बोलो बच्चों, मुझको क्या तुम, अपना दोस्त बनाओगे ?
खेलना चाहूँ साथ तुम्हारे, संग में क्या खिलाओगे?
भूल गया हूँ आइस पाइस, और पिट्ठू का खेल ।
एक दूजे की पकड़ कमीज, कैसे चलती रेल ।
काटा पिट्टी खेल खेलना, मुझे भी क्या सिखलाओगे ?
बोलो बच्चों ...
ना, ना दद्दू, इतने बड़े हो, हम तो हार जायेंगे !
आप जैसे आदमी से, मुकाबला ना कर पाएंगे !
हमारे साथ आप भला क्यों, बच्चों सा बन जाओगे ?
बोलो बच्चों ...
अब पार कर चुके हैं देखो, हम पड़ाव पचपन की ।
खेलते तुमको देख, आतीं, यादें अपने बचपन की ।
भूल गया हूँ खेल पुराने, कुछ तो मुझे बतलाओगे ? बोलो बच्चो
लौटा दो मुझको ना,
मेरा खो गया बचपन;
उसे ढूंढ ला दो ना।
हाँ, बचपन बिछड़ा है;
लौटा दे मुझे कोई,
हाथों से फिसला है।
बचपन अति प्यारा था;
उसके बिना तड़प रहा,
वो बहुत दुलारा था।
दौड़ घर से निकलते,
वो घड़ी लौटा दो ना;
सुनकर डमरू बजते।
वक्त कहाँ अपना है;
देकर के दगा मुझसे,
लिया' छीन बचपना है।
दुनिया की नीमत दूँ;
पाने के लिए बचपन,
मुंह मांगी कीमत दूँ ।
सिर पे खड़ा पचपन;
याद आतीं वो घड़ियाँ,
गुजरा' सुनहरा बचपन।
घुमा के पीछे गरदन,
देखता मैं दूर तलक;
नजर न आता बचपन।
संग संग जो खेले;
साथी सब बिछुड़ गए,
दुनिया के' गजब मेले।
बचपन भी क्या धन था;
ना कोई फिकर, चिंता,
उमंग भरा' जीवन था।
चुराया कहो किसने,
मेरा भोला सा बचपन;
छुपाया कहो किसने।
स्कूलों और गलियों में,
ढूंढता फिरता बचपन,
मित्रों सहेलियों में।
लौटा दो नादानी,
हरकतें सब भोली वो;
शरारतें बचकानी।
पाँखें ले उड़ता था,
अम्बर में नित बचपन;
पंछी सा फिरता था।
उम्र, वजन से भारी,
गाड़ दी बचपन नीचे;
उड़ने में लाचारी।
अति उलझन में ये मन;
लाये कहाँ जाकर के,
बचपन का भोलापन।
दिला दे फिर वो घड़ी,
खेलें छुपम छुपाई,
ला दे' कोई वो जड़ी।
कहिं देखा है तुमने!
ढूंढता हूँ पागल बन,
एक बच्चा था मुझमें।
दुनिया के दलदल में,
अब मैला कुचैला है;
दिल सच्चा था मुझमें।
कितना मैं प्यारा था;
नन्हां सा बच्चा था,
सबका हि दुलारा था।
समझो बड़े ना बोल;
मैं बचपन पाने को,
दूंगा कोई भी' मोल।
यदि हो ना किलकारी,
बच्चों की जिस घर में;
लगे' सूखी फुलवारी।
ख़ुशी का पिटारा है;
खेलते यदि हों बच्चे,
धाम बड़ा न्यारा है।
वो घर भी क्या घर है!
जिस घर में नहीं बच्चे,
लगता कि मरुस्थल है।
न हो' नन्हीं पिचकारी;
पर्व होली का फीका,
मनती बस मन मारी।
जब आती दीवाली;
बच्चों की उमंगों से,
भर जाती खुशहाली।
फुलझड़ी पटाखों से;
बच्चों का मन ना भरे,
रौशनी, धमाकों से।
चलि आतीं अम्बर से,
बच्चों को सुलाने को,
परियां उतर कर के।
माँ लोरी सुनाती थी;
रातों को जाकर तब
मुझे वो सुलाती थी।
विलोक घन, मन ही मन,
आकृतियां बनाते कई;
जीते थे जब बचपन।
बच्चों से घर सजता;
स्वर्ग हो आया उतर,
ज्यूँ धरती पर लगता।
बेखबर थे' बचपन में;
क्या अपना, पराया क्या!
