सुबह
लगाकर सुनहरे पंख,
किरणों का विहंग,
अँधेरे को चीरता हुआ,
रख दिया भू पर कदम।
लाल मणियों से सजा,
फहराता अपनी ध्वजा,
रात को खदेड़ता हुआ,
धरती पर किया कब्जा।
सृष्टि का चक्षु खोल,
वो अमृत वाणी बोल,
निद्रा को दूर भगाया,
देकर रतन अनमोल।
सुबह के नाम पर,
जंतु निकले काम पर।
निशा से प्रणय कर,
चाँद चला विश्राम पर।
2
चाँद उतर कर, आया अंगना।
खाट बिछा कर दे दिया धरना।
उतर कर, चाँद, घर में झिझका।
क्यों प्रकाश मद्धम था निज का!
आंगन, खाट पे चाँद का गिरना। चाँद ...
मोह लिया मन, उसका कृत्य।
देखते रह गए हम वो दृश्य।
चाँद का चाँद को लेटे देखना। चाँद ...
आसन्न टकी बस उसकी ओर।
देखता चाँद ज्यूँ कोई चकोर।
ना चूड़ी बजी, ना ही कंगना। चाँद ...
दिल में चाँद, दिल डूबा चाँद में।
दिल पर छायी, चांदनी, रात में।
ना आँखों में नींद, ना ही सपना। चाँद ...
3
मैंने चांदनी को देखा, चाँद के गांव में।
नाचते बाँध के देखा, घुंघरू पांव में।
खेत और खलिहान से बातें करते,
चंपा, चमेली से मुलाकातें करते,
देखा प्यार बांटते, शीतल ठाँव में।
मैंने चांदनी को देखा, चाँद के गांव में।
चांदनी बिखेर, चाँद मुस्कराते देखा,
प्रेमियों की नींदें, चुपके चुराते देखा,
नदी, झील में घूमते, बैठे नाव में।
मैंने चांदनी को देखा, चाँद के गांव में।
कभी बादलों से नीचे झाँकते देखा,
कभी लोगों से प्यार मांगते देखा,
दिलों की बुझाते, तारों की छाँव में।
मैंने चांदनी को देखा, चाँद के गांव में।
4
जल है तो कल है
सूखा, सुखा रहा; सूखी धरातल है।
सूख रहा कंठ है, सूखा ही नल है।
सूख गए ताल तलैया, सूख रहे कुएं,
सूख रहे पेड़-पौधे, सूखती फसल है।
जमीं से निकालना, मुश्किल हो रहा,
नलकूप हो रहा, बेबस आजकल है।
बारिश की कमी से, प्यासी वसुंधरा,
जल बिना हो रही, मही मरुस्थल है।
जल के दुरुपयोग से प्यासे भटकते,
जल की कमी से, जीव जंतु बेकल है।
जल है, तभी तो वृक्षों पर फल है,
व्यर्थ करो जल नहीं, जल है तो कल है।
५
गांव से दूर
चल दिए बाबूजी बन कर शहरी, गांव से दूर।
बाँध कर, गुड़ व सतुआ की गठरी, गांव से दूर।
सड़कें तो मिल गयीं वहां पर, चौड़ी चौड़ी खूब,
दिल की मांगा हो गयी, गली संकरी, गांव से दूर।
दौलत वास्ते आये, दिल को छोड़, गांव से दूर।
आये गौरैया, कोयल से नाता तोड़, गांव से दूर।
मुहाल न ताज़ी सब्जी, गिलास भर ताजा दूध,
चाँद ने भी लिया है मुख मोड़, गांव से दूर।
दिन भर तरसाती नीम की छाँव, गांव से दूर।
ना मेड़ों पर चलना अपने पांव, गांव से दूर।
आता है बसंत, याद आती है फूली सरसों,
प्रेम न भाव, आतिथ्य का अभाव, गांव से दूर।
याद आता वो नदी का तट, गांव से दूर।
घनी छाँव, तले थी जिस वट, गांव से दूर।
चूल्हे की रोटी, छाछ, और गन्ने का रस,
मन रहती केवल, गांव की रट, गांव से दूर।
धुआं पीने को हो गए मजबूर, गांव से दूर।
मिल पाता न त्यौहारों का सुरूर, गांव से दूर।
बदली सी आबो हवा, मिलता नहीं भाईचारा,
थोड़ा पैसा, मिल जाता है जरूर, गांव से दूर।
६
नदी का पानी
बहता दानी, मनमानी, नदी का पानी।
बारिश में होता तूफानी,
नदी का पानी।
बहता रहता, कभी संग में, चाँद को लेकर,
जाने, किस डगर अनजानी, नदी का पानी।
नदी से निकलकर, नहरों की राह होकर,
खेतों को देता रवानी, नदी का पानी।
गुदगुदाता है रेंग, फसलों की जड़ों में,
रखता उनका रंग धानी, नदी का पानी।
कानों में कल कल और आँखों में बहकर,
कर देता है समां सुहानी, नदी का पानी।
लेकर, चल पड़ती, बहने को अविरल नदी,
बना कर के राह दीवानी, नदी का पानी।
करके मैला, इसको, नहीं करो विषैला,
पार लगाता है जिंदगानी, नदी का पानी।
७
चांदनी बिखराकर, चाँद ने मदहोश किया।
मेरे गांव आकर, चाँद ने मदहोश किया।
खोया रहा दीदार में, उसके सारी रात,
दिल में यूँ समाकर, चाँद ने मदहोश किया।
रात भर टकी, लगाकर थकी, घर को चली,
कोयल शरमाकर, चाँद ने मदहोश किया।
प्रियतम के बिना काटी, रात विरहन अकेली,
यादों को भुलाकर, चाँद ने मदहोश किया।
हुई राह खूबसूरत, बने जबसे वो हमराही,
मेरे दिल पर छाकर, चाँद ने मदहोश किया।
