Rengati
Barish ki pratiksha
Chinti
मंगलू की शादी Barat dulha lapata scooter mitti ka tel
Scooter par barat
Rape of constitution
आये द्वार पर कोई, लौटा न देना खाली।
फैलाओ तुम भी झोली तो होवे ना खाली।
जाओगे घर उसके, दुआएं साथ न होंगी;
रह जाएगी मुट्ठी भी तुम्हारी, वरना खाली।
श्रमिक चला घर से, जलाकर दिल में आग।
आग वो बुझाएगी, परिवार के पेट की आग।
हाथों में दम इतना कि खड़ा कर दे महल,
रहता पर झोपड़ों में, गाकर संतोष का राग।
अब हर चीज को और तरह से देखने लगी है।
उठा कर चीजों को कागजों में लपेटने लगी है।
बीबी जबसे विदेश से आई मैं तो डरने लगा हूँ,
घर का पुराना सामान, निकाल फेंकने लगी है।
बादलों सा उड़ जाते हैं पर आवारा नहीं हम हैं।
वो तो तुम्हारी चलायी हुई हवाओं का दम है।
घुमड़ कर आएंगे फिर से तुम्हारे ही पास हम,
थोड़ा सा बढ़ कर, थाम लेना तुम्हें कसम है।
तुम्हारी उगली हुई बात, जब जहर हो गयी।
उसे काटने की हरेक दवा, बेअसर हो गयी।
जकड़ी पहले ही बीमारी, चल रही थी दवाई
उस पर जहर की मार, और जबर हो गयी।
बादल सा हल्का होते, हवा के साथ उड़ जाते।
तुम पड़े, चट्टान सा अड़े, देखते भर रह जाते।
देखते फिर भी कभी धूप में जलते तुमको,
छाँव लेकर आते फिर से, ऊपर घुमड़ जाते।
विलुप्त हो गयी है एक जाति चम्बल की घाटी से।
हाँक कर ले गया कोई दूर, उसको इस माटी से।
कुछ तो पहुँच गए सदन और कुछ बने हैं ठेकेदार
धनवान हुए मीत, गरीब भयभीत इस परिपाटी से।
कोई शौक तो कोई अंदाज दिखाने के लिए पीता है।
कोई पीने के लिए, कोई रंग ज़माने के लिए पीता है।
पीने वालों के पीने पीने में, होता है बड़ा फर्क यारो
कोई यादों में डूबा, कोई याद भुलाने के लिए पीता है।
आजकल इस देश में ठेकेदारी का जमाना है।
जाति, धर्म, राजनीति में बस यही फ़साना है।
गरीबों के नाम पर घड़ियाली आंसू बहा देते,
आरक्षण का लाभ भी ठेकेदारों को उठाना है।
साजिशकारों के लिए सजा भी माकूल होगी।
छुपे जो गद्दार देश के उनके लिए शूल होगी।
साजिशों के बल अपने को तू बालि समझता
सुन रे नापाक तेरी, यह सबसे बड़ी भूल होगी।
नहीं बर्दाश्त हमें, साजिश किसी तौर की।
खाते इस देश की तुम, गाते किसी और की।
बहुत हो चुका सुनो, देश के गद्दारों अब
माने न तो चबायेंगे तरह, रोटी के कौर की।
कहाँ गए कान्हा, भारत कौरवान्वित हो रहा है।
होता द्रौपदी चीर हरण, गांडीव छुप के रो रहा है।
गांधारी के सामने घूमता, नग्न होकर दुर्योधन,
अँधा धृतराष्ट्र तो, चीख सुनकर भी सो रहा है।
मोह में पड़ा धृतराष्ट्र, शकुनि दुष्टता बो रहा है।
पापों के समक्ष झुक, भीष्म विचलित हो रहा है।
गुरु द्रोण सिखाते दाव आज, बस धन की खातिर
अर्जुन का छोड़ा तीर लक्ष्य अपना खो रहा है।
रावणों के बाजार में, सीता फंस गयी है।
चीर खींचने, दुर्योधनों की टोली जम गयी है।
न कृष्ण कहीं अब, न जटायु ही दिखता
धृतराष्ट्रों की आत्मा में कालिख भर गयी है।
खिंच रहा है चीर नित, भय में जी रही अब नारी।
