वैसे तो हर पल का नाता,
साथ रात का ज्यादा भाता,
बिस्तर पर खूब आराम दिया।
क्या सखि पिया? नहिं सखि तकिया।
सावन में वो मचाता धूम,
जी चाहता है नाचूँ झूम,
देख देख मन होता पागल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि बादल।
छा जाता ठंडक मिल जाती,
लगता यूँ जन्नत मिल जाती,
तभी तो सब हैं माँ के कायल।
क्या सखि बादल? नहिं सखि आँचल।
निहारूं रोज मैं कई बार,
कटि से लिपटा, गई मैं वारि,
पड़ा बहुत पर मुझको महंगा।
क्या सखि शौहर? नहिं सखि लहंगा।
रखा था बांध वो दोनों हाथ,
लाल पड़ा कुछ देर के बाद,
तीज पर उसने, हद ही कर दी।
क्या सखि साजन? नहिं सखि मेंहदी।
आते ही आ जाता आंसू,
मैं उससे बचना ही चाहूँ,
खूब रुलाया उसने आज।
क्या सखी साजन? नहिं सखि प्याज।
लगता कितना सीधा सादा,
करके जाता, झूठा वादा,
गये पीछे सुध नहीं लेता।
क्या सखि साजन? नहिं सखि नेता।
जनता का धन खूब उड़ाता,
मुफ्त के मॉल, मौज मनाता,
मौका पाकर घर भर लेता।
क्या सखि साजन ? नहिं
सखि नेता।
सुबह ही आती उसकी याद,
पाने हेतु करती फरियाद,
हाथ पकड़ी होती खातून।
क्या सखि साजन ? नहिं
सखि दातून।
भर के गये, होते ही भोर,
लेकर के वो खेत की ओर,
नीचे धर के खोंसे पछोटा।
क्या सखि साजन ? नहिं
सखि लोटा।
रात भर वो निभा दिया साथ,
छोड़े चला होते ही प्रात,
कैसे कहूं उसे मैं अपना।
क्या सखि साजन ? नहिं
सखि सपना।
अमीर गरीब का भेद नहीं,
बसती सबके हिया में वही,
बिन उसके सूनी सी थाल।
क्या सखि सजनी? नहिं
सखि दाल।
उंगली रहती, उसके पकड़,
छोड़े ना वो कोई भी क्षण,
उसके लिए एक बार मैं रूठी।
क्या सखि प्रियतम? ना सखि अंगूठी।
उसके लिए जिद्द कर डाली,
सोने की भारी मंगवा ली,
महँगी बड़ी ऐ सखि सुन री।
क्या सखि चूड़ी? नहिं सखि मुदरी।
रहती है वो पकड़ी कलाई,
उसको बड़ी रास वो आयी,
रंगीली सुंदर मन को जूरी।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चूड़ी।
तुरत कर देता आगे हाथ,
देती कलाई उसके बाँध,
देखते बनती प्यार की झांकी।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि राखी।
पकड़ रखूं पर हाथ न आवे,
चार पंख, झट से उड़ जावे,
छूते ही हाथ से फिसली,
क्या सखि सजनी? नहिं सखि तितली।
टिके नहीं, हो कैसे भरोसा,
बुरा चलन ये सबने टोका,
सप्ताह इस पूरा ही टिक ली,
क्या सखि साजन ? ना सखि बिजली।
पाने को उसको कहाँ न धाई
आदरणीय महोदय,
मैं, 'हिंदी साहित्य की सामर्थ्य' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले ग्रन्थ हेतु अपना निम्न/संलग्न आलेख आपके आवश्यक कारवाही के लिए प्रेषित कर रहा हूँ। आलेख के उपरांत मेरा परिचय व फोटो भी है। मुझे उम्मीद है मेरा यह लेख आपको पसंद आएगा।
आपका हितैषी,
एस० डी० तिवारी
कह मुकरी, क्यों चुप री !
प्राक्कथन
'कह मुकरी' हिंदी काव्य की एक प्राचीनतम और अद्भुत काव्य विधा है। अपने अत्यंत सहज, सरल, और रोचक भाव के कारण, यह विधा, पढ़ने और सुनने वालों के उर में आनंद भर देती है। कह मुकरी' के आरम्भिक सृजन का श्रेय प्राचीन कवि अमीर खुसरो को जाता है, जिन्होंने तेरहवीं शताब्दी में, जब उर्दू साहित्य भारत में अपना पैर पसार रहा था, हिंदी भाषा में इस विधा का विकास किया। मुझे इस बात से बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी सुन्दर और रुचिकर विधा होते हुए भी, कालांतर में बहुत कम ही कह-मुकरियाँ लिखी गयीं, और आज यह लगभग लुप्त प्राय काव्य शिल्प विधा है। यह बात मेरे मन में कौतुक उत्पन्न करती है कि 'कह मुकरी' के इतनी रोचक और सरल होने के बाद भी इस विधा की रचनाएँ बहुत ही कम मिलती हैं।
'कह मुकरी' के शाब्दिक अर्थ से ही स्पष्ट है; कह, फिर मुकरी। इस काव्य विधा में एक सहेली किसी विषय के सन्दर्भ का वर्णन करती है, जिसे सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने प्रियतम के बारे में कुछ कह रही है। जब उसके, उक्त वर्णन की समझ को, दूसरी सखी अपने प्रश्न के द्वारा पुष्टि करना चाहती है तो वह मुकर जाती है, और उस सन्दर्भ से मेल खाती, कोई अन्य उत्तर दे देती है। वर्णन में छुपा यह रहस्य विस्मयकारी बोध कराता है जो पाठक को रोमांचित और आनंदित करता है। इसमें पहले तीन चरण और अंतिम पंक्ति के आधे चरण तक वर्णन का रहस्य विद्यमान रहता है। अंतिम, यानि चौथी पंक्ति के अंतिम आधे चरण में ही सही उत्तर को खोला जाता है।