रहते अपने धुन में।
की बच्चों की' हुड़दंग,
शरारतें भी उनकी,
भर देतीं' उर आनंद।
लग कर्फ्यू सा जाता,
जाते जब बच्चे स्कूल;
घर होता सन्नाटा।
मन में न रखें कटुता,
लड़ झगड़ कर भी बच्चे,
दिखलाते एकजुटता।
चीज नई आती है;
बच्चों के मन में गजब,
अमोद भर जाती है।
नन्हां होता कितना,
बच्चे का दिल कोमल;
भूले भी दुखाना ना।
तुम दुखाना ना कभी,
किसी भी बच्चे का दिल;
हर हाल हँसाना ही।
यदि रोता हो बालक,
हंसा दे यत्न तुम्हारा;
जान लो दिन सार्थक।
बड़ों की होती माफ़;
यदि बच्चे करें गलती,
अधिकतर पड़ती डांट।
मिल जाय ही खिलौना,
बहल जाता बच्चे का;
भोला है दिल कितना।
माँ बाप झगड़ते जब,
बीच हम पिसते बच्चे;
हमें ही रगड़ते तब।
मिट्टी के खिलौनों से;
बहलता बच्चों का मन,
पिल्लों व छौनों से।
तू अब तक पड़ा लेटा;
घड़ी में बज गए आठ,
अब तो उठ जा बेटा।
परीक्षा सिर पे धमकी;
पढ़ाई में डट जा तू,
छोड़ के सारी मस्ती।
पढ़ ले मन से बिटिया;
यदि अनपढ़ रह गयी तो
डुबोएगी तू लुटिया।
मेरी ख़ुशी के लिए,
झेली कितने दुःख माँ;
तूने क्या क्या न किये।
होठों पर लाने को,
माँ हमारे तू मुस्कान;
हरायी ज़माने को।
जब लोरी सुनाती थी,
जागतीं नटखट ऑंखें;
माँ तू सो जाती थी।
जब थक भी जाती थी;
पर मुझको सुलाने को,
माँ खुद को जगाती थी।
रखे थी दर्जन भर माँ,
मुझे बुलाने के नाम;
रटती बदलकर माँ।
देती रोटी लपेट,
माँ लगाकर घी व गुड़;
खाते खुश हो भरपेट।
होठों पे हंसी लाने,
रोऊँ ना कभी भी मैं;
क्या क्या न किया माँ ने।
जिद्द पे जब अड़ जाता;
मनाने खातिर माँ का,
दिल रोने लग जाता।
ढोयी तू जमाने की,
फिकर लिए सिर पर माँ;
नित हमको पढ़ाने की।
यूँ रोक लगाती थी;
खेलने को पर मम्मी,
खिलौने भी लाती थी।
मन की गहराई थी;
बचपन में माँ की हमें,
समझ नहीं आती थी।
किससे न लड़ी होगी;
हमारी ही खातिर माँ,
किस हाल पड़ी होगी।
हम भाई लड़ लड़ कर,
तड़पाया तुझे होगा;
रही होगी माँ घुटकर।
समय पर खिलाने की
माँ करती होगी चिंता;
हमारे नहाने की।
हाथ का तेरे पका,
माँ! वो रस था अमृत का
स्वाद जो मैंने चखा।
तेरे आंचल कि छाँव,
स्वर्ग सा लगता जग में
मिले न किसी भी ठाँव।
दर्द मुझे, कराही माँ;
दिया सब कुछ पर बदले,
कुछ भी ना चाही माँ।
भैया ने तोड़ा था;
खिलौना टूटा मेरा,
फिर माँ ने जोड़ा था।
परीक्षा में जाते थे;
छू मातु पिता के पांव,
सफलता पाते थे।
स्कूल से आते थे;
माँ झट से खिलाती थी.
फिर खेलने जाते थे।
जब शुरू पढ़ाई की;
हाथ पकड़ मेरी माँ,
लिखना सिखलाई थी।
रखती थी माँ सपना,
लाएगा लाल दुल्हन
चहकेगा घर अपना।
माँ लगा काजल का,
बचाती दृष्टि बुरी से,
माथे काला टीका।
माँ ले रोटी, पीछे;
खा ले लाल दौड़ती, अब,
हम रोटी के पीछे।
पहनि खुद साड़ी फटी;
हमको मगर हर हाल,
माँ लाती पोशाक नई।
बड़े खुराफात किये;
थी बड़े दिल वाली माँ,
सदा हमें माफ किये।
बाँध सूत पीपल पर;
नारी कोख से अपनी,
सुत मांगी इक सुन्दर।
लड़कपन कर जाते थे;
पापा की आँखें देख,
पर अति घबराते थे।
चुपके से जाते निकल;
पिता जी लगाते डांट,
