Thursday, 1 August 2019

Ramayan 2

 
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जनम लिए दशरथ के आलय, राम उतारने पाप धरा से।
तोड़े धनुष शिव का जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
सेवा किये दिलाकर गुरु का, दुष्ट दानवों से छुटकारा।
शाप के कारण बनी पाहन, देवि अहिल्या को है तारा।

कुटिल विचार धारे मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
नीच की सीख से वर मांगी, श्रीराम को वन में पठाई।
राम चले वनवास सखे, पिता की आज्ञा सिर पर धारे।
धर्म की रक्षा करने हेतु, दैत्य दानवों को संहारे।

राम को करना सुरसरि पार, जग का है जो खेवनहारा।
पांव पखार बिठाया नैया, केवट गंगा पार उतारा।
करके ढिठाई सूर्पणखा, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
बिलखती हुई लंका जाके, भाई रावण को भड़कायी।

लोभ के वश आ के  मांगी, सीता स्वर्णिम मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं सिया, कपटी रावण ने हर डाला।
भक्त के वत्सल राम सदा, जूठे बेर सबरी के खाया।
सिंधु कृपा के हैं भक्तों के, हनुमान को हिय से लगाया।

बालि से रक्षा किये सुग्रीव की, अपना मित्र विशेष बनाया।
सुग्रीव भेज वानरी सेना, देवि सिया का पता लगाया।

नल अरु नील की ले के मदद, सागर पर सुन्दर सेतु बना।

उछल कूद करते उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।


दुष्ट को सीख दिया विभीषण, गया निकाला अपने घर से। 
घर का रहस्य दिया राम को, नाभि का अमृत सुखाये सर से।
हिमालय से संजीवनी ला, कपि लखन के प्राण बचाये। 
राम लखन मिल रावण का कुटुंब सारा सुरलोक पठाये। 

राम से बैर कर रावण ने, स्वयं, स्वयं का काल बुलाया।  
उसकी सोने की लंका, फूस जैसे कपि ने जलाया।  
नीति की बात कही सब ही की, रावण ने तत्पल ठुकराया।
दर्प, दुष्टता के कारण ही, दशानन अधोगति को पाया।

दुष्टदलन की नीति राम की, लंकापति पर विजय दिलाई।
धीरज, धर्म, विवेक, वीरता से दानवों से मुक्ति पायी। 
रावण के साथ मरे लाखों, पुत्र, मित्र व सगे सम्बन्धी।
बुरे का साथ देता है जो, जग में पाता आचार वही।

त्याग द्वेष, दम्भ, घृणा, क्रूरता; क्षमा, दया, प्रेम को धारो।   
भिन्न चरित्र धारे पृथक गुण, सीखो और जीवन सुधारो। 
भाई, पुत्र, मित्र, दास और, लघु से होवे व्यवहार उचित।
बुराई हो कितनी भी बली, होना होता उसे पराजित।


वर्ण, शब्द, रस,  छंद, वाणी;
अधीश्वरी हो वीणापाणी !
हे माँ सरस्वती! नमः करोमि।

सब कार्य को मंगल करते;
सदा ही विघ्न वाधा हरते।
गणेश, गणपति! नमः करोमि।

महादेव, ज्ञान के भंडार,
करते उत्पन्न और संहार;
शंकर भगवान्! नमः करोमि।

जिनके वशीभूत है सृष्टि,
जो करते कृपा की वृष्टि;
भक्त वत्सल राम! नमः करोमि।

राम भक्त हो, बल के धाम,
नहीं असंभव कोई काम;
रामदूत हनुमान! नमः करोमि।

देवि, देवता, साधु, संत को;
धरा, गगन, सूर्य, चंद्र को
भरे ज्ञान, वेद पुराण! नमः करोमि।



जिसके वामांग में पार्वती,
मस्तक पर सजी भागीरथी,
जो सर्वेश्वर, सर्व व्यापक,
जिसका स्मरण पापनाशक;
शंकर भगवान्! रक्षा करना।

