Thursday, 20 July 2017

Ganv se shahar, ghazal

अपनापन हो गया दूर, गांव से शहर आ गए।
बचपन था बहुत मगरूर, गांव से शहर आ गए।
नीले आसमान को फांद, चले आते सूरज चाँद,
टिमटिम तारों की त्याग, चमकती लहर आ गए।
चिड़ियों की चीं चीं नहीं, में बकरी की कहीं,
और न मेढक की टर्र, जाने किस डहर आ गए।  
तज; कोयल के गान, गेहूं, सरसों की मुस्कान,
जगाता मुर्गे की बांग, रोजाना सहर, आ गए।
छूटा नदी का कूल और मिला न स्विमिंग पूल,
कहाँ मन महकाते फूल? कौन से ठहर आ गए?
पेड़ की ठंडी छाँव, चू कर गिरे रसीले आम;
पीने, छोड़ अपने गांव, धुएं का जहर आ गए।
संस्कारों से परे, महँगी कार की मंशा धरे,
बासी खाने डिब्बा बंद. खड़ी दोपहर आ गए।
वास्तविकता को छोड़, दिखावे का चोला ओढ़,
अपनी सुध बुध पर 'देव', ढाने कहर आ गए। 

सत्य देव तिवारी 

No comments:

Post a Comment