आते जब घर खेलकर।
पापा ने खरीदा था,
मेरे लिए साईकिल;
दिल मेरा जीता था।
था पापा का सपना,
बनेगा साहब इक दिन;
बड़ा हो लाल अपना।
स्कूलों के चक्कर,
लगाए मेरे पापा;
विद्वान बनूँ पढ़कर।
तनिक कुछ हो जाता;
डॉक्टर के पास तुरत,
चल पड़ते थे पापा।
बतियाने का सलीका;
सिर ऊँचा करके मैं,
पापा से ही सीखा।
सिखेंगे वही बच्चे,
जो करोगे तुम घर में;
सिखाना पाठ अच्छे।
हुई रात परी आना;
सोयेगा लाड़ला अब,
इक लोरी सुना जाना।
धरती पे परी आना;
डुला पंखों को कोमल,
तुम पंखा झल जाना।
परी सपने ले आना,
सोयेगा राजकुमार;
सितारों में घुमाना।
आ री निदिया रानी,
सुना लाल को मेरे,
तू परियों की कहानी।
अम्बर से आएगी,
नन्हीं सी परी प्यारी;
खिलौने सौ लाएगी।
चंदा मामा लाओ,
कटोरी भर के खीर,
हमारे संग खाओ।
रो कर मनवा लेता,
बचपन में बड़ों से भी,
मन की करवा लेता।
ले दाल-भात का कौर,
चल देती माँ पीछे,
मैं आगे जाता दौड़।
बिना बात खा जाते,
बचपन में माँ की डांट;
बुरा ना मगर मनाते।
मन की ना हो पाती,
बचपन में कई बार;
अँखियाँ अश्रु नहातीं।
कहते पापा, मीठी;
दूसरे गाल पे दौड़,
और दे आता पप्पी।
रुला के मना लेती;
माँ चीज कुछ खाने की ,
हाथों में थमा देती।
लगती माँ घबराने,
तबियत होती ख़राब,
दवा ले हाथ रुलाने।
आँखों को जगाती थी,
माँ उठ उठ रातों में,
तब मुझे सुलाती थी।
सिले माँ के बिछौने,
संग छोड़े बचपन के,
वो मिट्टी के खिलौने।
ला रंग बिरंगे ऊन,
पहनाती माँ मुझको;
हाथों से स्वेटर बुन।
कहते ही माँ' चढ़ाती;
'भूख लगी' चूल्हे पर,
हलवा हेतु कड़ाही।
वस्त्र, साफ या गन्दा,
बच्चों को क्या मतलब,
यह तो माँ की चिंता।
माँ भी रो पड़ती थी,
जिद्द की बात वो पूरी,
जब ना कर सकती थी।
था माँ का इक सपना,
हो के बड़ा लाएगा,
सुत सुन्दर बहू अंगना।
१००
रोना इक आफत थी;
अपनी करवाने की,
बचपन की ताकत थी।
बच्चा जब छोटा था,
वश का नहीं था कुछ भी,
सब रोकर होता था।
तब तो मन में होता,
जल्दी बड़ा हो जाऊं;
अब बचपन को रोता।
बचपन की बातें थीं;
गगन मन विचरण करता,
तारों की रातें थीं।
फिर ढूंढ के ला दो ना;
गया कहाँ बाइस्कोप,
मुझको दिखला दो ना।
मारूं जोर से फेंक;
हाथों में दे दो मेरे,
पुनः पिट्ठू की गेंद।
बन्दरजी को मनाते,
रूठी हुई बंदरिया;
फिर से दिखा दो मुझे।
पोते पोती के संग,
खेल, बच्चों का खेल,
जी लेता मैं बचपन।
करनी वो मनमानी,
आती हैं याद बड़ी,
हरकतें बचकानी।
होते पचपन पार,
आने लगीं बचपन की,
बातें याद हजार।
कागज का' बनाकर के;
दादा व पोता जहाज,
खेलते उड़ाकर के।
होती भी यदि अनबन,
क्षण में दूर हो जाती;
कितना प्यारा बचपन।
चराया मैंने भी गैयाँ;
मेले से लाया मुरली,
बजाया वट की छैयां।
छत पे हम बचपन में,
जाते ले पतंग व डोर,
उड़ाने हेतु उमंगें।
अति प्यारी लगती है,
सारी की' सारी दुनिया,
बच्चों से सजती है।
खेल के' घर आते थे,
जब छोटे थे निश्चिन्त,
थक कर सो जाते थे।
ऊँचा शॉट लगाया,
शुभ की कार का शीशा,
पापा ने लगवाया।
संग में जो सोता था,
बचपन में उस पर ही,
पांव पसरा होता था।
