Monday, 8 January 2018

Muktak 2018


दीवानों की जमात चली, शबाब इतराने लगा।
प्रेमियों की तादाद बढ़ी, गुलाब इतराने लगा।
किस्मत से थाम लिया मेरा भी गुलाब कोई,
फिर मैं भी कहाँ से कम, जनाब इतराने लगा।

जम के रहे बतौर, तुम्हारे दिए घाव ।
गए न किसी तौर, तुम्हारे दिए घाव ।
मरहम लगाए, मगर काम न आये,
गहरे हुए और, तुम्हारे दिए घाव ।

सुबह, फूल को माली का इंतजार होता है।
हमको तो कामवाली का इंतजार होता है।
जबसे लगी है, बीबी ने बनाना छोड़ दिया
चाय की एक प्याली का इंतजार होता है।

अलग रंगो में, मुल्क को बांटने वालो !
तीन टुकड़ों में, तिरंगे को टांगने वालो !
खेत न केसरिया, न चेहरा हरा होगा;
सुनो! रंगों से, मजहब को आंकने वालो !


गंगा जमुनी तहजीब तो कहते हो ।
अलग धार में फिर भी बहते हो ।
दो नदियों के संगम की तरह मिल,
मुख्य धारा में क्यों नहीं रहते हो ?


सपनों में आते हो तुम ही तुम।
सोये से जगाते हो तुम ही तुम।
तुम क्या जानो, दूर हो जाते हो
रातों में रुलाते हो तुम ही तुम।



समाये तुम जिगर में।
पिटा ढिंढोरा नगर में।
तुम हो बेखबर अभी,
हवाएं पूछतीं डगर में।


बड़े दिनों बाद मिले हो, कुछ कहो न ।
ऐसे क्यों होंठ सिले हो, कुछ कहो न ।
लम्बी ये खामोशियाँ कह रही हैं कुछ,
रखे क्या हमसे गिले हो, कुछ कहो न ।

बनाये रखी तुमसे सानिध्य, प्रेम की डोर।
बांधे रखी दोनों को, अदृश्य, प्रेम की डोर।
होता है जिंदगी का बोझ बहुत ही भारी,
ढोयेगी अब अपना भविष्य, प्रेम की डोर।


कभी बिखरी तो सी लिये जिंदगी।
रूठते मनाते यूँ जी लिये जिंदगी।
खारा, सादा, ठंडा, गरम, जैसी रही, 
पानी के घूंट सा पी लिये जिंदगी।

रहे हैं दिल में वर्षों से पैठे।
जरा सी बात पर ऐसे ऐंठे।
मनाते देख रही है दुनिया,
पार्क के बेंच पर रुसे बैठे।


न्यायाधीश चला है जनता से न्याय मांगने ।
अन्याय का शिकार, राहत का उपाय मांगने ।
शक में सराबोर है जनता, चला न कहीं हो -
छिछोरी राजनीति का कोई अध्याय मांगने ।



ऋतु बदली, अब सूरज ने जिद्द छोड़ी, आयी लोहड़ी ।
खाके मनाई लावा और गज्जक, रेवड़ी, आई लोहड़ी ।
सुन्दर मुंदरिये! रब भर दे झोली, लगे तेरी भी जोड़ी, 
कर लो भंगड़ा जिसकी नई है जोड़ी, आयी लोहड़ी ।

खामख्वाह ही तो नहीं, तुमको अपनाया मैंने।
तुम्हारे आने के लिये घर को चमकाया मैंने।
हमारे तुम्हारे बीच न आये कोई, इस डर से,
कितने ही अपने अरमानों को दफनाया मैंने।

बागों के फूल मुस्कराते हैं, तुम साथ होते हो।
गिरने से सम्हल जाते हैं, तुम साथ होते हो।
अकेले होते हैं, रात काली स्याह ही रह जाती,
सितारे भी झिलमिलाते हैं, तुम साथ होते हो।