विधि विधिवत है नहीं, न्याय की भी लाचारी।
अब तो पुकारती रो रोकर, बस तुमको ही है वो
कब आओगे तुम हे! लाज बचाने कृष्ण मुरारी।
राम कृष्ण की जन्म भूमि, शिवशंकर का वास।
रहा नहीं प्रभाव अब कोई, रह गया इतिहास।
रावण, कंस के वंशज अब, दिखते यत्र तत्र सर्वत्र
किसका ये अभिशाप, हुआ पावनता का नाश।
कोई है मूर्ति लगाता, कोई महोत्सव मनाता।
जनता के पैसे से, प्रदेश का नेता खेल रचाता।
पेट की भूख पड़ी बड़ी, रोटी हेतु बेचे लैपटॉप
कुपोषण वश निकलता, शिशुओं का जनाजा।
कैसे कैसे भाई
होती उसकी दशा ऐसी, जिसका रावण सा भाई।
विभीषण खाया लात, कुम्भकर्ण ने जान गवाई।
भरत, शत्रुघ्न पाए सबसे, भरपूर आदर सत्कार।
लक्ष्मण पाए प्यार दुलार, राम को पाकर भाई।
दुष्ट बना दुर्योधन, भाई भीम को जहर पिलाई।
पांचाली ने कान्हा को, भाई बनाके चीर बचाई।
भीष्म रहे कुँआरे ताकि होने वाला भाई हो राजा।
शकुनि रहकर बहन के घर, महाभारत रचाई।
एस० डी० तिवारी
न समुद्र नदी से, न लकड़ी से आग अघात।
तृप्ति न पाता काल है, सबको खाये जात।
यूँ मनुष्य की वासना, होती नहीं समाप्त,
खिंचा अपने आप ही, समाये काल में जात।
ऊँचा उड़ने वाला, अपने उड़ने पर इतराता है।
मगर कभी ऐसा भी होता, वह नीचे गिर जाता है।
जमीन पर रहने वाले को, गिरने की जगह न होती।
इसलिए वह गिर जाने से, कभी नहीं घबराता है।
तपते लोहे पर भस्म, जल सीप में मोती।
सोना संग लाख की, सोने सी गति होती।
उदित होता या डूबता, सूरज रहता लाल।
ज्ञानी का सुख दुःख में, रहे एक सा हाल।
इंसान कर ले वश में, बाघ भालू व सर्प।
खुद के पाले हों नहीं, वश में क्रोध व दर्प।
सोना का संग पाकर, लाख चमक ना पाय।
मूरख सन्त प्रताप से, वंचित ही रह जाय।
जीतनी चीजें दे दी हैं उपरवाले ने
इंसान तो नाम भी नहीं ढूंढ पाया है
वहीँ बोलो जहाँ उसका लाभ मिले
राज दरबार में मुर्ख बोलकर असम्मान पता है
दन्त बिन सर्प, मद बिन हाथी
शीघ्र वश में हो जाते
बिना विवेक मनुष्य
अंतिम पंक्ति पहली हो जय
ढूंढें हीरे में
सुंदरता की खान
आचरण में
अजात भला
कुपुत्र दे विपत्ति
पड़ के गला
तेरे प्यार ने ऐसा नशा चढ़ा दिया।
मेरा तो शराब का पीना छुड़ा दिया।
गया हूँ डूब, तेरे प्यार में मैं इतना
तासीर ने उसकी सीना जुड़ा दिया।
प्यार को प्यार मिला
मंजिल मेरी तुम हो, तुमसे है जिंदगी मेरी
तुम्हारे साथ से बढ़कर, क्या चीज खुदाई है।
हो ही जाता है ठीक, एक न एक दिन
कैसा भी होवे मर्ज, कोई न कोई दवाई है।
गुजारे थे इंतजार में, होंगे दीदार कभी
अलसायी इन आँखों को रातों में जगाई है।
कांटों का चुभना भी, सह लेता है हर कोई
होता झेलना मुश्किल, बड़ा दर्दे जुदाई है।
चले दूर तक कभी सुनसान उन राहों पर
पावों पड़ी अब तक गहरी वो बेवाई है।
गिले शिकवे जिंदगी के हो गये अब दूर
मेरे दिल की तुम्हारे दिल में रहनुमाई है।
एस० डी० तिवारी
मेरा शहर
क्या हो गया मेरे शहर को?
क्यों ये शहर अब अनजान सा लगता है ?
