Friday, 27 January 2017

Milana piya se geet / gazal


कुटी मैं छवाउंगी, गंगा के तीरे।
सजन पास जाउंगी, मैं धीरे धीरे।

निहारूँगी छवि उसकी, गंगा के जल में।
बंध के रहूँ ना, पत्थरों के महल में।
मिलना पिया से, है मुझको सखी रे

सुना है वहां रोज, आता सजन है।
करना नित उसका, मुझको भजन है।
भजन में ही उसके, हैं सुख के जखीरे।

आयेगा मिलने रे, पिया मेरे धाम।
लूंगी कृपा, करके उसको प्रणाम।
धुल जाएगी मन की, काई जमी रे।

कुटी मैं छवाउंगी, गंगा के तीरे।  ...




हमसे खफा क्यों, सजन हो गए हैं।  हुए जाते हैं।
उन बिन अकेले, अपन हो गए हैं।
जाने न हमसे, हुई क्या खता थी
पराये से हम जाने मन हो गए हैं।
बिछुड़ चुकी हैं बहारें अब हमसे
वीराने से ये चमन हो गए हैं।
तनहा रहने की आदतों के मारे
खुद के ही हम दुश्मन हो गए हैं।
दरश हुये उनके  बीत गए बरसों
अलसाये से ये नयन हो गए हैं।
क्या क्या न किये हम उनके लिए
गुमसूमियत में दफ़न हो गए हैं।
यादें ढक चुकीं वक्त के एसडी पीछे
बीते हुये लमहे चिलमन हो गए हैं।



Sunday, 15 January 2017

Haiku Jan 17 bahu beti


उसका नाम
कितना भी पी जाओ
होगा न कम

उसके सिवा
करे जो बेडा पार  
कोई न यार


बना के छुट्टी
संक्रांति पे खिचड़ी
खुश गृहिणी

खिचड़ी खिला
पत्नी कर ली छुट्टी
पिला दी घुट्टी

खा के खिचड़ी
करते हम गर्व
संक्रांति पर्व

खिचड़ी मनी
खा के लड्डू गज्जक
तिल की बनी


तन के साथ
मन भी धुल  जाता
गंगा नहान

प्यासा कश्मीर  
बर्फ़बारी में जमा   
नल का पानी 

जेब में भर 
जाते पानी लेकर 
घाटी के लोग  

दुखी किसान 
आलू को मारा पाला
चिंता में डाला 


जिंदगी खेल 
नियम से खेलोगे  
होंगे न फेल 

रहे अंजाना
कहाँ से आये हम 
कहाँ है जाना 


चूल्हे की आग
बुझाने को जरूरी 
पेट की आग 

सुबह शाम 
कड़कती ठण्ड में  
भाये अलाव 


खाओ जी भर  
पोंगल के व्यंजन 
पर्व ही धन 

बड़े ही लंबे
चलना सम्हल के
जीवन पथ

खुश हैं हम
जीवन में तुम्हारे
साथ का दम

ढूंढने में ही
तुम्हें जिंदगी मेरी
साँझ हो गयी

***********

बड़ा जो खेता
परिवार की नाव
बेटी या बेटा

सम्हाल लेती
दो घरों की लगाम
बेटी महान

दो परिवार
बेटी प्यार की डोर
बांधती साथ

बोझ ना कोई
घर को महकाती
फूल है बेटी

दोनों रखती
सुंदरता व शक्ति
बेटी महती

बेटी बनाती
संसार को सुन्दर
करो आदर

कैसा भी सही
अब अभेद्य नहीं
बेटी को लक्ष्य

ख़त्म करेगा
बहू बेटी का भेद
नारी का हक़



प्यार व सेवा
बहू को जानो बेटी
दोनों की लब्धि

पहले होती
हर किसी की बहू
किसी की बेटी

नाजों की पली
किसी और का घर
बसाने चली

बहू बनके
जुड़ गये नवल
अनेकों रिश्ते

कर दी सूना
बहू पिया का भर
पिता का घर

चहक उठा
ससुर का आंगन
नई दुल्हन

पा के मगन
नया घर आंगन
नई दुल्हन

पायेगी प्यार
परिवार में बहू
देगी हुब हू

बहू जाकर
देगी पिया के घर
आनंद भर


उलटी हुई
ननद घबराई
सास मुस्काई

बहू सिखाती
टच स्क्रीन चलाना
नया जमाना

लगा है दिल
बक बक करने
हाँ प्यार हुआ


सुन री सखी
तंग हो गयी चोली
गर्भ से, भोली!