लाल गया है लन्दन,
याद करती बूढी मां,
घर में घिसती चन्दन।
तज इच्छा पाले लाल;
हुए बूढ़े मातु पिता,
पूछता ना अब हाल।
पाली, पिलाकर दूध,
मम्मी ने शिशु सदन का;
पी वृद्धाश्रम का जूस।
बड़ा दौर सुहाना था;
हँसता खेलता बचपन,
खुशहाल जमाना था।
आना, चवन्नी पाकर,
बचपन में खुश होते,
लाते चिज्जी जाकर।
बजाता ज्यूँ ही घंटी,
आ आइसक्रीम वाला;
दौड़ते बबलू, बंटी।
टीवी, फोन का रोग,
नहीं था जब छोटा था,
न होम वर्क का बोझ।
कटते हँसते खेलते,
बचपन के भोले दिन,
ठंडक, धूप झेलते।
त्यौहार जो आता था;
मन बच्चों के सुहाना,
समां बांध जाता था।
हर वर्ष लघु हो जाते;
पर्व आने पर पापा,
वस्त्र नये ले आते।
अम्बर से' नजर मिलती;
बचपन में सीख लिया,
तारे गिन गिन गिनती।
निंदा न बड़ाई में;
ना मन में भरी कटुता,
बचपन की लड़ाई में।
बचपन बड़ा' भोला था;
निकाल लो जब चाहे,
खुशियों का झोला था।
भेंड़ के छौनों में,
खेल के सुख मिलता;
कहाँ नर्म बिछौनों में।
चूरन की पुड़िया भी;
बच्चों को बहलाती,
रबर की गुड़िया भी।
कितनी खुली रहती;
बच्चों की दुनिया अब,
मोबाइल में सिमटी।
छोटे कपड़े लत्ते,
बच्चों की चाह छोटी,
थोड़े में मगन रहते।
बचपन को मसलो ना,
रखता है भोलापन,
फरेब में बदलो ना।
पीठ पर धरे बस्ता,
मगन स्कूल का कटता,
संग मित्रों के रस्ता।
देकर नाम विकास,
बच्चों का छीन रहे,
क्यों आरक्षित आकाश!
देता कानों में घोल;
बोल मिश्री सी मीठी,
मुन्ना तोतले बोल।
नन्हें शिशु की मुस्कान;
करती मन को प्रसन्न,
हर लेती हर थकान।
चाहा था जो बनना;
रोटी का भारी फेर,
सब टूट गया सपना।
आदर्शोँ की सब सीख,
बड़ा होकर हो जाती,
ट्यूब से हवा ज्यों लीक।
सत्य अहिंसा के पथ,
सीखा था तब चलना,
क्यों भूला बड़ा होकर।
प्रेम का पाठ पढ़ाया,
मातु, पिता, गुरु सारे;
उर क्यों घृणा लगाया!
उड़ने मन ये लगता;
तितली को उड़ते देख,
जा पंखों पे जड़ता।
चढ़ते गए सब मैल;
था स्वच्छ बड़ा बचपन,
अब ढो रहे बन बैल।
होता क्या धन, निर्धन;
समझता क्या वो भेद,
बच्चों का निर्मल मन।
बिना पैसे के खेल;
एक दूजे को पकड़कर,
चला लेते थे रेल।
कितना अच्छा लगता;
आ जाता कोई अतिथि,
घर रस से भरा लगता।
नाजुक थी एक कली,
बाबुल के बगिया की;
अति लाड़ से मैं पली।
रूनझुन वो करती थी,
आँगन में पायल बांध;
गुड़िया जब चलती थी।
बाबुल की छोड़ गली,
छूटा पीछे बचपन;
नए नभ की ओर चली।
घर होता था रुनझुन;
गुड़िया चल दी ससुराल,
नम चिड़ियों की गुनगुन।
दौड़ती आँगन में,
दादी को ख़ुशी मिलती,
नन्हीं की रूनझुन में।
दादा जी बनाते थे,
कागज का सुन्दर यान;
हम दोनों उड़ाते थे।
चलना सिखलाये थे,
उंगली पकड़ दादा जी;
कंधे पर घुमाये थे।
गीली होती धोती;
क्रोध ना करते दादा,
मन में खुशियां होतीं।
कहीं कोने में पड़ी,
मांगते, ढूंढ लाता;
मैं हि दादा की छड़ी।
रूठ जाती जब छोटी,
बांधती ना राखी भी;
कह देने पर मोटी।
स्कूल में होती धाक;
बड़ा भाई पढ़ता था,
बड़ी कक्षा में साथ।
एक कोख से जन्मे,
बड़े होने पर भाई,
रहते ना एक घर में।
चिज्जी के बहाने,
