरी सहारे पलत रहे।
हमार कृपा उ पावे खातिर, पीछे पीछे चलत रहे।
प्रजा कुल कइसे होई आज! बोला मईया क जय जयकार।
 
पूर्वजन क बसावल नगरी; हमरा से आज खाली बा।
दूसरे अधीन प्रजा हो गइल; कौनो ना खुशहाली बा।
सोचें जंगल में बारम्बार। बोला मईया क जय जयकार।
 
जवन हम जमा कइलीं, बड़ी मेहनत अउर कष्ट से।
कोष खाली हो गईल होई, अपव्ययियन की अति खर्च से।
सुरक्षित ना होई भंडार। बोला मईया क जय जयकार।
 
सोचत विचारत रहलं कि, मेधा मुनि क आश्रम देखलं।
मुनि आ शिष्य राजा क, प्रेम भाव से स्वागत कइलं।
देखवलं राजा भी शिष्टाचार। बोला मईया क जय जयकार।
 
शांति भाव से रहत रहें, जहां पशु, पक्षी धई के प्यार।
मेधा मुनि की आश्रम में, राजा सुरथ क भइल सत्कार।
राजा बितवलं कुछ काल। बोला मईया क जय जयकार।
 
आश्रम लग्गे घूमत क, राजा के वैश्य समाधि भेटाइल।
धन खातिर के घर से, लइकन परानी से रहे खेदायिल।
कउनो में रहे ना प्यार। बोला मईया क जय जयकार।
 
राजा की पूछला पर वैश्य, बतवलस कुल बीतल आपन।
निकाल देहलं घर से छीन, धन दौलत अपने बंधु जन।  
घेरले कुल्हिन के अनाचार। बोला मईया क जय जयकार।
 
राजा कहलं काहे बाटे? इतना स्नेह तोहरा चित्त में।
आपन हो के ना कईलं जे, अंतर उचित आ अनुचित में।
अइसन नाता के धिक्कार। बोला मईया क जय जयकार।
 
का करीं? बतायीं राजन, हमार नईखे मानत चित्त।
उनहने के याद कय के, रहत बानीं हरदम दोचित। 
जे कईलस अत्याचार। बोला मईया क जय जयकार।
 
मारकण्डे जी कहत बानं - दुनूं गइलं मेधा मुनि पास।
मुनि जी कउनो रस्ता बतायीं, अइलीं जा लेहले आस।
ज्ञान से करीं उजियार। बोला मईया क जय जयकार।
 
हमनी क कुल चल गइल, ममता तब्बो बाटे मन में;
स्त्री, पुत्र सब सुख से बानं, हमनी क भटकत बन में।
देहले बानं घर से निकाल। बोला मईया क जय जयकार।
 
हमनी की मन में उनहन क, तब्बो चिन्ता सतवले बा।
उन्हनी के ना प्रेम न आदर, मन हमनी क अकुलवले बा।
आवत बा कुटुंब बहुते याद। बोला मईया क जय जयकार।
 
राज काज सब हाथ से गइल, भली भांति हम जानी ला।
दुखी बाटे बेटा की खातिर, इ वैश्य कइसन अज्ञानी बा।
मुनिजी राउरे बताईं उपाय। बोला मईया क जय जयकार।
 
हम दुनूं विवेकी फिर भी, दुखी बहुत मोह की कारण।
ममता में हम मूढ़ बनल, ऋषिवर! राउर करीं निवारण।
समझ से परे ई व्यवहार। बोला मईया क जय जयकार।
 
तब माई भगवती देवी क, ऋषि दुनूं के कथा सुनवलं।
विष्णु की योगनिद्रा रूपा, महामाया क महिमा बतवलं। 
माया क बा कुल प्रभाव। बोला मईया क जय जयकार।
 
देखा जंगल में चिरइन के, अपने रहके भूख्खल भी।
चोंच में अन्न डालत हव्वीं, अपने अपने बच्चन की।
लोग बदले चाहें उपकार। बोला मईया क जय जयकार।
 
विषय मार्ग क ज्ञान सबके, विषय सबकर अलग अलग।
पशु पक्षी भी समझ रखेलं, कई बात में मनुज सखमख।
चला लेलं आपन संसार। बोला मईया क जय जयकार।
  