घर में मेरी
मिठास भर देती
मृदुल बेटी

तभी रुकेगी
कविता नहीँ होगी
कलम मेरी 


सुख का पता
अँधेरे में रहता
दुःख क्या जाने


हवा ले चूम
आग धधक जाती
ख़ुशी में झूम

गर्मी में छुपें
सर्दी में ढूंढें हम
दिन की धूप



किये पश्चात्
फहराया तिरंगा
अनेकों त्याग

मिली आजादी
शहीदों ने लगाई
प्राणों की बाजी

राष्ट्र ध्वज की
कभी झुके न शान
रखना ध्यान


खा जाती रिश्ते
मन की कड़वाहट
बुरी बीमारी

आधुनिकता
और अभी सो रही
शौच की सोच


हमें देखना
आग नहीं देखती
क्या है जलाना

कुछ भी चले
संभव जब आग
दिल में जले

आधुनिकता
दो धारी तलवार
वर व ध्वंस

जीवन की किताब
पढने लायक न रही
आग में झोंक दी

पुरानी हुई
जिंदगी कि किताब
धुंधले शब्द

स्त्री को पसंद
ना कि सिर के बाल
दिल की आग

हमें देखना
आग नहीं देखती
क्या है जलाना

आग की बात
चली तो आई याद
एक सौ एक 

हमें देखना
जली लौ से क्या लेना
आंच या ज्योति

खा जाती रिश्ते
मन की कड़वाहट
घातक रोग

हवा ले चूम
आग धधक जाती
ख़ुशी में झूम

जिनकी मुट्ठी
वे मुट्ठी भर लोग
है पूरा देश



लिए जा रही
अंधकार की राह
आधुनिकता

शीश झुकाये
आशीष ही मिलता
बड़ों के आगे

वृद्ध की सेवा
करने से मिलता
मीठा ही मेवा  

रखा कदम 
धरती पे बसंत 
फूली सरसों 

आम बौराये  
बसंत ! ला बुला के  
पिया न आये 

भयी दीवानी 
विलोक श्रृंगार में   
ऋतु की रानी 

आम की डाली 
देख के मन मोरा 
डोला टिकोरा 

गोरा मुखड़ा
गाल पे काला तिल
हुआ कातिल 

गाल पे तिल
आम पर कोपल
अटका दिल 

संघर्षरत
चींटी के कदमों में
उसका लक्ष्य

संघर्ष बिना
होता नहीं संभव
शीर्ष को छूना

छोड़ अकड़
शिष्टाचार पकड़
मिलेगा प्यार

बदल जाता
आदमी का रवैया
पैसा पा जाता

रहा है दौड़
हड़पने की होड़
लिए हरेक


लेते हैं बना
घिस कर पत्थर
मूर्ति सुन्दर

सीख है देती
सम्हलना फिर से
गिर के चींटी

महका देता
घिसकर चन्दन
सबका मन

तराश कर
बन जाता पत्थर
एक नगीना

छोड़ अकड़
शिष्टाचार पकड़
मिलेगा प्यार


प्रेम से ज्यादा
दिखावे में सलंग्न
प्रेम दिवस
****************

रंगों के साथ
बसंत का आगाज
मन रंगीन

मेरी चौखट
बसंत का दस्तक
मन रंगीन


आये सनम
जैसे ही घर आया
ऋतु बसंत

महकी हवा
बहक गया मन
ऋतु बसंत

फूली सरसों
इठलाई मन सों
ऋतु बसंत

ऋतु  की रानी
भौरों को की दीवानी
ऋतु बसंत

आम बौराये
फूले नहीं समाये
ऋतु बसंत

फूली बगिया
रंगों में सराबोर
ऋतु बसंत

कली क्या खिली
मंडराये आ अलि
ऋतु बसंत

************
व्याह शादी में
गर नोट उड़ाना
कर चुकाना

देख प्रसन्न
खेतिहर का मन
फूली सरसों

आम की डाली
गायी कोयल काली
बसंती राग

कोयल कूकी
बगिया में बहार
सुनने रुकी

आये सनम
आते ही घर पर
बसंत ऋतु

महकी हवा
बहक गया मन
ऋतु बसंत

सींचना होता
पाने को फूल फल
माली को बाग़

देता है फल
सींचने पर जड़
पूरा ही पेड़

प्यासा ही जाने
क्या होता घूंट भर
जल का मोल

रखना होगा
सोच समझकर
जल का स्तर

खाद तो पूरा
मगर पानी कम
फसल नम

रंगों में डूबा
बसंत में हो गया
मन रंगीन

कोयल तोता
पेड़ पे दो गायक
मात्र मैं श्रोता

चली बयार
झूमा तरु का मन
हो के प्रसन्न

आम बौराये
फूले नहीं समाये
ऋतु बसंत

फूली बगिया
रंगों में सराबोर
ऋतु बसंत

कष्ट भगाय
ॐ नमः शिवाय
मंत्र उद्घोष

छोड़ा भारत
आग लगी चीन में
राकेट यान

पीकर घूंट
दो एक प्रशंसा के
चली कलम

अच्छे नंबर
पाने को शिक्षक की
भरी चीलम

आया बसंत
ले के मधु का प्याला
पी मतवाला

मदिरालय
बन गया बसंत
बेसुध मन

ऋतु बसंत
