हिंदी का वैश्वीकरण
आज जहाँ कई राष्ट्रों के छात्र हिंदी पढ़ने भारत आते हैं वहीँ कई देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन भी किया जाता है। बहुत से भारतियों के विदेशों में बस जाने के कारण लगभग दो दर्जन से भी अधिक देशों में हिंदी का प्रयोग होता है। मैं कई देशों में गया हूँ और देखा है कि हमारे भारतीय, विदेशों में रहकर भी परस्पर बोलचाल में हिंदी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। यही नहीं, अपने बच्चों को भी वे हिंदी सिखाते हैं, इसके ठीक उलट, अपने देश में हम बच्चों को पढ़ने के लिए अंग्रेजी स्कूलों में भेजते हैं। इसका प्रमुख कारण है रोजगार और प्रतिष्ठा। भारत जब स्वतंत्र हुआ तो इस बात पर या तो ध्यान नहीं दिया गया कि राष्ट्र की कोई राष्ट्रभाषा हो या फिर सरकार को किन्हीं ताकतों के आगे झुकना पड़ा।
मैंने देखा विदेशों में भी हिंदी की पत्र पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय हैं और रेडियो, टेलीविज़न पर हिंदी कार्यक्रम होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने घर को भी सुदृढ़ करें और हिंदी के विकास के लिए विदेशों में प्रसार के लिए भी सतत कार्यरत रहें। यहाँ पर मैं अपने देश और विदेश दोनों में ही हिंदी की दशा और विकास के बारे में बात करना चाहूंगा।
हमें निम्न बिंदुओं पर अभी और काम करना होगा :
भाषा की निति
भाषा की राष्ट्रीय निति होनी चाहिए जिसकी जिम्मेदारी सरकार की है। वैसे भारत में राष्ट्रीय निति है। सन १९६३ में ही राजभाषा अधिनियम बन गया था और सन १९७५ में गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग की भी स्थापना हो गयी, इसके बाद भी अंग्रेजी स्कूलों का ही विकास हुआ और उनका बोलबाला रहा। सरकार के इतने प्रयास के पश्चात् भी हिंदी इतनी उपेक्षित क्यों है? इसका कारण ही नहीं अपितु निदान भी ढूंढना है। किसी भी भाषा के वैश्वीकरण का सपना तो तभी साकार हो सकता है जब वह पहले राष्ट्रभाषा हो।
हिंदी को सरकार ने राजभाषा तो घोषित कर रखा है मगर उसे अंग्रेजी की बैसाखी लेकर ही खड़ा होना है। इसका राष्ट्रभाषा हो पाना अभी दूर की कौड़ी लगती है।
भाषा को थोपा नहीं जा सकता, उसे लोकप्रिय बनाना होता है। हिंदी का वैश्वीकरण भी लोकप्रियता के ही आधार पर ही हो सकता है। हिंदी की बनी फिल्में व हिंदी के गाने कई देशों में लोकप्रिय हैं, जिसके कारण वहां के लोग हिंदी सीखने का प्रयत्न करते हैं। हिंदी की महत्ता और उसमें समाहित रस, ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति के विषय में, संसार को बताना होगा। भाषा को लोकप्रिय बनाने के लिए गैरसरकारी संस्थाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। मगर कोई भी संस्था धन के बिना कार्य नहीं कर सकती, अतः सरकार का योगदान आवश्यक है। भाषा के विकास और पोषण में सरकार की भूमिका सर्वोपरि होती है और इस दिशा में कार्य भी हो रहा है, फिर भी यह देखने की आवश्यकता है कि सरकारी योजनाओं का बंदरबांट नहीं लगे और सभी प्रयास सही दिशा में किये जायँ।
जहाँ भाषा परस्पर संचार का एक माध्यम है वहीं इसका सीधा सम्बन्ध विकास, रोजगार और आर्थिक कारणों से जुड़ा है। भारत में अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों को रोजगार के अवसर सरलता से मिल जाते हैं, यही कारण है भारत में अंग्रेजी का विकास अधिक गति से हो रहा है और हिंदी साहित्य और लोक संस्कृति तक ही सिमट कर रह गयी है। स्वतंत्रता के बाद भी हिंदी के धीमे विकास में किसी षड्यंत्र का भी आभास होता है। देश के स्वतंत्र होने से लेकर अब तक अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों का बोल बाला रहा है। जहाँ अंग्रेजी माध्यम के नाम पर उन विद्यालयों और शिक्षकों ने खूब धन बटोरा, वहीं अंग्रेजी के विज्ञ, देश की सत्ता पर अपना एकाधिकार बनाये रखे। अंग्रेजी लिखने बोलने वालों को गौरव की दृष्टि से देखा जाता रहा। राजनीतिज्ञ भी अपनी प्रभुता बनाये रखने के लिए देश को क्षेत्रीय भाषाओँ में बांटे रखा। यह देश की विडम्बना ही है कि हिंदी राजभाषा होने के बाद भी दूसरे दर्जे की भाषा बनी रही और हिंदी-भाषी दूसरे दर्जे का नागरिक।
सांस्कृतिक कार्यक्रम
साहित्य के अतिरिक्त, सांस्कृतिक कार्यक्रम भाषा के प्रचार प्रसार के लिए सबसे सशक्त माध्यम है। भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम अगर विदेशों में प्रस्तुत किये जाएँ तो विदेशियों में हमारे और हमारी भाषा के विषय में और जानने की उत्सुकता बढ़ेगी। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त हिंदी के ग्रंथों के प्रचार से भी प्रसार में मदद मिलेगी। हमारे साहित्यिक कार्यक्रमों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी सम्मिलित करने से और अच्छे परिणाम मिल सकेंगे।
भाषा एक अन्वेषण का विषय है
आज जिस गति से विज्ञान प्रगति पर है और भाषा की दृष्टि से विज्ञान की जननी अंग्रेजी होने के कारण, आज की तकनिकी भाषा में, हिंदी कई स्थान पर पंगु बनकर रह जाती है। भाषा एक अन्वेषण का विषय है तथा समय, विकास और परिस्थितियों के अनुरूप इसमें विकास होते रहना चाहिए। इसके लिए भाषाविदों व सरकार में समुचित समन्वय की आवश्यकता है। मैंने अनुभव किया है हिंदी के विकास और हिंदी शब्दावली के मानकीकरण के लिए अभी भी पर्याप्त कार्य की आवश्यकता है। ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश में हिंदी का कोई शब्द सम्मिलित किया जाता है तो एक समाचार बन जाता है और मीडिया उसे कई दिनों तक गाता है। हमें भी ऐसी निति बनानी चाहिए कि आवश्यकता के अनुसार, हिंदी भी अन्य भाषाओँ के शब्द आत्मसात कर सके। इसके अतिरिक्त हिंदी का एक सर्वमान्य शब्दकोष भी हो जो सरलता से सबको उपलब्ध हो।