श्याम रंग और कोमल अंग,
विराजमान सीता जी संग,
धारण किये धनुष व बाण,
भक्तों का करने कल्याण;
प्रभु श्रीराम! रक्षा करना।

न राज्यभिषेक से प्रसन्न,
ना ही वनवास से खिन्न;
सदा ही करने वाला मंगल,
जो भक्तों का कृपा वत्सल;
हे रघुनाथ! रक्षा करना।




धारे पीत परिधान,
भक्तों के कृपा निधान;
भज ले रे मन राम।

हाथों में धनुष व बाण,
करते सबका कल्याण;
भज ले रे मन राम।

लोचन सरोज समान,
रखते जो तीर कमान;
भज ले रे मन राम।

जो सर्वशक्तिमान,
सिर जटा शोभायमान;
भज ले रे मन राम।

परमानन्द के धाम, 
जिसका सुखदायक नाम;
भज ले रे मन राम।


४ 

बल है अतुलित,  
वेदों से वन्दित, 
देवों से सेवित,
दैत्यों पे विजित, 
ज्ञान विज्ञान के धाम;
मेरे प्रभु राम। 

पापों के निवारक,
धनु बाण के धारक, 
दैत्यों के संहारक, 
शिव के उपासक, 
बिगड़े बनाते काम; 
मेरे प्रभु राम।  


श्याम रूप सुहावन, 
अतिशः मन भावन,
सुख बरसावन,  
जग में अति पावन
अमृत जिसका नाम;
मेरे प्रभु राम  


५. 

केसरी नंदन, हो जग वंदन,
गुणों के तुम हो निधान;  
जय, जय, जय हनुमान। 

राम भक्त, वानरों के स्वामी, 
बजरंग बली तुम अंतर्यामी।  
जग में सबसे बलवान; 
जय, जय, जय हनुमान। 

लांघे समुद्र, लंका जलाये, 
सीता का जा पता लगाये। 
बसाये हृदय में राम; 
जय, जय, जय हनुमान। 

दैत्य पिशाच दूर भगाते,  
उन पर हैं कृपा बरसाते।  
जो भजे लगा के ध्यान; 
जय, जय, जय हनुमान। 


६ 
भय को हरने वाले 
गुणों के निधि 
अजेय निर्गुण 
निर्विकार 
माया से परे 
देवताओं के स्वामी 
दुष्टों के हन्ता 
मेघ सामान श्याम 
कमल नेत्र 
परमदेव 



शिव-शम्भू, पिनाकधारी,   
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!

बदन पर भभूति रमाये,
जटा में गंगा, चंद्र सजाये,
माथे चन्दन तिलक लगाए,
मुण्ड माल गले लटकाये।
शिवशंकर जटा के धारी; 
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!

एक हाथ में त्रिशूल साजे,
दूजे हाथ डमरू बाजे,
कटि बांधे बाघ की खाल,
लिपटे गले विषैले नाग।
त्रिलोचन, त्रिनेत्र धारी;
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!

गुणों के हो आप निधान,
विश्व का करते कल्याण, 
शिव-शम्भू, वामदेव हो, 
देवों के देव महादेव हो।
तीनों लोकों के हो धारी,
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!







७ 

मोर के कंठ सी आभा 
नीलवर्ण 
देवताओं में श्रेष्ठ 
पीताम्बरी 
कमलनेत्र 
वानर समूह युक्त 
धनुष बाण 
रघुकुल श्रेष्ठ 
पुष्पक विमान पर सवार 
जानकी पति 
रामचंद्र को नमन 
शिवजी द्वारा वन्दित 


प्रसन्न हो प्रभु मन में बसते, जो भजते श्रीराम।  
सफल मनोरथ होते उनकेजो भजते श्रीराम।  

बनाने को बिगड़ी, है पर्याप्त, लेना हरि का नाम;   
दूर करतेपाप सब मन के, जो भजते श्रीराम। 