अंगड़ाई न टूटे
पिया न रूठे

काँटों में खिल
नागफनी का फूल
हर ले दिल 


जागा श्रृंगार
जाओ न बसंत में
छोड़ अकेले

जाने न दूंगी
बसंत में पिया को
बांधे रखूंगी


मिले न चैन
चंचल हुये नैन
खोजें उनको

मैं पी जाउंगी
पपीहरा से छीन
स्वाती की बूंद

डालो न रंग
भीगे अंगिया सारी
देखो मुरारी

डालो गुलाल
ना मारो पिचकारी
मोपे मुरारी

जाने न दूंगी
मैं तोहें रंग दूंगी
होली के रंग

खेलो रे होरी
करो ना बरजोरी
मोसे कन्हैया

खेलेंगे होली 
आ मेरे हमजोली
रंगों में भीग  

तुम्हीं सहारा
हरो संकट भारी
हे त्रिपुरारी

रचते लोग
कितनी कहानियां
प्रेम है एक


तुम्हीं सहारा
हरो संकट भारी
हे त्रिपुरारी

नारी दिवस
महिलाओं को मिले
उनका हक़

जहाँ पे होता
महिला का सम्मान
देश महान

नारी ही होती
घर में खुशियों की
बीज जो बोती

जूही की कली
 

लीजो सुखाय
खेलन दे रे होरी
चुनरी गोरी

नहीं छोडूंगी 
नन्द जी के लाला को 
रंग डालूंगी 

वो नन्दलाला
हम भी ब्रजबाला
जमेगी होली

खेलो फगुआ
जाओ न फागुन में
छोड़ अकेले

आ गई होली
ले के निकली रंग
मस्तों की टोली 

आ गई होली
उमंग भर डोली 
ब्रज की गली

मिले न चैन
चंचल हुये नैन
खोजें उनको

पी जाउंगी मैं
छीन पपीहरा से
स्वाती की बूंद



उत्तो प्रदेश
वंश की राजनीति
बदली रीति

खिला कमल
बाकियों का सफाया 
मोदी लहर

रामा हो रामा
आखिरकार ख़त्म
फॅमिली ड्रामा

पंजाब प्रान्त
नशे में लुट गया
अकाली दल


होली की धूम 
मची बरसाने में
मस्ती में झूम  

लेकर रंग
करती हुड़दंग
होली की टोली

मंगल होली
खुशियों से भरी हो
आपकी झोली

उड़ा गुलाल
होली पर आकाश
हो गया लाल

राधा ने डाली 
भीगी अंगिया सारी 
कान्हा पे रंग


चली है टोली
ले खेलन को होली
ढोल मजीरा

पप्पू ने मारी
गुड्डू पे पिचकारी
भीगा मुरारी

भरी बालटी
रंग पा गयी साली
जीजा पे डाली

होली पे जूली
कितनी थी गुजिया
खाकर भूली

होली पे हुआ
जी भर खाया पुआ
पेट ख़राब 

उठाई बाल्टी
भाभी पर डाल दी
रसोई बंद 

डालो न रंग
भीगे अंगिया सारी
देखो मुरारी

जाने न दूंगी
मैं तोहें रंग दूंगी
होली के रंग

गोरी का मुख
होली पर हो गया 
इंद्रधनुष

कितनी भोली 
मित्र से खेली होली
संग में हो ली

भाभी के हाथ
नन्द ने देखा रंग 
धरी पलंग

नहीं खेलते
मम्मी पापा की गोद
दिलेर बच्चे

मम्मी का हाथ
और दोस्त का साथ
फिर क्यों मात

आवा खेलीं जा 
हमनी क फगुआ
हे हो बबुआ

खेला तू होरी
ना करा बरजोरी
मोसे कन्हैया

रूठल भौजी
खेले खातिर होली
कहवां जाईं

जूही की कली


वो नन्दलाला
हम भी ब्रजबाला
जमेगी होली 

कोयल गायी
बसंत में जगाई
प्रेम का राग
पिऊ कब आओगे
आ गया देखो फाग



************

Saturday, 14 January 2017

Kah mukari

जी मिचलाता है

आजकल है जी मिचलाता,
उलटी से भी  मन घबराता,
पहली बेर, पड़ा यह फेर;
क्या सखि मिचली? नहिं, भारी पैर।

निकल गया है, आती लाज,
बताऊँ ना, छुपाऊं ये राज,
मुस्कराते सब, मुझे देख के;
क्या सखि मोटापा? नहिं, पेट से।

मन में नूतन जोश भरा है,
पहले का पल, बहुत बड़ा है,
जीवन का यह अद्भुत पर्व।
सखि नव-वर्ष? नहिं सखि गर्भ।

लेकर आई ढीले कपडे ,
तंग का ना रखना लफड़े,
उसे हो आराम की स्थिति।
क्या सखि पति? नहिं नया अतिथि।


कह मुकरी

कमर से थी उसी में लिपटी,
उसको पाकर रहती सिमटी,
सुंदरता पर गयी मैं वारी।
क्या सखि साजन? नहिं सखि साड़ी।

गले में पड़ा था वो लटका,
देख देख मेरा मन महका,
प्यार से बहुत, गले में डाला।
क्या सखि सनम? नहिं सखि माला।