विज्ञान की भाषा
हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा तो है परन्तु विज्ञानं की सशक्त भाषा नहीं बन सकी। इसका प्रमुख कारण यही रहा कि विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ाया जाता रहा। वैसे इस बात में कोई शंका नहीं कि अवैज्ञानिक भाषा होते भी विज्ञान का सर्वाधिक विकास अंग्रेजी भाषा में ही हुआ। भारत का आध्यात्मिक रूप से सशक्त होने के कारण हिंदी अध्यात्म के लिए अधिक उपयुक्त रही। हिंदी में विज्ञान पढ़ाएं भी तो अनेक सूत्र विकसित करने में भी में भी बड़ी कठिनाई है, किन्तु इसके उपाय हमारे विद्वानों ढूंढने चाहिए। हिंदी को विज्ञान की, व्यापार की, लोकवार्ता की, साहित्य की व अध्यात्म की एक समग्र भाषा के रूप में सामने लाने की आवश्यकता है।
समन्वय
अंतरष्ट्रीय हिंदी साहित्यिक मंचों का यह भी कर्तव्य बन जाता है कि वे भारत के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए काम करें। और विष्वस्तरीय प्रचार में अन्य देशों के विश्वविद्यालयों और संस्थानो से समन्वय स्थापित करके अपने कार्यक्रम बनायें ताकि इसका वास्तविक प्रभाव दृष्टिगत हो, साथ ही हमारे साहित्यकारों द्वारा साहित्यिक आदान प्रदान कम लागत में किया जा सके। साहित्यकारों के वश की बात कहाँ कि वे अपनी जेब से इतना पैसा लगाकर विश्व स्तर पर हिंदी का प्रसार कर सकें। उन्हें तो साहित्य के लिए दिए गए योगदान का पारितोषिक भी नहीं मिल पाता। इसके लिए सरकार द्वारा मदद का प्रयत्न करना उचित होगा। भारत से एक टीम विदेश आकर यदि अपने में ही सुनते सुनाती रहे तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और हमारा हिंदी का साहित्यकार पर्यटन का एक बाजार बनकर रह जायेगा। हम सब मिलकर भरसक प्रयास करें कि इस यज्ञ में देश विदेश के अन्य संस्थानों को भी सम्मिलित करते हुए काम लागत में देशाटन के साथ हिंदी के प्रचार प्रसार के लक्ष्य को प्राप्त करें। इस कार्यक्रम के सफल आयोजन हेतु आयोजकों को बधाई देता हूँ और अंतराष्ट्रीय साहित्य कला मंच की सतत सफलता की कामना करता हूँ।
- एस. डी. तिवारी
हिंदी गीत
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।हमको प्राणों से प्यारी है।
हिंदी उर कंठ लगाएंगे,
हिंदी का मान बढ़ाएंगे,
हिंदी से है हिंदुस्तान,
विश्व में विजयी बनाएंगे।
सब भाषाओँ पर भारी है।
हमको प्राणों से प्यारी है।
हिन्द जनों की हितैषी है,
शुद्ध, मधुर, पावन उर इसका,
रस, राग में सबसे बेसी है।
अति पूज्यनीय हमारी है।
हमको प्राणों से प्यारी है।
हिंदुस्तान की आन है ये,
भरे अध्यात्मिक ज्ञान है ये,
देवों.और वेदों की वाणी,
जीवन का मंगल गान है ये।
माँ भारती की दुलारी है।
हमको प्राणों से प्यारी है।
एस. डी. तिवारी
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हिंदी की वैश्विक दशा
आज जहाँ कई राष्ट्रों के छात्र हिंदी पढ़ने भारत आते हैं वहीं कई देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन भी किया जाता है। बहुत से भारतियों के विदेशों में बस जाने के कारण लगभग दो दर्जन से भी अधिक देशों में हिंदी का प्रयोग होता है। हमारे भारतीय विदेशों में रहकर भी परस्पर बोलचाल में हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं और यही नहीं अपने बच्चों को हिंदी सिखाते हैं, इसके ठीक उलट, अपने देश में हम बच्चों को पढ़ने के लिए अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिलाते हैं। मैंने देखा विदेशों में भी हिंदी की पत्र पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय हैं और रेडियो, टेलीविज़न पर हिंदी कार्यक्रम होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने घर को भी सुदृढ़ करें और हिंदी के विकास के लिए विदेशों में प्रसार के लिए भी सतत कार्यरत रहें। यहाँ पर मैं अपने देश और विदेश दोनों में ही हिंदी की दशा और विकास के बारे में बात करना चाहूंगा।
घर में हिंदी
भारत में सरकार ने हिंदी को राजभाषा घोषित तो अवश्य कर रखा है किन्तु सभी सरकारी काम अंग्रेजी में ही किये जाते हैं। हिंदी अपने ही घर में उपनिवेश बनी हुई है और मात्र साहित्यिक और अलंकरण की भाषा बनकर रह गयी है। इसकी मान मर्यादा बस सितम्बर के एक पखवाड़े तक सिमित है। हिंदी का वर्ष में बस एक दिन ही १४ सितम्बर को महत्व रहता है। कुछ लोग हिंदी दिवस मनाने की आलोचना करते हैं क्योंकि इससे यह लगता है कि हिंदी वर्ष में बस एक दिन की भाषा बन कर रह गयी है। परन्तु मैं इसे इस प्रकार कहना चाहता हूँ कि जिस प्रकार हम अपने परिजनों का जन्मदिन मनाते हैं किन्तु वर्ष की शेष अवधि के लिए भी वे उपेक्षित नहीं रहते, उसी प्रकार हमें यह प्रयास करना है कि यह एक दिन की नहीं अपितु प्रतिदिन की भाषा बने और भारतवर्ष की राष्ट्र-भाषा होने के साथ पूरे विश्व में लोकप्रिय हो । देश में हिंदी की दशा, मैं अपने इन छंदों के द्वारा कहना चाहता हूँ :
अबला, गई एकोर धकेली,
घर में अपने, भई सौतेली,
वो सिंदूर, ये रह गई बिंदी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
घर में अपने, भई सौतेली,
वो सिंदूर, ये रह गई बिंदी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
सौत के साथ समझते शान,
बेचारी का घोर अपमान,
पर प्रेम ने दुर्गति कर दी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
बेचारी का घोर अपमान,
पर प्रेम ने दुर्गति कर दी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
उत्तर दक्षिण में बंट गई,
महिमा खुद के घर में घट गई,
