Sunday, 31 May 2015

Haiku June 15 / gramya jeevan

रात ने ओढ़ी
तारों जड़ी चुनरी
चाँद निहारे

पार्क का बेंच
प्रेम कहानियों का
पुराना साक्ष्य

जिस पे लिखीं
कई प्रेम कहानी
पार्क का बेंच

बहता स्वेद
गर्मी में मन चाहे
शीतल पेय

बिन स्नान के
भीगे रहते वस्त्र
गर्मी से त्रस्त

चौसठ दांत
देवें दर्शन साथ
दांपत्य सुख  

कसमें सात
बांधें जीवन साथ
अटूट गाँठ


खुश पीपल
करता करतल
वायु को देख

नेता के गले
पड़ बेशर्म हुये
फूल भी अब

छत पे रखा
पितरों का भोजन
कौवा ले भागा

पिया के बिन
लगता है सावन
जेठ महीना

चोट खाकर
टूटती तो हड्डी है
लोहा खून में

नेता को दिए
फूल भी पछताते
फेंके ही जाते


हॉर्न पे हॉर्न
ड्राइवर दर्शाता
उसे ही आता

कुत्ता अभागा
छीन उसकी रोटी
कागा ले भागा


पूछ लिया तो
कानून तोड़ दिया
जात उसकी

वोट मांग के
महान कार्य किया
जात पूछ के

नेता रखते
रेतने को समाज
शब्दों के चाकू

आते सेवा को
मेवा में ढक जाते
आज के नेता

खा जाती चाट
भर भर कटोरी
जीभ चटोरी

प्रीति भोज में
घेर लेता है कोना
चाट का दोना

पिज्जा बर्गर
खाये जा रहे नित
रोटी हमारी

रोटी के स्थान
खाते हम बीमारी
सेकना भारी



किसने गढ़ी
ममता की मूरत
नानी से जाना

 कहा से लाई
जाना ननिहाल जा
माँ ने ममता

उगाया वृक्ष
सघन ममता का
नानी ने सींच

माँ एक झील
ममता का सागर
नानी का घर


सोचूं अकेला
साथ चलती सोच
जब भी चलूँ

टूटा छप्पर
अभी तक मौजूद
गोबर गंध

बेटा बाहर
मोटर साइकिल
बिना हवा के

मात्र एक ही
लाल बत्ती जलती
छोटा सा क़स्बा

फॉर्म पे चिन्ह
स्कूल ना जाने का
बायां अंगूठा

चिड़िया घर
दर्शकों से ओझल
गर्मी में बाघ

चिड़िया घर
जाड़े में जानवर
मुंह को फेरे

बागों में खिले
ममता के कुसुम
मातृ दिवस

महका रहा
अब फलों की मंडी
फलों का राजा

भागती नींद
करता जब बात  
झिंगुर रात

दिन में उल्लू
देख रहा जुगनू
सूर्य ग्रहण

सर्दी में बनी
पतझड़ में मरी
पत्ती की कब्र

बीस से साठ
रह के साथ साथ 
साथ निभाया 

साठ के पार 
बोल दी सरकार 
अब बेकार  

असंख्य तारे 
दो आँखों का कमाल
देखती साथ

हो पातीं दो ही  
देखो चाहे हजारों 
ऑंखें अपनी 

चंचल नैन  
दो नयनों में झांक 
हो जाते चार 

रंग बदले 
सूर्य मौसम देख 
वर्ष में कई 

पूरा ब्रह्माण्ड 
परखने को काफी  
पांच इन्द्रियां  

बना पुतला 
मात्र पांच तत्व का 
गर्व हजार 

शब्दों की भीड़ 
चुने सत्रह वर्ण  
हाइकू योग्य  

सृजन हेतु   
हौसला आवश्यक 
ना कि औंजार 

चिल्लाने लगे
जल और कोप्टर
बाढ़ का कोप

लगन और
परिश्रम है कुंजी
सफलता की

रहती इच्छा
 नृप की भी अधूरी
साधु की पूरी

फलों की मंडी
सुगंध बिखेरता
फलों का राजा

सज के बैठी
आया फलों का राजा
फलों की मंडी

घन घनेरा
छटा बिखेरा पर
ढका सवेरा


***************


घेरी बदरी
मन गावे मल्हार
प्रीत कजरी

कौन सुनेगा
तुम बिन साजन
गीत हमरी

दिल की किये
न जाओ परदेश  
गली सकरी

बांध रखूंगी
इस बरसात में
प्रेम रसरी 



****************

गांव की भोर
चिड़ियों की चहक
मुर्गों का शोर

शहर की भोर
स्टार्ट होती गाड़ियां
हॉर्न का शोर

बूढ़ों की भोर
जगा देती नींद से