आज हर शख्श, परेशान सा लगता है।
होता मुश्किल है बड़ा, करना भरोसा भी
शक्ल से कपटी, बेईमान सा लगता है।
जाने किस होड़ में, हरेक रहा है दौड़,
मंजिलों से अपनी, अनजान सा लगता है।
भरा है खोखलापन, इन ऊँचे बंगलों में
बने पत्थरों के, आलीशान, सा लगता है।
हो गया खुदगर्ज ये, खुद की खुदी में
खुदा को भी भूला, इंसान, सा लगता है।
दरिंदों के खौफ से, ढह चुकी बहादुरी
खंडहरों का बस, निशान सा लगता है।
बिगड़ चुके हैं अब तो, हालात इस कदर
सुधर पाना नहीं आसान सा लगता है।
लूटने में जुट गए हैं, सब एक दूसरे को
इंसानियत का इक श्मशान सा लगता है।
- एस० डी० तिवारी
जकड़ी हूँ जंजीरों में बेशक सोने की
मापनी : 122 122 122 122 "
पसीने से बादल के भीगा है सागर
कर गया कौन खारा उसे चिढाकर
बड़ा कठिन है जाना नजरें बचाकर
चाहते हैं दिलो जान से हम
इम्तहान न ले आजमाकर
बस गया तू मन में समाकर
तेरी याद में नहाकर
किससे आजादी
पहचानो, वो कौन हैं? जो तुमको भड़का रहे।
आका कहलाने के लिए, तुम पर जुल्म ढा रहे।
आजादी के बहाने, करना चाहते तुम पर राज,
उनकी खुदगर्जी, तुम लोग लाठियां खा रहे।
कुछ लोग हैं, जिन्हें बादशाहत की चाहत है।
करवाते भोले भाले लोगों को कुर्बान नाहक हैं।
आजादी का ख्वाब दिखा, बनाते अपने गुलाम,
अपने खातिर करते, आवाम का कल आहत हैं।
भड़काने में जो आ रहे, इस बात से अनजान हैं,
किस बात की आजादी? क्यों दे रहे वे जान हैं ?
क्या वहां के सभी वाशिंदे, बादशाह हो गए हैं,
वो भी तो एक आजाद मुल्क, पाकिस्तान है ?
मिलती गर जन्नत, वे भी अपना खून बहाते।
तुम्हें भड़का के, लंदन की ठंडी हवा क्यों खाते ?
अपने बच्चों को विदेशों भेजकर महफूज रखे।
तुम्हारे बच्चों से सेना पर पत्थर क्यों फेंकवाते।
जानो बड़ी मुश्किल से मिलती है, जम्हूरियत।
तानाशाहों के रवैये, आवाम को ले जाते हैं गर्त।
आजाद रहकर भी ढूंढ रहे, आजादी हो तुम
मटियामेट करने में लगे, खुद की ही किस्मत।
जेहादियों! नफरत से जेहाद करना सीखो।
झूठ, लोभ, कुकर्म से जेहाद करना सीखो।
डाह, कुढ़न और गुस्सा हैं तुम्हारे दुश्मन
हेकड़ी और हवस से जेहाद करना सीखो।
देश भक्ति का जज्बा मन, सीमा पर तुम डटे हो।
मुश्किलें कितनी भी आएं, पीछे न तनिक हटे हो।
हो जाता तुम समक्ष अरि, घुटने टेकने को बाध्य
जब भी वह आंख दिखाया, किये तुम दांत खट्टे हो।
हे राष्ट्र के प्रहरी ! तुमसे ही पूरा राष्ट्र सुरक्षित।
तुम जगते तो होती, नींद हमारी है सुनिश्चित।
हे राष्ट्र रक्षक ! भारत के नाम किये तुम प्राण,
हम करते हैं नमन, तुम किये जीवन समर्पित।
एस० डी० तिवारी
कोई मूर्ति लगाता, कोई है महोत्सव मनाता।
जनता के पैसे से, प्रदेश का नेता खेल रचाता।
गरीब बेचते रोटी हेतु, मुफ्त मिला लैपटॉप
निकलता कुपोषण वश, शिशुओं का जनाजा।
लचर पड़ी लोगों की सुरक्षा, दूषित है पर्यावरण।
सरकार को सरोकार नहीं, जनता का हो मरण।
व्यवस्था की बात छोड़, करें दोषारोपण की बात
नेता जुटे करने में, हर बात का राजनीतिकरण।
ईश्वर नें बनाया, स्वर्ग धरती पर ।
बना रही नर्क, तुम्हारी करनी, पर ।
करते खिलवाड़ जल, थल, हवा से;
क़तर रहे जिंदगी का, अपनी ही पर ।
