Friday, 29 June 2018

Pahad


दम निकले, है अरमान, तेरी गलियों में।
बिकता मौत का सामान, तेरी गलियों में।

जाएँ कहीं भी हम, दिल न लगता किसी ठौर। 
लगा रह जाता यादों में, तेरी ये हर तौर।
एक दिन जाएगी ये जान, तेरी गलियों में। 

जाना होगा ही जरूर, छोड़ एक दिन ये जहाँ।
होकर बेक़रार, डोलेगा फिर भी दिल यहाँ।
छोड़ जायेंगे हम निशान, तेरी गलियों में।

झेल लेंगे सारे दुखड़े, हम वहां पे खुश हो के। 
काट लेंगे दर्द की रात, जग के चाहे सो  के।
दिल भटकेगा साँझ विहान, तेरी गलियों में। 


मृत्यु शय्या पर पड़ा ये डोल रहा है।
बचाओ! बचाओ! धराधर बोल रहा है।

कोई बदन विदीर्ण कर, घर सजाता। 
कोई छाती चीर कर के, राह बनाता।
डायनामाइट से टुकड़े टुकड़े कर के, 
कोई ले जाकर, सडकों पर बिछाता। 
बचा अब जीवन कितना, तोल रहा है। बचाओ! ..

दुनियां, कितनी सुन्दर दिखलाता है।
शीश उठाकर जीना ये सिखलाता है।
कितने पशु, पक्षियों का यह विहार, 
पर्वत पर खेलता, बादल इठलाता है। 
कौन इसके जीवन में विष घोल रहा है। 

युग युग से पृथ्वी ने पर्वत को पहना है।
पहाड़ ही तो इसके श्रृंगार का गहना है। 
मानव, स्वार्थ में छीन रहा, शोभा माँ की,   
रोयेगी माँ तो कष्ट उसे ही सहना  है।
फिर क्यों आभूषण उसके खोल रहा है। 

देने के लिए, निधि रखा है नाना, हमको। 
देता, जड़ी बूटियों का खजाना, हमको। 
नदियों का उद्गम, पर्यावरण का रक्षक, 
प्रण लें, पहाड़ों के प्राण, बचाना हमको।
अनेकों युग से पर्वत ये अनमोल रहा है।

Wednesday, 27 June 2018

Relgadi

रेलगाड़ी
दनदनाती, सिटी बजाती, चली आती, रेलगाड़ी।
हजारों ले जाती, हजारों ढोकर लाती, रेलगाड़ी।

दो दिलों को जुड़ते देखा, कितनों को बिछुड़ते देखा।
दिल्ली का स्टेशन है ये, जगह के लिए झगड़ते देखा।
चली बिठाये, नन्हीं, खिड़की से हाथ हिलाती, रेलगाड़ी। 

प्लेटफार्म पर ही काट ली है, दोनों ने जिंदगानी।
मोहन चाय बेचते, और मोहसिन बोतल का पानी।
दूर पास के हर कोने को छूकर आती, रेलगाड़ी।

वक्त-बेवक्त, गर्मी-बरसात, इसको है आराम कहाँ।
सभी कुचलते स्टेशन को,  मिलता इसे इनाम कहाँ।
रात दिन का भेद, नहीं है कभी मनाती, रेलगाड़ी।

लेट लतीफी झेली सबने,  बहुतों ने रात गुजारी है।
स्टेशन से गायब सामान, यात्री की जिम्मेदारी है।
चलने से पहले भीड़ दिखती है अकुलाती, रेलगाड़ी।

Tuesday, 26 June 2018

Dilli ke bajar me

दिल्ली के बाजार में

लुट गए हम तो भैया, दिल्ली के बाजार में।
लोग, कितने कमा गए, उलटे सीधे व्यापार में।

टी. वी. पर विज्ञापन होता, 'माल की है लूट'।
दाम दूना लिख के कहते, आधे की है छूट।
पैसे हाथ आते ही विक्रेता का जिम्मा ख़त्म,
सामान में मिल जाय अगर, कोई टूट फूट।
बुद्धि चकरा जाती, मोल भाव के तकरार में। लुट गए  ...

अलग अलग मंडी में होता, घूमने का लफड़ा। 
अनाज, सब्जी, श्रृंगार की मंडी या हो कपड़ा।
चांदनी चौक, खारी बावली, सदर और शाहदरा, 
माल में शॉपिंग करनी तो बजट चाहिए तगड़ा।
नाक दबा के जाना होता मच्छी के बाजार में। लुट गए  ...

