महानगर की शाम
काम के चक्कर में,
आठ दस घंटे की जेल।
दिन भर की कैद से,
शाम होने पर ही बेल।
आकाश से गिरे तो झाड़ में अड़े,
दफ्तर से निकले, यातायात में पड़े।
महानगर में शाम होने पर,
कोई फंस जाता जाम में होने पर,
कोई डूब जाता जाम होने पर,
भाव होता जेब में दाम होने पर,
धाक होती अपना धाम होने पर.
दुआ सलाम होती काम होने पर,
किसी को कोई जानता नाम होने पर,
बवाल हो जाता बेलगाम होने पर,
सम्हालना मुश्किल होता झाम होने पर,
दोस्त भी दूर हो जाते, तमाम होने पर,
पर्दा पड़ जाता सरेआम होने पर।
सबके सामने होता,
पैसा कमाने का सवाल।
पैसे के लिए करते,
जाने क्या क्या कमाल।
कोई बन जाता दलाल,
किसी की हो जाती कुटिल चाल,
किसी की तो मोटी खाल,
कोई डालता फांसने का जाल।
पैसे के लिए, पूछो न हाल,
बिक जाता ठगी का मॉल।
गलत सही का नहीं होता,
किसी के मन में कोई मलाल।
यूँ तो करते मौकापरस्ती
शाम तलक सबकी हालत
हो जाती है खस्ती,
मगर शाम होने पर ही
लोगों में आती है थोड़ी चुस्ती।
रफू चक्कर हो जाती है
दिन भर की सुस्ती,
कहीं महँगी तो कहीं सस्ती,
बिकने लगती है मस्ती।
कालिख पोत लेती पूरी बस्ती।
अँधेरे में ही रूबरू होती है
बड़ी से बड़ी हस्ती।
असल जिंदगी की शुरुआत
शुरू होती है, होते ही रात।
हो जाती अँधेरा बढ़ने के साथ
शहर की तस्वीर ज्यादा साफ़।
लोग बाग़,
बनाने को अपनी बात,
देने को औरों को मात,
लगाने लगते हैं घात।
करते गैरों से भी मुलाकात,
और जाने कैसे कैसे करामात।
कुछ ऐसी हो जाती है शाम सुहानी,
अजनबी से भी मिलन रूहानी।
जैसे जैसे अँधेरा गहराता है,
देखने में आता है,
गजब गजब का नाता है,
मिलने का सिलसिला, दूर तलक जाता है।
मन बहलाने वालों का,
झूठी कसमें खाने वालों का,
प्यार में धोखा देने वालों का,
करार की रकम लेने वालों का,
जाम छलकाने वालों का,
काली योजनाएं बनाने वालों का,
गोरखधंधा चलाने वालों का,
रात की कालिख में
जन, धन, मन काला बनाने वालों का।
सबकी अपनी अपनी जिंदगी है,
मतलब होने पर ही बंदगी है,
कहीं सफाई, कहीं गन्दगी है,
पैसों वालों की नुमाइंदगी है,
उल्लू सिद्ध करने में दरिंदगी है,
कुछ भी करने में ना शर्मिंदगी है।
नगरी शाम को ही चमकती है,
लाखों बत्तियां जलती हैं,
कहीं पर महफ़िलें सजती हैं,
कहीं पार्टियां चलती हैं,
हुस्न की मंडी लगती है,
घुँघुरु की घंटी बजती है,
कहीं दोस्तों में छनती है,
किसी की चीलम सुलगती है,
जल रही हर बत्ती
कोई न कोई कहानी कहती है।
महानगर कहाँ कभी सोता है,
कोई जश्न में, कोई शोक में
अपनी रात खोता है।
महानगर की शाम का
जो विचित्र चरित्र होता है,
कोई बड़ा कवि भी, बयां ना कर पाये
यहाँ शाम को जो कुछ होता है।
- एस० डी० तिवारी
दूध सब्जी
पप्पू का होम वर्क
थैला थम
काम के चक्कर में,
आठ दस घंटे की जेल।
दिन भर की कैद से,
शाम होने पर ही बेल।
आकाश से गिरे तो झाड़ में अड़े,
दफ्तर से निकले, यातायात में पड़े।
महानगर में शाम होने पर,
कोई फंस जाता जाम में होने पर,
कोई डूब जाता जाम होने पर,
भाव होता जेब में दाम होने पर,
धाक होती अपना धाम होने पर.