मार दी राजनीति ने गन्दी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
महिमा खुद के घर में घट गई,
मार दी राजनीति ने गन्दी।
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी।
राष्ट्र
खड़ा उसके संग
सारा,
'इसे
बचाओ', रह
गया नारा,
मुंह लटकाये
पड़ी शर्मिंदी।
क्या सखि
सजनी? नहिं सखि
हिंदी। हिंदी साहित्य और लोक संस्कृति तक ही सिमट कर रह गयी। इसमें किसी षड्यंत्र का भी आभास होता है। देश के स्वतंत्र होने से लेकर अब तक अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों का बोल बाला रहा है। जहाँ अंग्रेजी माध्यम के नाम पर उन विद्यालयों और शिक्षकों ने खूब धन बटोरा, वहीँ अंग्रेजी के विज्ञ, देश की सत्ता पर अपना एकाधिकार बनाये रखे। अंग्रेजी लिखने बोलने वालों को गौरव की दृष्टि से देखा जाता रहा। राजनीतिज्ञ भी अपनी प्रभुता बनाये रखने के लिए देश को क्षेत्रीय भाषाओँ में बांटे रखा। यह देश विडम्बना ही है कि हिंदी राजभाषा होने के बाद भी दूसरे दर्जे की भाषा बनी रही और हिंदी-भाषी दूसरे दर्जे का नागरिक।
हिंदी के प्रति उदासीनता
हमारे देश के लगभग सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी अंग्रेजी नहीं जानती परन्तु उसे इसका बोझ ढोना पड़ता है। हिंदी पढ़ने लिखने के कारण आधी जनता अपने मूल संवैधानिक अधिकारों से वंचित रह जाती है क्योंकि वह भारत के सरकारी सेवाओं के लिए योग्य ही नहीं है। मैंने विद्वानों को हिंदी अपनाने के लिए भाषण देते तो अवश्य सुना है मगर उन्हें भी अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है। किसी भी राष्ट्र की एक भाषा होना राष्ट्र की अखंडता व सम्प्रभुता के लिए आवश्यक है। देश जब स्वतंत्र हुआ तो अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी में लिखे कानून ज्यों के त्यों चलते रहे, यहाँ तक कि देश का संविधान भी अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों द्वारा अंग्रेजी में ही लिखा गया। देश में अंग्रेजी के बोलबाला होने के अंग्रेजी जानने वाले लोग ही शासन चलाते रहे और सत्ता पर अधिकार जमाये रखे। क्योंकि राष्ट्र की सभी प्रशासकीय परीक्षाओं का माध्यम अंग्रेजी बनी रही। संसद में अभी तक सभी कानून अंग्रेजी में पास किये जाते हैं। सरकारी विभागों के साथ उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायलय के सभी कार्य आज भी अंग्रेजी में ही होते हैं।
यही कारण है कि हिंदी अध्यात्म और पुराणों की एक सशक्त भाषा होने के बाद भी विज्ञान, तकनिकी, न्याय व प्रशासनिक क्षेत्रों की निर्बल भाषा बनी रही।
शिक्षा
आरम्भ में तो यह कहा जाता रहा कि विज्ञान व तकनिकी विकास के लिए अंग्रेजी का अध्ययन व अंग्रेजी माध्यम से अध्ययन आवश्यक है पर यह बात निराधार ही थी, क्योंकि चीन, जापान और कोरिया जैसे देश जो अंग्रेजी के पिछलग्गू नहीं थे विज्ञानं और तकनिकी में हमसे कहीं बहुत अधिक विकास किया।
मीडिया
किसी भी भाषा को बचाये रखने और उसके विकास में मीडिया का अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। मीडिया एक ऐसा तंत्र है जो सर्व साधारण से जुड़ी होती है और भाषा सर्व साधारण को जोड़े रखती है। हिंदी की अनेकों पत्र, पत्रिकाएं तथा हिंदी के टेलीविज़न चॅनेल, हिंदी में समाचर प्रसारित करते हैं। ये समाचार और प्रसारण नागरिकों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। टेलीविज़न चैनलों का दायित्व बन जाता है कि वे सही भाषा का प्रयोग करने के साथ हिंदी के प्रचार प्रसार का भी कार्य करते रहें। इससे मीडिया को ही लाभ होगा, हिंदी के प्रसार से हिंदी के पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों में वृद्धि होगी। मैंने देखा है टेलीविज़न के कई चैनलों पर, कार, मोबाइल फ़ोन व अन्य इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों की समीक्षा दिखाते हैं पर अंग्रेजी शब्दावली का ही प्रयोग करते हैं। उनका शब्दावली आयोग से समन्वयन होना चाहिए और उन तकनिकी शब्दों के लिए निर्दिष्ट हिंदी शब्दों का बार बार प्रयोग होना चाहिए। मैंने नए तकनिकी शब्द आने पर प्रचारित प्रसारित भी करते रहें ताकि वह जन जन एक पहुँच जाय। इसके अतिरिक्त ये पत्र और टेलीविज़न चैनल अपने हिंदी कार्यक्रमों का विदेशों में प्रचारित प्रसारित करके अपने व्यापार के साथ हिंदी का भी प्रसार कर सकते हैं।
विदेशों में हिंदी के प्रसार की आवश्यकता
हिंदी के वैश्वीकरण से सबसे बड़ा लाभ व्यापार का होगा। हमारे देश की आधी से अधिक जनता हिंदी भाषी है। विदेशियों से हिंदी में सम्प्रेषण की सुविधा होने से आम आदमी भी आयात निर्यात का काम कर सकता है तथा उसे बिचौलियों के चंगुल से छुटकारा मिल सकता है। हमारे उत्पादक अन्य देशों की भाषा नहीं जानने के कारण बिचौलियों पर निर्भर रहते हैं जो बीच में मोटा लाभ कमाते हैं। हिंदी के वैश्वीकरण से चीन, जापान, रूस, कोरिया आदि देशों से व्यापार करना सरल हो जायेगा। यही नहीं हिंदी के वैश्वीकरण से हमारी संस्कृति और कला के लिए भी वरदान सिद्ध होगा। हमारे कलाकारों की पैठ अन्य देशों तक बनेगी, जो उनके लिए आय के स्रोत बनेंगे। इस बारे में हमारे दूतावास महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
गोपनीयता
विज्ञान और शब्दावली
राष्ट्र की स्वतंत्रता के बाद विज्ञान और तकनिकी विकास के कारण बहुत से नए शब्द आये। उन शब्दों को हिंदी में अपनाने के लिए पहले से काम नहीं किया जाता है और न हि नए उपार्जित शब्दों का प्रचार किया जाता है।
