Friday, 28 July 2017

Khoon ka junoon

खून का जुनून - १

लड़ाकों की टुकड़ी, लड़ाई जीत चुकी थी
हजारों जिंदगियां बीत चुकी थीं।
ढह चुके, अनगिनत मकान थे
बस्तियां बन चुकी कब्रिस्तान थीं।
खंडहरों से मलवा, हटाया जा रहा था
लाशों को कहीं और, दफनाया जा रहा था।
बस्ती दुबारा बसाने की, सोची जा रही थी
बदबू के सहारे, लाशें खोजी जा रही थीं।
औरत, बच्चे, बूढ़े सभी थे, लाशों में
सड़ी, गली भी मिल रहीं, तलाशों में।
मलबों के झरोखों से झांकते
कहीं हाथ, पैर; किसी की आँखें।
जो जिन्दा था, मुर्दे से बदतर था
बेबस था, अपाहिज बनकर था।
भारी बमबारी, बड़ी जानलेवा थी
कोई अनाथ था, कोई बेवा थी।
कभी, जिस जगह फूल खिलते थे 
हरी घासें थीं, जानवर चरते थे।
वह जमीन, अब लाल पड़ी थी
बिखरे शवों से बेहाल पड़ी थी ।
लाशों के सड़ने की बदबू फैली थी
बारूद के धुएं से हवा विषैली थी। 
सुनसान वो जगह मीलों मील थी
आसमान में गिद्ध और चील थीं।
मुर्दे ही मुर्दों को ढूंढ रहे थे
आदमी आँखों को मूंद चुके थे।

                                   क्रमशः २, ३

खून का जुनून - २

वह नदी में पानी के लिए गया था
गले में बोतल लटका, दोनों हाथ ऊपर किये था।
फिर भी बंदूकें चल रही थीं
उस पर गोलियां बरस रही थीं।
वह छोटा सा, नन्हां सा मासूम था
यह क्या और क्यों हो रहा, नहीं मालूम था।
धांय धांय और गोली, कैसी बर्बरता
यह बहादुरी थी या कायरता ?
दया की भीख ने भी दरिंदों से नहीं बचाया 
बंद होने से पहले, अल्लाह की ओर नजर घुमाया।
थोड़ी ही देर में, रेत ने सारा खून सोख लिया
माँ धरती ने उसे अपनी कोख लिया।
नन्हां सा एक जूता, रेत में छटका पड़ा था
दूसरा, पैर के साथ ही सड़ा था।
कौन था ? बस जूता ही निशान थी
अपनों के लिए बस वही एक पहचान थी।
क्या पहचानने वाला कोई मिलेगा ?
या शव अपनों की नजर के लिए तरसेगा ?
कौन होगा, उसको जो दफ़नायेगा
कब्र मिल भी गयी तो चिराग कौन जलाएगा ?

                                           क्रमशः - ३

खून का जुनून - ३

किसके लिए वे लड़ रहे, नहीं जानते,
इंसानों का क्यों क़त्ल कर रहे, नहीं जानते।
हैवान बने, कितना खून पिए, नहीं जानते
इंसानों पर क्यों जुल्म किये, नहीं जानते।
जानने की उनको परवाह नहीं थी
कि असली इंसान कौन है ?
कुछ थे, लहू बहाके, साबित करने में लगे
असली मुसलमान कौन है !
उन्हें क्या पता था, इंसानियत भी कोई धर्म है।  
इंसान की जान बचाना, सबसे बड़ा कर्म है।
जो जिंदगी दे नहीं सकता, लेने का क्या हक़ ?
मगर उनका मजा है, बहाना खून नाहक।
शायद  वो इंसान नहीं कुछ और थे
पापी, हैवान थे, निर्दयी कठोर थे। 
जिस जीव को खुदा खुद बनाता है
इंसान कैसे हो सकता, जो मिटाता है !
अल्लाह के जीवों को इस तरह मिटायेंगे
जहन्नुम में भी, क्या वे जगह पाएंगे ?
मगर उनका तो बस एक ही जुनून था
कैसे भी हो, इंसानों का पीना खून था। 

एस० डी० तिवारी 

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