दुआ सलाम होती काम होने पर,
किसी को कोई जानता नाम होने पर,
बवाल हो जाता बेलगाम होने पर,
सम्हालना मुश्किल होता झाम होने पर,
दोस्त भी दूर हो जाते, तमाम होने पर,
पर्दा पड़ जाता सरेआम होने पर।
पैसा कमाने का सवाल।
पैसे के लिए करते,
जाने क्या क्या कमाल।
कोई बन जाता दलाल,
किसी की हो जाती कुटिल चाल,
किसी की तो मोटी खाल,
कोई डालता फांसने का जाल।
पैसे के लिए, पूछो न हाल,
बिक जाता ठगी का मॉल।
गलत सही का नहीं होता,
किसी के मन में कोई मलाल।
यूँ तो करते मौकापरस्ती
शाम तलक सबकी हालत
हो जाती है खस्ती,
मगर शाम होने पर ही
लोगों में आती है थोड़ी चुस्ती।
रफू चक्कर हो जाती है
दिन भर की सुस्ती,
कहीं महँगी तो कहीं सस्ती,
बिकने लगती है मस्ती।
कालिख पोत लेती पूरी बस्ती।
अँधेरे में ही रूबरू होती है
बड़ी से बड़ी हस्ती।
असल जिंदगी की शुरुआत
शुरू होती है, होते ही रात।
हो जाती अँधेरा बढ़ने के साथ
शहर की तस्वीर ज्यादा साफ़।
लोग बाग़,
बनाने को अपनी बात,
देने को औरों को मात,
लगाने लगते हैं घात।
करते गैरों से भी मुलाकात,
और जाने कैसे कैसे करामात।
कुछ ऐसी हो जाती है शाम सुहानी,
अजनबी से भी मिलन रूहानी।
जैसे जैसे अँधेरा गहराता है,
देखने में आता है,
गजब गजब का नाता है,
मिलने का सिलसिला, दूर तलक जाता है।
मन बहलाने वालों का,
झूठी कसमें खाने वालों का,
प्यार में धोखा देने वालों का,
करार की रकम लेने वालों का,
जाम छलकाने वालों का,
काली योजनाएं बनाने वालों का,
गोरखधंधा चलाने वालों का,
रात की कालिख में
जन, धन, मन काला बनाने वालों का।
सबकी अपनी अपनी जिंदगी है,
मतलब होने पर ही बंदगी है,
कहीं सफाई, कहीं गन्दगी है,
पैसों वालों की नुमाइंदगी है,
उल्लू सिद्ध करने में दरिंदगी है,
कुछ भी करने में ना शर्मिंदगी है।
लाखों बत्तियां जलती हैं,
कहीं पर महफ़िलें सजती हैं,
कहीं पार्टियां चलती हैं,
हुस्न की मंडी लगती है,
घुँघुरु की घंटी बजती है,
कहीं दोस्तों में छनती है,
किसी की चीलम सुलगती है,
जल रही हर बत्ती
कोई न कोई कहानी कहती है।
महानगर कहाँ कभी सोता है,
कोई जश्न में, कोई शोक में
अपनी रात खोता है।
महानगर की शाम का
जो विचित्र चरित्र होता है,
कोई बड़ा कवि भी, बयां ना कर पाये
यहाँ शाम को जो कुछ होता है।
- एस० डी० तिवारी
दूध सब्जी
पप्पू का होम वर्क
थैला थम
[kk ihdj foLrj ij
vkt dk dgklquh dk Mj
gks x;k jQwpDdj
No comments:
Post a Comment