जिंदगी बदल गयी है
समझ रही बिंदास हो गयी तू। तन मन खुद आसक्त कर लिया, कैसे कहूं कि खास हो गयी तू।
आलस, रोग से दूर थी रहती।
समझ रही बिंदास हो गयी तू। तन मन खुद आसक्त कर रही, वातावरण विषाक्त कर रही। खास
भौतिकतावाद में लिपट गई तू।
बचपन तक को मसल गयी है। जिंदगी ...
आलस, रोग से दूर थी रहती।
सच्चाई से पड़ी है भटकी।
आपाधापी में रह गयी अटकी?
सुख-चैन खुद ही निगल गयी है। जिंदगी ...
चारों ओर से कांटे फंसाकर, विंधी
लगता है, हाथ से निकल गयी है।
जिंदगी तू कितना बदल गयी है।
मशीनों की अब दास हो गयी तू।
आडम्बर में खुद को छल गयी है। जिंदगी ...
भौतिकतावाद में लिपट गई तू।
बस अपने तक सिमट गयी तू।
आपाधापी के चक्कर में,
आचार व्यवहार से हट गयी तू।
बचपन तक को मसल गयी है। जिंदगी ...
गुरु, श्रेष्ठ जनों से ज्ञान तू पाती,
सच्चाई को बस गले लगाती।
अति सहज सरल रह कर भी तू,
आनंद का अनुभूति कराती।
नैतिकता तेरी गल गयी है। जिंदगी ...
कहकहों में समय बिताती।
भाई चारा भी खूब निभाती।
स्वछन्द स्वाभाविक गति थी तेरी
अब तंगी संकीर्णता तुझे सताती।
संतोष की मोम पिघल गयी है। जिंदगी ...
प्रकृति प्रेम में चूर तू रहती।
बनावट और दिखावे से हट के। सादगी में मगरूर तू रहती।
सुख-चैन खुद ही निगल गयी है। जिंदगी ...
सुख-चैन खुद ही निगल गयी है। जिंदगी ...
दिखावे में तू नंगा हो जाती।
चमक देख पतंगा हो जाती।
लालसा के तनाव को दूर बहाकर
क्यों नहीं तू गंगा हो जाती।
विलासिता तुझमें पल गयी है। जिंदगी ...
काँटों से तू बिंधी जा रही।
फिर भी आँखें मिंची जा रही।
सुविधा की गाड़ी पर चढ़ा कर,
जिंदगी अब तू खींची जा रही,
किस दलदल में फिसल गयी है! जिंदगी ….
शीघ्र पहुँचने की कहाँ, होड़ में!
पड़ी हुई है तू अजब दौड़ में।
पथ के आनंद से होगी वंचित
जल्दी जा अंतिम छोर में।
लगता भूल तेरी मंजिल गयी है। जिंदगी …
सांचे में ढल गयी है।
एस डी तिवारी
लगता है, हाथ से निकल गयी है।
जिंदगी तू कितना बदल गयी है।
मशीनों की अब दास हो गयी तू।
आडम्बर में खुद को छल गयी है। जिंदगी ...
टी. वी. फोन तक सिमट गयी तू।
निर्मूल की बातों के चक्कर में,
रहती बंधु, मित्रों के टक्कर में। घट
गुरु, श्रेष्ठ जनों से ज्ञान तू पाती,
सहज खा पीकर समय बिताती।
सादगी में लगती कितनी सुन्दर,
क्यों ढो रही सिर पे आडम्बर?
क्यों ढो रही सिर पे आडम्बर?
फैशन के लिए मचल गयी है। जिंदगी ...
आलस, रोग से दूर थी रहती।
प्रकृति प्रेम में चूर तू रहती।
आपाधापी में रह गयी अटकी?
सुख-चैन खुद ही निगल गयी है। जिंदगी ...
चारों ओर से कांटे फंसाकर, विंधी
सुविधा की गाड़ी पर चढ़ा कर,
जिंदगी अब तू खींची जा रही,
फिर भी आँखें मिंची जा रही।
किस दलदल में फिसल गयी है! जिंदगी ….
स्वभाविक गति चलती जा रही थी।
शान से आगे बढ़ती जा रही थी।
पड़ गयी तू जाने किस दौड़ में!
शीघ्र पहुँचने की कहाँ, होड़ में!
लगता भूल तेरी मंजिल गयी है। जिंदगी …
किसी एक वस्तु के लिए कई छोड़ देती है
जहाँ चमक देखती दिशा मोड़ देती है
निर्जीव वस्तुओं की खातिर
जीवो से संबंधों को तोड़ देती है
विलासिता के सांचे में ढल गयी है.
पिघल गयी है जल पल फल
नैतिकता तेरी गल गयी है
एस डी तिवारी
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