लटक जाता है वो चुपचाप,
भेद ना माने दिन या रात,
कहीं गए, घर का रखवाला।
क्या सखि साजन? नहिं सखि ताला।

सदैव वह, आँखों पे रहता,
करूँ दूर भी, कुछ ना कहता,
साथ चाहती हूँ मैं बेशक।
क्या सखि साजन? नहिं सखि ऐनक।


पाँख फैलाये गोद आती,
चीं चीं से रौनक लग जाती,
मोहक इतनी मन हर लेती।
क्या सखि पंछी? नहिं सखि बेटी।


उस बिन जाड़ा बहुत सताता,
रात होते ऊपर पड़ जाता,
ना हो वो, हो जाऊं बेकल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि कम्बल।


शब्द पिरो कर गूंथे माला,
भारी कि ना जाता सम्भाला,
माला से ही उस, उसकी छवि।
क्या सखि साजन? नहिं सखि कवि।

सोने की नन्हीं सी मटकी,
रस मधुर भर पेड़ से लटकी,
बूझ सको तो बूझो नाम।
क्या सखि नीबू? नहिं सखि आम।

सोने का खग नदी किनारे,
पानी पीता पूंछ सहारे,
घर को मेरे रौशन किया।
क्या सखि पिया? नहिं सखि दीया।


एक ही घर, दोनों का वास,
इससे नफ़रत, उसी से प्यार,
प्रभु ने कैसी किस्मत बांटा।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि कांटा।

उसका आना घर महकाता,
सुन्दर इतना मन बहकाता।
रंगत में कुछ और ही बात।
क्या सखि साजन? नहिं सखि गुलाब। 

वैसे तो हर पल का नाता,
साथ रात का ज्यादा भाता,
बिस्तर पर खूब आराम दिया। 
क्या सखि पिया? नहिं सखि तकिया।

सावन में वो मचाता धूम,
जी चाहता है नाचूँ झूम,
देख देख मन होता पागल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि बादल।



छा जाता ठंडक मिल जाती,
लगता यूँ जन्नत मिल जाती,
तभी तो सब हैं माँ के कायल।
क्या सखि बादल? नहिं सखि आँचल।

निहारूं रोज मैं कई बार,
कटि से लिपटा, गई मैं वारि,
पड़ा बहुत पर मुझको महंगा।
क्या सखि शौहर? नहिं सखि लहंगा।


रखा था बांध वो दोनों हाथ,
लाल पड़ा कुछ देर के बाद,
तीज पर उसने, हद ही कर दी। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि मेंहदी।

आते ही आ जाता आंसू,
मैं उससे बचना ही चाहूँ,
खूब रुलाया उसने आज। 
क्या सखी साजन? नहिं सखि प्याज।

लगता कितना सीधा सादा,
करके जाता, झूठा वादा,
गये पीछे सुध नहीं लेता। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि नेता।

जनता का धन खूब उड़ाता,
मुफ्त के मॉल, मौज मनाता, 
मौका पाकर घर भर लेता।  
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नेता। 

सुबह ही आती उसकी याद, 
पाने हेतु करती फरियाद, 
हाथ पकड़ी होती खातून। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दातून। 

भर के गये, होते ही भोर,  
लेकर के वो खेत की ओर, 
नीचे धर के खोंसे पछोटा। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि लोटा। 

रात भर वो निभा दिया साथ, 
छोड़े चला होते ही प्रात,
कैसे कहूं उसे मैं अपना। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सपना।  

अमीर गरीब का भेद नहीं, 
बसती सबके हिया में वही, 
बिन उसके सूनी सी थाल। 
क्या सखि सजनी? नहिं सखि दाल। 


उंगली रहती, उसके पकड़,
छोड़े ना वो कोई भी क्षण,
उसके लिए एक बार मैं रूठी। 
क्या सखि प्रियतम? ना सखि अंगूठी।

उसके लिए जिद्द कर डाली,
सोने की भारी मंगवा ली,
महँगी बड़ी ऐ सखि सुन री।
क्या सखि चूड़ी? नहिं सखि मुदरी।

रहती है वो पकड़ी कलाई,
उसको बड़ी रास वो आयी,
रंगीली सुंदर मन को जूरी।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चूड़ी।

तुरत कर देता आगे हाथ,
देती कलाई उसके बाँध,
देखते बनती प्यार की झांकी।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि राखी।

पकड़ रखूं पर हाथ न आवे,
चार पंख, झट से उड़ जावे,
छूते ही हाथ से फिसली,
क्या सखि सजनी? नहिं सखि तितली। 

टिके नहीं, हो कैसे भरोसा,
बुरा चलन ये सबने टोका,
सप्ताह इस पूरा ही टिक ली,
क्या सखि साजन ? ना सखि बिजली।   

पाने को उसको कहाँ न धाई


आदरणीय महोदय,

मैं, 'हिंदी साहित्य की सामर्थ्य' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले ग्रन्थ हेतु अपना निम्न/संलग्न आलेख आपके आवश्यक कारवाही के लिए प्रेषित कर रहा हूँ। आलेख के उपरांत मेरा परिचय व फोटो भी है।  मुझे उम्मीद है मेरा यह लेख आपको पसंद आएगा।

