एक नेता का शिक़स्तनामा
बैठा हूँ अकेला घर पर, छोड़े बहार मैं ।
लगता नहीं जी मेरा इस, उजड़े दयार में।
उम्मीद थी लग जाएगी, कश्ती कगार पे;
तकदीर ने हमें धकेला, इस बार हार में।
उमरे दराज से मांग के, लाये पांच वर्ष;
दो ऐश में कटे, तीन आला दरबार में।
दिन सत्ता के हुए ख़त्म, अब शाम हो गयी;
फैला के पांव सोयेंगे, अपने परिवार में।
कमा लिया अकूत धन, अब कुछ गम नहीं;
बन पाया इतना बना के, जागीरदार मैं।
पहले ना महसूस किया, हालात तंगी के,
गुजर गए दिन ठीक ठाक, लोगों के प्यार में।
कर लिया बसर ऐश में ही, दिन सही कट गए;
पटक दिया अबकी बार तो, जनता की मार ने।
कितना है बदनसीब देव, ये हसरत रह गयी;
भर लेता सातवीं पुश्त का, चुनता, इस बार मैं।
- एस० डी० तिवारी
बैठा हूँ अकेला घर पर, छोड़े बहार मैं ।
लगता नहीं जी मेरा इस, उजड़े दयार में।
उम्मीद थी लग जाएगी, कश्ती कगार पे;
तकदीर ने हमें धकेला, इस बार हार में।
उमरे दराज से मांग के, लाये पांच वर्ष;
दो ऐश में कटे, तीन आला दरबार में।
दिन सत्ता के हुए ख़त्म, अब शाम हो गयी;
फैला के पांव सोयेंगे, अपने परिवार में।
कमा लिया अकूत धन, अब कुछ गम नहीं;
बन पाया इतना बना के, जागीरदार मैं।
पहले ना महसूस किया, हालात तंगी के,
गुजर गए दिन ठीक ठाक, लोगों के प्यार में।
कर लिया बसर ऐश में ही, दिन सही कट गए;
पटक दिया अबकी बार तो, जनता की मार ने।
कितना है बदनसीब देव, ये हसरत रह गयी;
भर लेता सातवीं पुश्त का, चुनता, इस बार मैं।
- एस० डी० तिवारी
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