करने से ही नाम स्मरणपूरे होते सब काम;   
मन विकारसबके हरते, जो भजते श्रीराम।  

तेरे ही चरण, बस हैं प्रभु, सभी सुखों के धाम 
प्रभु की शरण, पाते बस वेजो भजते श्रीराम। 

पड़ी है नइया, मेरी भंवर में, आकर तू थाम 
भव से बेड़ा, पार लगातेजो भजते श्रीराम। 

भज ले प्यारे, नाम है पावन, कौड़ि लगे  दाम
सुख का भंडार, उनके भरतेजो भजते श्रीराम। 






जनम लिए दशरथ के घर, राम उतारने पाप धरा से।
तोड़े धनुष शिव का जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
गुरु के प्रति सत्कार अति, दिलाये राक्षसों से छुटकारा।
शाप के कारण पाहन बनी, देवि अहिल्या को है तारा।

कुटिल विचार धरे मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
नीच की सीख से वर मांगी, राम को वन की राह पठाई।
राम चले वनवास सखे, आज्ञा पिता की सिर पर धारे।
धर्म की रक्षा करने हेतु, दैत्य दानवों को संहारे।

राम को करना पार नदी, जग का है जो खेवनहारा।
पांव पखार बिठाया नाव, केवट गंगा पार उतारा।
करके ढिठाई सूर्पणखा, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
बिलखती हुई लंका जाके, भाई रावण को भड़कायी।

लोभ के वश आ सोने की  मांगी सीता मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं जानकी, रावण ने हरण कर डाला।
भक्त के वत्सल राम सदा, सबरी के जूठे बेर को खाया।
कृपा के सिंधु हैं भक्तों के, हनुमान को गले लगाया।  

सुग्रीव की बालि से रक्षा कर, मित्र अपना परम बनाया।
सुग्रीव वानरी सेना भेजा, देवि सिया का पता लगाया।
नल व नील की ले के मदद, सागर पर सुन्दर सेतु बना।
उछल कूद करते उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।

नीति की बात कही भ्राता की रावण ने तत्पल ठुकराया।  
दर्प, दुष्टता के कारण ही स्वयं अपना काल बुलाया। 
दुष्टदलन की नीति राम की लंकापति पर विजय दिलाई।  
धैर्य, धर्म, विवेक, वीरता राक्षसों से मुक्त कराई।   






राम भजन



प्रसन्न हो वे मन में बसते, जो भजते श्रीराम।  
सफल मनोरथ होते उनकेजो भजते श्रीराम।  

बनाने को बिगड़ीकाफी है नाम; जय श्रीराम।  
पाप मन के, प्रभु दूर करतेजो भजते श्रीराम। 

लेने से नामहोते पूरे काम; जय श्रीराम।  
मन विकारउन सबके हरते, जो भजते श्रीराम।  

बस तेरे ही चरण हैं सुख के धामजय श्रीराम। 
प्रभु की शरण, वे ही पातेजो भजते श्रीराम। 

पड़ी भंवर में नइयाआकर थामजय श्रीराम। 
भव से बेडा, पार लगातेजो भजते श्रीराम। 

जीवन अमृत रस को पीते, जो भजते श्रीराम। 
सद्गति को निश्चित पा जातेजो भजते श्रीराम।  

भज ले प्यारेकौड़ी लगे दामजय श्रीराम
सुख का भंडार उनके भरतेजो भजते श्रीराम। 

जग में सबसे पावन, है मन भावन; जय श्रीराम।  
श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम, जो भजते श्रीराम। 




