Friday, 8 May 2015

Haiku May 15


पीने की लत
हो जायेंगे लडके
लड़कियों से

हैप्पी आवर्स
कर न दें उदास
पूरी जिंदगी

उठाया था जो
बीड़ी का वह टूक
पिता ने फेंका

पी गयी सब
तन मन व धन
घूँटों में भर

बोतल भर
खरीद कर लाया
कलह घर

पूरी बोतल
अकेले ही समेटा
नाली में लेटा

बाप ने डाला
गुल्लक पर डाका
नशे की लत

बेटे ने डाला
गुल्लक पर ताला
बाप नसेड़ी

समझता था
वह उसे पी रहा
वो पीती रही

पूरी बोतल
अकेले ही गटका
पाया झटका

एस० डी० तिवारी

मन की हो तो
पत्थर भगवान
ना तो पाषाण

खड़ी हो जाती
अतीत का दर्पण
बिटिया बन

पहनाती थी
माँ स्वेटर बुन के
अपने हाथों

खाने का स्वाद
लगा हो माँ का हाथ
दिव्य हो जाता

क्रोध में माँ ने
जड़ दिया थप्पड़
स्वयं ही रोई

माँ बन होती
जग पालनहारी
देवी है नारी

पुत्र को चोट
दर्द से कराहता
माँ का ह्रदय

रोता जो लाल
आंसुओं में भीगता
माँ का आँचल

काशी है द्वार
बहता गंगा जल
मोक्ष की धार

एक ही भाषा
रोने मुस्कराने की
जाने ये जग

छप्पर तले
खिसकती खटिया
भादों कि रात

हाथ में आई
मुह को पहुंचाई
शिशु ने वस्तु

बंशी बजाई
गोपियाँ दौड़ी आईं
श्याम ने शाम

बूंदों के तीर
छोड़ के मुस्कराती
इन्द्रधनुष

रुकी बारिश
जड़े पड़े पत्तों पे
मोती के दाने

निर्वस्त्र हुए वृक्ष :: पतझड़ का कृत्य

नए वस्त्र डाले :: वृक्ष बसंत मनाते

सूरज आया :: चाँद शरमाया

तालाब खेत
मूसलाधार वर्षा
हो गए एक

सूखा तालाब
तले पड़ी तरेड़
गर्मी की मार

भूख मिटाती
खा खा कर मन की
यादों के फल

मैंने भी लिखा
प्यार में उसे ख़त
संभाली नहीं


फाड़ कर के
बहुत पछताई
पहला ख़त

सारे ही ख़त
आंसू नहीं बहाते
फाडे भी जाते

पढ़ा जो भाई
गाल पर लगाई
उसका ख़त

धुलते रहे
वह पढ़ती रही
ख़त के शब्द

घिसे वो शब्द
आज भी पढ़ती है
पहला ख़त

नन्हा सा ख़त
पिरो गया सूत्र में
दो का जीवन

खोल दी पट्टी
दीवार के छिद्र में
खोंसी वो चिट्ठी

उस्तरा आया
बन्दर के हाथों में
काट दी दाढ़ी

पूरी पढाई
लिखने लगा ख़त / करने लगा नशा
हुई चौपट 


घड़ा बुलाता
बजा कर घुँघरू
बेल का रस

पछुआ आई
बदन को जलाई
लू बनकर

पागल हो के
पकने लगे आम
गर्मी की मार

गर्मी में गांव
बिछ जाती खटिया
पेड़ की छाँव

ना ले पाओगे
एक सांस भी ज्यादा
किसी की छीन

यह जीवन
निर्धन को है बोझ
धनी का खेल

मिली हैं गिन
धुआं न ले छीन
साँसे अपनी

गली में आया
आइसक्रीम वाला
डूबी स्वाद में

लिए कटोरी
खा रही पानी पूरी
जीभ चटोरी

खूब भकोसा
जलेबी व समोसा
आये अतिथि



खिलता फूल
प्रेम ना होता भूल
जीने का मूल

धरती छोड़
सर्वोपरि की होड़
आँखों को मींचे

नींव की ईंट
मन चाही नियुक्ति
भ्रष्टाचार की

चिट्ठी के भाग्य
कहाँ से कहाँ लाई
गंगा नहाईं

भेजी वो पाती
उत्तर कैसे पाती
फाड़ दी गयी

धरे धरनी
उच्च ताप की पीड़ा
दवा दो इन्द्र


सूर्य का कोप
अब मना पाएंगे
इन्द्र देव ही


सूर्य ने छोड़ा
बिन लगाम घोडा
पकड़ो इन्द्र

चूल्हे की आंच
बढ़ा दिया सूर्य ने
भुन रही भू

मन की हो तो
पत्थर को मानता
इंसान भगवान
मन की ना हो
भगवान हो जाता
फिर वही पाषाण



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