- एस० डी० तिवारी
चलो क्यों न जिंदगी की कुछ गति घटा लें
यूँ हम थोड़े लंबे समय तक चल लेंगे।
भागेंगे तेज तो मंजिल जल्दी आ जाएगी
दरिया में मिली बूंद सा नाम खो देंगे।
छोटा समझ ना करना, कभी भी तिरष्कार।
सौ का नोट बड़ा हुआ, छोटा पड़ा हजार।
समय समय की बात है, कब किसका हो मोल।
किसकी कर दे बंद वह, किसकी किस्मत खोल।
लचर पड़ी लोगों की सुरक्षा, दूषित है पर्यावरण।
सरकार को सरोकार नहीं, जनता का हो मरण।
व्यवस्था की बात छोड़, करें दोषारोपण की बात
नेता जुटे करने में, हर बात का राजनीतिकरण।
जमीन में गड़े।
सड़ जायेंगे पड़े।
रखा जो होगा
काले नोट बड़े।
लोकतंत्र होता भ्रष्टाचार का रूप, समझते कुछ लोग।
लोकतंत्र में होती हैचोरी की छूट, समझते कुछ लोग।
उन्हीं के हक़ को छीन छीन कर, बांटते रहते रेवड़ी,
जनता बंधी रहेगी उनके ही खूंट, समझते कुछ लोग।
काला नहीं होता है, हजार, दो हजार का नोट।
काला बनाता, चलाने वाले की नीयत का खोट।
सब्जी काटने के लिए खरीद कर, लेते हो जान
और कहते फिरते कि इसमें है, छूरे का दोष।
आरी से कटवाएगा, मैं सूखा लेकर आऊंगा।
मेरा दिल दुखायेगा, छोड़ मरुस्थल जाऊंगा।
रखेगा मेरा ख्याल अगर तू, मैं तेरा जंगल सुन,
पायेगा सुन्दर जग, तुझ पे सुख बरसाऊंगा।
ऐसे खून पियेगा तू, जीवित कैसे रह पाऊँगी ?
तेरे मैं लोभ का मानव, यूँ ही भेंट चढ़ जाउंगी ।
सोने का अंडा दे जो मुर्गी, पेट देता है तू फाड्,
देख, बच्चे भूखे हैं मेरे, दूध कैसे पिलाऊँगी ?
देख रहे दशाब्दियों से, आम आदमी को कतार में।
काले धन वाले जाते, महंगे स्कूल, अस्पताल में।
कुछ दिन और बैंको में खड़ी रह सकती है जनता
सुनिश्चित हो, देश फिर न लिप्त हो भ्रष्टाचार में।
- एस० डी० तिवारी
काश उन खामोशियों को सुन लेते।
सही मंजिल तक की राह चुन लेते।
हंसते खेलते हम चलते साथ-साथ,
युदा होने की वो कभी न धुन लेते।
सुन के खबर, रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।
जिनके बेटे फ़ौज में, डरे हो जाते हैं।
कौन होगा? आज जो शहीद हुआ है
सोच कर पत्थर सा गड़े हो जाते हैं ।
- एस० डी० तिवारी
चाहे से मिलता नहीं, बिन चाहे मिल जाय ।
मिल जाये वो भी कभी, मन को ना भाय।
किसको कब क्या देना, रखता है वो याद,
पा जाने पर आदमी, देता उसे बिसराय।
पैसे के लिए इंसान क्या क्या खेल दिखाता हैं।
एक आदमी दूसरे आदमी को ही बेच आता है।
पैसों के लिए देखा, लाशों की जेबें टटोलते हुए,
प्रयोग के लिए ही सही, मुर्दे भी बेच आता है।
फालतू बातों की जमाखोरी करना बंद कर दिया।
लोगों की बातों को सिर पर रखना बंद कर दिया।
करके रखा था जमा कब से, मन की तिजोरी में,
खोटे पड़े बेकार के नोटों सा चलना बंद कर दिया।
एस० डी० तिवारी
वीरानी सी छायी मन में,
फूल खिले नहीं चमन में।
तुम गए हो जबसे ...
मुरझाई सी बैठी रहती है,
पूछो तो कुछ ना कहती है,
मैना गाती नहीं उपवन में।
तुम गए हो जबसे ...
आ आकर चले गए बादल,
ललचाये होकर के श्यामल,
पर बरसे नहीं सावन में।
तुम गए हो जबसे ...
चाँद मध्धम सा दिखता है,
रात का कालापन डंसता है,
तारे भी धूमिल गगन में।
तुम गए हो जबसे ...