अँधेरे को ढूंढने, जुगनू चले रौशनी जलाकर,
राह को चमकाकर, चाँद ने मदहोश किया।
बागों में चमकती, चमेली छटा बिखेरती,
बोली मुस्कराकर, चाँद ने मदहोश किया।
८
किसान
बारिश धूप का दर्द सहकर।
कभी भूखा, कभी नग्न रहकर।
सारे विश्व के भूख का हल,
मौसम की मार को झेलता।
जंतुओं के खतरों से खेलता।
जग की भूख मिटाने को वह,
जाने क्या क्या पापड़ बेलता।
विकास, बिजली उससे दूर।
कच्चा पानी पीने को मजबूर।
रहकर खुद वो तंग हाल में,
सब्जी, अन्न उगाता भरपूर।
बढ़िया छांट शहर को भेज।
खुद के लिए बचे को सहेज।
थोड़े में कृष गुजर कर लेता,
घटिया से भी न उसे गुरेज।
उसको तो थोड़ा मिल पाता।
मोटा माल बिचौलिया खाता।
अथक परिश्रम करता है वह,
और ही कोई, जो मजे उडाता।
उसके दम पशु भी पल जाता।
पशुओं के लिए चारा उपजाता।
पर्यावरण और किसान का,
है बना, तभी तो अटूट नाता।
तकनिकी, विज्ञान से वंचित।
वर्षा पर, वह निर्भर किंचित।
कष्ट में कटते हैं उसके दिन,
निर्धनता ही कर पाता संचित।
शिक्षा का होता, उसे आभाव।
निर्धनता का तो पूरा प्रभाव।
ठगा ही रह जाता है किसान,
परिश्रम का नहीं पाता भाव।
९
गांव को शहर खा गया
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
अम्बर में पसरा, धुएं का अम्बार आ गया है ।
सड़क पर उड़ती, धूल का गुबार छा गया है ।
आस पास के निर्माणों ने, लील ली हरियाली,
आधुनिकता का यहाँ, बरपा कहर खा गया है।
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
हो गयीं हैं सड़कें पक्की, पक्के हुए मकान।
खेती छोड़ दुकान खोल के, बैठ गया किसान।
पैसे के लिए बेचा उसने, अपनी सारी जमीन,
भवन बनाने में खेत को, बिल्डर खा गया है।
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
उद्योगों का कब्ज़ा है, कारखाने खुले अनेक।
शहरी बनने चल दिया, किसान बेच कर खेत।
जोतने बोने का काम छोड़, हो गया मजदूर,
मिटटी सनने का हाथ पैर में, डर खा गया है।
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
परिवार हो गए बड़े, आपस में झगड़े हो गए।
साथ में रहना मुश्किल, जमीन के टुकड़े हो गए।
अलग अलग बनाये सबने, रहने के लिए मकान,
बंटे परिवार, बनने में खेत को, घर खा गया है।
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
बन गयीं विकास के नाम, योजनाएं सरकारी;
भूमि का कर अधिग्रहण, किसान की लाचारी।
बन जाती खेत को छीन कर बड़ी कोई कालोनी,
मानो किसी बकरी को बाघ या केहर खा गया है।
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
१०
बदल गया है गांव
पसार लिया प्रदूषण ने पांव, बदल गया है गांव।
बैलों की अब रही न मांग, बदल गया है गांव।
अब ना वो प्यार रहा, ना भाईचारा कहीं पर,
खींचते हैं एक दूजे की टांग, बदल गया है गांव।
होली, कजरी डिस्को ने ले ली, बदल गया है गांव।
गांव की गोरी जीन्स में हो ली, बदल गया है गांव।
धुआं उड़ाती, दौड़ती गाड़ी, शांति को खाकर,
मग्गू के अब मोटर आ ली, बदल गया है गांव।
घड़े मटके, हो गए प्लास्टिक के, बदल गया है गांव।
क्रिकेट खाया, गुल्ली डंडा का खेल, बदल गया है गांव।
दीया बाती की जगह टंगी अब, है सोलर लालटेन,
खेलते बच्चे अब फोन पर गेम, बदल गया है गांव।
पैदल चल कर, कोई न राजी, बदल गया है गांव।
सैलून वाला, हुआ गांव का नाई, बदल गया है गांव।
चट्टी पर ठेका भी खुल गया, जगे भाग नूरा के,
दोस्तों को अंग्रेजी पिलाई, बदल गया है गांव।
बेरोजगार हो गया कुम्हकार, बदल गया गांव
सुनते हॉर्न, स्वप्न पक्षी का गान, बदल गया गांव
आदर सत्कार होने लग पड़ा तमंचे पे डिस्को बदला गांव
११
गांव का वट
नदी का तट,
बूढ़ा वो वट,
छाँव में स्वर्ग,
आता सिमट।
छाँव की नींव,
जुड़ाते जीव,
लगते मन को,
प्यारे अतीव।
पत्तों के हाथ,
हवा के साथ,
करके करतल,
किये कृतार्थ।
शाखों पर खग,
जमा कर पग,
बैठे सुरमयी,
मणियों के नग।
देखना नित्य,
जल का नृत्य,
मन हर लेता,
विहंगम दृश्य।
888888888888888888888
फूलों ने बहुत लुभाया हमें,
अबकी बसंत न भाया हमें।
तुम रूठकर, गए किस डगर?
