Tuesday, 28 February 2017

Ganv me akhbar

गांव में अख़बार

जैसे ही विहान होता,
चिड़ियों का मंगल गान होता।
नित क्रिया से निवृत्त होकर,
अपना हाथ मुंह धोकर,
पूरा कुनबा बैठ  जाता,
कभी मग्गू भी आ जाता। 
दर्जन भर कप में चाय छनती,
 सभी ले रहे होते चाय की चुस्की।
तभी साइकिल की घंटी बजाता,
अखबारवाला आ जाता।
देखते ही साइकिल उसकी,
घूम जाती नजर सबकी।
रबर के छल्ले में कसकर,
'राम राम भईया' कहकर,
अख़बार फेंकने को ही होता, 
कि पप्पू दौड़ कर थाम लेता।
रबर का छल्ला हटाकर,
देखने लगता नजर गड़ा कर,
तभी चाचा हाथ से लपक लेते, 
एक एक पन्ना सबको दे देते।
सभी पढने में तल्लीन हो जाते,
पडोसी भी आकर लीन हो जाते। 
लगता वे वेद के विद्यार्थी हों,
अधिक ज्ञान पाने के अभ्यार्थी हों।
जब भी कोई प्रमुख बात आती, 
दूसरों को तुरंत बता दी जाती। 
जब अपनी सबने पढ़ ली होती,
पन्नों की अदला बदली होती।
थोड़ी देर चर्चा का दौर होता,
देश की समस्यायों पर गौर होता। 
फिर पन्नों को यूँ ही लपेट कर,
रख दिया जाता मेज पर।

शाम तक कोई भूला भटका आता,
अख़बार उठाकर पढ़ जाता।   

एक दिन बचुआ दौड़ा आया,
एक पुराना अख़बार माँगा।
वह परसों का अख़बार था,
उसमें छपा, भर्ती का समाचार था।
अब तक तो उसका संस्कार हो चुका था,
पकौड़ी का व्यापार हो चुका था। 
गांव में रद्दी बिक नहीं पाती थी,
कभी सुदामी आती, मांग ले जाती थी।
ले जाकर दुकान में सहेजत,
फाड़ फाड़ कर पकौड़ी बेचती।
बचुआ तो छटपटाने लगा,
परसों के अख़बार का पता लगाने लगा।
गांव में और किसी के यहाँ  नहीं था,
दोस्त मित्रों में भी ना कहीं था।
खोजने का चला, दूर तक सिलसिला,
दूसरे गांव भी नहीं मिला।
तब अखबार वाले से बोला गया,
उसकी भी झोली टटोला गया।
उसने दो दिन का समय माँगा,

बचुआ का भाग जागा।
उस दिन का एक बच गया था,
अख़बार बिकने से रह गया था। 
दूने दाम पर अख़बार मिला,
बचुआ का चेहरा खिला।
अब पुराने अख़बार के लिए कोई आता,
उसे स्पष्ट तौर से कह दिया जाता।
पड़ी ढेरी में से उठा लो पर,
कम कम तीन दिन का छोड़कर। 

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