खांसी का जोर

बच्चों की भोर
पीठ पर बस्ता
स्कूल की ओर

पत्नी की भोर
रसोई में करते
बर्तन शोर

पति की भोर
चाय बन गयी क्या
मचाते शोर

स्वप्न के संग
नींद भी पुरजोर
युवा की भोर



******************



सीधा सादा सा
भरा है भोलापन
ग्राम्य जीवन

थोड़ा घर में
थोड़े की चाह मन
ग्राम्य जीवन

जीता जीवन
प्रकृति की गोद में
ग्राम्य जीवन

बातें करता
मद मस्त पवन
ग्राम्य जीवन

चाँद सितारे
नित करे दर्शन
ग्राम्य जीवन


********************

जुटाने में ही
जिंदगी के साधन
बिता दिया जीवन
गए अकेले
न कारवां न साथी
और वो भी पैदल


Monday, 25 May 2015

KUNDALIYAN

चोट गहरा कर जाता, गलत बात का तीर।
रक्त के बहाये बिना, देता दिल को चीर।
देता दिल को चीर, करता बहुतेरा दर्द।
बड़े काल के लिये, बन जाता भीतर मर्ज।
तोल मोल के बोल, न होवे बात में खोट।
खुद का दिल बेदाग, औरों को लगे न चोट।  


फूली सरसों देख कर, खिला किसान का मन।
ऋतु महंत बसंत अंत, भरेगा घर में अन्न।
भरेगा घर में अन्न, और झूमेंगी खुशियां।
नये परिधान पहन,  मेला जाएगी मुनिया।
बढ़ी पेंग स्वप्न की, कुटुंब की गगन छू ली।
अच्छी फसल की आस, लिये मन सरसों फूली।


परोस रहे गीतों को, विकृत मति के लोग।
गीत की छवि बिगाड़ कर, धारे धन का लोभ।
धारे धन का लोभ, जो हैं अपनी धरोहर।
संस्कृति में हैं अमर, उन्हें तोड़ मरोड़ कर।
कई गीत संगीत तो, मूल रूप में अनमोल।
मित्रों करो ना नष्ट, कर विकृत रूप परोस।


कानून की सबके लिए, सजा की एक किताब।
पर प्रभावी लोगों का, होता अलग हिसाब।
होता अलग हिसाब, चलता केस दसियों वर्ष।
रहें सजा से मुक्त, निकले बिन कोई निष्कर्ष।
निर्धन, निरपराध भी, सुखाता जेल में खून।
तब कहीं वर्षों बाद, निर्दोष कहता कानून।


वोट की खातिर नेता, खोलने लगे चूल।
पुर्जा पुर्जा हो बेशक, समाज यह समूल।
समाज यह समूल, बांटते जाति धर्म में।
उन्हें यही आसान, भरोसा नहीँ कर्म में।
फैला रहे नेता, कौन निकालेगा खोट।
दूषित करें समाज, हथिया लेने  को वोट।   


देश था सोने का खग, कहें पुराने लोग।
नोच कर बेहाल किया, अंग्रेजों का लोभ।
अंग्रेजों का लोभ, आज भी वही दशा है।
सोने का खग तो है, पंख जकड़ा पड़ा है।
धर रखे बहेलिये, नोच ले जाते विदेश।
पंख छुड़ा ले उनसे, उड़ेगा पुनः यह देश।


असली सिपाही रण में, रिपु की गोली खाय।
नकल करता अभिनेता, पर नायक कहलाय ।
पर नायक कहलाय, भीख पाय न भिक्षु असल।
होते मालामाल, दिखाय परदे पर नकल।
बलिदानों के बदले, औरों की दुनिया बदली।
घोर कष्ट में जीवन, बितायें गांधी असली। 

जिंदगी जीते थोड़े, उम्र जिए हर कोय।
खुश रहें, खुशियां बांटें, जीवन उसका होय।
जीवन उसका होय,  जो करते सबको प्यार।
कर्त्तव्य निष्ठां में, मानते कभी ना हार।
औरों की मदद में, दिखाते जो संजीदगी।
सुन्दर, सफल व्यतीत, होती उनकी जिंदगी।


- एस० डी० तिवारी


जो होना, होता वही, कित्ता लगा लो जोर।
योजना बनाते कुछ, हो जाता कुछ और।
हो जाता कुछ और, सब ईश्वर ही करता।
राजा होता रंक, भिक्षुक तिजोरी भरता।
करना अपने काम, ईश्वर को मन में संजो।
कामना होती पूर्ण, ध्यान उसका रखते जो।