दिलाता है सत्संग;
मनुष्य को बुद्धि, विवेक,
जगत में परमानन्द।

मिल जाय यदि सत्संग,
शठ, खल भी सुधर जाते;
सीखकर अच्छे ढंग।

औषधि, वायु, जल, वस्त्र,
सुसंग पा भले जगत में;
बुरा, कुसंग से हश्र।

पानी बुझाता प्यास;
ओला की प्रकृति विलग,
फसल का करता नाश।

कालिख, पा के कुसंग;
धुआं बन जाये स्याही,
लिख डालता है ग्रन्थ।

बिना गुरुवर के ज्ञान,
मनुष्य को मिलता नहीं;
ज्ञान बिना सम्मान।

जीव, जंतु व पदार्थ;
किसी ना किसी रूप में,
सभी मनुष्य के अर्थ।

कृतज्ञ होवो पाकर;
करना धर्म हर वस्तु की
मर्यादा का आदर।

ईश्वर सृष्टि में एक;
जीव, पदार्थ, कृति सभी
हैं उसी प्रभु की देन।

कभी ना करना गर्व,
न्यून या अधिक पाकर;
प्रभु ने दिया सर्वस्व।

हटाता कपट, कुतर्क,
कुमार्ग और कुचाल को;
राम चरित्र सर्वस्व।


शिव जी से पार्वती,
अनुरोध कीं सुनने का,
शुभ कथा रघुनाथ की;