ले जाते थे चाचा,
मुझे बाजार घुमाने।
'बड़े पापा' कहते थे,
मूंछ वाले ताऊ को;
रुआब से रहते थे।
मासूम बचपना था;
लगता न कोई पराया,
पड़ोस भी अपना था।
सुनाती थी नानी,
उसी में खो जाता मन;
परियों की कहानी।
माँ सी ही लगती थी;
मौसी के यहाँ जाता,
दुलार बड़ा करती थी।
मामी लगातीं उबटन;
ननिहाल जाता, कहकर,
निखर जाएगा बदन।
जाती लेकर गुड़िया,
बड़ी दीदी के पास,
गूँथ दे मेरी चुटिया।
लाड़ हरेक दिखाता,
लगता न पराया कोय;
बचपन ऐसा नाता।
आती मिठाई घर में,
डिब्बे से उठा लेता,
अपनी पसंद चुन मैं।
बांटे ना जात धरम;
बच्चों का मन निर्मल,
ना रखते रंजिश गम।
क्रीड़ा करते जल से;
फूलझड़ी पटाखा छोड़,
खेलते हम अनल से।
भर मन में बड़ा हर्ष,
इक्तीस दिसंबर को ही,
मना लेते नववर्ष।
आने का त्यौहार,
छुट्टी की उम्मीदों में,
करते थे इंतजार।
ईख के पोर सरीखा,
प्रभु ने बनाया बच्चे,
बोल सकें वो मीठा।
चाहूँ न स्विमिंग पूल,
लौटा दो मुझे वो ताल,
नदी का मेरा कूल।
बगिया में जाने को,
रटे हनुमान चलीसा,
भूत को भगाने को।
याद है पांव फिसला;
नद में गिरने से बचा,
सोम ने हाथ पकड़ा।
चाहूँ न सौ का नोट,
चवन्नी में दिलवा दो,
गुड्डा व उसका कोट।
रिश्तेदारी कर आते;
बच्चे होने के नाते,
नए वस्त्र भी पाते।
बनना चाहा खिलाड़ी,
रहा साधन का अभाव,
चल ना पायी गाड़ी।
मास्टर जी की छड़ी;
शरारत की सोनू ने,
सुन्दर के पीठ पड़ी।
चुराया नहीं धेला;
चोरी से जाना पड़ा,
देखने हेतु खेला।
घड़ी को किया पीछे;
सोने हेतु देर तलक,
दीदी ने कान खींचे।
ढूंढता पढ़ने भैया,
पड़ोस देखता टी. वी.,
मिलता था कन्हैया।
कक्षा में छड़ी लेकर,
खड़े होने का सपना,
पूरा शिक्षक दिन पर।
थे परस्पर वे लड़े,
श्याम घनश्याम दोनों,
हाथ उठाये खड़े।
२००
पोती, प्यारी गुड़िया;
मीठी बातें उसकी,
होती दवा की पुड़िया।
नन्हेंं मुन्ने छौने;
प्यारे कितने लगते,
बुढ़ापे के खिलौने।
लड़कर कर ली कुट्टी;
ऋतु-रुचि मेंं महीने भर,
बात चीत की छुट्टी।
पसन्द मुझे मलाई;
चुराया न पर हांड़ी से,
जैसे कृष्ण कन्हाई।
बहुत मुझे रुलाया था;
कोमल पांवों को काट;
जूता नया आया था।
देते मिश्री सा घोल;
कानों में प्यार भरे,
तोतले उसके बोल।
मैं हूँ यही मनाता;
वापस दे दे बचपन,
मुझे मेरे विधाता।
अति शोर मचाते हैं,
बड़े बूढ़ों को बच्चे,
फिर भी बहुत भाते हैं।
खरीदी थी मिठाई;
मेले में बुढ़िया ताई,
मुझे भी एक थमाई।
बचपन का वो मेला;
पैसे बस दो आने थे,
लाने भर को केला।
पहन लिए थे जूता,
बिन मोज़े का साहब,
पांव लिए हैं सूजा।
घर आने पर दाई,
थोड़ी देर के बाद,
बजने लगी बधाई।
ताई बोली, रे भोली !
मिचली होते देखी,
तू तो पेट से हो ली।
इस तरह से छुपाई,
मम्मी ढूंढ न पायी;
कड़वी बड़ी दवाई।
नींद लिए आती थी;
माँ की सुनाई लोरी,
नित मुझे सुलाती थी।
कहाँ तब होता कोला;
गन्ने का मीठा रस,
पीकर ही मन डोला।
जन्म दिन पर सारे;
फुला लेती थी अकेले,
दीदी आए गुब्बारे।
भूल नहीं पाती हूँ,
बचपन में जो खेलीं।
ढूँढतीं अब अँखियाँ;
बचपन की वो बिछुड़ी,
मिलेंगी कब सखियाँ!