हम इधर, रहे थामे जिगर।
तारों ने बहुत उलझाया हमें।
अबकी बसंत न भाया हमें।
दिन ने तो छीना चैन हमारा,
रात ने छीना नीदों का सहारा।
हम दिन से लड़े, रातों से लड़े,
मुश्किल भरी हालातों से लड़े।
मौसम ने बहुत सताया हमें।
अबकी बसंत न भाया हमें।
बागों में थी, उदासी सी छायी,
तुम बिन बहार कहाँ थी आयी।
भौरे भी लौटे, मन मसोस कर।
तितलियाँ रहीं अफ़सोस कर।
बेशक फूलों ने हंसाया हमें।
फिर भी बसंत न भाया हमें।
किरणों ने चूमा, फूलों का मुख।
दोनों का भागा, सारा ही दुःख।
फूलों ने दिया, किरणों को महक।
किरणों ने भरा, फूलों में लहक।
फूल के घर का अँधेरा गया,
किरणों को मिला न्यारा सा सुख।
किरणों ने चूमा ...
किरणों ने फूलों को प्यार दिया,
फूलों ने उन्हें श्रृंगार दिया।
किरणों ने किया चमन रौशन,
फूलों ने उनके मन को प्रसन्न।
गर्मी से अगर व्याकुल भी हुए,
फूलों ने धूप सहा, रह के चुप।
किरणों ने चूमा ...
शाम हुई, सूरज, उलझा सा गया,
फूलों का चमन, मुरझा सा गया।
दिया रात का अँधेरा फिर से,
मिल पायेगा कब सवेरा फिर से।
पर माली का डर न सताएगा,
ये रात रहेगी जब तक सम्मुख।
किरणों ने चूमा ...
लगता है हाथ से निकल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
पेड़ की ठंडी हवा में जुड़ा लेती,
आस पास साईकिल दौड़ा लेती।
गाड़ी के धुएं से हवा विषाक्त कर,
तन मन अपना आसक्त कर।
दुनिया के आडम्बर में ढल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
घर की स्त्रियां देतीं जो पका,
चूल्हे की ताजी रोटी को खा,
परिश्रम का कुछ काम कर लेती,
काम की मस्ती में संवर लेती।
होटल, पार्लर हेतु मचल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
वैद, नाड़ी पकड़ कर जान लेते,
क्या रोग, सहज पहचान लेते।
चूरन, काढ़ा से ही ठीक हो जाती,
दवा से ज्यादा दुआ आजमाती।
जाँच में ही हजारों निगल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
चारों ओर से कांटे फंसाकर,
सुविधा की गाड़ी पर चढ़ा कर,
जिंदगी अब तू खींची जा रही है,
फिर भी ऑंखें मिंची जा रही है।
विलास के दलदल में फिसल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
धीरे धीरे सरकती जा रही थी।
शान से आगे बढ़ती जा रही थी।
पड़ गयी है जाने किस दौड़ में!
जल्दी पहुँचने की तू कहाँ होड़ में!
छोटी अब, उम्र तेरी गल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।
सहकर तुम असह्य पीर,
लिखे हो अपनी तकदीर,
हे कृषक वीर।
झेले कभी सूखे की मार,
गयी बाढ़ कभी तुमसे हार,
तूफानों का झुकाये सिर,
हे कृषक वीर।
कर लेते थोड़े में संतोष,
खा के स्वयं नमक से रोट,
औरों को देते दधि व क्षीर,
हे कृषक वीर।
न मोटर बंगले की आस,
चाहिए ना मोटे गद्दे खास,
धरे हो तन साधारण चीर,
हे कृषक वीर।
धूप छाँव की परवाह नहीं,
बिन शूल तुम्हारी राह नहीं,
मेड़ों पर पावों की लकीर,
हे कृषक वीर।
मिलता अन्न, जग को जब,
करते तुम हो, श्रम का यज्ञ,
धूप में तपाते हो शरीर,
हे कृषक वीर।
संग तुम्हारे पशु पल जाते,
फलों के भी बाग तुम्हीं लगाते,
आयी बाधाओं की चीर,
हे कृषक वीर।
सरि सरवर को खंगाल,
छेद कर गहरा पाताल,
निकाल लाते हो तुम नीर,
हे कृषक वीर।
सारा राष्ट्र, तुमसे निहाल,
भर देते हो अन्न से भंडार,
तरकस से छोड़ श्रम के तीर,
हे कृषक वीर।
तितली
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
तुम पंखों के संग हवा में, बच्चों के चक्षु उड़ाती हो।
रंग बिखेरती भांति भांति के, करती बागों को रंगीन,
फूलों के संग साथ तुम्हारा, जैसे रखती जल से मीन,