देखा एहि मनुष्य के हरदम, फिरेला लोभ क मारल।   
बदले में उपकार की खातिर, चाहेला पुत्र के पावल।
होय के भी समझदार। बोला मईया क जय जयकार।
 
जग क संतुलन राखे के, होला इ महामाया मोह से।
सृष्टि क रचना करे वाली, देवी भगवती की योग से।
समझ न थोर कउनो प्रकार। बोला मईया क जय जयकार।
 
कइसे उ प्रकट भइलीं, कइसे बा उनकर आविर्भाव।
हे महर्षि हमनी के बतायीं, महामाया क जवन प्रभाव।
मईया क महिमा अपरंपार। बोला मईया क जय जयकार।
 
ज्ञानी के भी मोह में डलले, उहे जगत क माई बानीं।
विश्व के उ व्याप्त कइले, उनकर भेद केहू ना जानी।
महामाया क भेद अथाह। बोला मईया क जय जयकार।
 
संसार में पूरा फइलल देवी, उनहीं क बा रूप जगत।
अजन्मा बानीं पर दैत्यन क, बध करेके होलीं प्रकट।
धारण कईले उहे संसार। बोला मईया क जय जयकार।
 
उहे बानीं सनातनी देवी, कुल ईश्वरन क अधीश्वरी।
हेतुभूता, पराविद्या उ; बंधन, मोक्ष क परमेश्वरी।  
एह सृष्टि क उहे आधार। बोला मईया क जय जयकार।
 
राजा पूछलं - हे भगवन! जे देवी महामाया कहयलीं। 
का बाटे चरित्र उनकर, कईसे उ अस्तित्व में अइलीं। 
होखल कईसे आविर्भाव। बोला मईया क जय जयकार।
 
ऋषि बतवलन उ अजन्मा, उहे बानीं जगत क माई। 
अनेक प्रकार से प्रकट होलीं, केहू भेद न जाने पाई।
रचल उनहीं क संसार। बोला मईया क जय जयकार।
 
कल्पकाल में विष्णु जी, सुत्तल रहलं शेषनाग पर।
मधु कैटभ दुइ राक्षस भइलं, ब्रह्मा के मारे के तत्पर।
तब ब्रह्माजी गइलं डेराय। बोला मईया क जय जयकार।
 
ब्रह्माजी आवत देखलं, मधु कैटभ के अपनी पास;
विष्णुजी के जगावे के, करे लगलं अथक प्रयास।
मेहनत कुल भइल बेकार। बोला मईया क जय जयकार।
 
योगनिद्रा की माया से, विष्णु नीद में सुतल रहलं।
यत्न पूरा कय के भी जब, ब्रम्हाजी न जगावे पउलं।
भगवती के कइलन याद। बोला मईया क जय जयकार।
 
व्याकुल ब्रह्मा करे लगलं, भगवती निद्रा क स्तुति।
जग के धारण करे वाली, विष्णुजी क अनुपम शक्ति!
प्रभु विष्णु के देईं जगाय। बोला मईया क जय जयकार।
 
स्वाहा तू, स्वधा तू मईया, जीवनदायी तू ही सुधा।
तू ही बाड़ू वर्ण अउर मात्रा, स्वर बानं तोहरे स्वरूपा। 
देवी बाटे दोहाई तोहार। बोला मईया क जय जयकार। 
 
ब्रह्माण्ड धारण करे वाली, जग क पालन करे वाली।
सृष्टि क रचना करे वाली, अंत में सबके संहारे वाली।
देखावा देवी आपन प्रभाव। बोला मईया क जय जयकार।
 
महामेधा, महास्मृति, महामाया तू बाड़ू महादेवी। 
तू महासुरी, महामोहरूपा, तू ही त महाविद्या देवी।
हर गुण क तू बाड़ू सार। बोला मईया क जय जयकार।
 
कालरात्रि, महारात्रि, मोह, सर्वगुण क जननी तू ही। 
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, ईश्वरी, बोध स्वरूपा बुद्धि तू ही।  
शांति, क्षमा रूप तोहार। बोला मईया क जय जयकार।
 
धारण करे वाली शूल, बाण, शंख, चक्र, गदा, तलवार।
जगत क सुन्दर हर वस्तु, बनावल बा तोहरे संसार।
तोहार महिमा अपरंपार। बोला मईया क जय जयकार।
 