चोरी के पुर्जे बिकते, आदमी के गुर्दे बिकते।
तरह तरह के मिष्ठान, मंडी में मुर्गे बिकते।
बिक जाता है ईमान, दिल का भी सौदा होता,
दिल्ली में राजनीति के, बड़े बड़े गुर्गे बिकते।
खरीद फरोख्त होती रहती, बनने सरकार में। लुट गए  ...

सुई से जहाज, मंडी की दुल्हन सी सजावट।
कभी घपलेबाजी होती, और कभी मिलावट।
सस्ता है, महंगा है, सबका काम चल जाता,
हर मौसम दाम बढ़ जाता, होती ना फिर गिरावट। 
सरकार भी हाथ खड़े कर देती, इसके सुधार में। लुट गए  ...

Monday, 18 June 2018

Muktak June 2018



ग्वाला के मुख से दधि, क्षीर नहीं छुटती।
दुश्मन के चाहने से तकदीर नहीं फुटती।
कृष्ण होते हैं जब  कभी साथ द्रौपदी के,
किसी दुष्ट दुर्योधन से चीर नहीं लुटती।

तिनके के धनुष से तीर नहीं छूटा करता ।
सिर के टक्कर से प्राचीर नहीं फूटा करता ।
पत्थरबाजों ! तोड़ लो पत्थर से चाहे सेव
बच्चों के खेल से, कश्मीर नहीं टूटा करता ।

कोई तो ऐश्वर्य जुटाने के लिए मरता है ।
कोई किसी को झुकाने के लिए मरता है ।
कुछ भी करके, हरेक इंसान ही एक दिन,
जाकर कब्र में सो जाने के लिए मरता है ।

धन की कमी नहीं, और की चाहत, गरीब बनाती है।
खोने का डर, मिली हुई बादशाहत, गरीब बनाती है। 
जिसे, जो कुछ मिला, उसी में सब्र तो गरीब कहाँ!
अमीर को कर्ज से न मिली राहत, गरीब बनाती है।  


कोयले की धूल से जमीं काली हो रोने लगती है ।
दुष्टों की मिली संगत, पापों में डुबोने लगती है ।
मोरों में कौवा चला जाय तो कोई बात नहीं, 
कौवों में मोर आ जाये, कांव कांव होने लगती है ।

कुछ लोग हैं जो लाल कालीन पर जरूर चले हैं ।
उनको भी देखो; कंकड़, काँटों में मजबूर चले हैं ।
चलने का ढिंढोरा, उनका ही ज्यादा पीटा जाता, 
पैरों में धूल लगी नहीं, कहते हैं बड़ी दूर चले हैं ।



भगाने को रात, सुबह होती है।
रौशनी के साथ, सुबह होती है।
कितनी भी काली वो हो जाये,
हर रात के बाद, सुबह होती है।


आज कल कहाँ खो गए हैं, देश के कवि!
क्या संवेदनहीन हो गए हैं, देश के कवि!
चेतना जगाने वाली हर ज्योति सो गयी,
लगता है खुद भी सो गए हैं, देश के कवि।

जाति, धर्म बाँट कर विध्वंस चाहता है।
स्थायी रूप से स्थापित, वंश चाहता है।
देश के टुकड़े भी हो जायं, नेता को क्या!
कैसे भी सत्ता में अपना अंश चाहता है।


हर आदमी अब ठगने का तरीका ढूंढता है।
पराये माल को हड़पने का तरीका ढूंढता है।
कहाँ रही मन, किसी और के हित की बात,
उसी का छीन के भगने का तरीका ढूंढता है।

अपना झंडा कहीं भी गाड़ने की आजादी है।
दूसरे के गड़े को उखाड़ने की आजादी है।
लोकतंत्र है, कहीं भी चाहे आग लगा दो,
नियम, विधान तक फाड़ने की आजादी है।  

जज्बातों से खेल, जनता में रोष जगाता है।
तोड़ फोड़ को उकसा दे, नेता वही कहलाता है।
किसी भी परिस्थिति में पिसती है जनता ही,  
आग भड़काकर नेता, पीछे खुद छुप जाता है।




उसके ऊपर आया संकट, तुम चुप रहे।
कहीं पड़े न तुम पे झंझट, तुम चुप रहे।
तुम पर पड़ी तो वो भी क्यों न चुप रहे,
जल रहा था उसका मंडप, तुम चुप रहे।