ढेरों भर देती हो उमंगें, मन को तुम छू जाती हो।
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
भौरों के संग होती तुम, पर गीत कभी ना गाती हो।
पुष्प पराग फैला करके, फूलों का वंश बढ़ाती हो।
बागों की छटा बढ़ाकर के, मन को बहुत लुभाती हो।
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
कितना खुश होते हैं हम, जब साथ में तुम होती हो।
अचरज में हम, पतझड़ में, कहाँ पर जाकर सोती हो।
बसंत के आते, स्वागत में, फिर से तुम जुट जाती हो।
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
हम दोनों की हवा एक ही , है सूरज की एक सी धूप।
फिर भी पा जाती हो कैसे, कहो, तुम रंग बिरंगा रूप।
ऑंखें हमारी फड़फड़ातीं, जब जब पंख हिलाती हो।
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
अम्बर में तारे टिमटिम करते, और बागों में तुम।
फूलों के गंध में हम खो जाते, स्वाद चखती तुम झूम।
जी चाहे, खेलें साथ तुम्हारे, पास नहीं फटकाती हो।
बैठी रहती फूलों पर, तितली! आते ही उड़ जाती हो।
पानी का उद्योगपति, अनाज का सरकार
तय कर दाम किसान पर, करते अत्याचार
धनवान महंगा बेच के चूना हमें लगाए
हम बोतल में पानी भर लूंगा
दूध से मंहगा कर बेच आये
उनका दूध से महंगा कर के
वे मेरे पीछे होंगे
छीने जा रहा कौन! कहो, बचपन हमारा।
आभासी दुनिया में धकेल, जीवन हमारा।
किताबों में रह गए, कबड्डी, गुल्ली डंडा।
मोबाइल, कंप्यूटर में आया, खेल का फंडा।
ऐसी रूम की छत में सिमटा, गगन हमारा।
छीने जा रहा कौन! कहो, बचपन हमारा।
लड़ झगड़ कर, एक हो जाते, गले लगाकर।
बीच बचाव कर देते, कोई अंकल आकर।
सुलझाएगा कौन! चैट का अनबन हमारा।
छीने जा रहा कौन! कहो, बचपन हमारा।
रूठ जाते, चाँद, तारों का कौर, माँ खिलाती।
गुड़, घी लपेट, रोटी अब वह कहाँ थमाती!
चाउमीन, बर्गर तोड़ रहे, अनशन हमारा।
छीने जा रहा कौन! कहो, बचपन हमारा।
खेल के साथ घर के काम में हाथ बंटा लेते।
बड़ों को सहारा देते, कुछ सीख सिखा लेते।
होम वर्क के बंधन में अटका तन मन हमारा।
छीने जा रहा कौन! कहो, बचपन हमारा।
घुरहू कमा के आया गांव।
सब जगह हो रहा कांव कांव।
लेकर आया बटुआ, झुमका;
परफ्यूम लाया बड़े गजब का।
मोबाइल लाया पापा के नांव।
पहले से बदल गई है चाल।
सबको सुनाता शहर के हाल।
देखते बनता उसका भाव।
गर्मी का कोप सहन न होता।
कूलर लगा कर घर में सोता।
खटिया न भाती पेड़ की छाँव।
दूर से करता नमस्ते, प्रणाम।
छू लेता कभी घुटना या जांघ।
छूता था पहले झुक कर पांव।
स्त्री करवाया अपने वस्त्र।
खूंटी पर चूहा गया कुतर।
चल न सका फैशन का दांव।
पानी बरसा खूब झमाझम।
बड़े दिनों में देखा ये आलम।
बाहर निकला, फिसला पांव।
तलवा कर खा लिया पकौड़ी।
थोड़ी ना, वो भी तीन कटोरी।
अगले ही दिन पकड़ा आंव।
हिंदी पढ़कर
हिंदी पढ़कर, स्कूल सरकारी में।
पड़ गयी है जिंदगी, लाचारी में।
चतुर लोग, चुपके अंग्रेजी पढ़कर।
बन गए जा, सरकार में अफसर।
झोंककर हमको बेरोजगारी में।
'अंग्रेजी हटाओ' नारे में उलझाए।
अपनों को वो अंग्रेजी पढ़वाये।
रह गए हम, इस मारा मारी में।
लेने आती उनको, मोटर गाड़ी।
टाई के आगे हम लगते अनाड़ी।
रहे साईकिल की सवारी में।
गिटपिट कर वो कहाँ निकल गए।
गरीबी के, हम गढ्ढे में फिसल गए।
मन लगा के हिंदी प्यारी में।
न्याय व्यवस्था देश की अंग्रेजी में।
झेला अन्याय, रहा जो स्वदेशी में।
फंसकर भाषा की बीमारी में।
सरकार भी दोहरी निति अपनाती।
हमें दलिया, उन्हें अंग्रेजी पढ़ाती।
न पेट भरा, न हुए संस्कारी में।
बिन अंग्रेजी जिन्दा, चीन, जापान।
मर रहा था फिर क्यों, हिंन्दुस्तान!