क्रोध होता है जैसे, रखा पात्र में आग।
जिस बर्तन में रखा, वह बर्तन होता खाक।
वह बर्तन होता खाक, क्रोध है ऐसी आंधी।
जान सकें बाद में, हुई कितनी बर्बादी।
क्रोध से पहले ही, हो जाये इसका बोध।
कह एसडी कविराय, करे ना कोई क्रोध। 


झांकने की चाह रखें, औरों के घर लोग।
छुप छुप के झरोंखो से, जब भी पायें योग।
जब भी पायें योग, खोल दो जब दरवाजा।
झांक सकें वे लोग, रखे जो मन जिज्ञासा।
फिर लगते हैं दूर, स्वयं ही लोग भागने।
ताकते रहो राह, आय न कोई झांकने।


बनाया है इंसान ने, यातायात तमाम।
प्रभु तक पहुंचने में, कोय न आया काम।
कोय न आया काम, वहां पैदल ही जाना।
बन जायं तीव्रतम, चाहे राकेट नाना।
धनवान व बलवान, सबने ही कष्ट उठाया।
वहां तक जाने की, नहीं जो राह बनाया।

सफलता व असफलता; जगह न देना खास।
एक मन में घमंड भरे, दूजा करे उदास।
दूजा करे उदास, चींटी ना चिंता करती।
गिर के फिर उठ जाय, लक्ष्य को पाने बढ़ती।
पाकर लक्ष्य पतंगा, ऐंठ में धरे चपलता।
जाय काल के गाल, ले उसकी ही सफलता।    

सावन बीता जा रहा, साजन नहीं है संग।
विशाल मन के पृष्ठ पर, कौन भरेगा रंग।
कौन भरेगा रंग, श्वेत, सादा सा लगता।
बरसे रंग, भिगोये, नित्य बेकल मन करता।
समझाऊँ किस भांति, दीवाना कर देता घन।
तुम बिना ऐ साजन, जेठ सा लगता सावन।


गर्मी में चाहते लोग, वातानुकूल यन्त्र।
श्रमिक, किसान का होता, मात्र काम ही मंत्र।
मात्र काम ही मंत्र, काम से ना कतराते।
उन्हीं के श्रम के बल, धनवान मौज उड़ाते।
मौसम जाता हार, समक्ष उनकी हठधर्मी।
काम पर डंटे रहें, चाहे हो कितनी गर्मी।


क्यों चाहेंगे? देश में चल पाये गणतंत्र।
जो चाहते कर लेते, उनका है स्व-तंत्र।
उनका है स्व-तंत्र, जैसे चाहें चलाते।
बने हैं शुभ चिंतक, जन के, वे जताते।
दूसरे दर्जे के हुए, बाकी नागरिक यों।
जन हित में त्यागे ठाट, चाहे सिकंदर क्यों ?


पारा चढ़ा पिला रहा, तरह तरह के पेय।
लस्सी, शर्बत, जल जीरा, शीतलता है ध्येय।
शीतलता है ध्येय, पीते आम का पन्ना।
पीते बादाम का शरबत ले सेठ धन्ना।
फलों का रस मित्रों, देता है बड़ा सहारा।
शीतल जल भी करे, कुछ तो नियंत्रित पारा।



माली व्याकुल हो रहा, क्यों न बिकते फूल।
फूल उगा कर है किया, क्या वह कोई  भूल।
क्या वह कोई भूल, मना रहा कोई न जश्न।
भूखों की बस्ती क्या! ह्रदय में उठते प्रश्न।
रह जाएगी उसकी जश्न बिना जेब खाली।
हो रही खुशहाली ख़त्म व्याकुल है माली ?




भ्रष्टाचार मिटाने को, जनता ने दी जीत।
सबको भ्रष्ट कहने की, लेकर आये नीति।
जनता ने दी जीत, मंत्री लिए फर्जी डिग्री।
पा गए सिंहासन, जो भी थे मित्र जिगरी।
हटा रही आयोग, बचाने मित्र, सरकार।
लाना था आयोग, हटाने को  भ्रष्टाचार।


वर्चस्व की लड़ाई में, जुटी पड़ी सरकार।
लोक समस्याओं से अब, रहा ना सरोकार।
रहा ना सरोकार, बिजली पानी को त्रस्त।
दशा स्वास्थ, शिक्षा की कहती कहानी पस्त ।
लगाओ सुधार में,  पटरी, गली के सर्वस्व।
लोक हित की सुध लो; छोड़, संघर्ष पाने को वर्चस्व।