एक ओर तो देखा गया है की हिंदी शब्दावली के लिए एक मंच पर काम नहीं हो रहा, वहीँ दूसरी ओर हमारे हिंदी के विद्वान उन्हें सरल बनाने की बजाय और कठिन बनाने का प्रयत्न करते हैं ताकि उनकी विद्वता को कहीं से कम करके न आंकी जाय। इस प्रकार की कठिनाई से बचने के लिए, हिंदीभाषी, भारतवासी अपनी भाषा में उन अंग्रेजी या उर्दू के शब्दों को अपनी भाषा का ही अंग मानकर प्रयोग करता है। तकनिकी विकास के कारण कितने ही ऐसे शब्द हैं जिनका समरूप हिंदी शब्द नहीं हैं जैसे - टिकट, प्लेटफार्म, स्टेशन, फिल्म, नट, बोल्ट , इंजिन, कंपनी, कार आदि। ऐसे शब्दों को हिंदी का अंग मन जाना चाहिए और हिंदी के शब्दकोष में आधिकारिक तौर से अपना लेना चाहिए।
योग्यता की उपाधियों को देखें एम्. ए. कहना कितना सरल लगता है और वहीँ स्नातकोत्तर बहुत कठिन हो जाता है। वहीँ अंग्रेजी के कई अन्य शब्द हिंदी में हिंदी के अपने शब्दों से अधिक प्रचलित हैं जैसे डॉक्टर, सर्जन, जज, पार्किंग इत्यादि। इसी प्रकार सर्विस को हिंदी में नौकरी कहा जाता है। सेवा शब्द के कई पृथक भाव होने के कारण नौकरी के लिए कम ही प्रयोग किया जाता है। नौकरी शब्द नौकर से बना है जो हीनता का द्योतक लगता है। उर्दू के भी अनेक शब्द हिंदी में अपना स्थान बना चुके हैं अधिवक्ता के स्थान पर, वकील और समाचार पत्र को अख़बार बोलना अधिक सरल लगता है, साथ ही ऐसे शब्द हिंदी में आत्मसात हो चुके हैं। ऐसे शब्दों को हिंदी में आधिकारिक रूप से अपनाना चाहिए ताकि इन शब्दों के प्रयोग में हिंदी के शिक्षार्थियों के लिए संशय न रहे।
तकनिकी शब्दों के गठन के लिए नियुक्त वैज्ञानिक तथा तकनिकी शब्दावली आयोग की साइट खोलने का प्रयत्न करता हूँ तो मंत्रालय तथा आयोग के कार्यकलापों का बखान ही मिलता है, शब्दावली तो खुल ही नहीं पाती।
देश में ऐसा कोई निश्चित मंच होना चाहिए जो हिंदी में आयी समस्यायों का एकरूपता से निराकरण करे। हिंदी के विद्वान अपनी विद्वता को अपने अपने तरीके से ही सामने लाते हैं और कई बार वह सार्वभौमिक नहीं हो पाते। एक सेमीनार में एक विद्वान को मैंने कहते सुना कि उनके लिखे साहित्य में से शोधकर्ता छात्रों ने सात सौ ऐसे शब्दों का शोध किया जो शब्दकोष में उपलब्ध नहीं हैं। इसे शब्दकोष की कमी मानें कि उन विद्वान की महानता। यदि उचित मंच होता तो उन शब्दों का आंकलन करके शब्दकोष में समाहित कर लिया जाता जिसका लाभ सम्पूर्ण हिंदी भाषा को मिलता। बहुत से देशज शब्द भी हैं जिन्हें क्षेत्रानुसार हिंदी में प्रयोग किया जाता है उन्हें भी हिंदी में समाहित किया जा सकता है। शोध और आंकलन करके न ही शब्दावली पर कार्य होना चाहिए अपितु उसका प्रचार भी होना चाहिए।
शब्दकोष
आजकल इंटरनेट का युग है। दुनिया की लगभग सभी सूचना इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध हो जाती हैं। यदि भाषा की दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी शब्दकोष के लगभग सभी शब्द और उनके अर्थ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि उन शब्दों का वाक्यों में प्रयोग आदि भी उपलब्ध है परन्तु हिंदी में यह यदा कदा ही मिलता है। कुछ वेब निर्माताओं ने हिंदी शब्दकोष बनाया तो है पर उनका उद्देश्य इस क्रिया के द्वारा विज्ञापनों से पैसे कमाना भर है। उनके द्वारा हिंदी शब्दावली का पूर्ण और सही ज्ञान शायद ही मिल पाता है। उन शब्दों और शब्दार्थों की प्रमाणिकता पर विश्वास करना कठिन होता है। उनमें अनेकों अशुद्धियाँ भी होती हैं। हिंदी शब्दकोष के लिए एक ऐसा मंच होना चाहिए, जो हिंदी में प्रयुक्त सभी शब्दों का समावेश करने के साथ, तकनिकी विकास के कारण आने वाले नये शब्दों का पहले ही हल ढूंढ लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त नियमित प्रयोग में आने वाले शब्दों का सरल पर्याय भी ढूंढे और उनका समुचित प्रचार प्रसार के साथ उन शब्दकोशों को इंटरनेट पर निःशुल्क पलब्ध कराये। शब्दकोषों को किसी की निजी संपत्ति बनने से रोके। यह शब्दकोष सभी को सरलता से उपलब्ध हो। यह कार्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी संस्थान द्वारा किया जाय।
इंटरनेट पर विस्तृत शब्दकोष उपलब्ध होने और हिंदी से अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओँ में अनुवाद की सुविधा होने से विदेशियों में भी हिंदी के प्रति रुझान बढ़ेगी और हिंदी अंतराष्ट्रीय भाषा बन सकेगी।
- एस. डी. तिवारी
और अपने आलेख / उद्बोधन का अंत मैं अपनी एक और कविता से करना चाहूंगा :-
अत्यंत सहज है, बहुत सरल है।
अति प्राचीन, सबसे बिरल है।
भारतीय भाषाओं की है जननी
देवताओं की भाषा हिंदी अपनी।
उर में भरी मधु की मिठास है,
बसाये ये शदियों का इतिहास है।
पूर्णतया शुद्ध रखे अंतःकरण,
स्पष्टता का अद्भुत उदहारण।
राम कृष्ण की गाथायें इसमें।
चिर पौराणिक कथाएं इसमें।
हिंदी साहित्य सबसे विचित्र।
हिन्द संस्कृति का सजीव चित्र।
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद।
विविध काव्य विधाएँ, स्वछन्द।
यहाँ है गति, लय, स्वर व सुर।
जुड़ा हुआ है भारत का उर।
हिंदी लता, रफ़ी की कंठ है।
सूर, तुलसी, कबीर का ग्रन्थ है।
भारतवासियों की मातृभाषा है।
सम्मान, प्रसार ही अभिलाषा है।
अपने ही घर में सौत सी क्यों फिर?
झेलती पल पल मौत सी क्यों फिर?
उत्तर दक्षिण की राजनीति में जकड़ी,
हिंदुस्तान में हिंदी रह गयी सिकुड़ी।
विश्व, अब हिंदी को जान गया है।
इसके गुणों को पहचान गया है।
भले झेली अपनों से ही पक्षपात,
होकर रहेगी हिंदी, विश्व व्याप्त।
- एस. डी. तिवारी
बाहर सम्मान पाने के लिए सर्वप्रथम अपने घर में सम्मान मिलना आवश्यक है
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हिंदी की वैश्विक दशा
हिंदी की वैश्वीकरण - क्यों और कैसे ?
