जनम लिए दशरथ के आलय, राम उतारने पाप धरा से।
तोड़े धनुष शिव का जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
शाप के कारण बनी पाहन, देवि अहिल्या को है तारा।
कुटिल विचार धारे मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
नीच की सीख से वर मांगी, श्रीराम को वन में पठाई।
राम चले वनवास सखे, पिता की आज्ञा सिर पर धारे।
राम को करना सुरसरि पार, जग का है जो खेवनहारा।
पांव पखार बिठाया नैया, केवट गंगा पार उतारा।
करके ढिठाई सूर्पणखा, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
बिलखती हुई लंका जाके, भाई रावण को भड़कायी।
लोभ के वश आ के मांगी, सीता स्वर्णिम मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं सिया, कपटी रावण ने हर डाला।
भक्त के वत्सल राम सदा, जूठे बेर सबरी के खाया।
सिंधु कृपा के हैं भक्तों के, हनुमान को हिय से लगाया।
बालि से रक्षा किये सुग्रीव की, अपना मित्र विशेष बनाया।
सुग्रीव भेज वानरी सेना, देवि सिया का पता लगाया।
नल अरु नील की ले के मदद, सागर पर सुन्दर सेतु बना।
उछल कूद करते उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।
दुष्ट को सीख दिया विभीषण, गया निकाला अपने घर से।
घर का रहस्य दिया राम को, नाभि का अमृत सुखाये सर से।
हिमालय से संजीवनी ला, कपि लखन के प्राण बचाये।
राम लखन मिल रावण का कुटुंब सारा सुरलोक पठाये।
राम से बैर कर रावण ने, स्वयं, स्वयं का काल बुलाया।
उसकी सोने की लंका, फूस जैसे कपि ने जलाया।
दर्प, दुष्टता के कारण ही, दशानन अधोगति को पाया।
धीरज, धर्म, विवेक, वीरता से दानवों से मुक्ति पायी।
रावण के साथ मरे लाखों, पुत्र, मित्र व सगे सम्बन्धी।
बुरे का साथ देता है जो, जग में पाता आचार वही।
त्याग द्वेष, दम्भ, घृणा, क्रूरता; क्षमा, दया, प्रेम को धारो।
भिन्न चरित्र धारे पृथक गुण, सीखो और जीवन सुधारो।
भाई, पुत्र, मित्र, दास और, लघु से होवे व्यवहार उचित।
बुराई हो कितनी भी बली, होना होता उसे पराजित।
हे माँ सरस्वती! नमः करोमि।
सब कार्य को मंगल करते;
सदा ही विघ्न वाधा हरते।
गणेश, गणपति! नमः करोमि।
महादेव, ज्ञान के भंडार,
करते उत्पन्न और संहार;
शंकर भगवान्! नमः करोमि।
जिनके वशीभूत है सृष्टि,
जो करते कृपा की वृष्टि;
भक्त वत्सल राम! नमः करोमि।
राम भक्त हो, बल के धाम,
नहीं असंभव कोई काम;
रामदूत हनुमान! नमः करोमि।
देवि, देवता, साधु, संत को;
धरा, गगन, सूर्य, चंद्र को
भरे ज्ञान, वेद पुराण! नमः करोमि।
२
जिसके वामांग में पार्वती,
मस्तक पर सजी भागीरथी,
जो सर्वेश्वर, सर्व व्यापक,
जिसका स्मरण पापनाशक;
शंकर भगवान्! रक्षा करना।
श्याम रंग और कोमल अंग,
विराजमान सीता जी संग,
धारण किये धनुष व बाण,
भक्तों का करने कल्याण;
प्रभु श्रीराम! रक्षा करना।
न राज्यभिषेक से प्रसन्न,
ना ही वनवास से खिन्न;
सदा ही करने वाला मंगल,
जो भक्तों का कृपा वत्सल;
हे रघुनाथ! रक्षा करना।
३
धारे पीत परिधान,
भक्तों के कृपा निधान;
भज ले रे मन राम।
हाथों में धनुष व बाण,
करते सबका कल्याण;
भज ले रे मन राम।
लोचन सरोज समान,
रखते जो तीर कमान;
भज ले रे मन राम।
जो सर्वशक्तिमान,
सिर जटा शोभायमान;
भज ले रे मन राम।
भज ले रे मन राम।