- एस० डी० तिवारी
रखने के लिए तिरंगे का मान।
दांव पर लगाता अपनी जान।
शहीद होने पर लिपट तिरंगा
सैनिक का बढ़ा देता सम्मान।
दुश्मन के इशारे पर, तुमने अपने भाईयों को मारा।
लेता रहा है बदला, जो पचासों साल पहले था हारा।
दुश्मन के बहकावे में आ, मार रहे खुद के मित्रों को,
शत्रु तो तालियां बजायेगा, सर्वनाश होगा तुम्हारा।
तुम रहोगे तब भी अवाम ही, वह राजा गद्दार मौज
अकेला तो पहले भी था, दिल इतना उदास न था।
चाँद सितारे साथ थे, जब कोई आस पास न था।
थीं बीती बातों की यादें, यादों में कोई खास न था।
न थे जिंदगी में वो, किसी को खो बदहवास न था।
निकले हम बाजार दर्द खरीदने।
गा दिया दुखड़ा अपना गरीब ने।
मुफ्त में ले जाओ मुझपे बहुत है
दे दूंगा सब, जो दिया नसीब ने।
सर्दियों का मौसम, जब आता है धरती पे।
बादल अपना पसीना गिराता है धरती पे।
हवा में लटककर, बन जाता है कोहरा वो,
ओस बन जाता, जब गिर जाता है धरती पे।
जाड़े का मौसम आया;
बादलों ने स्वेद बहाया ।
कभी धुंध की रंगत बन,
कभी कोहरा बन छाया।
घर में फ्रीज व माइक्रोवेव जबसे आ गया है।
डॉक्टर जैसे बीबी का प्रिस्क्रिप्शन छा गया है।
सब्जी को दो बार, दाल है तीन बार खाना
चावल को कल फ्राई होने को रखा गया है।
काला धन, जो अब तक था काली तिजोरी में।
जगह कम पड़ने पर भर-भर रखा था बोरी में।
निकल कर घूम रहा है, छुपने की जगह ढूंढता
समझ में अब आया, मजा नहीं जमाखोरी में।
एस० डी० तिवारी
वर्षों रहे कैद, कभी तिजोरी, कभी तहखाने में
जी चाहा बहुत, हम भी घूमें फिरें, इस ज़माने में
ये तो अच्छा हुआ, नोटबंदी हुई, वरना सड़ते वहीँ
जुल्मी बाहर निकाल, लगे ठिकाने हमें, लगाने में
काले कारनामों से कालाधन कमाते रहे।
गोदामों में भर कर अनाज सड़ाते रहे।
नेकनियती से गरीब को खिलाया नहीं,
नाम कमाने के लिए,भंडारे चलाते रहे।
काला धन बढ़ता रहे, युगत लगाते रहे।
अपने को कुबेर होने का गाना गाते रहे।
धन का सदुपयोग करना कहाँ से सीखें,
पत्थर तुड़वाते और पत्थर लगवाते रहे।
बड़े बड़े अधिकार लिए पदों पर आते हैं।
देश के विधान में जनसेवक कहलाते हैं।
जन की सेवा करना लगता है मुश्किल,
जन प्रतिनिधि की सेवा में जुट जाते हैं।
नोटबंदी ने बहुतों के भाग्य को मोड़ा।
किसी के फूल, किसी की राह का रोड़ा।
होती रहेगी काले कुबेर की जय जय
उनके मन में छाये मिथक को तोडा।
पैसे के लिए क्यों मरा जाता है आदमी।
ईमान, जमीर सब, मार देता है आदमी।
जानता जब कि पैसा नहीं है सब कुछ,
पर इंसानियत को गाड़ देता है आदमी।
संतोष मारे हवस को, दान मारे लोभ ।
दया मारती ईर्ष्या को, धैर्य मारे क्रोध ।
उत्साह से आलस मरे, संयम से तृष्णा।
विनम्रता हरे गर्व को, प्यार मारे घृणा।
शंका की डोर रिश्तों को भगा देती है
लोभ की डोर नियत डगमगा देती है
नेक नियती ही लेकर जाती सही राह.
