Friday, 29 June 2018

Pahad


दम निकले, है अरमान, तेरी गलियों में।
बिकता मौत का सामान, तेरी गलियों में।

जाएँ कहीं भी हम, दिल न लगता किसी ठौर। 
लगा रह जाता यादों में, तेरी ये हर तौर।
एक दिन जाएगी ये जान, तेरी गलियों में। 

जाना होगा ही जरूर, छोड़ एक दिन ये जहाँ।
होकर बेक़रार, डोलेगा फिर भी दिल यहाँ।
छोड़ जायेंगे हम निशान, तेरी गलियों में।

झेल लेंगे सारे दुखड़े, हम वहां पे खुश हो के। 
काट लेंगे दर्द की रात, जग के चाहे सो  के।
दिल भटकेगा साँझ विहान, तेरी गलियों में। 


मृत्यु शय्या पर पड़ा ये डोल रहा है।
बचाओ! बचाओ! धराधर बोल रहा है।

कोई बदन विदीर्ण कर, घर सजाता। 
कोई छाती चीर कर के, राह बनाता।
डायनामाइट से टुकड़े टुकड़े कर के, 
कोई ले जाकर, सडकों पर बिछाता। 
बचा अब जीवन कितना, तोल रहा है। बचाओ! ..

दुनियां, कितनी सुन्दर दिखलाता है।
शीश उठाकर जीना ये सिखलाता है।
कितने पशु, पक्षियों का यह विहार, 
पर्वत पर खेलता, बादल इठलाता है। 
कौन इसके जीवन में विष घोल रहा है। 

युग युग से पृथ्वी ने पर्वत को पहना है।
पहाड़ ही तो इसके श्रृंगार का गहना है। 
मानव, स्वार्थ में छीन रहा, शोभा माँ की,   
रोयेगी माँ तो कष्ट उसे ही सहना  है।
फिर क्यों आभूषण उसके खोल रहा है। 

देने के लिए, निधि रखा है नाना, हमको। 
देता, जड़ी बूटियों का खजाना, हमको। 
नदियों का उद्गम, पर्यावरण का रक्षक, 
प्रण लें, पहाड़ों के प्राण, बचाना हमको।
अनेकों युग से पर्वत ये अनमोल रहा है।

No comments:

Post a Comment