देवों से सेवित,
पापों के निवारक,
बिगड़े बनाते काम;
मेरे प्रभु राम।
अतिशः मन भावन,
सुख बरसावन,
जग में अति पावन,
अमृत जिसका नाम;
मेरे प्रभु राम।
केसरी नंदन, हो जग वंदन,
गुणों के तुम हो निधान;
जय, जय, जय हनुमान।
राम भक्त, वानरों के स्वामी,
बजरंग बली तुम अंतर्यामी।
जग में सबसे बलवान;
जय, जय, जय हनुमान।
बसाये हृदय में राम;
६
भय को हरने वाले
गुणों के निधि
अजेय निर्गुण
निर्विकार
माया से परे
देवताओं के स्वामी
दुष्टों के हन्ता
मेघ सामान श्याम
कमल नेत्र
परमदेव
शिव-शम्भू, पिनाकधारी,
बदन पर भभूति रमाये,
जटा में गंगा, चंद्र सजाये,
माथे चन्दन तिलक लगाए,
मुण्ड माल गले लटकाये।
एक हाथ में त्रिशूल साजे,
दूजे हाथ डमरू बाजे,
कटि बांधे बाघ की खाल,
लिपटे गले विषैले नाग।
त्रिलोचन, त्रिनेत्र धारी;
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!
तीनों लोकों के हो धारी,
पाप हरो, हे त्रिपुरारी!
मोर के कंठ सी आभा
नीलवर्ण
देवताओं में श्रेष्ठ
पीताम्बरी
कमलनेत्र
वानर समूह युक्त
धनुष बाण
रघुकुल श्रेष्ठ
पुष्पक विमान पर सवार
जानकी पति
रामचंद्र को नमन
शिवजी द्वारा वन्दित
प्रसन्न हो प्रभु मन में बसते, जो भजते श्रीराम।
तोड़े धनुष शिव का जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
गुरु के प्रति सत्कार अति, दिलाये राक्षसों से छुटकारा।
कुटिल विचार धरे मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
नीच की सीख से वर मांगी, राम को वन की राह पठाई।
राम चले वनवास सखे, आज्ञा पिता की सिर पर धारे।
राम को करना पार नदी, जग का है जो खेवनहारा।
पांव पखार बिठाया नाव, केवट गंगा पार उतारा।
करके ढिठाई सूर्पणखा, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
लोभ के वश आ सोने की मांगी सीता मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं जानकी, रावण ने हरण कर डाला।
भक्त के वत्सल राम सदा, सबरी के जूठे बेर को खाया।
सुग्रीव वानरी सेना भेजा, देवि सिया का पता लगाया।
नल व नील की ले के मदद, सागर पर सुन्दर सेतु बना।
उछल कूद करते उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।
प्रसन्न हो वे मन में बसते, जो भजते श्रीराम।
मनुष्य को बुद्धि, विवेक,
जगत में परमानन्द।
मिल जाय यदि सत्संग,
शठ, खल भी सुधर जाते;
सीखकर अच्छे ढंग।
औषधि, वायु, जल, वस्त्र,
सुसंग पा भले जगत में;
बुरा, कुसंग से हश्र।
पानी बुझाता प्यास;
ओला की प्रकृति विलग,
फसल का करता नाश।
कालिख, पा के कुसंग;
धुआं बन जाये स्याही,
लिख डालता है ग्रन्थ।
बिना गुरुवर के ज्ञान,
मनुष्य को मिलता नहीं;
ज्ञान बिना सम्मान।
जीव, जंतु व पदार्थ;
किसी ना किसी रूप में,
सभी मनुष्य के अर्थ।
कृतज्ञ होवो पाकर;
करना धर्म हर वस्तु की
मर्यादा का आदर।
ईश्वर सृष्टि में एक;
जीव, पदार्थ, कृति सभी
हैं उसी प्रभु की देन।
कभी ना करना गर्व,
न्यून या अधिक पाकर;
प्रभु ने दिया सर्वस्व।
हटाता कपट, कुतर्क,
कुमार्ग और कुचाल को;
राम चरित्र सर्वस्व।
शिव जी से पार्वती,
अनुरोध कीं सुनने का,
शुभ कथा रघुनाथ की;
अवतार से रावण वध,
कहें लीलाएं उनकी;
बनने तक भूप अवध।
राम के सभी रहस्य;
समाया है जो उनमें,
भक्ति, ज्ञान और तत्व।
शिव बोले, पार्वती!