पहली बार तुमने जब छुआ था।
तन में अजीब सा कुछ हुआ था।
दिल में खूब आतिशबाजी चली,
न ही आग लगी, न उठा धुआं था।

जहाँ कहीं आईं चट्टानें, तुम साथ आ गये।
पड़े राह के रोड़े हटाने, तुम साथ आ गये।
रह जाती है खड़ी, तुम्हारे बिन गाड़ी मेरी,
चलने को ऊर्जा जुटाने, तुम साथ आ गये।  



तुम्हारा प्यार पाने को, दिल में जूनून होता है।
तुम्हारे कंधे पर सिर रख, बड़ा सुकून होता है।
तुम साथ नहीं होते, जमीन से आसमान तक,
कहीं कुछ सूझता नहीं, सारा जहां सून होता है।

मेरी जिंदगी की एक किताब हो तुम।
कई जटिल सवालों का जबाब हो तुम।
दिल के भीतर जितना समा सकता,
उससे गहरी मुहब्बत बेहिसाब हो तुम।



उधेड़ बुन में ही, चुक जाती है जिंदगी।
वक्त के आगे, झुक जाती है जिंदगी।
दिखता नहीं, कौन लगा देता है ब्रेक,
चलते चलते कभी, रुक जाती है जिंदगी।

औरों को सताने वाले, पाप कमाते रहते हैं।
आराम पाने के लिये, संताप कमाते रहते हैं। 
दूसरों के कल्याण से, मिलता है सुख बड़ा,
भलाई करने वाले, प्रताप कमाते रहते हैं।


तुम्हारा प्यार पाने को, दिल में जूनून होता है।
तुम्हारे कंधे पर सिर रख, बड़ा सुकून होता है।
तुम साथ नहीं होते, जमीन से आसमान तक,
कहीं कुछ सूझता नहीं, सारा जहां सून होता है।


चाँद चमकता है, तुमसे रोशनी पाकर।
कान तृप्त हैं, तुम्हें सुभाषिनी पाकर।
छन जाती है रस भरी जलेबी दिल में, 
तुम्हारे प्यार की मीठी चासनी पाकर। 

माली ने तोडा फूल, भौरा तरसता रह गया।
हक़ के लिये वकील सा बहसता रह गया।
हमको तो मिल गये तुम, खुशियों से झूम,
रिमझिम सावन निरंतर बरसता रह गया।

कभी उबाऊ सी, तो कभी सुहानी है।
कुछ ऐसी ही जिंदगी की कहानी है।
तुम्हारा हाथ थामे रेल की पटरी पर,
कभी धीमी, कभी दौड़ती तूफानी है। 

जिंदगी आधुनिक हो गयी है। 
स्वार्थी भी तनिक हो गयी है। 
तकनिकी में सुकून खोदती,  
मंजिल की खनिक हो गयी है।  


पुलिया पर बैठे कभी याद करते हैं, अठारह की बातें।
अस्सी के हो गये अब, तुम्हारे नौ दो ग्यारह की बातें।
बहाना बनाकर नहीं आना, कभी जल्दी चले जाना,
कभी साथ तुम्हारे चल पड़ना, नौ से बारह की बातें।

हम तो तुमको यूँ ही दे देते, चुराने क्यों आये ?
कर के दिल को घायल, मुस्कुराने क्यों आये ?
खेले लावारिस समझकर, हम कुछ न बोले,
वापस फिर से कुरेदने, घाव पुराने क्यों आये ?

हम पर गिरी है गाज, तुमने सुना होगा।
टूटने की हुई आवाज, तुमने सुना होगा।
छिटके पड़े जो टुकड़े, वो मेरा दिल था,
चीख का नया अंदाज, तुमने सुना होगा।


ढूंढते रहे सुख, बंगले, कार में।
पूरी जिंदगी बिताये बेकार में।
उसके नाम का घूंट पिया नहीं,
डूबे रह गये मन के विकार में।

हमने चाँद को बुलाया, तुम आये।
हमारा घर जगमगाया, तुम आये।
दिल ने जलसा मनाया, तुम आये,
हमने नींद को भगाया, तुम आये। 