आपका हितैषी,

एस० डी० तिवारी



कह मुकरी, क्यों चुप री !
प्राक्कथन

'कह मुकरी' हिंदी काव्य की एक प्राचीनतम और अद्भुत काव्य विधा है। अपने अत्यंत सहज, सरल, और रोचक भाव के कारण, यह विधा, पढ़ने और सुनने वालों के उर में आनंद भर देती है। कह मुकरी' के आरम्भिक सृजन का श्रेय प्राचीन कवि अमीर खुसरो को जाता है, जिन्होंने तेरहवीं शताब्दी में, जब उर्दू साहित्य भारत में अपना पैर पसार रहा था, हिंदी भाषा में इस विधा का विकास किया। मुझे इस बात से बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी सुन्दर और रुचिकर विधा होते हुए भी, कालांतर में बहुत कम ही कह-मुकरियाँ लिखी गयीं, और आज यह लगभग लुप्त प्राय काव्य शिल्प विधा है। यह बात मेरे मन में कौतुक उत्पन्न करती है कि 'कह मुकरी' के  इतनी रोचक और सरल होने के बाद भी इस विधा की रचनाएँ बहुत ही कम मिलती हैं।

'कह मुकरी' के शाब्दिक अर्थ से ही स्पष्ट है; कह, फिर मुकरी। इस काव्य विधा में एक सहेली किसी विषय के  सन्दर्भ का वर्णन करती है, जिसे सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने प्रियतम के बारे में कुछ कह रही है। जब उसके, उक्त वर्णन की समझ को, दूसरी सखी अपने प्रश्न के द्वारा पुष्टि करना चाहती है तो वह मुकर जाती है, और उस सन्दर्भ से मेल खाती, कोई अन्य उत्तर दे देती है। वर्णन में छुपा यह रहस्य विस्मयकारी बोध कराता है जो पाठक को रोमांचित और आनंदित करता है। इसमें पहले तीन चरण और अंतिम पंक्ति के आधे चरण तक वर्णन का रहस्य विद्यमान रहता है। अंतिम, यानि चौथी पंक्ति के अंतिम आधे चरण में ही सही उत्तर  को खोला जाता है।

'कह मुकरी' चार पंक्तियों की तुकांत छंदों वाली कविता होती है, जो चार चरणों में विभक्त होती है। इसके पहले दो चरण सोलह-सोलह मात्राओं के होते हैं, तथा अंतिम दो चरणों में, प्रत्येक में पंद्रह से लेकर अट्ठारह मात्राओं का प्रयोग होता है। यह पहेली की ही भांति चार पंक्तियों की बंद होती है। पहली तीन पंक्तियों में विषय वस्तु का वर्णन होता है, जो एक सखि अपने दूसरी सखी से करती है।  इन तीन पंक्तियों के आधार पर, वह सखी वर्णन में, प्रियतम अथवा साजन के होने का अनुमान लगाती है और चौथी पंक्ति के पहले आधे भाग में वह अपने अनुमानित उत्तर का अपने प्रत्युत्तर के द्वारा पुष्टि करना चाहती है, जो सदैव गलत होता है। चौथी पंक्ति के ही दूसरे आधे भाग में, पहली सखी सही उत्तर से पहेली का समाधान कर देती है। यह उत्तर, दूसरी सखी के दिए उत्तर से पृथक होता है, परन्तु तथाकथित उस वर्णन के विवरण से मेल खाता है। इस उत्तर के बारे में पहले से सोच पाना एक कठिन कार्य होता है, जो उसे चौंका देता है। यह विस्मयकारी बोध कह मुकरी के पाठक के मन में अति आनंद भर देता है। चूकि, दूसरी सखी की सोच एक सिमित परिधि में ही है, और वह अपने युवावस्था तथा प्रेम के प्रसंगों के विषय के अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं सोच पा रही है;  इसलिए उसका उत्तर भी उतने ही संकुचित भाव में होता है। जब कि वह सन्दर्भ या वर्णन कोई अन्य अज्ञात भाव भी लिए होता है, जिसकी पुष्टि, दूसरी सखी के प्रश्न के उत्तर में करती है।  यहाँ यह भी तात्पर्य लगाया जा सकता है कि पहली सखी ने अपने वर्णन में कहा तो वही, जो दूसरी सखी समझ रही है, पर बाद में बहाना बनाकर, वह मुकर गयी। संभवतः इस काव्य विधा के इसी भाव ने इसे 'कह मुकरी' का नाम दिया।

मैंने भी कुछ 'कह मुकरी' लिखने का प्रयास किया है। मैंने, अपनी लिखी हुई 'कह मुकरी' में से कुछ, कविताओं की एक वेब पृष्ठ पर भी डाल दिया। एक बार जब गूगल में, 'कह मुकरी' के बारे में कुछ जानकारी लेने के लिए जैसे ही यह शब्द लिखा, मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कि मेरी लिखी कह मुकरियाँ गूगल की सूची में सबसे ऊपर थीं। इससे, मैं स्वयं को गौरवान्वित तो अवश्य अनुभव किया परन्तु चिंतित भी हुआ कि इस विधा की क्या सचमुच इतनी कम रचनाएँ हैं। मैं कह मुकरी अपनी दो रचनाएँ यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ -

सदा ही वह, आँखों पे रहता, 
दूर भी कर दूँ, कुछ ना कहता।  
साथ चाहती हूँ मैं बेशक। 
क्या सखि साजन, नहिं सखि ऐनक।

कमर से लिपटी थी मैं उसमें,  
ऊपर से सिमटी थी मैं उसमें। 
सुंदरता पर गयी मैं वारी। 
क्या सखि साजन, ना सखि साड़ी।

मैंने साहित्य के इतिहास का अधिक अध्ययन तो नहीं किया परन्तु इतना ज्ञात है कि 'कह मुकरी' का प्रादुर्भाव और विकास हजरत अमीर खुसरो ने ही किया। अमीर खुसरो ने, उर्दू और फ़ारसी भाषा के मुस्लिम कवि होते हुए भी हिन्दी भाषा का भरपूर प्रयोग किया और हिंदी साहित्य के विकास में उनका योगदान सराहनीय है। उनकी हिंदी रचनाओं में दोहे, पहेली परक दोहे और कह मुकरी अत्यंत ही रोचक और लोकप्रिय हैं। सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी उनकी रचनायें आज भी उतनी ही  रोचक हैं, जितनी उस काल में  थीं। बहुत से लोग 'कह मुकरी' को पहेली का पर्याय या उसकी जैसी कविता ही मानते हैं, परन्तु यह पहेली से अलग है। वैसे दोनों ही विधाएँ खुसरो की ही देन हैं। खुसरो रचित, पहेली का एक उदहारण देखिये -

एक नारि के दो बालक, दोनों एक ही रंग।
एक फिरे, एक ठाढ़ रहे, फिर भी दोनों संग।

यह एक पहेली का दोहा है, जिसका मात्र एक ही उत्तर होता है, और वह पद्य समाप्त होने पर, अंत में अलग से दिया जाता है। उपरोक्त दोहे का उत्तर है - 'चक्की'

जबकि 'कह मुकरी' के छंद दो अर्थी होते हैं। जिसमें से एक निश्चित अर्थ साधारणतया प्रियतम या साजन से सम्बंधित होता है और दूसरे अर्थ को शब्दों में छुपाकर रखा जाता है। उस छुपे भाव को रचनाकार, छंद के अंतिम शब्द में खोल देता है। छंद का अंतिम शब्द ही, उसमें बूझी पहेली का सही उत्तर होता है। उदहारण के लिए देखिये, अमीर खुसरो रचित ये दो कह मुकरियाँ  -

रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठी जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन ? ना सखि तारा।

पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गयी नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन ? ना सखि बुखार।

उपरोक्त के आधार पर यदि निष्कर्ष निकालें तो कह मुकरी के निम्न मूल तत्व होते हैं -

१.  चार चरण के चार पंक्ति की तुकांत कविता।
२.  प्रथम तीन चरण में, पहेली के रूप में किसी विषय वस्तु का विवरण।
३. विवरण का दो अर्थी होना।
४. पहली दो चरण सोलह सोलह मात्राओं के और अंतिम दो पंद्रह से अट्ठारह।
५ . चौथे चरण के पहले आधे भाग में पुष्टिकरण हेतु पहेली का अनुमानित उत्तर, जो पहेली में कहे विवरण के एक संभावित अर्थ से मेल खाये।
६.  चौथे चरण के ही उत्तरार्ध में, पुष्ट व सही उत्तर, जो पहेली के दूसरे अर्थ को दर्शाये।

'कह मुकरी' की जीवन यात्रा, आधुनिक युग के महाकवि भारतेन्दु हरिश्चंद ने आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी कह मुकरियों में, अंग्रेजों के शासन काल में देश की दुर्दशा, शोषण,  कुशासन आदि का सजीव वर्णन किया है। उनकी व्यंगात्मक शैली, उनकी रचित कह मुकरियों में बड़े सुन्दर ढंग से मुखरित हुई है। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामायिक विषय को समाहित करके, आधुनिकता लाने का भरसक प्रयास किया। उनकी  भी कह मुकरियाँ, अमीर खुसरो की कह मुकरियों के आयाम पर ही ढली हैं,  उन्होंने 'ऐ सखि साजन' के स्थान पर 'क्यों सखि साजन' प्रयोग किया। उनकी कह मुकरियाँ उस समय की वास्तविकताओं को जीवन्त रखने में पूर्णतः सक्षम हैं। उनकी एक कह मुकरी है -

सीटी देकर पास बुलावे,
रूपया ले तो निकट बिठावे,
ले भागे मोहिं खेलहिं खेल,
क्यों सखि साजन? नहिं सखि रेल।