आज जहाँ कई राष्ट्रों के छात्र हिंदी पढ़ने भारत आते हैं, वहीं कई विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी विषय का अध्यापन भी किया जाता है। बहुत से भारतियों के विदेशों में बस जाने के कारण लगभग दो दर्जन से भी अधिक देशों में हिंदी का बहुतायत से प्रयोग होता है, जिनमें प्रमुख हैं कनाडा, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, मौरीसस इत्यादि। हमारे भारतीय विदेशों में रहकर भी परस्पर बोलचाल में हिंदी भाषा का ही प्रयोग करते हैं, और अपने बच्चों को भी हिंदी सिखाते हैं ताकि उनका भारत से जुड़ाव बना रहे। इसके ठीक उलट, अपने देश में हम बच्चों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिलाते हैं और सभी विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने के लिए विवश करते हैं। असहज होने के बाद भी उन्हें अंग्रेजी पढ़ना पड़ता है क्योंकि बिना अंग्रेजी के उन्हें रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं।
मैंने देखा कि विगत वर्षों में विदेशियों का हिंदी के प्रति रुझान बढ़ा है। हिंदी की मदद से जहाँ वे अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं वहीं यहाँ के सांस्कृतिक खजाने का लुत्फ़ भी लेना चाहते हैं। विदेशों में भी रेडियो, टेलीविज़न पर हिंदी कार्यक्रम और हिंदी की पत्र पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने घर को भी सुदृढ़ करते हुए, विदेशों में हिंदी के प्रसार के लिए भी सतत कार्य करते रहें।
जहाँ तक हिंदी के वैश्वीकरण के सामर्थ्य की बात है, हिंदी इतनी सरल, सरस और सहज भाषा है कि वसुधैव कुटुंबकम को साकार करने का सामर्थ्य रखती है। हिंदी साहित्य और संस्कृति, विदेशियों के आकर्षण का केंद्र हैं, जो उन्हें हिंदी सीखने के लिए प्रेरित करता है। विदेशी विद्वान कई हिंदीं ग्रंथों की शोध भी करते आ रहे हैं। विश्व में हिंदी या हिंदी से उत्पन्न भाषाएँ ही ऐसी हैं जिनमें वर्ण भी वैज्ञानिक आधार पर नियोजित हैं। जिस रूप में वर्ण लिखे जाते हैं उसी रूप में पढ़े अथवा बोले भी जाते हैं ।
विदेशों में हिंदी के प्रसार की आवश्यकता मुख्यतः निम्न पांच कारणों से है -
१. विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा परस्पर सम्प्रेषण के लिए
अपनी मातृभाषा से किसे प्यार नहीं होगा। मातृभाषा में बोलना-सुनना, लिखना-पढ़ना सरल होने के साथ आनंददायक होता है। विदेशों में बसे भारतीय, विदेशों में रहकर भी, परस्पर बोलचाल में हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिंदी के वैश्वीकरण में विदेश में बसे भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान है। भारत सरकार को उन्हें हिंदी लिखने पढ़ने में सहयोग देना चाहिए तथा उसके लिए समुचित मंच प्रदान करना चाहिए।
हिंदी के वैश्वीकरण से सबसे बड़ा लाभ अंतराष्ट्रीय व्यापार को है। भाषा की सुगमता से निश्चित तौर पर व्यापार में सरलता होती है । हमारे देश की आधी से अधिक जनता हिंदीभाषी है। विदेशियों से हिंदी में सम्प्रेषण की सुविधा होने से आम आदमी भी विदेशों से आयात निर्यात का काम कर सकता है, तथा उसे बिचौलियों के चंगुल से छुटकारा मिल सकता है। हमारे उत्पादक अन्य देशों की भाषा नहीं जानने के कारण, बिचौलियों पर निर्भर रहते हैं, जो बीच में मोटा लाभ कमाते हैं। कई देश जो अंग्रेजी पर निर्भर नहीं हैं, जैसे चीन, जापान, रूस, कोरिया आदि, हिंदी के प्रसार से इन देशों से व्यापार करना सरल हो जायेगा और भारत इन देशों के बाजारों में भीतर तक पैठ बना लेगा।
पैसिफिक एशिया के देश, जैसे कि थाईलैंड, हॉन्गकॉन्ग, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर अदि भारतीय पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। पर्यटन इन देशों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यापार है। भारत से समीप होने के कारण प्रत्येक दिन हजारों भारतीय पर्यटक यहाँ आते हैं। इन देशों में हिंदी के प्रसार से भारतीय पर्यटकों को तो सुविधा मिलेगी ही, इन देशों के पर्यटन के व्यापार में अतीव वृद्धि होगी। अगर इन देशों के लोग हिंदी अपनायें तो निश्चित तौर पर अधिक से अधिक भारतीय आकर्षित होंगे और इनकी आय में वृद्धि होगी।
इन राष्ट्रों से मिलकर, यह भी प्रयास किया जाना चाहिए कि एक दूसरे राष्ट्र की मुद्रा को सीधे स्वीकार करें। इससे एक दूसरे के साथ परस्पर व्यापार करने में सुविधा होगी। इसके साथ ही डॉलर और यूरो के एक्सचेंज रेट पर दिए गए कमिशन और परेशानियां भी कम होंगी। यदि पैसिफिक एशिया के देश भारतीय पर्यटकों से भारतीय मुद्रा को सीधे स्वीकार करें तो इन्हें अधिक से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करने मदद मिलेगी।
हिंदी भाषा के वैश्वीकरण से राजनयिक सम्बन्ध और अधिक सुदृढ़ होंगे। सम्प्रेषण की प्रभावशीलता संबंधों को बनाये रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विदेशों में हिंदी के प्रचलन से साधारण नागरिक भी एक दूसरे से जुड़े रहेंगे और इसमें संदेह नहीं कि आम नागरिकों के जुड़े होने से राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध भी उत्तम रहेंगे।
४. सांस्कृतिक आदान प्रदान
हिंदी के वैश्वीकरण से संस्कृति और कला के आदान प्रदान में सुविधा होगी। यह हमारी संस्कृति और कला के लिए वरदान सिद्ध होगा। हमारे कलाकारों की पैठ अन्य देशों तक बनेगी, जो उनके लिए आय के स्रोत बनेंगे। इस बारे में हमारे दूतावास महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए इन देशों के साथ मिलकर, भारत को सामूहिक प्रयास करने होंगे। भारत को इन देशों से हिंदी पढ़ने आने वाले छात्रों को वीसा आदि की सुविधाएँ देनी होगी, वहीं इन देशों को अपने विश्वविद्यालयों के कोर्स में हिंदी सम्मिलित करवाने के प्रयास करने होंगे।
५. साहित्य का विकास
हिंदी के वैश्वीकरण से विदेशी हिंदी के साहित्य को समझेंगी तथा अपनाएंगे, साथ ही उनका साहित्य भी हिंदी में अनुवादित होगा। इस प्रक्रिया से न मात्र हिंदी का प्रचार प्रसार होगा, अपितु साहित्य का भी विकास होगा।
१. शैक्षणिक स्तर पर -
सरकार को चाहिए विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए आकर्षित करे और विदेशों से हिंदी पढ़ने आने वालों छात्रों को अनुकूल सुविधाएँ प्रदान करे। भारत में तथा विदेशों में भी विदेशियों के लिए समुचित विश्वविद्यालय तथा शैक्षणिक संसथान खोले जायं। विदेशी विश्वविद्यालयों के कोर्स में हिंदी सम्मिलित करवाने के प्रयास करने होंगे। साहित्यिक आदान प्रदान की व्यवस्था हो।
२. सेमिनार, सम्मलेन आदि
समय समय पर, देश विदेश में सरकार हिंदी से सम्बंधित सेमिनार, सम्मलेन आदि आयोजित करे तथा हिंदी के प्रसार के लिए, अपने प्रतिनिधि मंडल विदेशों में भेजे, और विदेशों से प्रतिनिधि मंडल आमंत्रित करे। इससे हिंदी के प्रसार के साथ, संस्कृति कला आदि के आदान प्रदान में भी सहायता मिलेगी।