मुरझाया चेहरा खिल गया, आने की आहट पाकर।
ख़ुशी का आलम मिल गया, तेरी मुस्कराहट पाकर।
चलाया था दोनों ने मिल, मुहब्बत की बयार ऐसी,
भौंरों का दिल हिल गया, तेज सनसनाहट पाकर।

जाड़ा, गर्मी, बरसात भी आयी,
तेरे ही संग में पल पल बिताई;
तेरी मुहब्बत की वो कहानियां,
दिल पर लिखीं, मिटा न पायी।



माघ शुक्ल पंचमी, धरा पर धरा बसंत कदम।
सर्दी का अंत, लहर उठा ऋतुराज का परचम।
पुष्प, भ्रमर, पक्षी और प्रेमी, नभ स्वछन्द में,
लगे हुए हैं ह्रदय सजाने, अनुराग का सरगम।


खुदा! उन जालिमों को कुछ अक्ल दे दे।
कायम रहे इंसानियत, थोड़ा दख्ल दे दे।
इंसान होकर के भी बने हुए हैं भेड़िये जो,
पहचान के वास्ते उन्हें, वही शक्ल दे दे।


संस्कृति को बचाये न होते, आज कहाँ हिंदुस्तान होता।
खून में लथपथ जमीं होती, कराह रहा आसमान होता।
खुद की रोटी सेकने के लिये, मौकापरस्त घूमते फिरते,
आवाम में लगी आग होती, सीरिया या तालिबान होता।


ऐसा न हो पैसे के लिये, तुम्हारी हर सांस जंचवा दें।
संतों से ग्रंथों की जगह, अश्लील उपन्यास बंचवा दें।
फिल्म वाले अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर,
आज रानी पद्मावती, कल कहीं देवियों को नचवा दें!


ले जाना चाहते हो तुम किस डहर को।
जलाये चले जा रहे अपने ही शहर को।
सुबह होते ही धधका कर दावानल;
बच रहे हो तपिश से, अब दोपहर को।

गणतंत्र मिला है हमको देकर, अनेकों ही कुर्बानियां ।
स्वाहा हो गए पुत्र कितने, और कितनी जवानियाँ ।
अपने अपने के चक्कर में, लगा रहे हो बन्दर बाँट,
खो मत देना अनमोल रत्न ये, कर के तुम नादानियाँ ।

दुनिया देखे, अनुपम छवि की इसकी बुलंद इमारत हो।
शांति, संस्कृति का पाठ पढ़ाता, प्रगति में महारत हो।
दबाये रखे हुए कुछ लोग, निकल कर लगे विकास में वो,   
काला धन बने बसन्ती रँग,सोने की चिड़िया भारत हो।


लाउडस्पीकर से खुश होता भगवान,
लाउडस्पीकर से खुदा सुनता अजान,
तो बस्तियों में क्यों ? पर्वत श्रृंग पर,
क्यों न ले जाकर बजाता है इंसान?

कबसे संजोये हुए मुहब्बत का ख्वाब,
अलमारी के खाने में पड़ी रही किताब;
कोई तो दीवाना आकर कहे 'तू मेरी है' 
जोहती रही वाट, वह होकर के बेताब।

ऐसा नहीं कि केवल शकुनि और कंस हुए हैं ।
मामा और भी हुए, जिनमें उनके अंश हुए हैं ।
कुटिल चाल लिये, आये पृथ्वी पर पापी और,
विधाता के हाथों ही उनके भी विध्वंस हुए हैं ।


करते रहे कारनामा तुम काला।
मौज के वास्ते पापों को पाला।
फेर लिया जब नज़रों को उसने,
सांसों का बोझ न गया संभाला।

गुजर जायेंगे हम, जिधर से वक्त चाहेगा।
रह लेंगे अकेले भी, गर वो विरक्त चाहेगा।
कब तक रहेगा छुपा, आसमानों के पीछे,
आना होगा एक दिन, अगर भक्त चाहेगा।

