किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
सुबह शाम को सिंदूरी सांचे में ढाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
हरे भरे ये वृक्ष ऊँचे और नीला आकाश।
चमकीले तारों को कैसे! अम्बर ने सम्हाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
पहाड़ों पर बिछी हुई श्वेत हिम की परत।
पारदर्शी गिरती बूदें, उठती सुनहरी ज्वाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
नभ में धुएं सा बादल घूमे, रंग भूरे गहरे।
दिन को है किया रंगीला, रात का रंग काला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
कितना बड़ा होगा, सम्हालता कैसे वो ब्रश को।
रखता होगा रंगों का वो, बर्तन कहाँ निराला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
पतझड़ की पत्तियां
बेसहारा हो पड़ती हैं
पतझड़ के आते ही रो पड़ती हैं
रोती पत्तियां
कभी शाखा पर साथ खेलतीं
हवा से अठखेलियां कराती
पेड़ ने उन्हें अलग कर दिया
पेड़ को क्या नए पत्ते आएंगे
इन्हें नीचे पड़ना होगा
समय के साथ सड़ना होगा
बवंडर उदा कहीं ले जाती
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