अवतार से रावण वध,
कहें लीलाएं उनकी;
बनने तक भूप अवध।

राम के सभी रहस्य;
समाया है जो उनमें,
भक्ति, ज्ञान और तत्व।

शिव बोले, पार्वती!
काकभुशुण्डि ने कही,
कथा सुनो श्रीराम की -

राम कथा अति पावन;
शोक, मोह, भ्रम दूर हो,
लगती है मन भावन।

राम के गुण का गान,
देने वाला परम सुख,
कल्पवृक्ष के समान।

ज्ञान व गुणों के धाम;
जीव, माया जगत में,
सभी के स्वामी राम।

आदि ना उनका अंत;
राम का स्वरूप अथाह,
पार न पाँय मुनि, संत।

करने से नित वर्णन,
अघाते न वेद, पंडित;
माया दशरथनन्दन।

काकभुशुण्डि ने कहा,
गरुण ने जिसे था सुना;
हे  देवी! सुनो कथा।

हित करने के कारण
भक्तों के ही भगवान;
शरीर करते धारण।

था पवित्र औ निर्मल;
महर्षि पुलस्त्य का कुल,
संतानें दुष्ट सकल।

पूर्व शाप के कारण;
हुआ पुलस्त्य के यहाँ,
उत्पन्न पुत्र रावण।

ब्रह्मा से माँगा वर;
रावण न मरे किसी से,
सिवाय नर या वानर।

इतना रहे आहार,
कुम्भकर्ण को वर मिला;
जगत का करे उजाड़।

सुत सौतेला विभीषण;
माँगा था प्रभु का प्रेम,
कमल चरणों में शरण।

मय ने दे दी पुत्री;
जान होगा वह राजा,
रावण को मंदोदरी।

पुष्पक विमान लाया,
हरा कुबेर को रावण;
अपनी शक्ति बढ़ाया।

ब्रह्मा द्वारा निर्मित
दुर्ग, त्रिकूट पर्वत पर;
स्वर्ण, मणियों से जड़ित। 

रावण बने किला पर,
जमाया स्वयं अधिकार;
योद्धा सभी हराकर।

दैत्यों को भड़काता;
रावण देवताओं को,
अपना शत्रु बताता।

बड़ाई, बल, संपत्ति;
बढ़ती नित रावण की,
राज-पाट औ संतति।

सुत ज्येष्ठ रावण का;
मेघनाद एक योद्धा,
सबसे बड़ा जगत का।

देवताओं से छीन;
छल बल से किया राज्य,
सबका अपने अधीन।

कभी न भोग से तृप्त, 
व्यसन के वश था रावण;
रहता पाप में लिप्त।

बेटे, पौत्र अधर्मी;
परिवार में रावण के
हो गए सब कुकर्मी।

राक्षस थे अभिमानी;
विमुख हो धर्म, दया से,
करते सब मनमानी।

असुर उठाकर लाते,
बल से देव कन्यायें;
भार्या उन्हें बनाते।

बुरे सब कार्य कलाप;
अत्याधिक बढ़ गया था,
राक्षसों का  उत्पात ।


अति दुःखी थी धरती;
सतत जा रही बढ़ती,
दुष्ट दैत्यों की शक्ति।  

पड़ी बड़ी लाचारी;
बढ़ गया था पाप विकट,
वसुंधरा पर भारी।

पृथ्वी को था लगता,
सिर पर पाप का भार;
पहाड़ों से भी बड़ा।

ब्रम्हा के पास गयी,
गाय का धरे शरीर;
व्याकुल हो के मही।

सुनाई जा के धरनी,
विपत्ति सब ब्रह्मा से;
राक्षसों की करनी।

हरि  का करो स्मरण,
बोले ब्रह्मा धरा से -
करेगा वही निवारण।

हरि स्मरण करने लगी,
देवताओं के संग मिल
वापस आकर पृथ्वी।

आयी आकाशवाणी,
उद्धार अवश्य करूँगा,
सुन ले तूहे प्राणी !

एक दिन मैं बन के नर,
प्रकट होउंगा धरा पर;
भूपति दशरथ के घर।

होकर के आश्वस्त तब,
जोहने लग गए वाट,
हरि के आने की सब। 




अभिनन्दन 
 जब तक पृथ्वी पर पर्वत और सरिताएं रहेंगी तब तक लोकों में राम कथा विद्यमान रहेगी। आदिकवि बाल्मीकि से लेकर आज तक विविध भाषा के कवियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विविध रूप में रामकथा कही  और गायी है। वर्णवृत्तों, मात्रिक छंदों तथा गेय पदों में निबद्ध रामकथा को कवियों ने व्यास समास रीति से उपनिबद्ध कर अपने कवित्व को धन्य करने का अवसर खोजा है। आदिकवि बाल्मीकि ने प्रधानतया अनुष्टुप या श्लोक में तथा अवसरानुकूल अनेक छंदों का भी सहारा लेकर सात कांडों में रामकथा कही है। विमल सुरि ने जैन दृष्टिकोण से प्राकृत भाषा में और स्वयंभू ने अपभ्रंश भाषा  में गाथा तथा अन्य छंदों में रामकथा कही है। गोस्वामी तुलसीदास ने दोहा, चौपाई तथा बृजभाषा के कुछ छंदों एवं संस्कृत में प्रसिद्द शार्दूलविक्रीडित आदि छंदों में श्रीराम चरित मानस के रूप में श्रीराम की गाथा निबद्ध की है  तथा बरवै रामायण, कवितावली और गीतावली में विविध छंदों में रामकथा कही है। हिंदी और संस्कृत के  कवियों ने काव्य और नाटक के माध्यम से रामकथा कही है। सिक्खों के दशम गुरु श्री गुरु गोविन्दसिंह जी ने गोविन्द रामायण लिखी है। भारत की सभी भाषाओँ व बोलियों में रामकथा लिखकर कवियों ने स्वयं को धन्य माना है। 

ईशवी २०२० में श्री सत्यदेव तिवारी ने 'त्रिपदी रामायण' हिंदी में तीन चरणों में तथा प्रायः ३७ मात्राओं के छंद में रामायण के सातों कांडों की कथा कही है। प्रत्येक कांड के आरम्भ और अंत में एक-एक स्तुति तथा भजन लिखकर इसे और रुचिकर  बनाने  का प्रयास किया है। आपने शिवजी-पार्वती एवं काकभुशुण्डि-गरुण संवाद प्रोक्त कलिमलहरणी रामकथा का अपनी रीति से पुनराख्यान किया है। 

शिव जी से पार्वती // अनुरोध कीं सुनने का, //शुभ कथा रघुनाथ की;