पैसे से ही जिंदगी को चलते देखा।
पैसे के लिये लोगों को मरते देखा।
पैसा था जिंदगी में सब कुछ अगर,
पैसा होते भी जिंदगी ठहरते देखा।

सब कुछ तो नहीं, मगर बहुत कुछ है पैसा।
जिसके पास होता, उसी की पूछ है; पैसा।
गलत काम में लगने से ये तुच्छ हो जाता,
सही काम में नहीं लगता तो छूछ है पैसा।

वो रहे हमारे खिलाफ, वक्त हमारे साथ था।
हम करते रहे थे माफ़, वक्त हमारे साथ था।
फैलाते रहे वो गन्दगी, जिंदगी की राह में,
हम करते रहे थे साफ़, वक्त हमारे साथ था।

देख कर हम डर गये उन हंसीं आँखों को।
कैद न कर लें कहीं, कोमल मेरी पाँखों को।
मालूम है हमें, तोड़ना कितना मुश्किल,
मुहब्बत के कैदखाने की उन सलाखों को।  



रास्ता कट जायेगा, कुछ वक्त की बात है।
अँधेरा छंट जायेगा, कुछ वक्त की बात है।
तुम्हारा साथ भी मरहम से कुछ कम नहीं,
उठा दर्द घट जायेगा, कुछ देर की बात है।

दबंग, आतंक के आगे झुका गये,
और वो जमीर की कीमत पा गये।
जो भी कहलवाना था, और जैसे;
अपनी झूठी गवाही देने आ गये।

सच को सच कहने की हिम्मत चाहिए।
मुफ्त में मौज के लिये किस्मत चाहिए।
बनाये रखना है अगर किसी को अपना,
लगाव के साथ उसकी खिदमत चाहिए।


मंजिल कहाँ छाँव के नीचे हुआ करती है।
वो तो हमेशा पाँव के नीचे हुआ करती है।
हासिल होती हौसला से चलने वालों को,
पड़े छालों के घाव के नीचे हुआ करती है।

जब कभी आंधियां आतीं थीं।
हमें हिला तक नहीं पातीं थीं।
हम ठूंठ बनकर खड़े हो जाते,
मजबूर होकर चली जातीं थीं।

जब दिल है तो मुहब्बत होगी ही।
कर लिया तूने तो कूबत होगी ही।
अब आंसुओं से घबराता है क्यों,
इश्क की राह में मुसीबत होगी ही।

जैसे ही जलाई दीप, उसे बुझाने आयी हवा।
थी फटी पुरानी चीर, उसे उड़ाने आयी हवा।
बजा सकती थी घुस, बांस के छेदों में मगर;
बांसुरी की संगीत, नहीं सुनाने आयी हवा।

सबसे बड़ी बेइंसाफी तो उसी की गरीबी थी।
पैसे बिना इन्साफ कहाँ, यही बदनसीबी थी।
इन्साफ दिलाने के वास्ते आता भी तो कौन,
किसी रुतबे वाले से भी उसकी न करीबी थी।


धर्म से बड़ा हर किसी का देश होता है।
पालन पोषण का वही परिवेश होता है।
जन्म तो लेना होता मातृ भूमि पर ही,
धर्म, मजहब का पाठ व आदेश होता है।


पहले तो संविधान की कसम खाई ।
फिर जी भर उसकी धज्जियाँ उड़ाई ।
जब कभी बात खुद पर बन आती,
देने लगते उसी संविधान की दुहाई ।

संविधान, मजहब और पार्टी से बड़ा होता है !
तो रसूकदार लोगों के साथ क्यों खड़ा होता है?
सत्ता के गलियारों में तो खजाना भरा होता,
आम आदमी खुद के हाल पर पड़ा होता है ।

जाने न दो व्यर्थ, हमारे वीरों के बलिदानों को ।
कुचल, धूल धूसरित कर दो, अरि के अरमानों को। 
राष्ट्र का गौरव है ये, और तुम्हारी शान तिरंगा,
ऊँचा कद इसका रखना, बचाना स्वाभिमानों को ।