भारतेन्दु जी के काल में, भारत में रेलगाड़ी एक नई वस्तु थी, जो अपने आप में एक कौतुक का विषय थी। इस कह मुकरी में उन्होंने, रेल का विवरण बड़े सुन्दर ढंग से किया है।  पहली तीन पंक्तियों में समझ पाना कठिन है कि वे अपने विवरण को किस दिशा में ले जा रहे हैं, मगर सीटी और दाम लेने की बात कहकर उस ओर संकेत भी दे रहे हैं।

और इसे देखिये -

सब गुरुजन को बुरा बतावे,
अपनी खिचड़ी अलग पकावे,
भीतर तत्व न, झूठी तेजी,
क्यों सखि साजन? नहिं अंगरेजी।

उपरोक्त 'कह मुकरी' में अंग्रेजी का समर्थन करने वालों पर करारा कटाक्ष है और तत्कालीन परिस्थिति को बहुत ही सशक्त तरीके से प्रस्तुत करती है।

जहां तक मैं समझता हूँ कह मुकरी को 'साजन' शब्द की परिधि से बाहर निकाल कर, इसके क्षेत्र का और अधिक विस्तारीकरण होना चाहिए, ताकि यह विधा भी हिंदी साहित्य की यात्रा के साथ, सुगमता पूर्वक, सुचारु रूप से  सतत चलती रहे। वैसे कुछ रचनाकारों ने इस तरह का सार्थक प्रयास किया है। मैंने स्वयं भी साजन के इस सीमा से बाहर निकलने का प्रयास किया है। मेरी इस पुस्तक की ही एक रचना -

एक ही घर दोनों का वास,
इससे नफ़रत, उसी से प्यार।
प्रभु ने कैसी किस्मत बांटा।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि कांटा।

यह 'कह मुकरी' उस पौधे के विषय में है, जिसमें फूल और कांटा दोनों हैं। चूकि पहले तीन चरणों में दिए विवरण के लिए 'साजन' कुछ अटपटा सा लगता, मैंने अनुमानित उत्तर हेतु सौतन शब्द का प्रयोग किया। मैं समझता हूँ साहित्यकार मेरे इस विचार से सहमत होंगे। मैं पूर्ण रूपेण आशान्वित हूँ, हिंदी भाषा के रचनाकार, आने वाले समय में इस मृत प्राय सुन्दर और रोचक विधा को संजीवनी प्रदान करेंगे, और इसे हृष्ट पुष्ट बनाये रखकर, हिंदी साहित्य में 'कह मुकरी' को इसका समुचित स्थान दिलाएंगे। मुझे दृढ़ विश्वास है कि हिंदी साहित्य के मोहक उपवन को यह विधा भी अपनी रंग और सुगंध बिखेर कर, उत्कृष्टता के शीर्ष तक ले जाएगी। मुझे तो यह विधा इतनी रोचक लगी कि लगभग चार सौ कह मुकरियों की यह पुस्तक 'क्या सखि साजन?' लेकर, आपके समक्ष आ गया हूँ। मैंने अपनी इस पुस्तक में साजन की सीमा को तोड़ने का दुःसाहस किया है और साजन के साथ साथ, कई  स्थानों पर सजनी, सौतन अथवा विवरण के अनुरूप अन्य कुछ शब्दों को भी सम्मिलित किया है ताकि इस सुन्दर विधा के विस्तारीकरण को और स्थान मिल सके। मुझे उम्मीद है कि आप मेरी अन्य विधाओं की रचनाओं (जैसे हाइकु, गजल, गीत, मुक्तक, कुंडलियां आदि) के साथ 'कह मुकरियों' को भी अपना स्नेह व शुभकामनाएं प्रदान करेंगे।   

एस० डी० तिवारी




वादा करता, याद न रखता,
मतलब से इधर रूख करता, 
वरना कभी सुध नहीं लेता,
क्यों सखि साजन ? नहिं  सखि नेता।

दम दिखाने का बना अखाड़ा,
जिसका दांव उसने पछाड़ा,
कायदे का ना कोई झंझट,
क्या सखि जंगल ? ना सखि संसद।

खुद नंगा सबको पहनाता,
सूता थामे नाच दिखाता,
घेरे रखता कोना घर का,
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चरखा।


हिंदी


अबला, गई एकोर धकेली,
घर में अपने, भई सौतेली,
वो सिंदूर, ये रह गई बिंदी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।

सौत के साथ समझते शान,
बेचारी का घोर अपमान,
पर प्रेम ने दुर्गति कर दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।

उत्तर दक्षिण में बंट गई,
महिमा खुद के घर में घट गई,
मार दी राजनीति ने गन्दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।

विदेश से अंग्रेजी पढ़ आये,
बड़े हिंदुस्तानी तब कहलाये,
इसके प्रति नफ़रत सी  भर दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।

अपनों की अति सही ये मार,
आन पड़ी मरने के कगार,
घुट घुट कर है यह जिन्दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।

थोड़े ही हैं अब रखवाले,
आन बान इसकी संभाले,
वरना लुट जाती ये कब की,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी। 

शासन से सदैव तिरस्कृत, 
सौत हो जाती है पुरस्कृत, 
रंगमंच तक सिमित कर दी, 
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी। 

