Tuesday, 17 October 2017

Tere naam 3 Geeta


गीता

उसके पास
जिस रूप में जाता
अपना लेता

प्रभु के पास
जाने के लिए राह
प्रेम व भक्ति

होती जब भी
प्रकट होता प्रभु
धर्म की हानि

धर्म रक्षार्थ
हर युग में होता
प्रभु प्रकट

हर जीव में
होता जो सर्वोपरि
प्रभु हैं मेरे

जीव का होता
प्रभु से ही संभव
जन्म मरण

पूरा ब्रह्माण्ड
प्रभु का एक अंश
और ये सृष्टि

प्रभु के तो हैं
पहचानूँ मैं कैसे
करोड़ों रूप

करने वाला
निर्माण व विनाश
सृष्टि का प्रभु

सृष्टि में पड़ीं 
विचित्रताएं जो भी 
उसी की कृति  

समय वो ही  
समय निरंतर 
चलाता वही  

वो विद्यमान 
हर पल व स्थान 
करो तो ध्यान 

नहीं भूलता 
जो सुख के समय 
प्रभु को प्यारा 

विलासोन्मुख 
जो है धन लोलुप 
प्रभु विमुख 

लेकर जाते 
लोभ क्रोध हवस 
नर्क के द्वार 

जो भी  देखता  
हर जीव में वही 
प्रभु ने देखा 
होता उसे दर्शन 
उसका हर क्षण  

विषय भोग
आरम्भ में अमृत
बाद में विष

प्रभु का तप
लगता कष्टमय
पार लगाता

सांसों में वही
देह की शक्ति वही
जीवन वही

वो फूंक भी दे
उड़ जाएगी पृथ्वी
नभ में कहीं

डालता  वह
जाता मन उलझ
माया का चक्र

मन में बैठा
उसे देख न पाता
भटका मन

प्रभु दर्शन
कर पाता है मन
एकाग्र चित्त

करते हम
हमारे सभी कर्म
उसी को प्राप्त

हैं कैसे जीते 
जो कुछ खाते पीते
उसी को प्राप्त 
कष्ट जो सहे
किस तरह रहे
उसी को प्राप्त

किसी को कभी
हमारी की मदद
उसी को प्राप्त

देवों की पूजा
किसी की किसी रूप
उसी को प्राप्त

हमारे दिए
मिल जाता है उसे
हरेक भेंट 

देखते जो भी
वही है और वो भी
देख न पाते

करेगा जो भी
स्मरण लगा के जी
पायेगा उसे

मृत्यु समय
याद करके जीव
उसका निज

ध्यान में मग्न
प्रभु के होता मन
रक्षित पूर्ण

अहं व स्वार्थ
रखता है जो दूर
प्रभु का नूर

स्वयं को देखे
जो सबके भीतर
उन्हें अपने
पाता प्रभु का सत्व
मिलता अमरत्व

कर्म के पीछे
प्रभु के लिए भाव
महत्वपूर्ण

सर्व विदित
प्रभु विलास नहीं
भाव का भूखा

हाथ तुम्हारे -
कदापि नहीं फल
कर्म  तुम्हारे

कर्म किये जा
छोड़ के प्रभु पर
फल की चिंता

करना कर्म
बस हाथ तुम्हारे
उसके फल

मन की शुद्धि
रखे धार्मिक बुद्धि
निःस्वार्थ कर्म

रखना ध्यान
फलद किया काम
औरों के हित

नहीं है कुछ
उसके पास नहीं
वही है सब

रखे विचार
कुछ करते ज्ञानी
जग कल्याण

यही कहूंगा
है सबसे उत्तम
अपना धर्म

पिछले जन्म
हम तो भूल चुके
उसको याद

तन से इंद्री
इंद्री से ऊँची बुद्धि
सर्वोच्च आत्मा
आत्मा से मार डालो
स्वार्थ गर्व व ईर्ष्या