काले बादलों में सूरज को पड़ते नम देखा।
आसमानों से जमीं पर मुड़ते तम देखा।
कुदरत का खेल भी गजब बहुत है एसडी,
सड़क पर इंसानियत को तोड़ते दम देखा।

उन्हीं रास्तों पर आना जाना सीख लिया।
खबरों की सुर्ख़ियों में आना सीख लिया।
दस बीस के पीछे चलने के लिये, मैंने भी,
नफरतों की आग भड़काना सीख लिया।

माना कि वह, नेक इंसानों में है।
खुदा न हिन्दू, न मुसलमानों में है।
खुदा नहीं, ढूंढते दूसरे की खामियां,
इसीलिए तो वह आसमानों में है।

दूसरे धर्म को गुनाह बताने वालों।
खुदा पर फतवी हक़ जताने वालों।
कभी खुद पर डंडा लगाकर देखो,
दुनिया को सबक सिखाने वालों।

पाप को बोने को मजबूर न कर।
फांके से सोने को मजबूर न कर।
एक तेरा नाम ही तो है पास मेरे,
उसे भी खोने को मजबूर न कर।

भगवान मंदिर में है तो बजती घंटियों में कौन है।
भगवान मूर्तियों में है तो उड़ते पंछियों में कौन है।
कैसे हँसते इंसान, बागों में फूल, कैसे डोलती हवा,
भगवान घाटों पे है तो जल की मछलियों में कौन है।

नदी थोड़ी बौराई तो क्या ! मेरे गांव की थी।
किनारों से उतर आयी तो क्या! मेरे गांव की थी।
बाद में पूरे साल तक खेतों को सींची थी वही,
मेरे खेत में भर आई तो क्या! मेरे गांव की थी।


हाथ पकड़े हम चलते रहे, चांदनी बरसती रही।
तुम प्यार की बातें करते रहे, राह महकती रही। 
चले आये हम दूर इतना, पता तक नहीं चला,
छूटता रहा वक्त पीछे, मंजिल चहकती रही।

गली में उनकी जाने न कितने घायल हुए।
उँगलियों से उन, बहुतों के नंबर डायल हुए।
इधर को तो रुख करने से भी कतराते रहे,
वैसे उनकी अदाओं के हम भी कायल हुए।

उनसे इश्क का तो हम भी रखे खुमार थे।
नज़रों में उनकी मगर कहीं न सुमार थे।
होती भी कैसे इधर उनकी इनायत एसडी, 
चाहने वाले उनके पहले ही बेसुमार थे।


हम तो बने हैं मिट्टी के, मिटने का डर क्या है! 
थोड़ी हवा में सांस लेते, घुटने का डर क्या है! 
होगा कोई बड़ा लुटेरा तो मेरा क्या बिगड़ेगा,  
सच को सच ही बोलेंगे, लुटने का डर क्या है!

रखना तुम ना बुरी नजर;
दुनिया वालों, भारत पर ।
शांति, अहिंसा की है निति,
राणा प्रताप से वीर मगर ।  


मजबूरी थी उसकी, सहना पड़ा।
सहमी पड़ी बड़ी, चुप रहना पड़ा।
सिर से ऊपर हो गया जब पानी,
उनकी करतूतों को कहना पड़ा।

बाहर की हवा बाहर ही खड़ी हंसती है। 
भीतर वातानुकूलित हवा की मस्ती है। 
लगी तो होती, पैसे वालों के घर में भी,
मगर खिड़की वो खुलने को तरसती है। 

बनवा सकती उसे, इतनी रकम नहीं जुटी।
तभी तो वर्षों से है वह अब तक पड़ी टूटी।
आधी बंद रहती और आधी खुली खिड़की, 
बार बार खोलने व बंद करने से भी छुट्टी। 