लिप्त मातृभाषा से गद्दारी में।
अम्बेडकर भी अंग्रेजी पढ़कर
संविधान के हो गए श्रेयस्कर
घूँघट में चाँद
अपने ही गांव पड़ा, घूँघट में चाँद।
ले के अरमान खड़ा, घूँघट में चाँद।
मुस्कराकर के खूब, जगमगाकर बहुत,
रंग जमाया बड़ा, घूँघट में चाँद।
देखता उसकी ओर, टक लगा के चकोर,
मन में उसके मढ़ा, घूँघट में चाँद।
अकेले था मगर, किया रौशन वो घर,
प्रीत के अम्बर चढ़ा, घूँघट में चाँद।
अनमोल घर का रतन, लाज ऊपर पहन,
पी के अंगना जड़ा, घूँघट में चाँद।
गया प्रियतम परदेश, न आया सन्देश,
घर तन्हाई से लड़ा, घूँघट म चाँद।
कजरी गीत
घिर घिर आयी कारी बदरिया, सावन बरसन लागे ना।
घर नहीं आये रे सांवरिया, जियरा तरसन लागे ना।
ताल तलैया भर गए सारे, हर रोज निहारूं डगर मैं ।
कैसे मैं समझाऊं सजन को, उपाय ना कोई नजर में।
दामन मोरा डर डर जाये, दामिनी तड़पन लागे ना।
सखि सब झूला झूल रहीं, मैं पड़ गयी यहाँ अकेली।
सावन में छोड़ पिया परदेश, बनी हूँ मैं तो पहेली।
ऊँची पेंग दिखा के मोंहे, सखियाँ मटकन लागें ना।
खेतों में उग आये धान, मेढक, मोर, पपीहरा पुकारे।
सावन, कर दे ना जला के राख, पिया अब तो आ रे।
जब जब आवे ठंडी बयार, अँखियाँ फड़कन लागे ना।
चाँद मुस्कराया
अम्बर को सजते देखा, चाँद मुस्कराया।
तारों को बहलते देखा, चाँद मुस्कराया।
तारों के संग निकल, पोखरा के पानी में,
रूप को निखरते देखा, चाँद मुस्कराया।
रात भऱ टक लगाए, उसने अपनी ओर,
चकोर को तकते देखा, चाँद मुस्कराया।
बादलों के झरोखों से, चांदनी में नहा के,
नदी को धीरे बहते देखा, चाँद मुस्कराया।
चांदनी के रंग से मिलते, गांव के बाग में,
चमेली को खिलते देखा, चाँद मुस्कराया।
फसल लहलहाते, चकवा को चहचहाते,
चुपके रात ढलते देखा, चाँद मुस्कराया।
तन्हाई की उस रात में, छत पर अकेले,
चाँद को टहलते देखा, चाँद मुस्कराया।
ईद का चाँद
दिल में उतर आया है, ईद का चाँद।
साल भऱ पर आया है, ईद का चाँद।
मिलेंगे गले से हम, मनेगी ईद सुनो,
फलक पे नजर आया है, ईद का चाँद।
मांगे रमजान में, दुआएं सबके लिए,
खुशियां लेकर आया है, ईद का चाँद।
साफ पाक कर मन, नए कपड़ों को पहन,
छिड़क के इतर आया है, ईद का चाँद।
दिन ये मीठा कर, हवा में मिठास भर,
ले मिठाई घर आया है, ईद का चाँद।
बच्चे खुश होंगे बड़े, मन में जोश भरे,
सोचकर इधर आया है, ईद का चाँद।
नफरतों को मिटाने, प्यार का खजाना,
भर के जिगर आया है, ईद का चाँद।
मुहब्बत सिखाने को, छोड़ नफरतों का -
बड़ी दूर असर आया है, ईद का चाँद।
गांव प्यारा, नहीं भूलता
सीधा सादा सा बीता कल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
गोधूलि बेला में पुलिया पर बैठ कर,
चरवाहों को आते, पशु समेट कर,
पंछी गगन में, जमीं पर धूल उड़ते,
देखना थोड़ी दूर नदी की धार मुड़ते;
क्षितिज का सिंदूरी आँचल, नहीं भूलता।
जिया
गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
उखाड़ कर ताजी मूली, गाजर खाना।
आम के लिए, बाग़ में दौड़ लगाना।
खेत से तोड़ रसीला गन्ना चूसना।
सोने से पहले परस्पर पहेली पूछना।
नहाते जिसमें, पोखरे का जल, नहीं भूलता।
जिया गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
खेल में कंचे की गोली, जीत के लाना।
टेढ़ी पगडण्डी पर, साईकिल दौड़ाना।
आये अतिथि के स्वागत में जुट जाना।
त्यौहारों पर पहन, नए वस्त्र इतराना।
नाग पंचमी का वो दंगल, नहीं भूलता।
जिया
गांव में वो प्यारा पल, नहीं भूलता।
पीपल के नीचे
होता है अति पावन स्थल, पीपल के नीचे।
मिलती दैविक छाँव शीतल, पीपल के नीचे।
दुनिया से विदा हो गया, इस गांव का कोई,
यादों में रोता घंट सजल, पीपल के नीचे।
अंतिम यात्रा की मिलती है, अंतिम छाँव,
प्राणी को बिताकर कुछ पल, पीपल के नीचे।
घास चरकर जुड़ाने आतीं, भैंसें और गैयाँ,
जाती उनकी दोपहरी ढल, पीपल के नीचे।
करते बसेरा मैना, तोता; कौवा खाता गोदा,
कहीं शाख पर गाती कोयल, पीपल के नीचे।
पीपल पर देवों का वास, बुद्ध ने पाया ज्ञान,
होता संतों का ध्यान सफल, पीपल के नीचे।
भेषज पीपल, पर्यावरण कर देता स्वच्छ,
विशुद्ध हवा का पंखा झल, पीपल के नीचे।
आत्मिक शक्ति और पूजा का शुद्ध स्थान,