विश्वास की डोर डर को भगा देती है
सुन्दर मुखौटा देखकर धोखा ना खाना कहीं ।
पीछे छुपे चेहरे पर भरोसा ना जताना कहीं ।
मुखौटे के पीछे छुपा ना हो नक्काल कोई,
बना कर बैठा हो फांसने का बहाना कही ।
जब जाड़े का मौसम आता है;
बादलों को पसीना आता है।
कभी धुंध की रंगत बन कर,
कभी कोहरा बन के छाता है।
एस० डी० तिवारी
गंतव्य तक जानें के लिए चलना होता है ।
सूरज सा चमकने के लिए जलना होता है ।
सफलता के लिए विश्वास की लगाम पकड़
परिश्रम के दौड़ते घोड़े पर चढ़ना होता है ।
पौधे से फल पाने के लिए सींचना होता है ।
बर्फ को फ़ैलने के लिए पसीजना होता है ।
केवल हरा भर देने से कुछ नहीं हासिल
किसी को हराने से बड़ा जीतना होता है ।
डंठल से धान पाने के लिए पीटना होता है ।
गेहूं से रोटी बनाने के लिए पीसना होता है ।
जो हाथ पर हाथ रखता, हाथ ही मलता
सुगंध के लिए चन्दन को घीसना होता है ।
ऊँचे पर्वतों के दूसरी ओर ढलान होती है।
ऊँचा जाके गुब्बारे की हवा तमाम होती है।
कुछ भी टिका नहीं रहता ऊंचाई पर जाकर
सूरज की भी दोपहर के बाद शाम होती है।
मकड़े को कोई नहीं सिखाता
मगर जाल खुद बुन लेता है।
सर्प के कान नहीं होते
पर आहट को सुन लेता है।
बछड़े की अंगुली कौन पकड़ता
जनमते ही दौड़ लगाता है।
मछली समुद्र पार कर लेती
तैरना कौन सिखाता है।
बिना कुदाल फावड़ा के ही
चूहा जमीन खोद लेता है।
बीज जमीन के नीचे बोते
पेड़ के ऊपर से निकलता है।
बने रहे पिंजरे के पंछी।
ये तो थी बस हमारी मर्जी।
वरना उंचाईयों को छू लेते
पंख तो यूँ रखे थे हम भी।
उंचाईयों को छू तो लेते।
पर इसमे बड़े झमेले थे।
किसी को हटाते, मिटाते
ऐसे खेल कभी ना खेले थे।
एक गजल
रहने की जगह ढूंढ, गिराया ज़मीन पर
शुक्रिया खुदा
घर से भेज जमीं पर, रहने के लिए जगह दी।
चलने के लिए पांव, सोने के लिए सतह दी।
खाना, पानी, हवा, दवा, सिर पे छाँव दिया
प्यार बेसुमार दिया, कभी गर विरह दी।
राह में पड़े कांटे, पांव में कभी चुभे तो
निकाल उसे लेने को, काटों से सुलह दी।
कितने तो दुश्मन हैं, होता दुस्वार जीना
बा अक्ल हम उनसे लड़े, और तूने फतह दी।
रिश्ते नाते दिए, दोस्त और यार दिये
उनके संग में हमें, मुस्काने की वजह दी।
सभी उन लोगों का, हम शुक्रगुजार हुये
जिन्होंने वक्त पड़े, दिल में अपने जगह दी।
दुर्दिन घेर लेते तो, क्या कर लेते हम
उनको दिया मात और, तूने हमें सह दी।
कैसे कर पायें खुदा, तेरा शुक्रिया अदा
हर बीते साल तूने, तीन सौ पैसठ सुबह दी।
- एस० डी० तिवारी
अब नेता जी जिम्मेदारी का बोझ लिए हुए है।
लोगों के लिए कुछ करने की सोच लिए हुए हैं।
अब उन्हें आदमी, आदमी नजर आने लगा है,
वे चुनावी चश्मे से दूऱ, दृष्टि दोष किये हुये हैं।
नेता अब काम को छोड़, नाम के लिए मरते हैं।
धकेलने के लिए चमचे तमाम पीछे चलते हैं।
आजकल तो अदा से भरमाने का जमाना है,
लोग भी हकीकतें छोड़ परछाईयों को पकड़ते हैं।
नेता बाज ना आते प्रशासनिक छेड़ छाड़ से ।
अपनी चलाते हैं, अधिकारियों की आड़ से ।
नियम, अधिनियम ताक पर धरे रह जाते
इस महान देश का तंत्र चलता है जुगाड़ से ।
नाचता है दिल बिन बांधे घुँघरू।
नचाता वही है बजाकर डमरू।
लगाए हैं आस अरसे से उसकी
एक दिन तो हो जायेगा रूबरू।
राजनेता कितने तरल होते हैं।
ढलान को देख लुढ़क लेते हैं।
समझ न लेना कहीं सरल भी