जन्म से परे
परिवर्तनहीन
प्रभु अस्तित्व

हर जीव में
अगणित रूप में
प्रभु का वास

एक सा होता
योगी को सुख दुःख
जीत या हार

उससे जुड़े
होते देह रूप में
उसी का अंश


भाव


जो रम जाते
छोड़ लोभ व भय
उसे पा जाते

प्रभु में रमे
उसी में समाहित
अंतकाल में

वो नहीं होता
किसी फल से बंधा
क्रिया से परे

रखते ज्ञान
रिक्त क्षण उसका
करते ध्यान

वस्तु की नहीं
उसको अच्छी लगाती
कर्म की भेंट

ले जाती पार
उसकी हर हाल
श्रद्धा व भक्ति

दिला देती है
हर पाप से मुक्ति
उसकी भक्ति

काठ की भांति
जला देती दुष्कर्म
ज्ञान की आग

कर्मों  को उसे
सौंपने से निःस्वार्थ
पापों से मुक्ति

देती उसकी
साधना और भक्ति
मोक्ष की प्राप्ति

कर्म प्रथम
प्रभु की साधना का
आत्म संयम

वेदों का प्रज्ञ
देखता जगत में
सबको सम

स्वार्थ से परे
किये कर्म तुम्हारे
उसे मिलते

अपने कर्म
करने से अर्पण
प्रभु की प्राप्ति

ज्ञान परम
अपने में छुपाये
अक्षर ब्रह्म

अदृश्य रह
प्रकट होता वह
किसी भी रूप

आरम्भ होती
इन्द्रियों की तृप्ति से
प्रभु विरक्ति

समझते जो
पाते आत्मिक शांति
प्रभु को सखा

परमानन्द
पाते  जो भोग त्याग
प्रभु में लीन

जो स्वार्थहीन
होते उसमें लीन
उसे पा जाते

जानते हैं जो
वही सृष्टि का स्वामी
करते ध्यान

कर्म पे भारी
चाहत ही हो जाती
शत्रु तुम्हारी

जोड़ते हैं जो
स्वकर्म को फल से
प्रभु से परे

हो जाता है जो
चाहत में आशक्त
प्रभु विरक्त

पा लेता है जो
इच्छा पर विजय
प्रभु निकट

इच्छा पे जीत
ना हो वो दुःखी कभी
या भयभीत

अर्पित कर
ब्रह्म को सारे कर्म
शांति में मन

उसका ध्यान
मन पे नियंत्रण
लक्ष्य को जान

अति या न्यून
निद्रा और भोजन
ध्यान में विघ्न

शांत मष्तिष्क
और ध्यान में डूबा
स्वयं को ढूँढा

हो ना सकता
किया हो कर्म अच्छा
बुरा उसका

अपना माना
औरों का सुख दुःख
प्रभु सम्मुख

करता बोध
उसे हर जीव में
प्रभु उसमें

कइयों बार
कई जन्म पश्चात्
उसकी प्राप्ति

होते उत्तम
वैराग्य और ध्यान
ज्ञान के पथ

भक्ति से किया
उसकी उपासना
योग साधना

योगी कर्मठ
जुड़ जाता उससे
ध्यान के पथ

भटका मन
करता नियंत्रण
प्रभु भजन

सृष्टि उत्पत्ति
और होता है अंत
उसी के अंक

कुछ भी नहीं
जो उससे पृथक
वो ही  है सब

यह संसार
लटका ज्यूँ उसके
गले का हार

वही ब्रह्म है
वायु जल किरण
वही सब है

अग्नि की आंच
वही पुष्प की गंध
पंछी की पांख

उसका अंश
रहता विद्यमान
प्रत्येक स्वांस

बली का बल
बुद्धिमान की बुद्धि
कुलीन वही

वो सर्वशक्ति
राग द्वेष रहित
लगन वही

शांति व सुख
स्वयं में जो ढूंढते
पूर्ण रहते




पूर्ण करती
भक्ति से उपासना
मनोकामना

**********

जीवन मृत्यु
सब उसी के हाथ
रखना याद

आत्मा अमर
सताता है फिर क्यों
मृत्यु का डर

सत्व उसी में 
तमस रजस भी 
वो ना किसी में  

माया का डर
शरण में उसकी
जाता निकल


आत्मा अमर
अजन्मा अविनाशी
व अनश्वर

मृत्यु पश्चात्
आत्मा धरती देह
वस्त्र सा नया 