आतीं याद सहेलियां,
खेलते जिनके साथ,
बुझाते थे पहेलियाँ।
झूले की ऊँची पेंग,
अब ना मैं पाती हूँ।
माँ को बहुत सतायी;
पैरों से मार कर के,
फेंक देती रजाई।
घनघोर घटा घुमड़ी;
हम बच्चों की टोली
साथ भीगने उमड़ी।
हैं करने चले आते,
बच्चों से ढेर बातें;
सितारे टिमटिमाते।
सुबह होते ही बच्चे,
सुनकर स्कूल की घंटी,
दौड़ लगाने लगते।
नया खिलौना आया;
मोहन ने दिखाकर के,
सोहन को रुलाया।
बचपन की मस्ती' गयी;
रोटी के चक्कर में,
जिंदगी पिसती गयी।
बच्चे तो मन के सच्चे,
झूठ का लेप न पोतो,
कल है इन्हीं के कंधे।
पेड़ों पे चढ़ जाते;
आम तोड़ कर खाते,
माँ के लिए भी लाते।
मोबाइल पे खेल;
अब माँ भी नहीं लगाती,
लाल के पावों तेल।
फोन पे गेम का चलन,
बना कर रख दिया है;
भोंडा सा अब बचपन।
गिरधर कृष्ण गोपाला;
नटखटपन के कारण,
सबके आंख का तारा।
शिशु पे दृष्टि पड़ जाती;
देख उसका भोलापन,
अनुरक्ति उमड़ आती।
नींद नहीं भी होती;
सुनाने लगती थी माँ,
मुझे कई बार लोरी।
खेलने की लत पड़ी,
मोबाइल पर विडिओ;
आंख पर ऐनक चढ़ी।
मैंने भी उड़ाया था;
श्याम का काटा पतंग,
पेंच वो लड़ाया था।
बड़ा ही रुलाता था;
दवाई भर डॉक्टर,
सुई लेकर आता था।
चंदा को बुलाती थी;
मां दूध भात दिखा के,
मुझे ही खिलाती थी।
खुश होकर आया था;
स्कूल से कॉपी पर,
सितारे जड़ाया था।
रखते ऊँचा झंडा;
कुछ भी खर्च किये बिन,
खेल के गुल्ली डंडा।
बनाया जिसे नौकर;
नन्हां एक बालक था,
घर में निर्दय होकर।
अम्मा का दुलारा है;
आया शिकायत लेकर,
दीदी ने मारा है।
खरीदना ना वश की;
पतंग उड़ाते लूट,
पाते मजा उतना ही।
गरीबी का अभिशाप;
छीन लिया था बचपन,
थमा के हथौड़ा बाप।
भेजी मांजने बर्तन;
खेलने के जो दिन थे,
माँ कह - हम हैं निर्धन।
सुबह सताने लगती;
सोने का मन होता,
मम्मी जगाने लगती।
वानर बन जाता था,
अब्दुल रामलीला में;
देखने बुलाता था।
बुढ़ापा तेरा आया;
दूध के टूटे दांत,
मित्रों ने कह चिढ़ाया।
बच्चों का यूँ गिरना;
बचपन से सीखे हम,
गिर के फिर संभलना।
भैया को लाये कार,
पापा मुझको सीटी;
मंहगाई की मार।
नवयुग गढ़ने आये;
समय ले चलेंगे आगे,
बच्चे बिन घबराये।
मेरी भी चाह होती;
मैं बेलूँ सुन्दर गोल,
मम्मी जैसी रोटी।
आधे पेट ही खा के,
बना दूँ सुत को साहब,
खूब पढ़ा लिखा के।
सरस्वती थी माता,
बचपन में ना कोई
लक्ष्मी जी से नाता।
कागज कलम को हाथ,
पकड़ लिया बचपन से;
शारदा ने दी साथ।
कुत्ते, बिल्ली न संग,
ऊंट, हाथी चिड़ियाघर;
टी. वी. पर अब तुरंग।
आऊं, भग जाती हो,
तितली तुम बड़ी प्यारी,
हाथ न क्यों आती हो!
होता कितना मुश्किल!
लट्टू का नचाना भी,
नचा न पाता शाकिल।
महीनों से जोड़ा था;
भैया लाने को बैट,
गुल्लक को तोड़ा था।
देना ऐसी सम्मति;
प्रभु बड़ा हो हर बालक,
बने देश की सम्पति।
फेंक नचाता लट्टू;
पढ़ने में ना मन लगा,
रह गया पड़ा निखट्टू।
देती माँ टाफी भऱ,
जन्मदिन पर मेरे;
मैम बांटती लेकर।
जो भी घर पर आता;
गोलू मोलू कहकर,
गालों को ऐंठ जाता।
सिर के बाल मुड़ाया;
बच्चों ने देखा जब,
मुझे बहुत चिढ़ाया।
ड्यूटी कर के आते,
रात बिलम्ब से पापा;
सोता मुझको पाते।
माँ कुछ बाँटने लगती;
खड़े हो जाते घेरे,
सबके हाथ पे धरती।
प्रसाद बंटने लगता;
'मुझे न मिला' चिल्लाता,
खड़ा वहां हर लड़का।
चोप लगा लेते थे,
चूसने में आम पका;
होंठ पका लेते थे।
टिकट बिना उतरा था;
लिया किराया दूना,
नीचे जब पकड़ा था।
दूर तैरती जाती;
ताल में फेंकी चिपिया,
खपड़े की उतराती।
खेतों से उड़ाते थे,
चिड़ियों को बच्चे ही;
ढेलवांस चलाते थे।
सीखा मैंने लगाना,
बना रबर की गुलेल,
आमों पर निशाना।
आती मुझे है याद;
गांव की चांदनी रात,
दौड़ा मेघ के साथ।
उनको उचित सजा दो;
नशेड़ी बनाते बच्चे,
धरती से मिटा दो।
मुझको भी ले जातीं;
हाथ जोड़ मंदिर में,
फूल चढ़वातीं दादी।
डालता मछुआरा,
पोखरे में जब कटिया;
पूछते 'कितनी मारा?'