सहने का आदी हो चुका, देश भ्रष्टाचार है।
पैसे वाला कर रहा, गरीब पर अत्याचार है।
नेता, अफसर को मिली सुरक्षा की कवच,
देश का आम नागरिक, पड़ा हुआ लाचार है।


दौलत के लिए, कहाँ तक गिरा है आदमी।
मतलब के लिए जुबान से फिरा है आदमी।
खबर भी नहीं और वो फंसता चला जा रहा,
काल के खुद बुने जाल में घिरा है आदमी।


चमक दमक की दुनिया पर लट्टू हुए जाते हो।
मशीनों की इस युग में निखट्टू हुए जाते हो।
अब तो मशीन करने लगी है सवारी तुम पर,
निर्भरता के बोझ से दबकर टट्टू हुए जाते हो।

छोटी छोटी बात पर रार न करो।
हिल मिल रहो, तकरार ना करो।
संयम और धैर्य जिंदगी में जरूरी,
क्रोध में सामने तलवार ना करो।


कहाँ रही अब शांति और प्यार की जिंदगी।
पैसे के चक्कर में हुई तकरार की जिंदगी।
कर्ज में देश, घर के सामान किस्तों पर,
हर आदमी जी रहा है, उधार की जिंदगी।

जिन्ना धर्म का ही धड़ा हो गया।
बस अपनों के लिए खड़ा हो गया।
गाँधी ने सबके हित की सोची,
उनका नाम बहुत बड़ा हो गया।


चलो दोनों मिलकर रंग जमायें।
एक दूसरे के बुझे चूल्हे जलायें।
तुम रंगों से हमें होली खिलाओ,
हम तुम्हें मीठी सेवईं खिलायें।


शत्रु ने ललकारा है सीमा पार से।
मनाया बहुत न माना वो प्यार से।
सज्जनता को वो निर्बलता समझता,
देंगे हम जबाब उसी के हथियार से।

खुद को राजा समझा था, मटियामेट हुआ
समझता था बलशाली, समय का भेंट हुआ
सताने लगा था सही राह चलने वालों को
अपने ही पाले हुए, वो गर्व का आखेट हुआ


तुम्हारी अति भी सहेगी।
पर वो कुछ नहीं कहेगी।
उसे स्वच्छ रखो या मैला,
गंगा तो बहती रहेगी। 


लानत है उन पर देश का अन्न खाया
मुंह मोड़ लिया, राष्ट्र पर संकट आया
देश की मिटटी ने पाला माँ के जैसा  
मगर उनको स्वार्थ ही नजर आया 

करोड़ों पुत्र, इसे विस्वास उन पर।
भारत माँ की, तू उपहास न कर।
जानती है सब नालायक न होंगे,
अनेकों लाल जायेंगे, आन पर मर।

अब तो पूत ही, देश का सीना चीरता।
जहां दिखानी, नहीं दिखाता है वीरता।
कितना सुख मय हो जाती भारत माँ,
दुःख दूर करने में दिखाते गंभीरता।


जो याचक उससे मांगना क्या !
सपने सुनहरे तो जागना क्या !
सच्चाई को समझ कर चलना,
मरे सांप को देख, भागना क्या !

शमशान भी देखो, कैसा बाजार है।
जहाँ बस लाश ही ख़रीददरार है।
खरीदने के लिए पैसा भी न पास,
पा जाती पर, उसे जो दरकार है।


हर अपराधी तक पहुंच जाता है, कानून का हाथ।
उनके आगे पर, बंधा रह जाता है, कानून का हाथ।
जिनको मिल जाता किसी सत्ताधारी का प्रश्रय, 
बड़े लुटेरे के आगे छोटा पड़ जाता, कानून का हाथ।

मुख्य अतिथि


घृणा करके लड़ रहे एक दूजे होंगे
चोटिल चेहरे दोनों के ही सूजे होंगे
एक उसका घर जला रहा होगा
भूखे पेट दोनों के चूल्हे बुझे होंगे



मिली है बलिदानों के बदले आजादी।
थोड़े से ही लोग, हैं जो अवसरवादी।
देश हित में, जिनका कोई योग नहीं
 फिर भी वे जमकर काट रहे हैं चांदी।


उपदेशों का अब असर नहीं रहा।
पापों से किसी को डर नहीं रहा।
छीन झपट, सभी चाहते घर भरना,
हड़पने के होड़ में सबर नहीं रहा।