खड़ा संग उसके राष्ट्र सारा,
'इसे बचाओ', रह गया नारा, 
मुंह लटकाये पड़ी शर्मिंदी, 
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी। 

मार्ग बनाओ इसके चौड़े,
राष्ट्र के नस नस में दौड़े, 
पा सके ये अपनी बुलंदी,
क्या सखि सजनी? नहिं सखि हिंदी। 

बड़े अनोखे लय और स्वर,
है ना कोई इससे सुन्दर,
मधुर कंठ कहीं कोई भी,
क्या सखि सजनी ? नहि सखि हिंदी।

अब भी हैं इसके रखवाले,
इसकी आन बान संभाले,
वरना मर जाती कबकी,
क्या सखि सजनी ? नहि सखि हिंदी।

उसके ही बल ढा रहे सितम,
राज कर रहे उसी के दम,
छोड़ गये वो, इन ने सहेजी।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि अंग्रेजी।

दिखाने हेतु अपना दमखम,
बांधे रखे हिंदी की कलम,
बन के रहे वो घर का भेदी। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि अंग्रेजी।


संग उसके खड़ा बड़ा कहलाता 



मन में डर लिए, रही थी गिन
आखिर आ ही गया वो दिन
एक साल तक करी प्रतीक्षा
क्या सखि साजन ? नहि सखि परीक्षा

तू क्या जाने कितना भारी
सिर पर पड़ा, बड़ी लाचारी
जाग जाग के रातें बितायीं
क्या सखि साजन ? नहि सखि पढ़ाई

कूद कूद कर मैं परेशान
किया है ऐसा काम महान
कहूं क्या, कमर गई है अकड़
क्या सखि साजन ? नहि सखि सड़क

छोटी जान, बड़ी लाचारी
रोज सुबह की वही बिमारी
भारी बोझ मुश्किल है रस्ता
क्या सखि साजन ? नहि सखि बस्ता

रोज सुबह जाना ही पड़ता
कई बार नहाना भी पड़ता 
खाये डांट कुछ जाए भूल
क्या सखि साजन ? नहि सखि स्कूल

मैले कपड़े, खाने लताड़
निकले खाकर, रोटी अचार
दिया है रब ने कैसा नसीब
क्या सखि साजन ? नहि सखि गरीब 

Monday, 2 January 2017

Bhauji ki holi

भौजी की होली 

अबहीं भौजी से देवर कर ही रहे चिकारी, 
भौजी ने अपने हाथ, उठा लई पिचकारी। 
देवर लगे ढूंढने ओट, इधर उधर बचने का 
भौजी ने किये बिन देर, फौरन ही दे मारी। 

बजाती चली आय रही, झाल, ढोल मजीरा। 
झूम झूम के गाय रही, फगुआ और कबीरा। 
आन पहुंची पास में, मंडली देवर मित्रों की 
उड़ाय रही हवा में खूब, रंग, गुलाल, अबीरा। 

पहुँच गयी मंडली जब, घर उनके उस पल। 
देखी हुआ पड़ा, अपने दोस्त को बेकल। 
बना हुआ था भीगी बिल्ली औ रंगा सियार 
यार की हालत पतली थी, होली में खलबल। 

देख के भौजी को ढंग, सब के सब थे दंग। 
बनी योजना, डालेंगे, हम भी उस पर रंग। 
है होली का दिन, ना छोड़ेंगे उसको आज 
मिल हम सब यार दोस्त, सराबोर करेंगे अंग। 

चले जोश में मित्र गण, बाजी है गयी उलटी। 
भौजी ने धर रखा था रंग, भर के पूरी बलटी। 
मित्र मंडली जैसे ही, आई भौजी के पास 
उठाई रंग की बलटी और दन से ऊपर पलटी। 

काम न आई मित्र मंडली की कोई चतुराई। 
चपल भौजी जुगत लगा के अपने को बचाई। 
छत पर जाकर फिर तो वो, खूब रंग बरसाई 
भीग-भाग के पलटन सारी, लौट गयी शरमाई। 

दाल गली ना जब देवर की, रंग डाली तब साड़ी, 
भौजी ने जो सुखन खातिर, रसरी पर थी पसारी। 
महँगी थी साड़ी उनकी, भौजी न खाये गुस्सा 
डर के मारे, सोचे देवर जी, दे दूँ अभी कचारी।

तबही भौजी की नजर पड़ी, देवर की उड़ी हवाई  
दुबकने को लगे ठाँव ढूंढने, भौजी दौड़ी आई। 
फैले रंग पर फिसला पांव, देवर जी गिरे धड़ाम, 
बांह पकड़ भौजी देवर को, घर में भीतर लायी। 

फिर तो देवर के होली पर, जमकर के आये मजे। 
लेकर के आई भौजी, भर भर कर के प्लेट सजे। 
छानी भांग, खिलाई गुजिया, बड़े और मालपुआ, 
खाये देवर जी, जी भर के, और भौजी को भजे। 

- एस० डी० तिवारी