३. रोजगार के अवसर
हमारे देश में छात्रों का रूझान अंग्रेजी की ओर अधिक होता है, जिसका मूल कारण है रोजगार। अंग्रेजी पढ़ने वालों को हिंदी पढ़ने वालों की अपेक्षा रोजगार का अवसर शीघ्र और उत्तम मिलता है। सरकार को रोजगारपरक हिंदी नीति बनाने की आवश्यकता है जिससे हिंदी पढ़ने वाले छात्रों को समुचित रोजगार उपलब्ध हो।
४. शब्दावली
इस क्षेत्र में न ही केवल हिंदी के वैश्वीकरण, अपितु हिंदी के घरेलू विकास के लिए भी कार्य करने की आवश्यकता है। राष्ट्र की स्वतंत्रता के बाद विज्ञान और तकनिकी विकास के कारण, बहुत से नए शब्द आये। उन शब्दों को हिंदी में अपनाने के लिए पहले से काम नहीं किया जाता है, और न हि नए उपार्जित शब्दों का समुचित प्रचार किया जाता है।
एक ओर तो देखा गया है कि हिंदी शब्दावली के लिए, एक मंच पर काम नहीं हो रहा, वहीं दूसरी ओर हमारे हिंदी के विद्वान उन्हें सरल बनाने की बजाय और कठिन बनाने का प्रयत्न करते हैं, ताकि उनकी विद्वता को कहीं से कम करके न आंकी जाय। इस प्रकार की कठिनाई के कारण हिंदीभाषी, भारतवासी अपनी भाषा में उन अंग्रेजी या उर्दू के शब्दों को अपनी भाषा का ही अंग मानकर प्रयोग करता है। तकनिकी विकास के कारण, कितने ही ऐसे शब्द हैं, जिनका समरूप हिंदी शब्द नहीं हैं, जैसे - टिकट, प्लेटफार्म, स्टेशन, फिल्म, नट, बोल्ट , इंजिन, कंपनी, कार, पार्किंग आदि। ऐसे शब्दों को हिंदी का अंग माना जाना चाहिए, और हिंदी के शब्दकोष में, आधिकारिक तौर से अपना लेना चाहिए।
योग्यता की उपाधियों को देखें एम्. ए. या बी. ए. सभी कहते हैं स्नातक अथवा स्नातकोत्तर कोई नहीं कहता। वहीं अंग्रेजी के कई अन्य शब्द, हिंदी में, हिंदी के अपने शब्दों से अधिक प्रचलित हैं, जैसे डॉक्टर, सर्जन, जज, पार्किंग इत्यादि। इसी प्रकार सर्विस को हिंदी में नौकरी कहा जाता है। सेवा शब्द के कई पृथक भाव होने के कारण, नौकरी के लिए कम ही प्रयोग किया जाता है। नौकरी शब्द नौकर से बना है, जो हीनता का द्योतक लगता है। उर्दू के भी अनेक शब्द हिंदी में अपना स्थान बना चुके हैं, अधिवक्ता के स्थान पर, वकील और समाचार पत्र को अख़बार बोलना अधिक सरल लगता है, साथ ही ऐसे शब्द हिंदी में आत्मसात हो चुके हैं। ऐसे शब्दों को हिंदी में आधिकारिक रूप से अपनाना चाहिए, ताकि इन शब्दों के प्रयोग में हिंदी के शिक्षार्थियों व विद्वानों के लिए संशय न रहे।
तकनिकी शब्दों के गठन के लिए नियुक्त वैज्ञानिक तथा तकनिकी शब्दावली आयोग की साइट खोलने का प्रयत्न करता हूँ तो मंत्रालय तथा आयोग के कार्यकलापों का बखान ही मिलता है, शब्दावली तो खुल ही नहीं पाती।
देश में ऐसा कोई निश्चित मंच होना चाहिए, जो हिंदी में आयी समस्यायों का एकरूपता से निराकरण करे। हिंदी के विद्वान अपनी विद्वता को अपने अपने तरीके से ही सामने लाते हैं, और कई बार वह सार्वभौमिक नहीं हो पाते। एक सेमीनार में एक विद्वान को मैंने कहते सुना कि उनके लिखे साहित्य में से शोधकर्ता छात्रों ने, सात सौ ऐसे शब्दों का शोध किया, जो शब्दकोष में उपलब्ध नहीं थे। इसे शब्दकोष की कमी मानें कि उन विद्वान की महानता। यदि उचित मंच होता तो, उन शब्दों का आंकलन करके शब्दकोष में समाहित कर लिया, जाता जिसका लाभ सम्पूर्ण हिंदी भाषा को मिलता। बहुत से देशज शब्द भी हैं, जिन्हें क्षेत्रानुसार हिंदी में प्रयोग किया जाता है, उन्हें भी हिंदी में समाहित किया जा सकता है। शोध और आंकलन करके न ही शब्दावली पर कार्य होना चाहिए, अपितु उसका प्रचार भी होना चाहिए।
५. शब्दकोष
आजकल इंटरनेट का युग है। दुनिया की लगभग सभी सूचना इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध हो जाती हैं। यदि भाषा की दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी शब्दकोष के लगभग सभी शब्द, और उनके अर्थ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि उन शब्दों का वाक्यों में प्रयोग आदि भी उपलब्ध है, परन्तु हिंदी में यह यदा कदा ही मिलता है। कुछ वेब निर्माताओं ने हिंदी शब्दकोष बनाया तो है, पर उनका उद्देश्य इस क्रिया के द्वारा विज्ञापनों से पैसे कमाना भर है। उनके द्वारा हिंदी शब्दावली का पूर्ण और सही ज्ञान शायद ही मिल पाता है। कई बार, उन शब्दों और शब्दार्थों की प्रमाणिकता पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। उनमें अनेकों अशुद्धियाँ भी होती हैं। हिंदी शब्दकोष के लिए एक ऐसा मंच होना चाहिए, जो हिंदी में प्रयुक्त सभी शब्दों का समावेश करने के साथ, तकनिकी विकास के कारण आने वाले नये शब्दों का पहले ही हल ढूंढ लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त नियमित प्रयोग में आने वाले शब्दों का सरल पर्याय भी ढूंढे और उनका समुचित प्रचार प्रसार के साथ उन शब्दकोशों को इंटरनेट पर निःशुल्क उपलब्ध कराये। शब्दकोषों को किसी की निजी संपत्ति बनने से रोके। यह शब्दकोष सभी को सरलता से उपलब्ध हो। यह कार्य सरकार द्वारा नियुक्त, किसी संस्थान द्वारा पूर्ण पारदर्शिता के साथ किया जाना चाहिए।
इंटरनेट पर विस्तृत शब्दकोष उपलब्ध होने, और हिंदी से अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओँ में अनुवाद की सुविधा होने से, विदेशियों में भी हिंदी के प्रति रुझान बढ़ेगी, और हिंदी अंतराष्ट्रीय भाषा बन सकेगी।
मीडिया
हिंदी के वैश्वीकरण में मीडिया भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। किसी भी भाषा के विकास में मीडिया का अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। मीडिया एक ऐसा तंत्र है जो सर्व साधारण से जुड़ी होती है और भाषा सर्व साधारण को जोड़े रखती है। हिंदी की अनेकों पत्र, पत्रिकाएं तथा हिंदी के टेलीविज़न चॅनेल, हिंदी में समाचर प्रसारित करते हैं। टेलीविज़न चैनल, रेडिओ समाचारपत्र अपने हिंदी कार्यक्रमों का विदेशों में प्रचारित प्रसारित करके अपने व्यापार के साथ हिंदी का भी प्रसार कर सकते हैं। हिंदी के पाठक अथवा दर्शक जितना अधिक बढ़ेंगे मीडिया का व्यापर स्वतः ही बढ़ेगा।
अंत में मैं हिंदी विषय पर अपनी यह कविता प्रस्तुत करना चाहूंगा -
अत्यंत सहज है, बहुत सरल है।
अति प्राचीन, सबसे बिरल है।
भारतीय भाषाओं की है जननी
देवताओं की भाषा हिंदी अपनी।
उर में भरी मधु की मिठास है,
बसाये ये शदियों का इतिहास है।
पूर्णतया शुद्ध रखे अंतःकरण,
स्पष्टता का अद्भुत उदहारण।
राम कृष्ण की गाथायें इसमें।
चिर पौराणिक कथाएं इसमें।
हिंदी साहित्य सबसे विचित्र।
हिन्द संस्कृति का सजीव चित्र।
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद।
विविध काव्य विधाएँ, स्वछन्द।
यहाँ है गति, लय, स्वर व सुर।
जुड़ा हुआ है भारत का उर।
हिंदी लता और रफ़ी की कंठ है।
सूर, तुलसी, कबीर का ग्रन्थ है।
भारतवासियों की मातृभाषा है।
सम्मान, प्रसार ही अभिलाषा है।
अपने ही घर में सौत सी क्यों फिर?
