काली सी लड़की
घर में छाई पड़ी, पहले से ही कंगाली थी ।
ऊपर से लड़की आई, वो भी काली थी ।
पैदा होते ही कानाफूसी होने लग पड़ी।
काली आ गयी पहले ही समस्याएं बड़ी।
कौन करेगा व्याह, कैसे होगा बेडा पार।
काली कलूटी; कौन बनेगा गले का हार।
पड़ोस की ताई कहने से नहीं चुकती,
ईश्वर अगर लड़की दे तो, दे रूपवती।
काली है, और उस पर रूप की थकान है।
अपनों के चेहरे पर मुरझाई मुस्कान है।
घर में कोई ख़ुशी नहीं, सभी उदास हैं।
फेंक तो सकते नहीं इसीलिए पास है।
अबोध है, पता नहीं गोरी-काली का भेद।
बच्चों के साथ बच्चा है, मन में न छेद।
बड़ी हुई, सनकी जमाना चुप कैसे रहता।
कोई कलूटी, कोई काली मायी कहता।
मिलते रहे घाव मगर होंठ सीना पड़ा।
जो भी नजर पड़ती उसे नीचे ही गाड़ती।
कोई अपराध किया हो ऐसे निहारती।
लोगों की बातें से जो गहरी चोट मिलती।
भीतर घुस छैनी सी आत्मा को छीलती।
सोचती, यौवन में कौन उसका नाम लेगा।
जिंदगी थम जाएगी या कोई थाम लेगा।
राम, कृष्ण भी मानव रूप में सांवले थे।
मगर सीता और राधा के रंग धवले थे।
बार बार सोचती इसमे उसका क्या दोष।
क्यों झेलना पड़ रहा जीवन में अवरोध।
ज़माने का बोझ उसके जीवन पर था।
अपनों का ही दिया कष्ट मन पर था।
यह कोई अवगुण नहीं, मगर ढकेगी।
तन के रंग का आवरण गुणों में ढूंढेगी।
अनेकों यत्न कर, बदन को सँवारी।
लाभ न मिला तो अपने भीतर निहारी।
सुन्दर कंठ था उसका, वह गाने लगी।
सुरीले गान से कोयल भी लजाने लगी।
बुद्धि, विवेक में औरों से कहीं आगे थी।
जीवन के सपनों को लिए वह जागे थी।
व्यंजन बनाना बाएं हाथ का खेल था।
उसके हाथ के स्वाद का कोई ना मेल था।
यही सब सोचते, करते वह बड़ी हुई।
अब तक तो अनेकों गुणों से जड़ी हुई।
अब तो वही लोग कहते हैं रूप रंग क्या !
गुणों में ही होती है; वास्तविक सुंदरता।
एस० डी० तिवारी
घर में छाई पड़ी, पहले से ही कंगाली थी ।
ऊपर से लड़की आई, वो भी काली थी ।
पैदा होते ही कानाफूसी होने लग पड़ी।
काली आ गयी पहले ही समस्याएं बड़ी।
कौन करेगा व्याह, कैसे होगा बेडा पार।
काली कलूटी; कौन बनेगा गले का हार।
पड़ोस की ताई कहने से नहीं चुकती,
ईश्वर अगर लड़की दे तो, दे रूपवती।
काली है, और उस पर रूप की थकान है।
अपनों के चेहरे पर मुरझाई मुस्कान है।
घर में कोई ख़ुशी नहीं, सभी उदास हैं।
फेंक तो सकते नहीं इसीलिए पास है।
अबोध है, पता नहीं गोरी-काली का भेद।
बच्चों के साथ बच्चा है, मन में न छेद।
बड़ी हुई, सनकी जमाना चुप कैसे रहता।
कोई कलूटी, कोई काली मायी कहता।
समझ के साथ मुश्किलें बढती रहीं।
कालापन का अभिशाप सर चढ़ती रही।
चुभती रही दुनिया पग पग पर शूल सी।
वह तो चाहती थी महकना फूल सी।
दबंगई की छाँव तले ही जीना पड़ा। मिलते रहे घाव मगर होंठ सीना पड़ा।
जो भी नजर पड़ती उसे नीचे ही गाड़ती।
कोई अपराध किया हो ऐसे निहारती।
लोगों की बातें से जो गहरी चोट मिलती।
भीतर घुस छैनी सी आत्मा को छीलती।
सोचती, यौवन में कौन उसका नाम लेगा।
जिंदगी थम जाएगी या कोई थाम लेगा।
राम, कृष्ण भी मानव रूप में सांवले थे।
मगर सीता और राधा के रंग धवले थे।
बार बार सोचती इसमे उसका क्या दोष।
क्यों झेलना पड़ रहा जीवन में अवरोध।
ज़माने का बोझ उसके जीवन पर था।
अपनों का ही दिया कष्ट मन पर था।
यह कोई अवगुण नहीं, मगर ढकेगी।
तन के रंग का आवरण गुणों में ढूंढेगी।
अनेकों यत्न कर, बदन को सँवारी।
लाभ न मिला तो अपने भीतर निहारी।
सुन्दर कंठ था उसका, वह गाने लगी।
सुरीले गान से कोयल भी लजाने लगी।
बुद्धि, विवेक में औरों से कहीं आगे थी।
जीवन के सपनों को लिए वह जागे थी।
व्यंजन बनाना बाएं हाथ का खेल था।
उसके हाथ के स्वाद का कोई ना मेल था।
यही सब सोचते, करते वह बड़ी हुई।
अब तक तो अनेकों गुणों से जड़ी हुई।
वह पूर्ण रूप से तराशा हुआ नगीना है।
उमंग व गौरव से भरा उसका जीना है। अब तो वही लोग कहते हैं रूप रंग क्या !
गुणों में ही होती है; वास्तविक सुंदरता।
एस० डी० तिवारी
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