टी वी धारावाहिकेँ, चलें कइ कई वर्ष।
आँख लगाये नारियां, देखें बिन निष्कर्ष।
देखें बिन निष्कर्ष, रबर सी बढ़ती जाती।
जोड़ नित की बातें, कहानी खिंचती जाती।
कह एस डी कविराय, रहे प्रसंग छोटी सी।
खींच दीर्घ दिखाते, धारावाहिकेँ  टी वी।   


धारावाहिक चलाते, चैनल अनेकों वर्ष।
आँख लगाये नारियां, देखें बिन निष्कर्ष।
देखें बिन निष्कर्ष, रबर सी बढ़ती जाती।
जोड़ नित की बातें, कहानी खिंचती जाती।
कह एस डी कविराय, छोटा प्रसंग स्वभाविक।
दीर्घ खींच दिखाते, टी वी पे धारावाहिक।



चीलम भरते थे कभी, अब भर रहे गिलास।
हुक्का बुझा काका का, बोतल आई रास।
बोतल आई रास, खुलती हरेक दिन शाम।
चौधरी काका अब, पीकर पाते आराम।
बदला समय के संग, अब चौपाल का सिस्टम।
पुरातत्व की वस्तु, बन चुके हुक्का चीलम।



स्विस बैंक में खाता क्यों, रक्खे भारतवासी।
बसेंगे जाकर विदेश, होकर के प्रवासी।
होकर के प्रवासी, कहीं जब फंसे देश में।
काली कमाई तब, देगी मौज विदेश में।
पतंग के जैसे वे, उड़ायेंगे डॉलर फ्रैंक।
बरसायेगा वहां, कृपा कुबेर स्विस बैंक।


जीवन जीना भी मित्रों,  होता ना आसान।
किये बिना संघर्ष के, पूरे ना हो काम।
पूरे ना हो काम, मेहनत करना सीखो।
थोड़े में संतोष और खुश रहना सीखो।
जो होता है प्राप्त, उसी में रहकर प्रसन्न।
करते रहें प्रयत्न, उन्हीं का सुन्दर जीवन।


रात दुखदायी जिसकी, सोना नहीं होता।
भला जश्न की रात में, कहाँ कोई सोता।
कहाँ कोई सोता, रात भर मनाता जश्न।
और भी रहें सुखी, इसकी ना करता यत्न।
औरों की सोच हो, दिखाए बिन नाहक ठाट।
चैन भरी नींद में, कट जाये सबकी रात।



योग  विद्या का जग का, गुरु रहा है भारत।
बना अग्रणी सदियों से, रखे स्वयं महारत।
रखे स्वयं महारत, जाना रखना संतुलन।      
सुचारु चलने हेतु, तन, मन, बुद्धि औ जीवन।  
वृद्धि आत्मिक शक्ति में, तन-मन रखे निरोग।
बड़ा निराला यन्त्र, आत्म नियंत्रण का, योग।



प्यार होती है ताकत, नम्रता व त्याग की।
बालक के सामने नत, तात और मात भी।
तात और मात भी, देखने, बच्चों को हँसते।
निस्वार्थ होकर के, सर्वस्व ही अर्पण करते।
दे, बच्चों का प्यार, निश्छल, मृदुल व्यवहार।
प्रेमी करते त्याग, पा जाते परस्पर प्यार।


नासमझ हैं, कहते जो, शेर, वन का राजा।
रक्षा तो करता नहीं, लूट प्रजा को खाता।
लूट प्रजा को खाता, वह है जंगल का डाकू।
चाहे कितना निडर, या बहुत बड़ा लड़ाकू।
अंत संग न कोई, देती उसे भूख पटक।
अति कष्ट में भूखा, तड़प कर मरे नासमझ।


पोता करता गोद में, दादा से तकरार।
ऐनक खींचे बार बार, पढ़न न दे अखबार।
पढ़न ने दे अखबार, चश्मे पे हाथ पटकता।
एक पकड़ लेते तो, दूजे मारे झपट्टा।
गोदी में बैठकर, बुढ़ापे में बचपन बोता।
अति सुख की अनुभूति, करा देता है पोता।

(नोट : पोता में पोती भी सम्मिलित)