अवसर को पहले परख लेते हैं।
याद आ गये रिश्ते नाते।
चुनाव के टिकेट वास्ते।
बेटा, बेटी, बहू, दामाद
ननिऔरा से बुलाके बांटे।
कुछ लोग इतने हलके कि हवा के साथ बहते हैं
उन हवाओं के जोर पर, आसमानों में रहते हैं
मतलब की हवा को भांप, चल देते उधर की ओर
ऐसी सियाशत करने वालों को दलबदलू कहते हैं
सत्ता में बने रहने के लिए, कोई भी चाल चल लेते हैं
मन की मुराद जब, मिल पाती नहीं तो फिसल लेते हैं
ना तो कोई सिद्धान्त रहा अब, ना ही हैं आदर्श रखते
अपनी दाल गलाने के लिये वो, दल तक बदल लेते हैं
दिल की बात, दिल में लिये, सहमते रह गये दोनों
अनजानी सी चिंगारी में, सुलगते रह गये दोनों
लगी थी आग, दोनों ओर कोई, मगर हवा न दे पाये
न तुम समझे, न हम समझे तड़पते रह गए दोनोँ।
रोटी के लिए, अपनों का साथ छूटता जा रहा।
होते जा रहे दूर, संबंधों का तार टूटता जा रहा।
रखे थे संभाल कर, बुजुर्ग जो जिंदगी भर;
मेहनत से गढ़े, प्रेम का घड़ा फूटता जा रहा।
जाने कैसी ये बदरी घिर गयी है।
हवाओं की मति भी फिर गयी है।
ढो कर ले आते हैं पापों की बूंदें,
जाने कहाँ तक दुनिया गिर गयी है।
बादलों और धरती में छिड़ गयी है।
पाप बरस, मेघ को ख़ुशी मिल गयी है।
दुनिया वाले भी नहा रहे, खुश होकर;
न जाने कहाँ तक, दुनिया गिर गयी है।
सभी चाहते, सब कुछ मुझे ही मिल जाय।
औरों का फूल सूखे, मेरी कली खिल जाय।
एक दूसरे की हड़पने में लगे पड़े हैं सब
चाहे कहीं तक भी दुनिया पूरी गिर जाय।
कितनी बदल गयी दुनिया की रीति।
लाभ के लिये छोटी हो गयी प्रीति।
चाहे कुछ भी करके लग जाय हाथ
अब लोग पैसे को ही समझते जीत।
पहले तो अनैतिक बातों पर लोग टोकते।
गलत राह जाने से किसी को भी रोकते।
चोरों से दोस्ती हो गयी या खुद चोर हुए,
चोरों को देख अब, कुत्ते भी नहीं भौंकते।
आज के ज़माने में हो रहा ऐसा क्यों है
रिश्तों के बीच में आ जाता पैसा क्यों है
पैसे से आंका जाता आदमी का बड़प्पन
चरित्र हो गया भिखारी के जैसा क्यों है
तमाशा देखने वाले, हकीकत कहाँ देखते ।
आती है जो डगर में मुसीबत कहाँ देखते ।
मन बहलाने का उन्हें बस नजारा ही दिखता,
तमाशागारों के झेले, फजीहत कहाँ देखते ।
आँखों में लिखी कहानी, तूने काजल से
बह गया पानी बहुत, पढ़ कर बादल से
होगी किस हाल में, सोच पाना मुश्किल
उसी के दर्द में डूबे हम भी हुये पागल से
लपेटे क्यों झंडी, हमको दिखाकर
चुपके से सरके, तुम नजरें बचाकर
बड़ी बामुश्किल हम लौ एक जलाये
लिया चैन तुमने दीया को बुझाकर
दुनिया है ये मतलब की यार
करते हैं सब दिखावे का प्यार
बोलते हैं मुंह पर मीठे बोल
पीछे से घोंपते पीठ में कटार
प्रकृति को उजाड़ो ना बेधड़क लोगों
दुनिया को बनाओ ना नरक लोगों
दिया है उसने जिंदगी की राह सुन्दर
गिरने के लिए खोदो न सड़क लोगों
नियुक्ति, प्रोन्नति सब कुछ होता पैसा देकर
ठेकेदार का फर्जी बिल पास होता पैसा देकर
अब तो न्याय तक भी खरीदा जा सकता है
सरकार का हर बड़ा काम होता पैसा देकर
हमसे खफा क्यों, सजन हुए जाते हैं
उन बिन अकेले, अपन हुए जाते हैं
थाह न पाये हुई खता क्या हमसे
पराये से जाने मन हुए जाते हैं
बहारें बिछुड़ चुकी हैं अब हमसे
वीराने से चमन हुए जाते हैं
तनहा रहने की आदतों के मारे
खुद के ही हम दुश्मन हुए जाते हैं
दरश हुये उनके बीत गए बरसों
अलसाये से ये नयन हुए जाते हैं
