निःसन्तान
सातवीं होली भी बीत गयी।
गर्मी, बरसात, शीत गयी।
इसकी गोद अब भी खाली,
बोल जाती हर गांव वाली।
उम्मीद की किरण अस्त हो गयी।
सुन सुन कर वो त्रस्त हो गयी।
भांति भाँति की बातें होतीं,
क्या करे! सोच के पस्त हो गयी।
करती भी क्या! बेचारी सह जाती।
खुद के अंदर ही, कमी लगती,
होठों को सिले ही, वो रह जाती।
किसी महात्मा का अभिशाप है।
पास पड़ोस या सगे सम्बन्धी,
रोज रोज का एक ही अलाप है।
व्याह में गोद भराई ना की होगी।
आँचल में बालक ना ली होगी।
देवता देवी का विचार न होगा,
अष्टमी का व्रत ना की होगी।
कोई कहता प्रभु की माया है।
कोई कहता ये ऊपरी साया है।
कोई किसी का किया बताता,
कोई कहता प्रेतों की छाया है।
एक तो गोद खाली का मलाल।
ऊपर से लोगों के तानों का जाल।
दूसरों को आखिर क्या लेना देना,
सुर बिगड़ते, देते अपनी ताल।
पंडित जी ने कहा, मेरी मानो।
रोजाना कुत्ते को रोटी डालो।
पड़ोस वाली ताई ने बताया,
बालकनाथ के दरबार जा लो।
ज्योतिषी ने बताया ग्रहों का दोष।
कोई कहता, ईश्वर का संयोग।
निवारण होगा कर घोर तपस्या,
अपूर्ण स्त्री सा उसे आंकते लोग।
मंदिर में हर दिन दीप जलाओ।
जाकर कहीं झाड़ फूंक कराओ।
बस नन्दोई जी ही कहते,
कहीं ठीक से इलाज कराओ।
एक जान थी, क्या क्या करे।
किसकी करे, किसे मना करे।
जो कुछ सुनती, करती गयी,
मजबूर, क्या हां, क्या ना करे।
कोख के लिए, कुछ भी करती।
जाना होता तो पहाड़ भी चढ़ती।
औलाद की चाहत बेशक मन में,
दुनिया की बोली ज्यादा खलती।
एक अजनबी साधु ने बोला,
बलि दिए बिन, कुछ न होगा।
पिछले जन्म के शाप का परिणाम,
बलि देकर ही निदान होगा।
मक्कार! ऐसे क्या पाप कटेगा!
पाप करके, पाप घटेगा!
ऐसों को तो जेल भेज दो,
तेरा ये उपदेश वहीँ जमेगा।
नादानी का पाठ पढ़ा रही थी।
वंश चलने का वास्ता देकर,
दूसरे व्याह को बढ़ा रही थी।
बीतते ही, वो आठवीं होली।
उल्टी हुई, जा सास से बोली।
आव भाव देख, भांप ली सास,
वाह, बहू! तू तो पेट से हो ली।
डॉक्टर आयी, माथापच्ची की।
सबके संशय को नक्की की।
बताई, बनने वाली है, ये माँ
व्याह के समय, यह बच्ची थी।
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