रेल की पटरी पर, चलती रही एक कहानी। 
हमारी, तुम्हारी रही अनकही एक कहानी।
एक ओर तुम थे और एक ओर हम पहिया,
जिंदगी का बोझ ढोने की वही एक कहानी।




देखता हूँ, गुजरता जब उधर से, पार्क का वह बेंच। 
शोभा पाता है एक जोड़े से नये, पार्क का वह बेंच। 
याद कर वक्त अपना, सोचता और दुआ देता हूँ,   
उनमें से न कोई एक बदल ले, पार्क का वह बेंच।  
   
अब सब कुछ हुआ, हमारी मर्जी के बिना जा रहा ।
पिछली करतूत हमारी, अपराध सा गिना जा रहा ।
अधिकारी भी अधिकारों के प्रति सचेत हो रहे हैं,  
संविधान बचाओ! परिवार से यह छिना जा रहा ।

हिन्दू कहीं भी पत्थर की मूर्ति लगा पूजा कर लेता है। 
मुसलमान कहीं भी लुंगी बिछा नमाज पढ़ लेता है। 
फिर भी जोर आजमाइश व नाक ऊँची के सवाल पर,    
मंदिर और मस्जिद का नाजायज फसाद गढ़ लेता है।  


हम जब भी आगे जाते रहे, 
वो थे कि रोड़े अटकाते रहे। 
निकल सकते थे आगे कहीं,   
पर हमें रोक, जीत पाते रहे। 


लगा देने से महक गयी महफ़िल, गुलाब का फूल। 
तुम्हारे हाथ देख खिल गया दिल, गुलाब का फूल। 
जान नहीं पाये कि लाये हो मौत का सामान तुम,
बन जायेगा हमारा वही कातिल, गुलाब का फूल। 


तुम्हारा दिया, कितना खुश किया था, गुलाब का फूल। 
कुछ ही अरसे में तुमने छीन लिया था, गुलाब का फूल। 
किसी और को देखा, हाथ में लेकर के मुस्कराते हुए,  
वही, जो तुमने कभी हमको दिया था, गुलाब का फूल।   


हमारा सहारा लिए राह जो चलते रहे।  
कल तक हमारी ही छाँव में पलते रहे। 
दिखाने आ गए हैं हमें ही रास्ता अब,     
उनको साथ लिए जो हमसे जलते रहे। 

अभी सुबह ही उनसे मुलाकात हुई। 
होने तक दोपहर प्यार की बात हुई। 
शाम होते ही ढलने लगी मुहब्बत,   
अँधेरे में गायब कहीं, जब रात हुई।  

अजनबी से क्यों जानेमन हुए जाते हो। 
चमन के मुरझाये सुमन हुए जाते हो। 
हुआ इश्क पे उतारू, क्या खता किया,    
खुद के ही दिल के दुश्मन हुए जाते हो।  




नदी के किनारे, संध्या अँधेरे, धधकती किसी की चिता जल रही थी।
लपटों के आगोश, शव को लपेटे, काठ पे सूखे शिखा पल रही थी। 
आगोश अपने, शव को लपेटे, लपटों की ऊँची शिखा निकल रही थी। ********
लेकर उजाला, चल दी थी ज्वाला; धुंए में ले यादें, हवा चल रही थी। 
धरा रो रही थीगगन रो रहा थाअश्कों में भीगीनिशा ढल रही थी।

गांव से उठ ऊँची गूंजती रुलाई, चीरती सन्नाटा तूफां भर रही थी। 
था लाल किसका, पति या पिता था, रोने की चीखें बयां कर रही थी। 
चुनी अस्थियों को अंदर समाने, रोती नदी वह इल्तजा कर रही थी। 
नीड़ को लौटी पेड़ों पे टोली, पंछियों की शोक सभा कर रही थी।

एस० डी० तिवारी 


नन्हें नन्हें पांवों से घूम आएगा। 
अंगना में मेरे खुशियां लुटायेगा। 
लड़का या लड़की हमें क्या पता,
कुछ हफ़्तों में जग जान जायेगा।   