पनपे न पतवार अनर्गल, पीपल के नीचे।
कर्ज में मरा
डाला चिंता में मोहें भारी।
मति गयी, पिया की मारी।
इधर ननद है, सास उधर है।
कबसे लगाया मुझ पे नजर है।
बुलावे दे दे के शिशकारी।
मति गयी, पिया की मारी।
चूड़ी, पायल दोनों बैरन।
ऊपर से सांकल भी सौतन।
जाऊं कैसे मैं मतवारी।
मति गयी, पिया की मारी।
काली रात, मन उसका काला।
हुआ गजब का वो मतवाला।
लगता खोटी नियत धारी।
मति गयी, पिया की मारी।
सूरज, तारे, चाँद, ये आसमान हमारा है।
प्रगति पथ पे चलता, हिंदुस्तान हमारा है।
देश भक्ति की चेतना, जन जन में जगायेंगे।
घर घर में हर चेहरे पर, खुशहाली हम लाएंगे।
भारत हो सबसे आगे, अनुष्ठान हमारा है।
शिक्षित और विकसित राष्ट्र का ध्येय हमारा।
प्रेम परस्पर जन जन में, और पनपे भाईचारा।
आपसी प्रेम से निश्चित, अभ्युत्थान हमारा है।
राम राज्य का सपना, भारत में साकार मिले।
हर नागरिक को उसका, समुचित अधिकार मिले।
नित्य झांकता नभ से, स्वर्णिम विहान हमारा है।
भारत होगा सबसे आगे, सर्व शक्ति से सम्पन्न।
हर भारतवासी होगा स्वावलम्बी और प्रसन्न।
अध्यात्म का विशाल ज्ञान, और विज्ञान हमारा है।
वतन के वास्ते जीना वतन के वास्ते मरना
वतन के वास्ते मरने से क्यों कर है डरना
जन्म लिया है माँ सी जिस पावन धरती पर
जज्बा है मन में, उसके लिए कुछ कर गुजरना
बैठी अकेली, खोल के खिड़की, चाँद देखते।
जब नहीं होते वो, रातें कटतीं, चाँद देखते।
जबसे बने हैं वे दोनों एक दूजे के हमराही
कट गयी अपनी राह लम्बी चाँद देखते
अपनी बात
गांव तो स्वयं ही अपने आप में एक कविता है। प्रकृति की गोद में बसा, जीव जंतुओं और वनस्पति को साथ लिए, फैले हुए वृक्षों की हरियाली, पक्षियों के कलरव के मध्य यहाँ का सीधा सादा जीवन किसके मन को नहीं मोह लेगा। दूर दूर तक फैली हुई हरियाली, सरसों के फूल, बाग, चरागाहों में चरते पशु सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। गांव में रहने वाले वयक्ति को हर मौसम का सजीव दर्शन होता है, प्रत्येक ऋतु की अनुभूति, ऋतु के अंक में रहकर होती है। ग्रामवासी चाँद, सितारों से सम्मुख होकर बातें करने का सुअवसर मिलता है। गांव का प्रभात और गांव की संध्या का वर्णन करना तो किसी के लिए भी एक कठिन कार्य है। विहंगों के कलरव के बीच गांव का विहान चित्त हर लेता है। सुदूर सिंदूरी रंग में रंगा गगन, चारों ओर एक अलौकिक शांति, मानो वसुंधरा श्रृंगार किये, अपने यौवन का प्रदर्शन कर रही हो। भोर का आगमन जहाँ मन में स्फूर्ति भर देता है वहीँ शाम को दिवस की विदाई चित्त को शोकाकुल कर देती है। प्रदूषण से दूर, गांव वालों का मिलजुल कर, परस्पर प्रेम के साथ रहना तथा एक दूसरे के लिए सतत सहयोग की भावना रखना एक अनुपम संतुष्टि व सुख का आभास कराती है। गांव में रहकर, प्रकृति के सौंदर्य का समीप से दर्शन मिलता है। ऐसे सुन्दर गांव की पृष्ठभूमि पर कविता लिखने में किसे आनंद नहीं आएगा।
ग्रामवासियों का जीवन, सीधा सादा बिना किसी आडम्बर का होता है वहीँ उनका स्वाभाव भी सीधा सदा एवं सरल होता है। वे छल, कपट और प्रपंच से दूर रहते हैं। साधनों का अभाव होते हुए भी, उनके अंदर आतिथ्य का भाव कूट कूट कर भरा होता है। अतिथि के स्वागत में वे अपने हर स्वार्थ को त्याग देते हैं। गांवों के कारण ही सांस्कृतिक विरासत और संस्कार आज भी बचे हुए हैं। वो गांव ही है, जो त्यौहार आदि मनाने का रंग ढंग, और प्राचीन परम्पराओं को जीवित रखे हुए है। आधुनिक तकनीक और विज्ञानं के अविष्कारों का गांव को पूरा लाभ नहीं मिल पाता, परन्तु ग्रामवासी संतोषी प्रकृति का होता है। उसे बहुत अधिक की आवश्यकता नहीं होती, उसके पास जितना होता है उसी में संतोष करना जनता है, और प्रकृति के समीप रहकर जिस अद्वितीय सुख और संतुष्टि की अनुभूति करता है, बड़े से बड़े धनवान अनेकों सुख के साधन पाकर भी नहीं कर पाता। कजरी गाती औरतों को धान रोपते, अथवा सावन मास में गीत गातीं सुंदरियों को झूला झलते, फिल्मों में देखकर इतना आनंद आता है, तो सोच सकते हैं सजीव देखने में कैसा लगता होगा।