जन धन को लूटने के, होते कई प्रकार।
कोई लूट के घर भरे, कोई ख्याति प्रचार।
कोई ख्याति प्रचार, रिझाय मीडिया ऐसे।
विज्ञापन के द्वार, पहुँचाय उनको पैसे।
होते रूप हजार, करन के भ्रष्ट आचरण।
कुछ की स्वार्थ सिद्धि, साधन वंचित आम जन।


अहम और वहम दोनों, रिश्ते देते मार।
घनिष्ठ संबंधों का भी, तोड़ के रखें तार।
तोड़ के रखें तार, मित्र न आते फिर पास।
विश्वास में करे, इन दोनों का विष, वास।
मन के भीतर बैठ, डसता रहता डंक, वहम।
विवेक के सूर्य को, ढक लेता बादल अहम।


नारद बन कर मीडिया, करे इधर की उधर।
तनिक किये बिन चिंता, बात जा रही किधर।
बात जा रही किधर, बजे किसी का नगाड़ा।
अपनी रोटी सिके, और हो जाय कबाड़ा।
तिल का कर दे ताड, भिड़ाती किये विशारद।
चटपटा परोसती, न्यूज़, मिडिया बन नारद।


बाबा कई बना रखे, धर्म को भी व्यापार।
चलायं बना के संगठन, ठग्गी का बाजार।
ठग्गी का बाजार, खेलें आस्था से मन की।
मुंह में लेकर राम, टटोलें झोली जन की।
धरम की आड़ चले, विलासी अद्भुत ढाबा।
राजनीति की डोर, पकड़ उड़ते हैं बाबा।

राजनीतिक गंठजोड़, बड़े कर देते बाबा।
  
                  - एस० डी० तिवारी


पुत्र मोह के फेर ने, जकड़ लिया है राष्ट्र।
पुत्र स्थापित करने में,  हो जांय धृतराष्ट्र।
हो जायँ धृतराष्ट्र, नेता, अभिनेता अब के।
दिला सकें सिंहासन, चाहे योग्य ना उसके।
वरिष्ठ नेता का तो, होता बस एक ही सूत्र।
कैसे भी सत्ता में, स्थापित कर दें वे पुत्र।


दाल व सब्जी के भाव, चढ़े चले आकाश।
आम आदमी है विवश, करने को उपवास।
करने को उपवास, कीमतें हुईं यूरोपी।
आय अब भी देशी, खाय क्या नमक सु रोटी?
मंहगाई की मार, होती जनता बेहाल।
कैसे पाले बच्चे, खाये सब्जी और दाल?


सीमा पे घुसपैठ हो, दिखलाते हम धीर
पार्किंग के सवाल पर,  हो जाते हैं वीर।
हो जाते हैं वीर, तनिक नहीं रखते धैर्य
यहीं बंधेगी भैंस, जिद्द में कर लेते वैर।  
गोली तक चल जाय, शिष्टता का ना जिम्मा
लाँघ जाते स्वार्थ में, दुर्व्यवहार की सीमा।

                   - एस० डी० तिवारी 



दहेज के बाजार में, रिश्तों का व्यापार।
लोग खरीदते दूल्हे, ले कर कर्ज उधार।
लेकर कर्ज उधार, करें दिखावे में खर्च।
दूल्हे मांगें गाड़ी, ससुरे पर चाहे कर्ज।
दूल्हा पाये नींद, जब दुल्हन लाये सेज।
एक का मने उत्सव, दूजे का  दर्द दहेज।


धन की होती तीन गति, दान, उपभोग, नाश।
सदुपयोग ना करे तो, होता सत्यानाश।
होता सत्यानाश, करो न धन एकत्रित।
मधुमक्खियों का मधु, करता चोर आमंत्रित।
उपभोग से बचाय, करता है दान जो जन।
पाता पुण्य, प्रताप, सत्कर्म में लगता धन।



मरना ही यदि है तुझे, छत पर तू क्यों नार।
बना रखी कानून है, तेरे लिए सरकार।
तेरे लिए सरकार, बैठी महिला आयोग।
दहेज़ के केस में, फंसेंगे घर के लोग।
जा सड़क पर भेड़िये, तू सामने बस पड़ना।
कूदने की न सोच, अगर सचमुच है मरना। 

                       

      एस० डी० तिवारी 




मिलता नहीं है जग में, बगैर गुरु के ज्ञान।
जिंदगी में बढ़ने का, गुरु प्रमुख सोपान।
गुरु प्रमुख सोपान, गुरु मस्तिष्क का दर्पण।
जीवन को गति मिले, आकर गुरु की ही शरण।
गुरु के सींचे बिना, ज्ञान पुष्प नहीं खिलता।
गुरु की सेवा बिना, धर्म कर्म नहीं मिलता।



