Thursday, 9 July 2015

Muhabbat marichika

मुहब्बत मरीचिका (ग़ज़ल)

मुहब्बत एक ऐसी बहती दरिया है
न जाने मिलती किस समुन्दर में
बहता जाता है, हो के मुसाफिर
बदहवास उस दरिया के मंजर में
मरीचिका सी उसकी मंजिल
कभी उड़ जाती किसी बवंडर में
मगर ढूंढता रहता है वह
किनारे तो कभी भंवर के अंदर में 
कभी डूबता है उतराता कभी
खो जाता कभी तूफां के अंधड़ में
थोड़ी हरियाली ले ही आती है दिले बंजर में


प्यार बहती नदी है, मिलती न जाने किस समुन्दर में?
बहता जाता है, हो के पथिक, बदहवास नदी के मंजर में। 

तिनके की तरह हो जाता है, पाकर तेज लहरों का बहाव, 
कभी उतराता है, कभी वो गोता लगाता, भंवर के अंदर में। 

कभी तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता, एकदम स्थिर सा,
और कभी बहने लगता है  हवा के संग, डाले लंगर में। 

लहरों के बीच में जाकर, कभी ढूंढता रहता है किनारा,
और कभी जी होता, डूब जाए उसकी गहराई भयंकर में। 

भटक जाता है दिशा से, पता नहीं चलता है मंजिल का,  
मरीचिका सी मंजिल, उड़ती नजर आती है बवंडर में। 

न तो मैं जानूं न ही तुम जानो, कब किनारे ये कब भीतर, 
और जाने कब खो जाता है उठे हुए तूफान के अंधड़ में। 





थोड़ी हरियाली ले ही आती है दिले बंजर में

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