बैठते चूल्हा घेरे;
चाची बनाती रोटी,
प्लेट में पहले मेरे।
पहाड़ जैसा पहाड़ा;
याद करने में ही,
बज जाता नगाड़ा।
लाता था बगीचे से,
बीनकर के मैं आम;
छुपा देता भूसे में।
लड़ते रहते थे तब,
भाई बहन आपस में;
मिलने को तरसते अब।
छोटा चलाता स्कूटर;
बोलता घुर्रर्र घुर्रर्र,
छीने जा रही ममता,
आजकल के बच्चों से;
व्यस्तता, आधुनिकता।
फव्वारा चलता था,
भगवान का सावन में;
नहा लूँ मचलता था।
बड़े बड़े सपने थे;
धीरे धीरे मिट गए,
साथ उम्र बढ़ने के।
लफड़ा तगड़ा होता;
साझे का आता बल्ला,
रखने का झगड़ा होता।
आंख लगने लगती;
थोड़ा सा और पढ़ ले,
मम्मी जगाती रहती।
घूम आते थे गांव;
सर्दी गर्मी बरसात,
बचपन में नंगे पांव।
मुन्नी ले के गिलास;
जब दुहते पापा गाय,
खड़ी हो जाती पास।
मुंह पर लगा खाना,
खाती बैठ के मक्खी;
आता न था उड़ाना।
अब नींद नहीं आती;
तब सोने का मन करता,
माँ स्कूल बस दिखाती।
छुट्टी का घंटा बजता;
आसमान तक गूंजे,
स्कूल में शोर मचता।
राष्ट्रध्वज फहराते;
पंद्रह अगस्त को हम,
दो लड्डू पा जाते।
प्रार्थना भगवन का,
कर के स्कूल में करते,
गान जन गण मन का।
बस्ते का' रहता बोझ,
और न कोई उलझन;
अब दुनिया' भर की सोच।
जानते ना थे हाल;
बच्चे थे किस तरह तब,
मिलती ये रोटी दाल।
पापा ने तोडा था,
मिट्टी के घरौंदे को;
खाना मैं छोड़ा था।
कार्ड न होता पर्स;
फिर भी पूरे हो जाते,
जरूरत के सब खर्च।
पीरियड होता' खाली;
खेल के अंताक्षरी,
लड़कियां' वक्त बितातीं।
करते रहते हुड़दंग;
शैतान बेटों की माँ,
रो पड़ती हो के तंग।
बच्चे थे खेलते' हम
धूप, ठण्ड, बरसात में;
देख अब छुपते' मौसम।
बीबी की न थी चाह;
अच्छा लगता रचाना,
गुड्डे गुड्डी का व्याह।
चाहे कोई हँसता,
परवाह नहीं होती थी;
पहने उल्टा जूता।
उड़ाते चिड़िया तोते;
गलती से हाथी, ऊंट,
ट्रेन भी उड़ाते होते।
'आउट' पुकार निकली;
दोस्त था अंपायर का,
उठाया दो उंगली।
बीड़ी का पहला टूक,
बाप का ही फेंका था;
लगाया उठा के मुंह।
यही बचपन का फर्क;
उड़े' मुफ्त मेरे विमान,
जेट के लेकर कर्ज।
होम वर्क निबटाते,
स्कूल से घर आते ही;
खेलने भाग जाते।
बारिश के पानी में;
नाव चलती बच्चों की,
बचपन की' रवानी में।
कर्ज का होय न बोझ;
हो जाते बच्चों के काम,
बिना कोई अवरोध।
संग पापा के जाते;
खिलौने की दुकान से,
अक्सर रोकर आते।
हाथ बड़ा जब होगा,
सोचते जब बच्चे थे;
मुट्ठी में जग होगा।
बचपन का ऐसा ढंग;
खेल खेलते दोनों,
कान्हा सुदामा संग।
बचपन में मन करता,
मैं हो जाता हनुमान;
मेघ में उड़ा करता।
महापुरुष बनने का,
होने पर बड़ा निकला,
कचूमर वो' सपने का।
लड़का हो या लड़की;
बचपन में फिकर इसकी,
होती न तनिक भर की।
अब नमकीन, कड़वा;
बचपन में मन भाता,
मिठाई, खीर, हलवा।
आज गुदगुदाती हैं,
शरारतें बचपन की;
बहुत याद आती हैं।
बचपन अति सुन्दर था;
न हड़पने का लालच,
ना खोने का डर था।
इस जिंदगी के तले,
जाने कितने ही पले;
अब तो बूढ़े हो चले।
तब करता था ये मन;
हो जाऊं बड़ा जल्दी,
अब चाहूँ फिर बचपन।
गोदी की ये सवारी
बिना टिकट बिन लाइन