ग्राम वासियों को जहाँ प्रकृति की गोद में विनोद का सुअवसर मिलता है, वहीं भांति भांति की प्राकृतिक आपदाओं का सामना भी करना पड़ता है। उन्हें आंधी, तूफान, सूखा, अकाल, बाढ़, अति वृष्टि, अल्पवृष्टि आदि जैसी भयावह परिस्थितियों का तो सामना करना ही पड़ता है, अनेकों विषैले व घातक जीव जंतु भी उनकी रक्षा के लिए चुनौती बने होते हैं। इन सबसे बचने के लिए, उनके पास कोई ठोस उपाय नहीं होते। ऐसी परिस्थिति में कई बार, ग्रामवासी ईश्वर के ही भरोसे रह जाता है। कई बार मानव कृत निर्माण और परियोजनाएं भी गांव की दुर्दशा को बढ़ाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। आज गांव को शहरीकरण और औद्योगीकरण निरंतर खाये जा रहे हैं, जिसके कारण, अब गांव भी प्रदूषण से अछूता नहीं रहा। गांव में रोजगार की साधन कम होने और धन का अभाव होने के कारण, ग्रामवासियों का शहरों की ओर तेजी से पलायन हो रहा है। कई बार, गांव का यह विकृत रूप देख कर अंतःकरण से दुःख होता है।
मत छीनो, हमसे गांव हमारा।
चाँद, सितारों की छाँव हमारा।
हम गांव में, गांव हममें बसता,
यहीं पड़ा, धरा पे पांव हमारा।
मेरा बचपन गांव में बीता है, अतः मैंने गांव को समीप से देखा है। उन्हीं अनुभवों के द्वारा ग्राम्य जीवन के कुछ पहलू कविताओं में ढालकर, इस पुस्तक 'चाँद के गांव' में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। वैसे तो गांव और गांव के जीवन पर कितने ही ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं, किन्तु कुछ चुने विषयों पर जितना कुछ मुझसे बन पाया कलमबद्ध करने का प्रयत्न किया। मैं पूर्णरूप से आशान्वित हूँ कि मेरी इन छोटी छोटी रचनओं को आपका प्यार अवश्य मिलेगा।
एस. डी. तिवारी, एडवोकेट
साहित्य की दुनिया श्री एस. डी. तिवारी का नाम संभवतः नया प्रतीत हो रहा हो किन्तु वे एक दर्जन से भी अधिक काव्य पुस्तकों के रचनाकार हैं। वे चहुंमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनका जन्म सं १९५५ में गाजीपुर जनपद के एक गांव में, एक साधारण किसान परिवार में हुआ। गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ते, गुल्ली डंडा और बांस की हाकी बनाकर खेलते, बड़े हो गए। बचपन गांव में व्यतीत होने के कारण, उनकी प्रकृति से निकटता बनी रही और प्रकृति का यह लगाव अंत तक कम नहीं हुआ। बचपन में बारिश देखना, बारिश में भीगना, भरे ताल तलैया, मेढकों की टर्र टर्र उनके मन को आनंद से भर देते। भोर के अँधेरे में ही जाकर, अपने बाग से टपके हुए पके आम बिन कर लाना और अपनी पसंद के आम अलग रख लेना, उनके बचपन का अति सुन्दर पहलू होता। आंधी आने पर जहां लोग घर में छुप कर बैठते, वे गांव के अन्य बच्चों के साथ आम बिनने के लिए बाग़ में धावा बोलते। बचपन से ही वे अत्यंत कर्तव्यनिष्ठ, सचेत और दयालु प्रकृति के हैं। प्रतिभाशाली छात्र होने के कारण, अपनी उम्र के बच्चों की टोली में उनका सतत सम्मान रहता।
उनके पिता श्री वंश नारायण तिवारी, आजीविका की खोज में दिल्ली आ गए थे, इस कारण श्री एस. डी. तिवारी का भी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ग्रहण करने के पश्चात्, उच्च शिक्षा के लिए, दिल्ली पदार्पण हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा की अवस्था में ही उनके हृदय में कवि का जन्म हो चुका था। तत्कालीन पाठ्य पुस्तकों की कवितायेँ उन्हें अत्यंत प्रिय थीं। उस समय मीरा, सूर और कबीर के अतिरिक्त, रामधारी सिंह दिनकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, मैथलीशरण गुप्त आदि की कवितायेँ पाठ्यपुस्तकों में होने के कारण उन्हें पढ़ने का अवसर मिला और ये सभी उनके प्रिय कवियों में से हैं । परिस्थितियों वश, उन्होंने रोजगार परक शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव किया, इस कारण स्नातक स्तर पर वाणिज्य विषय को चुना। अभी शिक्षा पूरी भी नहीं हुई थी कि मां बाप ने वैवाहिक सूत्र में बांध दिया। विवाह के पश्चात् उनकी पत्नी सुनैना ने, शिक्षा ही नहीं, अपितु जीवन के हर यज्ञ में उन्हें भरपूर सहयोग दिया। अपनी पढ़ाई चालू रखते हुए, उन्होंने वाणिज्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त किया और इसके अतिरिक्त विधि में स्नातक और कार्मिक प्रबंध में डिप्लोमा भी किया।