क्या क्या न किये हम उनके लिए
गुमसूमियत में दफ़न हुए जाते हैं
यादें ढक चुकी हैं वक्त के पीछे
बीते हुये लमहे चिलमन हुए जाते हैं
दुनिया कितनी बेढंगी हुई जाती है।
आबो हया छोड़ नंगी हुई जाती है।
कायदे की बातों से दोस्ती को छोड़
बेक़ायदों की ही संगी हुई जाती है।
पूरा ले पढने लगा तो, बच्चे को डांट दिया।
छीन कर एक एक पन्ना, सबमें बाँट दिया।
अपने गांव में अख़बार, कुछ ऐसी ही पढ़ते,
प्रचार वाला पन्ना, एक ओर को छांट दिया।
कूड़ा कचरा साफ कर, बनाओ स्वच्छ भारत।
गन्दा पैसा साफ कर, बनाओ स्वच्छ भारत।
सोच में परिवर्तन लाओ, विकास में जुट जाओ;
आचरण को साफ कर, बनाओ स्वच्छ भारत।
किसी गिरते हुये इंसान को उठाकर देखो।
अपने में से भूखे को रोटी खिलाकर देखो।
तुम्हारे चेहरे पर खुशियां खुद छा जाएँगी
कोई रोता हुआ मिले, उसे हंसाकर देखो।
प्यार से किसी को, भला तसल्ली कहाँ होती।
घूंट भर पी लेने से, कोई टल्ली कहाँ होती।
डूबी हुई उसके नाम में उल जुल बक लेती है,
हो गायी दीवानी जो, वो झल्ली कहाँ होती।
बच्चे बढ़ते हैं तो कितना अच्छा लगता है।
बड़ों की उम्र बढती है तो धक्का लगता है।
उम्र के साथ धर्म की आस्था भी न बढे तो
कोतर किसी पेड़ की तरह छुच्छा लगता है।
बाल या नाख़ून बढे तो काट दिया जाता है।
झाड़ झंखाड़ बढ़ने पर छांट दिया जाता है।
धन बढ़ने पर चरित्र की नाव डूबने लगती
धर्म के काम में धन को बाँट दिया जाता है।
भाई भाई में कभी आपसी बंटवारा होता है।
किसी को ज्यादा मिले, नहीं गवारा होता है।
हर चीज में लग जाता बराबरी का हिस्सा
नींव की ईंट तक बांटने का नजारा होता है।
तुम्हें कुछ, और आँखों को कुछ, कहते देखा।
प्यार किसी से, बाँहों में किसी के रहते देखा।
खेलते खेल गजब, फरेब की दुनिया के तुम
तुम्हारे मजे में, किसी का अश्क बहते देखा।
आज के ज़माने में हो रहा ऐसा क्यों है
रिश्तों के बीच में आ जाता पैसा क्यों है
पैसे से आंका जाता आदमी का बड़प्पन
चरित्र हो गया भिखारी के जैसा क्यों है
एस० डी० तिवारी
जान का दुश्मन
मिलावट
बेईमानी
कम तोलना
कड़वे बोल
नकली
चोरी
राजनीती
असल को छोड़ लोग परछाईयों के पीछे होते
अच्छाईयों को छोड़ बुराईयों के पीछे होते
प्यार करने वालों को सबसे प्यार ही मिलता
पूरी दुनिया छोड़ कर तन्हाईयों के पीछे होते
उम्र ढलती गयी
अक्ल गलती गई
गांठ बढती गयी
जिंदगी खलती गयी
मल्टी छलती
जनाब इतना क्यों बेताब हुये जाते हो
बेचैनियों की कोई किताब हुये जाते हो
कहने को मुहब्बत के सरताज हो तुम
जल्दी में मुरझाये गुलाब हुए जाते हो
आज के ज़माने में हो रहा ऐसा क्यों
है
रिश्तों के बीच में आ जाता पैसा
क्यों है
पैसे से आंका जाता आदमी का बड़प्पन
चरित्र हो गया भिखारी के जैसा क्यों
है
दुनिया कितनी बेढंगी हुई जाती है
आबो हया छोड़ नंगी हुई जाती है
कायदे की बातों से दोस्ती को छोड़
बेक़ायदों की संगी हुई जाती है
जहाँ में कई लोग, अफ़सोस लिए होते हैं
कुछ अपने किये कुछ औरों के दिए होते हैं
जिंदगी भर जिन्हे वो प्यार करते रहे
वो हैं कि उनको दरकिनार करते रहे
उनके साथ ढाये खुद पर भी सितम
और अपने दिल को बेजार करते रहे
आम होकर भी नाम के ही चक्कर में पड़े रहे
सत्ता की शक्ति बढ़ाने वास्ते, सबसे लड़े रहे
जिनकी गलतियों का ढिंढोरा, पीट आगे आये
कंधे से कन्धा मिलाकर, उनके साथ खड़े रहे