झेलती पल पल मौत सी क्यों फिर?
उत्तर दक्षिण की राजनीति में जकड़ी,
हिंदुस्तान में हिंदी रह गयी सिकुड़ी।
विश्व, अब हिंदी को जान गया है।
इसके गुणों को पहचान गया है।
भले झेली अपनों से ही पक्षपात,
होकर रहेगी, हिंदी विश्व व्याप्त।
- एस. डी. तिवारी
तीन देशों की साहित्यिक यात्रा - लक्ष्य व तथ्य
मैंने अपनी प्रस्तुति में, हिंदी विषय पर भी अपनी एक कविता सुनाई, जिसे यहाँ पुनः प्रस्तुत करना चाहूंगा -
अत्यंत सहज है, बहुत सरल है। अति प्राचीन, सबसे बिरल है।।
भारतीय भाषाओं की है जननी। देवताओं की भाषा हिंदी अपनी।।
उर में भरी मधु की मिठास है। बसाये ये शदियों का इतिहास है।।
रखे है पूर्णतः शुद्ध अंतःकरण। स्पष्टता का अद्भुत उदहारण।
राम कृष्ण की गाथायें इसमें। चिर पौराणिक कथाएं इसमें।
हिंदी साहित्य सबसे विचित्र। हिन्द संस्कृति का सजीव चित्र।
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद। विविध काव्य विधाएँ, स्वछन्द।
यहाँ है गति, लय, स्वर व सुर। जुड़ा हुआ है भारत का उर।
हिंदी, लता और रफ़ी की कंठ है। सूर, तुलसी, कबीर का ग्रन्थ है।
भारतवासियों की मातृभाषा है। सम्मान, प्रसार ही अभिलाषा है।
अपने घर में सौत सी क्यों फिर? झेल रही है मौत सी क्यों फिर?
उत्तर दक्षिण की राजनीति में जकड़ी। हिन्द में हिंदी रह गयी सिकुड़ी।
विश्व, अब हिंदी को जान गया है। इसके गुण पहचान गया है।
झेली भले अपनों से पक्षपात। होकर रहेगी, हिंदी विश्व व्याप्त।
तीन देशों की साहित्यिक यात्रा - लक्ष्य व तथ्य
अंतराष्ट्रीय साहित्य कला मंच के तत्वाधान में आयोजित, हिंदी के कई प्रोफेसरों और विद्वानों के साथ २० से ३० दिसंबर, २०१८ तक, तीन देशों, थाईलैंड, कम्बोडिया और वियतनाम की साहित्यिक यात्रा पर जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसका प्रमुख उद्देश्य था हिंदी के वैश्विक सामर्थ्य का अध्ययन तथा उसके वैश्वीकरण के लिए कार्य। इस यात्रा में जहाँ तीन दर्जन विद्वानों का परस्पर संसर्ग हुआ, वहीँ देश-विदेश के विभिन्न अनुभवों से साक्षात्कार के साथ बहुत कुछ देखने-सीखने को मिला। हिंदी के वैश्विक सामर्थ्य पर आयोजित सम्मलेन में विद्वानों द्वारा सारगर्भित और बहुमूल्य विचार रखे गए। बैंकाक में आयोजित हिंदी के वैश्विक सामर्थ्य पर सार्थक और बहुमूल्य व्याख्यान प्रस्तुत किये गए। विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विषय ज्ञानवर्धक और जागरूकता बढ़ाने वाले थे।
जहाँ तक हिंदी के वैश्विक सामर्थ्य की बात है, हिंदी इतनी सरल, सरस और सहज भाषा है कि वसुधैव कुटुंबकम को साकार करने का सामर्थ्य रखती है। हिंदी साहित्य और संस्कृति, विदेशियों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं, जो उन्हें हिंदी सीखने के लिए प्रेरित करता है। विदेशी विद्वान कई हिंदीं ग्रंथों की शोध भी करते आ रहे हैं। हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें विश्व के प्राचीनतम वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य ग्रन्थ मिलते हैं। हिंदी में जहाँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है वहीँ यह भाषा पूर्णतः वैज्ञानिक है। हिंदी की देवनागरी लिपि वैज्ञानिक आधार पर नियोजित हैं। वर्ण विज्ञान और किसी विदेशी भाषा में नहीं मिलता। हिंदी के वर्ण जिस रूप में लिखे जाते हैं उसी रूप में पढ़े अथवा बोले भी जाते हैं । वर्ण का स्वतंत्र रूप से और शब्द में प्रयुक्त होने पर, एक ही उच्चारण रहता है, जबकि अन्य कई भाषाओँ के वर्ण का उच्चारण शब्द में प्रयोग होने पर बदल जाता है। यही नहीं, स्वर और व्यंजन के अतिरिक्त भी जिह्वा, तलवा, होंठ व दांतों के प्रयोग के अनुसार, वर्णों के कई वर्गीकरण हैं।
मैंने देखा कि विदेशों में बसे भारतीय, विदेश में रहकर भी परस्पर सम्प्रेषण के लिए हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। अपनी मातृभाषा से किसे प्यार नहीं होगा। मातृभाषा में बोलना-सुनना, लिखना-पढ़ना सरल होने के साथ आनंददायक होता है। हिंदी के वैश्वीकरण में विदेश में बसे भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान है।
व्यापार और भाषा का वैश्वीकरण एक दूसरे का पूरक हैं। अगर व्यापार का विस्तार होगा तो भाषा का भी विस्तार होगा। भाषा की सुगमता से निश्चित तौर पर व्यापार में सरलता होती है। पैसिफिक एशिया के देश, जैसे कि थाईलैंड, हॉन्गकॉन्ग, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर अदि भारतीय पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। पर्यटन इन देशों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यापार है। भारत से समीप होने के कारण प्रत्येक दिन हजारों भारतीय पर्यटक यहाँ आते हैं। इन देशों के लोग भारतीय पर्यटकों को लुभाने के लिए हिंदी के अनेक शब्द सीख़ लिए हैं और प्रयोग करते हैं। इन तीनों ही देशों में कई लोगों को हिंदी में अभिवादन करते देखा तो आश्चर्य चकित रह गया। अभिवादन के अतिरिक्त वे कई अन्य शब्द भी हिंदी में बोलकर भारतीयों को लुभा रहे थे।