नरसिंह भगवान् का तन, बना मनुष्य व शेर।
आदम का भी हो गया मशीन मिश्रित देह।
मशीन मिश्रित देह, लिये इस्पात का हाड़।
नकली पुतली लिये,  निहारतीं ऑंखें फ़ाड़।
दिल धड़के प्लास्टिक का, मशीन कहें या नर।
आधा नर आधा यन्त्र, भल नाम रोबोनर। 




शिक्षा है संविधान में, सबका ही अधिकार।
कुछ लोगों के हाथ कापर शिक्षा व्यापार।
पर शिक्षा व्यापार, निर्धन कैसे पढ़ पाए।
हरेक कहाँ समान, पढ़ने का अवसर पाए।
गरीब के आता हाथ, हो जैसे कि भिक्षा। 
सरकार का पर जिम्मा, सबको मुफ्त में शिक्षा।

खोल दिए हैं शिक्षा की बड़ी बड़ी दुकान। 
आम आदमी का धरा, रह जाता अरमान। 
रह जाता अरमान, भला कैसे पढ़ पाता। 
नहीं पाकर अवसर, सम, न आगे बढ़ पाता। 
ऊपर से ट्यूशन का, होता है भारी बोझ।  
मिले सबको सम अवसर, तक़दीर सके खोल।  
 
  
मेडिकल जाँच
 
मरीज से पहले आय, फिर पूछें बीमारी। 
जेब कतरने की शुरू, तुरत ही तैयारी। 
तुरत ही तैयारी, कराओ महँगी जाँच।
पैसे के लिए अस्पताल नचाते नाच।
थोड़ी दवाई में ही, हो जाता है ठीक।
अपनी जेब को खाली, होते देख मरीज।

 

Friday, 15 May 2015

Shringar


ओ रब मेरे! मेनू, लाल चुनर पा के आणा।

मेनू ना भावे, चीटियाँ चुंदरी
नाइयों दूधिया लिवास
माथे ते टीका वे, मांग विच सिन्दूर पाणा।
ओ रब ...


चोटी मैं गूंथूं वे, गजरा सजावां नी
केशां नु लेवांगी संवार
लागे नजर ना कोई, अक्खां वीच काजल पाणा।
ओ रब ...

नाक ते नथनी वे, कानां वीच झुमका
गले वीच डालांगी हार
हाथों ते हीना वे, कलाई वीच चूड़ियाँ पाणा।
ओ रब ...

बाहां सजावां नी, पहणां  भुजदंड असां
उंगल विच मुदरी डाल
पांव सजावण लई, मैं बिछुआ ते पायल पाणा।
ओ रब ...

कमर कस लेवांगी, बांधे कमरबंद असि
इतर करूँ छिड़काव
तेरी दुलारी मैं वां, मेनू तू गले ते लगाणा।
ओ रब मेरे ...

जेड़ा कुछ दित्ता तू, तेनु मैं सौंप देणा
करके नी सोलह श्रृंगार
तेरे चरणों में रब्बा, आके मेनू सो जाणा।
ओ रब मेरे ....



*****************

साजण, लंदन खटन  गया सी
खट के ले आया  मोबाइल,
ननदी छुप छुप गल्लां करे, मारे नवी स्टाइल;
दसो नी, मैं की करां? हाय मैं की करां ?

साजण, लंदन खटन  गया सी
खट के ले आया कंप्यूटर,
चलावण मेनू कोई ना आवे, देवरा लग्या ट्यूटर;
दसो नी, मैं की करां ?

साजण, लंदन खटन  गया सी
खट के ले आया चॉकलेट,
जेबां विच भर लै बच्चे, खांदे भर भर पेट;
दसो नी, मैं की करां ?

साजण, लंदन खटन  गया सी
खट के ले आया हार,
पहणां वी तो कद मैं पहणां? इत्थे झपटमार;
दसो नी, मैं की करां ?

साजन लंदन खटन  गया सी
खट के ले आया इत्तर,
एक एक शीशी करके, लै गए सारे मित्तर:
दसो नी, मैं की करां ?