काकभुशुण्डि ने कही,
कथा सुनो श्रीराम की -
राम कथा अति पावन;
शोक, मोह, भ्रम दूर हो,
लगती है मन भावन।
राम के गुण का गान,
देने वाला परम सुख,
कल्पवृक्ष के समान।
ज्ञान व गुणों के धाम;
जीव, माया जगत में,
सभी के स्वामी राम।
आदि ना उनका अंत;
राम का स्वरूप अथाह,
पार न पाँय मुनि, संत।
करने से नित वर्णन,
अघाते न वेद, पंडित;
माया दशरथनन्दन।
काकभुशुण्डि ने कहा,
गरुण ने जिसे था सुना;
हे देवी! सुनो कथा।
भक्तों के ही भगवान;
शरीर करते धारण।
था पवित्र औ निर्मल;
महर्षि पुलस्त्य का कुल,
संतानें दुष्ट सकल।
पूर्व शाप के कारण;
हुआ पुलस्त्य के यहाँ,
उत्पन्न पुत्र रावण।
ब्रह्मा से माँगा वर;
रावण न मरे किसी से,
सिवाय नर या वानर।
इतना रहे आहार,
कुम्भकर्ण को वर मिला;
जगत का करे उजाड़।
सुत सौतेला विभीषण;
माँगा था प्रभु का प्रेम,
कमल चरणों में शरण।
मय ने दे दी पुत्री;
जान होगा वह राजा,
रावण को मंदोदरी।
पुष्पक विमान लाया,
हरा कुबेर को रावण;
अपनी शक्ति बढ़ाया।
ब्रह्मा द्वारा निर्मित
दुर्ग, त्रिकूट पर्वत पर;
रावण बने किला पर,
जमाया स्वयं अधिकार;
योद्धा सभी हराकर।
दैत्यों को भड़काता;
रावण देवताओं को,
अपना शत्रु बताता।
बड़ाई, बल, संपत्ति;
बढ़ती नित रावण की,
राज-पाट औ संतति।
सुत ज्येष्ठ रावण का;
मेघनाद एक योद्धा,
सबसे बड़ा जगत का।
देवताओं से छीन;
छल बल से किया राज्य,
सबका अपने अधीन।
कभी न भोग से तृप्त,
व्यसन के वश था रावण;
रहता पाप में लिप्त।
बेटे, पौत्र अधर्मी;
परिवार में रावण के
हो गए सब कुकर्मी।
राक्षस थे अभिमानी;
विमुख हो धर्म, दया से,
करते सब मनमानी।
असुर उठाकर लाते,
बल से देव कन्यायें;
भार्या उन्हें बनाते।
बुरे सब कार्य कलाप;
अत्याधिक बढ़ गया था,
राक्षसों का उत्पात ।
अति दुःखी थी धरती;
शिव जी से पार्वती // अनुरोध कीं सुनने का, //शुभ कथा रघुनाथ की;
शिव बोले, पार्वती! // काकभुशुण्डी ने कही // सुनो कथा श्रीराम की -
राम कथा अति पावन // शोक, मोह, भ्रम दूर हो //लगती है मन भावन।
इनके द्वारा प्रयुक्त त्रिपाद छंदों में प्रथम और तृतीय चरणों के अंत में अन्त्यानुप्रास का निर्वाह हुआ है। अधिकांश पदों में प्रथम और तृतीय चरणों में १२-१२ और द्वीतीय चरण में १३ मात्राएँ प्रयुक्त हुई हैं। द्वितीय चरण में अनेक स्थलों पर सोरठा छंद द्वितीय और चतुर्थ या दोहा छंद के प्रथम और तृतीय चरणों को प्रयुक्त किया गया है। राम की भक्ति में लिखा उत्तर काण्ड का अंतिम छंद देखिये : 'वैभव ना महलों में // जीवन का है सुख परम // राम पुनित चरणों में'।
जनम लिए दशरथ के आलय, राम उतारने पाप धरा से।
शिव का तोड़े धनुष जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
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