थाईलैंड में पर एक रात क्रूज पर डिनर की व्यवस्था थी। बैंकाक में चाओ फ्राया नदी में यह क्रूज, दो घंटे विचरते हुए, नदी के दोनों तटों का अवलोकन कराया। तटों पर बने बहुमंजिले भवन और प्रकाश से सज्जित तट देखकर लग रहा था, मानो देवलोक में आ गए हों। उक्त रात्रि भोजन में स्वादिष्ट भारतीय ब्यंजन परोसे गए थे तथा खाने की बुफे (स्वयं लेकर खाना) व्यवस्था थी। क्रूज के डेक पर संगीत व नृत्य का मंच उपलब्ध था। दो घंटे के कार्यक्रम में मैंने देखा कि केवल हिंदी गाने ही गाये गए। एक थाई लड़की अपनी टूटी फूटी भाषा में हिंदी फिल्मों के गाने गा रही थी, किन्तु उसने डेक पर समां बांध दिया था। क्या युवा और क्या वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी उन गानों पर झूम रहे थे। भारतीयों के साथ कई गोरे भी नाचते दिखे। हिंदी और हिंदी संगीत के इस प्रकार के सामर्थ्य को देखकर हम सभी चकित थे। यही नहीं थाईलैंड के टैक्सी आदि के ड्राइवर भी हिंदी के एकाध शब्द सीख लिए थे। इन तीनों ही देशों में उनकी अपनी राष्ट्र भाषा थी, किन्तु होटल व दुकानों में टूटी फूटी अंग्रेजी और कहीं कहीं हिंदी के एकाध शब्द बोल कर अपनी बात समझा लेते थे। कहीं होटल के बैरे तो कही बाजार में दुकानदार बीच बीच में हिंदी के शब्दों का प्रयोग कर मुग्ध कर देते। कई बार उनके अशुद्ध उच्चारण पर हमें ठहाके लगाने का अवसर मिल जाता। कीमत बताने के लिए वे कैलकुलेटर का प्रयोग कर लेते। समझाने के लिए कैलकुलेटर में कीमत अंकित कर देते, जिसे देखकर हम सरलता से समझ जाते।
पटाया में रंगबिरंगे पैराशूट से पैरासेलिंग करते लडके-लड़कियां सबका ही मन मुग्ध कर रहे थे। लग रहा था अम्बर में विशालकाय रंगीन पक्षी उड़ रहे हों। वह दृश्य देख कर तो सभी का मन उड़ने के लिए मचल रहा था मगर आवश्यकता थी साहस और व्यय करने की क्षमता की। उम्र दराज लोगों को पहले ही बता दिया जाता जिसका दिल कमजोर है, वे पैरासेलिंग न आजमाएं। पटाया में ही तीव्रगामी बोट से जाकर, कोरल बीच का भी आनंद उठाया गया।
कम्बोडिया और विएतनाम में अमेरिकन डॉलर खूब प्रचलन में था। इन दोनों देशों की मुद्रा भारतीय मुद्रा की अपेक्षा बहुत सस्ती है। जहाँ कम्बोडियाई रील एक रुपये में लगभग साठ है तो विएतनाम का डॉन्ग एक रुपये में साढ़े तीन सौ। उनकी मुद्रा में सौदा करना बहुत माथा पच्ची वाला काम था। चुकी डॉलर की कुछ समझ थी इसलिए कीमत आदि हम डॉलर में ही पूछते। विएतनाम में एक और चकित करने वाली बात देखी कि एक दो जगह भारतीय रूपए के बदले भी सामान मिल गया।
खाने पीने की सुचारु व्यवस्था थी। भारतीय रेस्तरां में भारतीय व्यंजन की व्यवस्था थी, जहाँ गाइड के सहारे हम लोग सरलता से चले जाते। वही विदेश में जाकर अगर भारतीय रेस्तरां अकेले ढूंढना पड़ता तो कितनी कठिनाई होती इसका अनुमान लगाना सरल नहीं है। दस के दस दिन, लगभग सभी जगह अपना देशी स्वाद मिलता रहा।
बारहवीं शताब्दी में बने अंकोरवाट के विष्णु मंदिर की वास्तुकला ने सबका मन मोह लिया। सुर्यावरणम द्वारा निर्मित विष्णु भगवान् का यह मंदिर हिन्दुओं का सबसे बड़ा और प्राचीन मंदिर है। हिन्दुओं के इस मंदिर का शनैः शनैः बौद्धिकरण कर दिया गया। यह देखकर अवश्य ही दुःख हुआ कि विष्णु की मूर्ति को खंडित कर, विष्णु के सिर के स्थान पर बुद्ध का सिर लगा दिया गया। विष्णु की प्रमुख मूर्ति जो सुप्तावस्था में थी अब वे विष्णु बुद्ध हो चुके हैं तथा एक अन्य अष्टभुजाधारी विष्णु भी अष्टभुजाधारी बुद्ध हो चुके हैं। मंदिर का नाम भी उन लोगों ने अंकोर विष्णु-बुद्ध मंदिर कर दिया है। मंदिर के गलियारों में रामायण व महाभारत की खुदी नक्काशियां अभी भी विद्यमान हैं, जो वहां हिंदुत्व को जीवित रखे है।
इन तीनों ही देशों में पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण था देह मालिश। यह मालिश पूरे बदन अथवा हाथ या पैर का अलग से भी करवाया जा सकता था। पूरे बदन का आठ से पंद्रह डालर यानि पांच सौ से एक हजार रुपये में तथा केवल पैर का इसके आधे दाम में करवाया जा सकता था। यह सेवा भारत की अपेक्षा कुछ सस्ती लगी। जगह जगह मसाज केंद्र थे, और होटल में अपने कक्ष में भी मालिश की व्यवस्था हो जाती किन्तु वो कुछ मंहगी थी।
बस की यात्रा बहुत आरामदायक थी। वातनुकूलित बस बिना किसी धच्चियों के चल रही थी। बस, माइक व लाउडस्पीकर से सज्जित थी। काव्य पाठ और गोष्ठियों के द्वारा, यात्रा के समय का पूर्ण रूप से सदुपयोग किया गया। वैसे तो ये देश, खान-पान, भाषा और मुद्रा के अतिरिक्त, भारत से बहुत अधिक भिन्न नहीं थे, बस कुछ बातों पर अधिक प्रतिबन्ध तो कुछ अन्य बातों पर अधिक छूट भी थी। इस विदेश की यात्रा में अनेक अहिन्दी भाषी लोगों ने हिंदी के द्वारा हम तक पहुँचने का प्रयत्न किया तो हमने भी, चाहे विनोद के ही द्वारा, उन तक हिंदी पहुँचाने का प्रयत्न किया। पूरी यात्रा अत्यंत सौहार्दपूर्ण और अन्वेषी वातावरण में संपन्न हुई जिसके लिए आयोजक बधाई के पात्र हैं।
मैंने अपनी प्रस्तुति में, हिंदी विषय पर भी अपनी एक कविता सुनाई, जिसे यहाँ पुनः प्रस्तुत करना चाहूंगा -
अत्यंत सहज है, बहुत सरल है। अति प्राचीन, सबसे बिरल है।।
भारतीय भाषाओं की है जननी। देवताओं की भाषा हिंदी अपनी।।
उर में भरी मधु की मिठास है। बसाये ये शदियों का इतिहास है।।
रखे है पूर्णतः शुद्ध अंतःकरण। स्पष्टता का अद्भुत उदहारण।
राम कृष्ण की गाथायें इसमें। चिर पौराणिक कथाएं इसमें।
हिंदी साहित्य सबसे विचित्र। हिन्द संस्कृति का सजीव चित्र।
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद। विविध काव्य विधाएँ, स्वछन्द।
यहाँ है गति, लय, स्वर व सुर। जुड़ा हुआ है भारत का उर।
हिंदी, लता और रफ़ी की कंठ है। सूर, तुलसी, कबीर का ग्रन्थ है।
भारतवासियों की मातृभाषा है। सम्मान, प्रसार ही अभिलाषा है।
अपने घर में सौत सी क्यों फिर? झेल रही है मौत सी क्यों फिर?
उत्तर दक्षिण की राजनीति में जकड़ी। हिन्द में हिंदी रह गयी सिकुड़ी।
विश्व, अब हिंदी को जान गया है। इसके गुण पहचान गया है।
झेली भले अपनों से पक्षपात। होकर रहेगी, हिंदी विश्व व्याप्त।
- एस. डी. तिवारी,
मयूर विहार-१, दिल्ली
मयूर विहार-१, दिल्ली
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