कर के लूट खसोटी।
कमाई कर ली मोटी।
संतानें उड़ातीं बार में,
खा रहे जेल की रोटी।


दुनियां लगी है हथियारों के दौड़ में।
घातक एटम बम बनाने की होड़ में।
एक दिन खुद हो जाएगी ही बर्बाद,
दूसरों को झुकाने के जोड़ तोड़ में।

अधिकारियों का अधिकार बौना क्यों हो गया?
राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना क्यों हो गया?
फंस कर के गन्दी उसी राजनीति के दलदल में,
प्रशासन का काम अब घिनौना क्यों हो गया?

मीडिया घर घर में घुस आयी है।
बिन बात मस्तिष्क पर छायी है।
भाग दौड़ में वैसे ही लोग अशांत,
ऊपर से यह भी शोर मचायी है।

जगह जगह खुल गयी शिक्षा की दुकान।
कहीं चलता ढाबा, कहीं होटल आलीशान।
सोच नहीं पाता किस बात की समानता,
कैसी शिक्षा का अधिकार देता संविधान।


जाति में बंटा था समाज, उसे तो कोसते हो!
उसी जाति, धर्म को फिर क्यों पोसते हो?
आपस में लड़ा भिड़ा कर काम निकालते,
बाद में दिखावे के लिए  मन मसोसते हो!

कभी खुद को जो क्षत्रीय कहते थे।
देश के रक्षक होने का दावा करते थे।
नौकरी पाने के लिए पिछड़े बन रहे,
ऊँची जाति के होने का दम भरते थे।


शिक्षा, स्वास्थ का समान अधिकार है, संविधान में !
जाति, धर्म  का फिर क्यों आधार है, संविधान में ?
वास्तविक पिछड़े तो अब भी हैं पिछड़ों के ही जैसे,
नाम के पिछड़े मलाई खा रहे अपार हैं, संविधान में।

मुल्क में, छीनने का अधिकार है, हक पाने का कहाँ!
लोगों को तोड़ने का तो है, आपस में मिलाने का कहाँ!
बनाने वालों को दोष दें या कि इसे चलाने वालों को,
संविधान में जीने का अधिकार है, शांति जान बचाने का कहाँ!

अब तक संविधान उन्हीं के बखरे में दिखता
संविधान से जिन्हें छूट थी, उन्हें खतरे में दीखता


बस दस वर्षों का आरक्षण मिला था ।
मुल्क को इसका कोई न गिला था ।
शोर मचा मचा, वे सत्तर कर लिये, 
तुम सोये रहे, मानो कोई न सिला था!


ईर्ष्या बैर द्वेष निंदा झूठ


औरों का हड़प कर, खुश होता है आदमी।
जानकर भी, कटेगा, जो बोता है आदमी।
देखता बाद में कभी, मुड़कर वो पीछे को,
अंत समय आता है जब, रोता है आदमी।

अगरबत्ती रोज जलाते हो।
इंसानियत नहीं निभाते हो।
मन में जमा स्वार्थ का धुंआ,
उसे साफ नहीं कर पाते हो।

उसने भेजा स्वच्छ शुद्ध मन देकर।
जाओगे क्या? पाप की गठरी लेकर !
पाप का बोझ पहले ही बढ़ जायेगा,
कैसे ले जाओगे तुम नाव को खेकर।

करना होता इंसान को अपना अपना कर्म।
नहीं है कोई जग में, मानवता से बढ़कर धर्म।
मनुष्य रूपी जन्म से, कर पाता वो न्याय,
समय रहते ही यह, समझ जाता जो मर्म।

धर्म के अनुयायी हो, सोचते नहीं जरा पर।
श्रेष्ठ धर्म है मानवता, अमर रहे धरा पर।
आडम्बर का जाल फैलाये दिखलाते हो,
इंसानियत के विषय में उतरे नहीं खरा पर।



अनेकों शीश भेंट लेकर देश बचता है


पैसा सिर चढ़ बोलता, छोटे बड़े को भूल।
दर्प भर के कर देता, नष्ट विवेक समूल।

नाग से ज्यादा नेता, रखे जीभ पर जहर।
जहाँ कहीं भी उगल दे, ढा देता है कहर।

फिल्मों में अश्लीलता, परोस हिंसक चित्र।
पैसा कमाने के लिए, बिगाड़ रहे चरित्र।

शौक से भरते फॉर्म
लिख जाति का नाम
लाभ तो पूरा उठाते
कहे कोई तो झाम


सुगम राह जब भी पाया करो।
अकेले ही नहीं चले जाया करो।
मिलें राह में जो भटके पथिक,
उन्हें भी पथ दिखलाया करो।