अथक परिश्रम करके उसने भवन बनाया ।
रहने के लिए उसमें कोई और चला आया ।
झोपड़ी में रहने को मजबूर, मजदूर तो, 
काम का उचित पारिश्रमिक भी नहीं पाया ।

तुम्हारा खुमार न जाने कबसे हावी है।  
तुम्हारे स्वागत की रखे बड़ी बेताबी है।  
लगा पड़ा एक अरसे से ताला दिल पर,  
तुम आये तो मिली खुलने की चाबी है।   

जितना भी चढ़ पाए तुमने उतार दिया। 
आगे बढ़ने के जजबे को पूरा मार दिया। 
जब तुमने मांग ही लिया तारा नभ का,   
सीढ़ी ढूंढने में हमने उमर गुजार दिया। 


हिन्दू मुसलमान का भेद नहीं करती है गोली। 
क़त्ल तो कर देती, खेद नहीं करती है गोली।  
मिल जुल नहीं रहता जान कर भी इंसान ये
कि प्यार मुहब्बत में छेद नहीं करती है गोली।    


हमें मालूम था किसी मोड़ पर मिल जाओगे तुम। 
जिंदगी के आकाश पर चाँद बन के छाओगे तुम। 
हो जायेंगे सराबोर, हम नहाकर के जी भर उसमें, 
ऐसी प्यार की साफ़ ठंडी चांदनी बिखराओगे तुम। 


लहू बहता रहा, उसे हम छुपाते रहे। 
तुम थे कि मुंह फेर के आते जाते रहे। 
नजर तुम्हारी भीतर को गयी कब थी, 
टूटकर के भी हम, कहकहे लगाते रहे। 

गैरों के मिले खत को गौर से ताड़ा उन्होंने 
हमारे लिखे खतों को पाते ही फाड़ा उन्होंने 
खत लिखने की जुर्रत हुई तो कैसे उसकी 
सुनाकर जोर से, सरेआम चिंघाड़ा उन्होंने 

टिक टिक करती अभी भी पड़ी, दादा जी की घडी
हम्हीं तो थे, चलने के लिए रोज चाभी भरनी पड़ी 
वैसे तो ले आता नई, किन्तु समय वो अब से देती   
ये तो लिए हुए है, अपने पुराने समय को भी खड़ी   

फोन की घंटी पूरी की पूरी जाती रही। 
जबाब देने से मगर वो कतराती रही।   
अनुत्तरित उन फोनों की सूची बड़ी,    
मेरे जानम को रात भर रुलाती रही। 

तुम्हारे पीछे, अपने घर को घर न कहा। 
तुम मुंह मोड़ते रहे, बेवफा पर न कहा। 
होगी तुम्हारी आदत, दिखाने की अदा,  
आ जाओगे एक दिन, सोचकर न कहा। 

लग रहा आजकल बीबी मुझे जवां कर रही है। 
च्यवनप्राश खिलाकर उम्र को रवां कर रही है।  
कब कब क्या खाया, देना होता हिसाब उसको, 
उम्र उतरने की राह को ढलवां कर रही रही है। 


मैं, जी रहा बचपन अपना, बीबी टोक निहाल करती है।  
खाने, पीने, सोने को लेकर अम्मा सा सवाल करती है।  
साठ का पाठा हो चले, करते अब भी हरकतें बचकानी, 
पड़े हुए निठल्ला, निकम्मा, हर बात पर बवाल करती है। 



घर भी तू ले ले, बगीचा भी ले ले,
भले खेत ससुर का सींचा भी ले ले; 
मगर मुझको लौटा दे ससुराल मेरी,
पैसा और धेला समूचा ही ले ले;  
वो रौनक, वो लमहे खुशहाल मेरी ।


कहाँ मेरी सरहज, वो साले और साली; 
बच्चों के नाना और प्यारी सी नानी ।
पैसा और धेला समूचा ही ले ले;  
मगर मुझको लौटा दे ससुराल मेरी, 
वो रौनक, वो लमहे खुशहाल मेरी ।

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