Monday, 2 January 2017

Bhauji ki holi

भौजी की होली 

अबहीं भौजी से देवर कर ही रहे चिकारी, 
भौजी ने अपने हाथ, उठा लई पिचकारी। 
देवर लगे ढूंढने ओट, इधर उधर बचने का 
भौजी ने किये बिन देर, फौरन ही दे मारी। 

बजाती चली आय रही, झाल, ढोल मजीरा। 
झूम झूम के गाय रही, फगुआ और कबीरा। 
आन पहुंची पास में, मंडली देवर मित्रों की 
उड़ाय रही हवा में खूब, रंग, गुलाल, अबीरा। 

पहुँच गयी मंडली जब, घर उनके उस पल। 
देखी हुआ पड़ा, अपने दोस्त को बेकल। 
बना हुआ था भीगी बिल्ली औ रंगा सियार 
यार की हालत पतली थी, होली में खलबल। 

देख के भौजी को ढंग, सब के सब थे दंग। 
बनी योजना, डालेंगे, हम भी उस पर रंग। 
है होली का दिन, ना छोड़ेंगे उसको आज 
मिल हम सब यार दोस्त, सराबोर करेंगे अंग। 

चले जोश में मित्र गण, बाजी है गयी उलटी। 
भौजी ने धर रखा था रंग, भर के पूरी बलटी। 
मित्र मंडली जैसे ही, आई भौजी के पास 
उठाई रंग की बलटी और दन से ऊपर पलटी। 

काम न आई मित्र मंडली की कोई चतुराई। 
चपल भौजी जुगत लगा के अपने को बचाई। 
छत पर जाकर फिर तो वो, खूब रंग बरसाई 
भीग-भाग के पलटन सारी, लौट गयी शरमाई। 

दाल गली ना जब देवर की, रंग डाली तब साड़ी, 
भौजी ने जो सुखन खातिर, रसरी पर थी पसारी। 
महँगी थी साड़ी उनकी, भौजी न खाये गुस्सा 
डर के मारे, सोचे देवर जी, दे दूँ अभी कचारी।

तबही भौजी की नजर पड़ी, देवर की उड़ी हवाई  
दुबकने को लगे ठाँव ढूंढने, भौजी दौड़ी आई। 
फैले रंग पर फिसला पांव, देवर जी गिरे धड़ाम, 
बांह पकड़ भौजी देवर को, घर में भीतर लायी। 

फिर तो देवर के होली पर, जमकर के आये मजे। 
लेकर के आई भौजी, भर भर कर के प्लेट सजे। 
छानी भांग, खिलाई गुजिया, बड़े और मालपुआ, 
खाये देवर जी, जी भर के, और भौजी को भजे। 

- एस० डी० तिवारी

No comments:

Post a Comment