एहि ललाम जग में तू देवी, सौम्य अउर सौम्यतर बाड़ू।
जेतना पदार्थ, जीव जग में; सबसे ही तू सुन्दर बाड़ू। 
तोहरे से सुन्दर कुल पदार्थ। बोला मईया क जय जयकार।
 
सत, असत जवन धरती पर, शक्ति असीम तोहरे बा। 
जग क सब पालक, संहारक, निर्माता, अधीन तोहरे बा।   
जग के तू खेवे क पतवार। बोला मईया क जय जयकार।
 
शंकर अउर विष्णु जी के, शरीर देवे क तोहरा में शक्ति।
सर्वशक्तिमान, सर्वस्वरूपा क, कइसे हम कय पायीं स्तुति। 
देवी संकट से करा उद्धार। बोला मईया क जय जयकार।
 
आपन प्रभाव देखावा देवी! प्रभु विष्णु के जगावा देवी।
मधु कैटभ के मारे खातिर, मन में लगन लगावा देवी।
खाली ब्रह्माजी सकेलं मार। बोला मईया क जय जयकार।
 
योगनिद्रा, अव्यक्त, अजन्मा, विष्णु की मुख, वक्षस्थल से।
नाक, बांह, आंख, हृदय, सब अंगन से बहरा निकल के।
खड़ा हो गइलीं साक्षात्। बोला मईया क जय जयकार।
 
विनती सुन के मईया जी, ब्रह्मा सम्मुख भइलीं प्रकट।
शेषनाग शय्या से विष्णु, उठलं, टलल समस्या विकट।
योगनिद्रा जी देहलीं जगाय। बोला मईया क जय जयकार।
 
मधु कैटभ दुरात्मा दैत्य, रहलं बहुत पराक्रमी बलवान।
मन में ठनले आगे बढ़लं, ब्रह्मा जी क लेवे के प्राण।
दुनूं कईले अंखियन लाल। बोला मईया क जय जयकार।
 
देख तमाशा विष्णुजी ई, बहुते ही तब क्रोधित भइलं।
मधु कैटभ के मारे वदे, पांच हजार वरिष युद्ध कइलं।
मईया तब फेकलीं मायाजाल। बोला मईया क जय जयकार।
 
मां भगवती असुरन के कुल, डाल देहलीं माया जाल में।
फिरल मति असुरन क तब, धोखा खाय भ्रम की हाल में।
कहलं देवे के वरदान। बोला मईया क जय जयकार।
 
असुर देखलं बाहु युद्ध में, विष्णु जी क वीरता महान।
धोखा में उ फंस के कहलं, माँग ला मनचाहा वरदान।
विष्णु उठवलं झट से लाभ। बोला मईया क जय जयकार।
 
विष्णुजी पाय के अवसर, कहलं बस एतना दा वर।
मधु कैटभ तू महादैत्य, हमरिये हाथ से दुनूं जा मर।
धोखा में कह देहलं तथास्तु। बोला मईया क जय जयकार।
 
धोखा से फंसके दानव, देखलं चहुं ओर जल ही जल।
कहलं करिहा हमार वध, धरती जहवां होखे निर्जल।
काम ना आइल उनकर चाल। बोला मईया क जय जयकार।
 
तथास्तु कह रखलं विष्णुजी, दुनूं क गर्दन अपनी जांघ।
चक्र उठा के झट से गर्दन, अलग कइलं धड़ से काट।
भइल मधु कैटभ क अन्तकाल। बोला मईया क जय जयकार।
 
मधु कैटभ महादैत्यन की, वध की कथा क भईल अंत। 
कइसे भइलीं महामाया प्रकट, सुना अब आगे क प्रसंग।

समाप्त भइल पहिला अध्याय। बोला मईया क जय जयकार।



एस. डी. तिवारी 

द्वितीय अध्याय 

             
 देवी क प्रादुर्भाव

महिषासुर की सेना क वध

 

मईया देवतन क शक्ति स्वरुप,

करेवाली सब समर्थ अउर शुभ। 


तीसरा अध्याय

महिषासुर वध

 

हम विनती करीं तोहार,

मईया करिहा नइया पार।

 


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