बच्चे ही अधिकारी
देती रहती झिड़की
पल्लू धरे ही रहता
माँ की हरदम फिर भी
बच्चों को मनाने को
खिलौना होता बहुत
जी को बहलाने को
माँ डांट लगाती थी
कभी रूठ गया जब मैं
कुछ दे फुसलाती थी
यूँ माँ घबराती थी
करता मैं शरारत था
मन ही मुस्काती थी
ए बी सी बताने में
लगे रहे माता पिता
गिनतियाँ सिखाने में
अपनी भी कहानी थी
मम्मी से भी प्यारी
लगती मुझे नानी थी
परिणाम जब आता था
अंकों कि सूची मां को
आते ही दिखाता था
अगली कक्षा में गए
किताबों के संग पापा
ड्रेस भी लाये नए
लाडले की मुस्कान
मिटा देती है माँ की
देखते सारी थकान
माँ के हाथों का स्वाद
दूर कभी जब होते
आता बहुत ही याद
लोरी गा सुलाती थी
कई बार जब कि माँ को
खुद नींद सताती थी
पापा दोचित रहते
बड़ा होय बनेगा क्या
पुत्र मेरा कहते
लेना न कभी हल्के,
बच्चों की बातों को;
होते मन के सच्चे।
होती है अति विशेष,
बच्चों की सच्ची बात;
बिना
लाग अरु लपेट।
कई
बार बड़ा जटिल,
बच्चों
की छोटी बात;
हल मिलता है मुश्किल।
होती है अति निश्छल,
बच्चों की सीधी बात;
कर
देती है विह्वल।
मन
जाता है बहल,
बच्चों
से करके बात;
हिया के विषाद निकल।
भर देती है आनंद
बच्चों
की भोली बात
करती मन स्वछन्द
अतिशः सच्चे थे हम
हो गए ऐसा क्यों अब ?
छोटे बच्चे
थे हम।
नेक व अच्छे थे हम,
कहते हैं लोग सभी,
छोटे बच्चे
थे हम।
मन को रक्खे थे हम,
भोला अरु निर्मल बहुत,
छोटे बच्चे थे हम।
शोभा
घर के थे
हम,
माँ के दुलारे भी बहुत;
छोटे बच्चे थे हम।
थोड़े कच्चे थे हम,
बुद्धि और समझ के भी;
छोटे बच्चे थे हम।
धुन के पक्के थे हम,
सब चिंताओं से मुक्त;
छोटे बच्चे थे हम।
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ना पीछे का है गम,
नहीं आगे
की चिंता;
देखो बच्चे
हैं हम।
मित्र हमारे हरदम,
होते खेल
खिलौने;
देखो बच्चे हैं हम।
किसी से ना हैं कम,
देखने में हैं छोटे;
देखो बच्चे हैं हम।
थामने का रखते दम,
कल
का बोझ कन्धों पे;
देखो बच्चे हैं हम।
भगा
देते हैं तम,
दीपक बन के जग का;
देखो बच्चे हैं हम।
नहीं पड़ते हैं नरम,
कठिनाईओं में कभी;
देखो बच्चे हैं हम।
मन ललचाता है
बड़ा वक्त कमीना है;
मुझसे सरेआम मेरे
बचपन को छीना है।
बहन बड़ी
खाया उसका केक
मुझसे लड़ी
मुंह सुजाया
झाड़ी से मुन्ना आया
बर्र का छत्ता
दिखा दिखा के -
सब जानें नहाई
बाल सुखाई
बड़ी हैरानी
मुझे देख के उड़ी
तितली रानी !
फूल न पत्ते
बैठी शोक मनाती
तितली रानी
श्रम करती
तभी पेट भरती
तितली रानी
मुंह सुजाया
झाड़ी से मुन्ना आया
बर्र का छत्ता
कहाँ नहाना
है वश की रोजाना
बच्चों के लिए
ध्रुव प्रह्लाद
जाने कब हो गए
सांप्रदायिक
गमले पर
मंदिर में तितली
राम भजती
नहीं आराम
बस काम ही काम
चींटी के जिम्मा
उदास दीदी के बिन;
लड़ते झगड़ते कटते
हम दोनों के दिन।
जब देख नहीं पाते
रामलीला तो पापा;
बिठाते उठा काँधे।
जैसे की निर्मल जल
रंग जाय, पड़े जो रंग;
होता बच्चों का मन।
सहज ही जाता बहल,
पाकर कोई खिलौना;
बच्चों का मन कोमल।
बड़ा वक्त कमीना है;
मुझसे सरेआम मेरे
बचपन को छीना है।