कभी भीतर बैठ, कभी खोल पर सवार
चले घोंघा बसंत
हैं पहने कवच ताकि बनें ना शिकार
चले घोंघा बसंत
घंटे में खिसक करते पूरे कदम चार
चले घोंघा बसंत
धीरज चैतन्य धरे कभी मानें न हार
चले घोंघा बसंत
चले घोंघा बसंत
अपमान का फिकर कूड़े में डार
चले घोंघा बसंत
जाने ना भाव क्या, सजाने बाजार
चले घोंघा बसंत
रजवाड़े के पिछवाड़े होने शुमार
चले घोंघा बसंत
कभी भीतर बैठ, कभी खोल पर सवार,
चले घोंघा बसंत।
हैं पहने कवच ताकि बनें ना शिकार,
चले घोंघा बसंत।
पांव को जमाते, मतवाली लिए चाल,
घंटे में खिसक, करते पूरे कदम चार;
चले घोंघा बसंत।
धीर, चैतन्य धरे, मानें न कभी हार,
हौले हौले, बरसात में, गाते मल्हार;
चले घोंघा बसंत।
खाया पिया जो कुछ उन सबको डकार,
अपमान की फिकर सब कूड़े में डार;
चले घोंघा बसंत।
जाने ना भाव क्या, सजाने बाजार,
रजवाड़े के पिछवाड़े होने शुमार;
चले घोंघा बसंत।
चले घोंघा बसंत।
खाया पिया जो कुछ उन सबको डकार,
अपमान की फिकर सब कूड़े में डार;
चले घोंघा बसंत।
जाने ना भाव क्या, सजाने बाजार,
रजवाड़े के पिछवाड़े होने शुमार;
चले घोंघा बसंत।
Uttam
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