उसने आते ही मेरी जेब टटोला
फिर तो जुबान तक नहीं खोला
चली गयी माली हालत देखकर
मुहब्बत को भी पैसे से तोला

मुहब्बत किसी और से थी, शादी किसी और से।
फरेबी को तो गवारा न था, रहना किसी तौर से।
एक दिन मौका मिला, माल उठा के चम्पत हुई,
खा गयी कमाई जनाब की, दाल भात के कौर से।

ईश्वर, अल्ला एक, तो झगड़ा किस बात का।
तुम दोनों हो नेक, तो झगड़ा किस बात का।
भली प्रकार से जानते भी हो कि वो है कौन,
जो रोटी रहा है सेक, तो झगड़ा किस बात का।

यूँ तो कहने को बड़ा आराम हुआ।
मशीनों पर ही निर्भर काम हुआ।
छीन लिया सारा काम मशीनों ने,
आदमी मशीनों का गुलाम हुआ।

आजकल प्यार की भी कीमत होती है।
यारों की भी पैसा ही नीमत होती है।
पैसा खर्च कर के भी अगर मिल जाय,
सच्चा प्यार, जानो गनीमत होती है।

चुका कर पहाड़ सा खर्चा!
अस्पताल से मिला मुर्दा।
लेकर आये तो पता चला,
उसका बस एक ही गुर्दा।


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प्यार के मामले में जज्बा अपना कम कहाँ।
मिलेगा और ऐसा,  देखने को आलम कहाँ।
दिखाओगे तुम भी अगर ऐसे ही जोश अपना,
प्यार का दीया बुझा दें, आँधियों में दम कहाँ।


दिल से दिल के टक्कर में, प्यार की नाव चली।
उठे विशाल बवंडर में, प्यार की नाव चली।
कभी मझधार जाती, कभी किनारे लग जाती,
जिंदगी के समुन्दर में, प्यार की नाव चली।


जानता है कि विष है, मगर पीना चाहता है। 
प्यार के लिए ही, ये दिल जीना चाहता है।
देखा है इश्क की दरिया में डूबते दीवानों को,
फिर भी करना इश्क, दिल कमीना चाहता है।


अच्छे भले को, दीवाना बरबस बनाया तुमने।
प्रेम पुजारी को आशिक भर बस बनाया तुमने। 
दिल तो मंदिर था, किसी देवता की मूर्ति लिए,
प्यार के पावन हविष्य को, हवस बनाया तुमने।


दिल को जगाया, तुम्हारे आने की आहटों ने।
प्यार का द्वार खोला, तुम्हारी मुस्कराहटों ने।
तुम्हारा मिलना बना दिया दीवाना दिल को,
प्यार में डूबा ही दिया, तुम्हारी गर्माहटों ने।


मेरी कविता पढ़कर, दिल में तुमने झांक लिया।
दिल में घुसने की चौखट को भी डांक लिया।
फिर भी तुमने बंद रखा, अपने दरवाजे सारे,

करते हो प्यार कितना! हमने भी आंक लिया।


कल तक उदास थी, आज कैसी मुस्करायी है!
तुम्हारे पीछे भी देती रही, तुम्हारी ही दुहाई है।
लगता है, जैसे तुम्हारी खुद की परछाईं हो एक,
तुम्हारे वापस आने से जिंदगी लौट आयी है।


रूठना, मनाना तो प्रेमियों का खेल है।
समझ सकने में इसे, माथा भी फेल है।
बेलगाम हो जाता है, आशिकी का ऊँट;
रास्ते पर लाने का ये भी एक नकेल है।


कभी सुन्दर, एक तितली सी लगती हो।
कभी खून चूसती, किलनी सी लगती हो।
तुम तो प्रेम का जूठे बेर खिलाने वाली,
राम की प्यारी भीलनी सी लगती हो।


यूँ ही मिल गए मुझको तुम मेरे यार।
किस्मत कहें या कि तुम्हारा प्यार।
हँसते गुजर रही है जिंदगी अपनी,
खुशियों से झूमता, दिल है गुलजार।