प्यार वे बह ता पानी
पिछली बरसात की निसानी

Wednesday, 13 May 2015

Sapane ko marate dekha

मैंने सपने को मरते देखा,
माटी में कहीं बिखरते देखा।

सपने लेकर वह जन्म लिया
या जनमते ही सपने जागे,
देश दुनिया में कहीं भी जाये
सदैव ही सबसे आगे भागे।
उसको निर्धनता का अभिशाप
औरों का भाग्य सुघरते देखा।

खेतों में काम, कर के घर आता
जाके कहीं तब, स्कूल वो जाता;
मात पिता के साथ में मिल कर
घर के काम में हाथ बंटाता।
खूंटे से कभी जब खुल गया तो
बछड़े को पछाड़ धरते देखा।

स्कूल में तो प्रथम आ जाता
आगे की राह कौन दिखाता !
बाह्य दुनिया का पता नहीं था
स्कूल  से आगे कहाँ वो जाता !
प्रशिक्षण को पैसा पास नहीं
धन का अभाव अखरते देखा।

लगे नजर ना उसे किसी की
बांधा था माँ ने काला धागा;
लाल, श्रृंग को छूकर आये
देवी, देवों से मन्नत माँगा।
उड़ने को मिला आकाश नहीं
पंखों को पुनः बटुरते देखा।

सोचा, हो जाये पुलिस में भर्ती
संभवतः वहीँ भाग्य भी जागे ;
दौड़ लेगा वह चोरों के पाछे
दौड़ सकता जो देश के आगे।
प्रतिभा बड़ी पर कद छोटा था
खुलने से द्वार नकरते देखा।

माटी का जन्मा रहा माटी में
प्रतिभा भी हो गयी मटियामेट;
माटी को कर दिया जीवन अर्पित
सपनों को रखा माटी में समेट।
गेहूं बाली, सरसों फूलों पर
मकरंद संग विचरते देखा।

उर भरा सदा उत्साह, लगन
और विजय का पावक होता;
सपनों को हवा मिल जाती तो
वह आज देश का धावक होता।
हताश, निराशा हाथ में लेकर
आस को ताक पर धरते देखा।

एस ० डी ० तिवारी 

Friday, 8 May 2015

Shav ka panchanama

न तो वह नेता था 
न फिल्मों का  नायक,
न कोई बड़ा खिलाडी 
न ही कोई गायक। 
न तो साथ भीड़ है 
न ही बजता बैंड बाजा,
न महँगी चादर से ढका
न ही फूलों से साजा। 
बस थोड़े से लोग थे  
जो उसे लेकर जा रहे,
न तो कोई रो रहा
ना ही आंसू  बहा रहे।   
पंचनामा करवा रही
पुलिस गवाह ढूंढ रही थी,
तुम इसे जानते हो?
एक एक से पूछ रही थी। 
स्ट्रेचर पर लिटा कर 
एक कोने में कर दिया था, 
पंचनामा का फॉर्म भी
पूरी तरह से भर लिया था। 
सुदामा तभी पंहुचा था 
लेने को उसका हाल, 
रुग्णावस्था में उसी ने 
पहुँचाया सरकारी अस्पताल।  
लावारिस बता कर 
यूँ पुलिस संस्कार कर देती, 
लोक हित में कार्य का
एक और खाना भर लेती। 
पर सुदामा उसे ले गया 
उसके झुग्गी, जहाँ रह रहा था, 
मै भी इसी धरा का पुत्र हूँ 
सबसे सदा से कह रहा था। 
पहले जो लोग मांगने पर
बहाना करके टाल देते ,
इस दिन बिन मांगे ही कुछ  
उसके नाम पर डाल देते। 
उसकी भी एक जिंदगी थी 
जिंदगी की कोई कहानी थी,
जिसे वह स्वयं जानता था 
औरों की नहीं जुबानी थी। 
क्योंकि वह तो था 
कोई आम आदमी भी नहीं, 
जिसकी खोज खबर लेता 
कोई और आदमी कहीं। 
धरा पुत्र होकर भी धरतीं पर 
उसका अपना बस रब था,
अपनेपन के लिए सदा तृषित  
एक भिखारी का शव था। 

