विश्वास की डोर
मुझे नित विश्वास रहता है
सुबह की रश्मि आते ही तम छंट जायेगा
घनेरी घटा छा जाय तो, मै क्या करूँ।
मेरी पतंग उड़े सबसे ऊँची
विश्वास के धागे पर उड़ रही पतंग को
कोई काट ही दे तो, मै क्या करूँ।
कच्ची डोर होती विश्वास की
और वह कठपुतली है दूसरे के हाथ की
उंगली न नचाये तो, मै क्या करूँ।
सब नहीं होता विश्वास परक
बीच में ही छोड़ दे साथ उनको परख
निर्बल कड़ी का हाथ, मैं क्यों धरूँ।
मोह व भ्रम भी आते समक्ष
कान भर निर्बल करते विश्वास की डोर
चक्षु को खोले बिना, मैं क्यों भरूं।
यद्यपि टूट जाती डोर, कई बार
आघात भी होता विश्वास पर, कई बार
करता रहे कोई घात, मै क्यों मरूं।
मैं तो बट के रखता हूँ बल
विश्वास की डोर के साथ आत्मविश्वास का
टूटे तो स्वयं पर भी दोष धरूँ।
Sadhana Vaid ki kavita
कल्पना की पतंग को
आसमान की ऊँचाइयों तक
पहुँचा कर मन अत्यंत
हर्षित और उल्लसित था
मेरी मुट्ठी में कस कर
लिपटा विश्वास का वह सूत्र
उँगलियों में ही उलझा
रह गया और
किसी और की पतंग
विश्वास के उस धागे को
आसमान में ही काट
मेरी भावना की पतंग को
अनजान वीरानों में
भटकने के लिये
विवश कर गयी !
कैसा था यह विश्वास
जो मन की सारी आस्था
सारी निष्ठा को
निमिष मात्र में हिला गया !
किस विश्वास पर भरोसा करूँ
काँच से नाज़ुक विश्वास पर या
ओस की बूँद जैसे नश्वर
विश्वास पर ?
सुदूर वीराने से रह रह कर
आती किसीकी भ्रामक
पुकार की आवाज़ से
विश्वास पर या
आसमान में लुका छिपी का
खेल खेलते टिमटिमाते सितारों की
धुँधली सी रोशनी से
विश्वास पर ?
अनंत अथाह सागर के
सीने पर उठती त्वरित तरंगों से
क्षणिक विश्वास पर या
वृक्ष की हर टहनी पर विकसित
अल्पकालिक सुन्दर सुकोमल
सुगन्धित फूलों के
लघु जीवन से
विश्वास पर ?
जो भी हो ‘विश्वास’ शब्द
जितना सम्मोहक है
उतना ही भ्रामक भी !
दृढ़ होने पर यह
जीवन जीने के लिये यह
जिस तरह प्रेरित करता है
टूट जाने पर यह उसी तरह
जीने की सम्पूर्ण इच्छा को
पल भर में ही मिटा जाता है !
मुझे नित विश्वास रहता है
सुबह की रश्मि आते ही तम छंट जायेगा
घनेरी घटा छा जाय तो, मै क्या करूँ।
मेरी पतंग उड़े सबसे ऊँची
विश्वास के धागे पर उड़ रही पतंग को
कोई काट ही दे तो, मै क्या करूँ।
कच्ची डोर होती विश्वास की
और वह कठपुतली है दूसरे के हाथ की
उंगली न नचाये तो, मै क्या करूँ।
सब नहीं होता विश्वास परक
बीच में ही छोड़ दे साथ उनको परख
निर्बल कड़ी का हाथ, मैं क्यों धरूँ।
मोह व भ्रम भी आते समक्ष
कान भर निर्बल करते विश्वास की डोर
चक्षु को खोले बिना, मैं क्यों भरूं।
यद्यपि टूट जाती डोर, कई बार
आघात भी होता विश्वास पर, कई बार
करता रहे कोई घात, मै क्यों मरूं।
मैं तो बट के रखता हूँ बल
विश्वास की डोर के साथ आत्मविश्वास का
टूटे तो स्वयं पर भी दोष धरूँ।
Sadhana Vaid ki kavita
कल्पना की पतंग को
आसमान की ऊँचाइयों तक
पहुँचा कर मन अत्यंत
हर्षित और उल्लसित था
मेरी मुट्ठी में कस कर
लिपटा विश्वास का वह सूत्र
उँगलियों में ही उलझा
रह गया और
किसी और की पतंग
विश्वास के उस धागे को
आसमान में ही काट
मेरी भावना की पतंग को
अनजान वीरानों में
भटकने के लिये
विवश कर गयी !
कैसा था यह विश्वास
जो मन की सारी आस्था
सारी निष्ठा को
निमिष मात्र में हिला गया !
किस विश्वास पर भरोसा करूँ
काँच से नाज़ुक विश्वास पर या
ओस की बूँद जैसे नश्वर
विश्वास पर ?
सुदूर वीराने से रह रह कर
आती किसीकी भ्रामक
पुकार की आवाज़ से
विश्वास पर या
आसमान में लुका छिपी का
खेल खेलते टिमटिमाते सितारों की
धुँधली सी रोशनी से
विश्वास पर ?
अनंत अथाह सागर के
सीने पर उठती त्वरित तरंगों से
क्षणिक विश्वास पर या
वृक्ष की हर टहनी पर विकसित
अल्पकालिक सुन्दर सुकोमल
सुगन्धित फूलों के
लघु जीवन से
विश्वास पर ?
जो भी हो ‘विश्वास’ शब्द
जितना सम्मोहक है
उतना ही भ्रामक भी !
दृढ़ होने पर यह
जीवन जीने के लिये यह
जिस तरह प्रेरित करता है
टूट जाने पर यह उसी तरह
जीने की सम्पूर्ण इच्छा को
पल भर में ही मिटा जाता है !