शिव बोलेपार्वती! // काकभुशुण्डी ने कही // सुनो कथा श्रीराम की -

राम कथा अति पावन // शोकमोहभ्रम दूर हो //लगती है मन भावन।

इनके द्वारा प्रयुक्त त्रिपाद छंदों में प्रथम और तृतीय चरणों के अंत में अन्त्यानुप्रास का निर्वाह हुआ है। अधिकांश पदों में प्रथम और तृतीय चरणों में १२-१२ और द्वीतीय चरण में १३ मात्राएँ प्रयुक्त हुई हैं। द्वितीय चरण में अनेक स्थलों पर सोरठा छंद  द्वितीय और चतुर्थ या दोहा छंद के प्रथम और तृतीय चरणों को प्रयुक्त किया गया है। राम की भक्ति में लिखा उत्तर काण्ड का अंतिम छंद देखिये : 'वैभव ना महलों में // जीवन का है सुख परम // राम पुनित चरणों में'। 


कवि ने अंत में रामायण सार भी दिया है जो धनाक्षरी छंदों के मात्र ३६ पंक्तियों में सम्पूर्ण रामायण का सारांश परिलक्षित करता है। उक्त सार का प्रथम छंद है :

जनम लिए दशरथ के आलयराम उतारने पाप धरा से।

शिव का तोड़े धनुष जनकपुरव्याह रचाये जनकसुता से।


तीन पदों के पद्यों में रामायण रचना कर श्री सत्यदेव तिवारी ने अपने कवित्व और राम भक्ति की रमणीय प्रस्तुति करने का प्रयास किया है। 

मैं श्री सत्यदेव तिवारी का 'त्रिपदी रामायण' की रचना के लिए अभिनन्दन करता हूँ। आशा है इनका कवित्व और समृद्ध होगा।  

पद्मश्री डॉ. रमाकांत शुक्ल 
प्रधान संपादक, अर्वाचीन संस्कृतम 
भूतपूर्व उपाचार्य, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविदयालय 
राष्ट्रपति सम्मान एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता   
अन्य अलंकरण : महामहोपाध्याय, साहित्यमहोदधि, विद्यासागर, संस्कृतराष्ट्रकवि, कविशिरोमणि, कविकुंजर, राष्ट्रस्वर 

शुभाशीर्वाद 
मेरे पुत्र श्री सत्यदेव तिवारी द्वारा रचित 'त्रिपदी रामायण' के द्वारा एक अन्य रूप में श्रीराम की कथा पढ़कर अत्यंत सुखद अनुभव कर रहा हूँ। सत्यदेव तिवारी कृत 'त्रिपदी रामायण' श्रीराम की सम्पूर्ण, संक्षिप्त और सारगर्भित कथा प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में रामायण के सातों काण्ड समाहित हैं और प्रत्येक काण्ड के आरम्भ और अंत में स्तुति व भजन भी दिए गए हैं। इसमें प्रभु 'राम' का नाम ४३२ बार आया है। श्रीराम कथा शीर्षक से लेकर अंत तक पढ़ने पर 'राम-नाम' के चार माला के जाप का भी लाभ मिलता है। 'त्रिपदी रामायण' में अंत में मात्र दो पृष्ठों में रामायण का सार लिखकर, कवि ने गागर में सागर भरने का कार्य किया है।  

सत्यदेव में बचपन से ही कवि बनने  उत्कंठा थी, परन्तु उसका यह स्वप्न अब चरितार्थ हो पाया। ४ नवम्बर, सन २०१८ को इसने एक साथ २० पुस्तकों का लोकार्पण करके मुझे भाव विभोर कर दिया और एक साथ सर्वाधिक पुस्तकें लोकार्पित करने का एक कीर्तिमान स्थापित किया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। 

मेरे पुत्र द्वारा रचित यह अद्वितीय रचना पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिससे मैं अत्यंत हर्ष और गर्व का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है, वह अपनी साहित्यिक यात्रा को नित्य नए शीर्ष तक ले जायेगा। मैं सत्यदेव की निरंतर सफलता की हार्दिक कामना करता हूँ तथा अपने आशीर्वाद से अनुगृहीत करता हूँ। 

वंश नारायण तिवारी

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