ना ही जलती
भीगती न गलती
आत्मा अमिट

छीनती शक्ति
विषयों की आसक्ति
मन भ्रमित

होते प्रकट
जन्म मृत्यु के बीच
सारे ही जीव

जीते हैं कई
आध्यात्मिक जीवन
जानने हेतु
जीवन का उद्देश्य
वास्तविक जीवन

नहीं जानते
मोह माया में फंसे
वही सब है
परिवर्तनहीन
और वो अजन्मा है


प्राण रहते
इच्छाएं मर जाएँ
मुक्ति हो जाती
इच्छाओं के रहते
प्राण निकले मृत्यु

पाते शरण
होते बड़े बिड़ले
उसके अंक

जानता है वो
भूत भविष्य आज
कोई ना और

सुगम पूर्ण
कर उसे स्मरण
छूटता प्राण

मृत्यु समय
कर उसको याद
मोक्ष को प्राप्त

योगी की भांति
करते जो सतत
उसको याद
लोभ वासना छोड़
होता वो उपलब्ध


उसकी ज्योति
मन भीतर तक
सूर्य से तेज

हो जाता वह
वृहत से वृहत
सूक्ष्म से सूक्ष्म

नृपों का नृप 
सृष्टि का अधिपति
सार्वभौम वो

ब्रह्म का ज्ञान
सुगम कर देता
जीवन लक्ष्य

हो जाते जीव
जन्म मृत्यु से मुक्त
हरि से जुड़े

जड़ चेतन
जो भी जग में आया
वही बनाया

कष्ट वही है
निवारण का वही
मंत्र औषधि

पालनकर्ता
सृष्टि का माता पिता  
सब है वही

हव्य भी वही
ग्रहण जो करता
हवन वही

ज्ञान का सार
सुचि अक्षर वही
वही है वेद

वही शरण
हर आत्मा का घर
परमात्मा वो  


सम्पूर्ण सृष्टि 
वही चलाता, वो है 
आदि व अंत 

करने वाला
उसे सतत ध्यान
सुख से पूर्ण  

प्रभु की पूजा 
उस तक ले जाती 
मृत्यु पश्चात् 

भोगता वह  
जो समर्पित उसे  
स्वर्ग का भोग 

मन में भर 
हरि से जुड़ जाओ 
तुम्हारा वह  

कर्म से ज्ञान
ज्ञान से बड़ा ध्यान
सबसे भक्ति

निःस्वार्थ सेवा
ध्यान ज्ञान अध्यात्म
उसकी राह

शांति नम्रता 
श्रद्धा और शुद्धता 
मन पे काबू  


अपनाते जो 
वास्तविक विद्वान 
गीता का ज्ञान 

स्वार्थ से परे 
सन्यास और त्याग 
उसके मार्ग 

सभी प्रलेख 
लेखक और ज्ञान 
प्रभु ही मान 

***************

एक  ही धर्म
उसको पा लेने का
निःस्वार्थ कर्म

वायु गगन
क्षिति जल पावक
देह अधम

साथ क्या लाये
जो कुछ पाए यहीं
छोड़ोगे यहीं

आये जग में
खाली हाथ ही सब
खाली ही जाना

जो कुछ हुआ
अच्छे के लिए हुआ 
अच्छा ही होगा

मेरा अपना
बस मेरा जीवन
उसे अर्पण

पाता जो होता
जीवन का आनंद
प्रभु में मग्न

आज तुम्हारा 
कल किसी और का 
होगा वो सब 

अधर्म होता 
धरा पर तो प्रभु 
प्रकट होता 

रखता है जो  
जैसी मनोकामना 
देता वो फल 

होता है जिसे 
इन्द्रियों पर वश 
पापों से मुक्त 

जग उत्पत्ति 
पालन सञ्चालन 
वही करता 

करते हैं जो 
प्रेम से उपासना 
छोड़ वासना 
प्रभु उनके पास 
पूरी करता आस 


मुख में देख 
अर्जुन चमत्कृत 
सारा ब्रह्माण्ड 

करेगा वो भी 
जितना ज्यादा प्यार 
करोगे तुम 

बनाने वाले
सूरज चाँद तारे
प्रभु हमारे 


जग में होता 
जो कुछ सर्वश्रेष्ठ 
उसका वास  

कर्म से धर्म 
होता है सुनिश्चित  
धर्म से कर्म 

किया सत्कर्म 
देता अच्छा ही फल 
जाता न व्यर्थ 

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