Haiku May 15


पीने की लत
हो जायेंगे लडके
लड़कियों से

हैप्पी आवर्स
कर न दें उदास
पूरी जिंदगी

उठाया था जो
बीड़ी का वह टूक
पिता ने फेंका

पी गयी सब
तन मन व धन
घूँटों में भर

बोतल भर
खरीद कर लाया
कलह घर

पूरी बोतल
अकेले ही समेटा
नाली में लेटा

बाप ने डाला
गुल्लक पर डाका
नशे की लत

बेटे ने डाला
गुल्लक पर ताला
बाप नसेड़ी

समझता था
वह उसे पी रहा
वो पीती रही

पूरी बोतल
अकेले ही गटका
पाया झटका

एस० डी० तिवारी

मन की हो तो
पत्थर भगवान
ना तो पाषाण

खड़ी हो जाती
अतीत का दर्पण
बिटिया बन

पहनाती थी
माँ स्वेटर बुन के
अपने हाथों

खाने का स्वाद
लगा हो माँ का हाथ
दिव्य हो जाता

क्रोध में माँ ने
जड़ दिया थप्पड़
स्वयं ही रोई

माँ बन होती
जग पालनहारी
देवी है नारी

पुत्र को चोट
दर्द से कराहता
माँ का ह्रदय

रोता जो लाल
आंसुओं में भीगता
माँ का आँचल

काशी है द्वार
बहता गंगा जल
मोक्ष की धार

एक ही भाषा
रोने मुस्कराने की
जाने ये जग

छप्पर तले
खिसकती खटिया
भादों कि रात

हाथ में आई
मुह को पहुंचाई
शिशु ने वस्तु

बंशी बजाई
गोपियाँ दौड़ी आईं
श्याम ने शाम

बूंदों के तीर
छोड़ के मुस्कराती
इन्द्रधनुष

रुकी बारिश
जड़े पड़े पत्तों पे
मोती के दाने

निर्वस्त्र हुए वृक्ष :: पतझड़ का कृत्य

नए वस्त्र डाले :: वृक्ष बसंत मनाते

सूरज आया :: चाँद शरमाया

तालाब खेत
मूसलाधार वर्षा
हो गए एक

सूखा तालाब
तले पड़ी तरेड़
गर्मी की मार

भूख मिटाती
खा खा कर मन की
यादों के फल

मैंने भी लिखा
प्यार में उसे ख़त
संभाली नहीं


फाड़ कर के
बहुत पछताई
पहला ख़त

सारे ही ख़त
आंसू नहीं बहाते
फाडे भी जाते

पढ़ा जो भाई
गाल पर लगाई
उसका ख़त

धुलते रहे
वह पढ़ती रही
ख़त के शब्द

घिसे वो शब्द
आज भी पढ़ती है
पहला ख़त

नन्हा सा ख़त
पिरो गया सूत्र में
दो का जीवन

खोल दी पट्टी
दीवार के छिद्र में
खोंसी वो चिट्ठी

उस्तरा आया
बन्दर के हाथों में
काट दी दाढ़ी

पूरी पढाई
लिखने लगा ख़त / करने लगा नशा
हुई चौपट 


घड़ा बुलाता
बजा कर घुँघरू
बेल का रस

पछुआ आई
बदन को जलाई
लू बनकर

पागल हो के
पकने लगे आम
गर्मी की मार

गर्मी में गांव
बिछ जाती खटिया
पेड़ की छाँव

ना ले पाओगे
एक सांस भी ज्यादा
किसी की छीन

यह जीवन
निर्धन को है बोझ
धनी का खेल

मिली हैं गिन
धुआं न ले छीन
साँसे अपनी

गली में आया
आइसक्रीम वाला
डूबी स्वाद में

लिए कटोरी
खा रही पानी पूरी
जीभ चटोरी

खूब भकोसा
जलेबी व समोसा
आये अतिथि



खिलता फूल
प्रेम ना होता भूल
जीने का मूल

धरती छोड़
सर्वोपरि की होड़
आँखों को मींचे

नींव की ईंट
मन चाही नियुक्ति
भ्रष्टाचार की

चिट्ठी के भाग्य
कहाँ से कहाँ लाई
गंगा नहाईं

भेजी वो पाती
उत्तर कैसे पाती
फाड़ दी गयी

धरे धरनी
उच्च ताप की पीड़ा
दवा दो इन्द्र


सूर्य का कोप
अब मना पाएंगे
इन्द्र देव ही


सूर्य ने छोड़ा
बिन लगाम घोडा
पकड़ो इन्द्र

चूल्हे की आंच
बढ़ा दिया सूर्य ने
भुन रही भू

मन की हो तो
पत्थर को मानता
इंसान भगवान
मन की ना हो
भगवान हो जाता
फिर वही पाषाण



Friday, 1 May 2015

Shaharon me bhediye

शहरों में दरिंदे

कैसा समय आ गया, महिलाओं को
रहना पड़ रहा है पहरों में।
बेटी, बहनों की जिंदगी तो हो गयी है
आज खौफ की ही लहरों में।
उनके चीख की आवाज भी अब तो
कहीं गुम जाती है बहरों में।
देख के अंदाजा लगाना मुश्किल होता
कौन छुपा हुआ है चेहरों में।
आजकल, जाने कहाँ से हैवान, दरिंदे
घुस चले आये हैं शहरों में।

- एस० डी० तिवारी