आँखों से देखकर जहर कैसे पी लें।
चिथड़ा हुआ दिल कहो कैसे सी लें।
मरहम लगाने के लिए कहते हो,
इतने घाव दिए, कहो कैसे जी लें।



चमन की चहचहाट तुझसे है।
चाँद की जगमगाहट तुझसे है।
फिर से न कहीं सूना हो जाए,
मेरे दिल की घबराहट तुझसे है।

कभी तो देख के मारा।
कभी मुंह फेर के मारा।
कितना भी बचना चाहे,
तुमने तो घेर के मारा।


सूरज गरमाया, तेरा रूप देखकर।
चाँद शरमाया, तेरा रूप देखकर।
तारों के साथ लुका छिपी खेलते,
बादल भरमाया, तेरा रूप देखकर।



प्यार में भी तुम हमेशा सौगात चाहते हो

उम्र को सारी तेरे हवाले कर किया
बुढ़ापे में तूने किनारे कर दिया 

जो कुछ उसने दिया
थोड़े में संतोष किया
जो चाहेगा वही देगा




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बोतल से निकली और गिलास में आ गयी
होठों से लगकर वो अपना रंग दिखा गयी
ढूंढा है इंसान ने शराब भी क्या चीज ऐसी
उसी के दिमाग पर छाकर, होश उड़ा गयी

ऐसा नहीं हमेशा जनाब होती है
सड़ कर के चीज ख़राब होती है
देखा है हमने, ऐसा भी होते हुए
चीज ही सड़ती तो शराब होती है

शबाब पिलाने के लिए शाकी कहाँ होता है
पैमाने की नाप में चालाकी कहाँ होता है
ये तो ऐसा घूंट है, नज़रों से पीया जाता है
पीने के बाद होश फिर, बाकी कहाँ होता है

मंहगाई के ज़माने में
जाने में, मयखाने में
जेब ये खाली हो गयी
होश को बस गंवाने में

तेरी यादों का दर्द तो होता है, मगर मीठा मीठा
तेरी बातों का अर्थ तो होता है, मगर मीठा मीठा
मुहब्बत की राह का तू, जबसे बना है हमसफ़र
चलने में कुछ कष्ट तो होता है, मगर मीठा मीठा

कितना खोटा मेरा ये नसीब था
जब जब भी आता कोई करीब था
सोचती, कटेगी अब ऐश से जिंदगी
मगर अक्सर पाती, वो गरीब था

दिल तो उसके लिए बेक़रार होता है
टूट जाता, कड़का जब यार होता है
पेट की आफत, दिल पर भारी होती
भूखे पेट भी किसी से प्यार होता है

मुहब्बत में इतनी नादानियाँ कर ली
दागदार जवानियाँ
अपने लिए खड़ी परेशानियां कर ली
भौंरा, कली को सुनाकर दुखड़ा अपना
 

Saturday, 16 June 2018

Rang dala


किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!
सुबह शाम को सिंदूरी सांचे में ढाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!

रंग बिरंगे फूल, पौधे, हरी हरी ये घास।
हरे भरे ये वृक्ष ऊँचे और नीला आकाश।
चमकीले तारों को कैसे! अम्बर ने सम्हाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!

पथरीले फैले दूर तक, भूरे रंग के पर्वत।
पहाड़ों पर बिछी हुई श्वेत हिम की परत।
पारदर्शी गिरती बूदें, उठती सुनहरी ज्वाला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला! 

चलचित्र सी चलतीं, समुन्दर की हैं लहरें।
नभ में धुएं सा बादल घूमे, रंग भूरे गहरे।
दिन को है किया रंगीला, रात का रंग काला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला! 

तितली के पंख रंग देता, और इंद्रधनुष को।
कितना बड़ा होगा, सम्हालता कैसे वो ब्रश को।
रखता होगा रंगों का वो, बर्तन कहाँ निराला।
किसने रंग डाला, सृष्टि की फैली दुशाला!



पतझड़ की पत्तियां

बेसहारा हो पड़ती हैं
पतझड़ के आते ही रो पड़ती हैं
रोती पत्तियां
कभी शाखा पर साथ खेलतीं
हवा से अठखेलियां कराती
पेड़ ने उन्हें अलग कर दिया
पेड़ को क्या नए पत्ते आएंगे
इन्हें नीचे पड़ना होगा
समय के साथ सड़ना होगा

बवंडर उदा कहीं  ले जाती