शिक्षा पूरी होते ही उन्हें, एक सार्वजानिक संस्थान में सेवा करने का अवसर मिल गया। केंद्रीय सरकार के सार्वजनिक उपक्रम में, वे प्रबंधकीय पद पर तीस वर्षों तक विभिन्न विभागों में कार्यरत रहे। अपने कुशल एवं निष्ठा पूर्ण कार्य के कारण, वे पूरे ही कार्यकाल में वरिष्ठ और अधीनस्थ दोनों ही अधिकारियों व कर्मचारियों के प्रिय रहे, और उनका कार्य प्रशंसनीय रहा। इन्हें आरम्भ से ही सरल और सीधा सादा जीवन पसंद रहा, इस कारण स्वयं भी वे सरल स्वाभाव के ही हैं। अपने सेवा काल में, वे साहित्य के क्षेत्र में कोई विशेष योगदान नहीं दे पाए, बस छुटपुट काव्य रचनायें करते रहे। इस अवधि में उन्होंने श्री दुर्गा सप्तशती का हिंदी काव्य रूपांतरण किया और अपने स्वयं के प्रयास से प्रकाशित भी करवाया। सेवा निवृत्ति के पश्चात् उनकी लेखनी ने गति पकड़ी और काव्य उनके जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। वैसे तो दिल्ली के न्यायालयों में वकालत भी करते हैं, परन्तु साहित्य के लिए, वे पूर्णतः समर्पित हैं।
उन्हें प्रकृति से बहुत प्रेम है और साथ ही देशाटन का। पर्वत की वादियों और समुद्र की लहरों के साथ उन्हें हरे भरे उद्यानों में रंग बिरंगे खिले फूल देखना भी बहुत भाता है। वे देश के लगभग सभी प्रमुख स्थलों की यात्रा के अतिरिक्त, कई विदेश यात्रायें भी कर चुके हैं। एक बार उन्हें ऑस्ट्रेलिया जाने का अवसर मिला, वहां उन्होंने अंग्रेजी में कुछ कवितायेँ लिखीं जो कि वहां की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। यह उनके अंग्रेजी में कविता लिखने का प्रेरणा स्रोत बन गयी। तत्पश्चात, अंग्रेजी की अनेकों कवितायेँ लिखीं और कविताओं की वेबपृष्ठों पर प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने उन वेबपृष्ठों पर अंग्रेजी की कई प्रतियोगिताओं के लिए भी अनेकों कवितायेँ लिखीं और उनमें से कई कविताओं ने प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त किया। इस बात ने उन्हें और लिखने के लिए, उत्साह से भर दिया। उनकी हिंदी काव्य यात्रा सेवानिवृत्ति के पश्चात् गतिमान हो गयी और कुछ ही वर्षों में इनकी लेखनी ने विभिन्न विधाओं की रचनाओं का भरमार लगा दिया।
अंग्रेजी की कविता लिखने और काव्य वेबपृष्ठों पर प्रकाशित होने के क्रम में इनका हाइकु विधा से साक्षात्कार हुआ और अंग्रेजी भाषा में अन्य विधाओं के साथ हाइकु भी खूब लिखे। अंग्रेजी से हाइकु सीखने के पश्चात् हिंदी में भी हाइकु लिखना प्रारम्भ किया और हाइकु लिखने की सम्पूर्ण विधि बताते हुए अपनी पुस्तक 'हाइकु शास्त्र' की रचना की। हाइकु शास्त्र के अतिरिक्त इनकी हाइकु रचनाओं में नन्हीं, बोलते मोती, मोतियन की लड़ी, तेरे नाम के मोती, मुहब्बत के मोती प्रकाशित हाइकु संग्रह हैं। हाइकु के अतिरिक्त गीत, गजल, मुक्तक, गद्य गीत, दोहे, कुंडलियां, कह मुकरी, कहानियां आदि भी इनकी रचना विधाएँ हैं।
अन्य विधाओं में श्री एस. डी. तिवारी की हिंदी काव्य रचनाएँ हैं : दिल्ली के झरोखे, दुनिया गिर गयी, गुनगुनाती हवा, क्या सखि साजन, चाँद के गांव इत्यादि और कहानी संग्रह, जिनमें साहित्य के विभिन्न रसों का स्वादन किया जा सकता है। इनके भाषा की शैली में, आम बोलचाल की खड़ी हिंदी है। अंग्रेजी भाषा की उनकी अब तक दो काव्य रचनाएँ प्रकाशित हैं : 'द सिंगिंग ब्रीज' और 'बर्ड्स ऑफ चांटिंग वर्ड्स'। ये दोनों पुस्तकें देश के अत्यंत प्रतिष्ठित प्रकाशक 'नोशन प्रेस' ने प्रकाशित की हैं। यह तो उनकी साहित्यिक यात्रा का आरम्भ भर है, अंतिम पड़ाव की खोज में यह यात्रा कहाँ तक ले जाती है, समय ही तय करेगा। उनकी साहित्यिक यात्रा का आरम्भिक दौर होने के कारण, अभी वे साहित्यिक अलंकरणों से अछूते रहे हैं। उनको मात्र, अधूरा मुक्तक फेस बुक साहित्यिक मंच द्वारा 'साहित्य रत्न' सम्मान प्रदान किया गया है। किन्तु यह बात अति विस्वास के साथ कहा जा सकता है, यह साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा, हिंदी साहित्य में अपना एक विशेष स्थान अवश्य बनाएगा।