'कह मुकरी' चार पंक्तियों की तुकांत छंदों वाली कविता होती है, जो चार चरणों में विभक्त होती है। इसके पहले दो चरण सोलह-सोलह मात्राओं के होते हैं, तथा अंतिम दो चरणों में, प्रत्येक में पंद्रह से लेकर अट्ठारह मात्राओं का प्रयोग होता है। यह पहेली की ही भांति चार पंक्तियों की बंद होती है। पहली तीन पंक्तियों में विषय वस्तु का वर्णन होता है, जो एक सखि अपने दूसरी सखी से करती है। इन तीन पंक्तियों के आधार पर, वह सखी वर्णन में, प्रियतम अथवा साजन के होने का अनुमान लगाती है और चौथी पंक्ति के पहले आधे भाग में वह अपने अनुमानित उत्तर का अपने प्रत्युत्तर के द्वारा पुष्टि करना चाहती है, जो सदैव गलत होता है। चौथी पंक्ति के ही दूसरे आधे भाग में, पहली सखी सही उत्तर से पहेली का समाधान कर देती है। यह उत्तर, दूसरी सखी के दिए उत्तर से पृथक होता है, परन्तु तथाकथित उस वर्णन के विवरण से मेल खाता है। इस उत्तर के बारे में पहले से सोच पाना एक कठिन कार्य होता है, जो उसे चौंका देता है। यह विस्मयकारी बोध कह मुकरी के पाठक के मन में अति आनंद भर देता है। चूकि, दूसरी सखी की सोच एक सिमित परिधि में ही है, और वह अपने युवावस्था तथा प्रेम के प्रसंगों के विषय के अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं सोच पा रही है; इसलिए उसका उत्तर भी उतने ही संकुचित भाव में होता है। जब कि वह सन्दर्भ या वर्णन कोई अन्य अज्ञात भाव भी लिए होता है, जिसकी पुष्टि, दूसरी सखी के प्रश्न के उत्तर में करती है। यहाँ यह भी तात्पर्य लगाया जा सकता है कि पहली सखी ने अपने वर्णन में कहा तो वही, जो दूसरी सखी समझ रही है, पर बाद में बहाना बनाकर, वह मुकर गयी। संभवतः इस काव्य विधा के इसी भाव ने इसे 'कह मुकरी' का नाम दिया।
मैंने भी कुछ 'कह मुकरी' लिखने का प्रयास किया है। मैंने, अपनी लिखी हुई 'कह मुकरी' में से कुछ, कविताओं की एक वेब पृष्ठ पर भी डाल दिया। एक बार जब गूगल में, 'कह मुकरी' के बारे में कुछ जानकारी लेने के लिए जैसे ही यह शब्द लिखा, मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कि मेरी लिखी कह मुकरियाँ गूगल की सूची में सबसे ऊपर थीं। इससे, मैं स्वयं को गौरवान्वित तो अवश्य अनुभव किया परन्तु चिंतित भी हुआ कि इस विधा की क्या सचमुच इतनी कम रचनाएँ हैं। मैं कह मुकरी अपनी दो रचनाएँ यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ -
सदा ही वह, आँखों पे रहता,
दूर भी कर दूँ, कुछ ना कहता।
साथ चाहती हूँ मैं बेशक।
क्या सखि साजन, नहिं सखि ऐनक।
कमर से लिपटी थी मैं उसमें,
ऊपर से सिमटी थी मैं उसमें।
सुंदरता पर गयी मैं वारी।
क्या सखि साजन, ना सखि साड़ी।
मैंने साहित्य के इतिहास का अधिक अध्ययन तो नहीं किया परन्तु इतना ज्ञात है कि 'कह मुकरी' का प्रादुर्भाव और विकास हजरत अमीर खुसरो ने ही किया। अमीर खुसरो ने, उर्दू और फ़ारसी भाषा के मुस्लिम कवि होते हुए भी हिन्दी भाषा का भरपूर प्रयोग किया और हिंदी साहित्य के विकास में उनका योगदान सराहनीय है। उनकी हिंदी रचनाओं में दोहे, पहेली परक दोहे और कह मुकरी अत्यंत ही रोचक और लोकप्रिय हैं। सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी उनकी रचनायें आज भी उतनी ही रोचक हैं, जितनी उस काल में थीं। बहुत से लोग 'कह मुकरी' को पहेली का पर्याय या उसकी जैसी कविता ही मानते हैं, परन्तु यह पहेली से अलग है। वैसे दोनों ही विधाएँ खुसरो की ही देन हैं। खुसरो रचित, पहेली का एक उदहारण देखिये -
एक नारि के दो बालक, दोनों एक ही रंग।
एक फिरे, एक ठाढ़ रहे, फिर भी दोनों संग।
यह एक पहेली का दोहा है, जिसका मात्र एक ही उत्तर होता है, और वह पद्य समाप्त होने पर, अंत में अलग से दिया जाता है। उपरोक्त दोहे का उत्तर है - 'चक्की'
जबकि 'कह मुकरी' के छंद दो अर्थी होते हैं। जिसमें से एक निश्चित अर्थ साधारणतया प्रियतम या साजन से सम्बंधित होता है और दूसरे अर्थ को शब्दों में छुपाकर रखा जाता है। उस छुपे भाव को रचनाकार, छंद के अंतिम शब्द में खोल देता है। छंद का अंतिम शब्द ही, उसमें बूझी पहेली का सही उत्तर होता है। उदहारण के लिए देखिये, अमीर खुसरो रचित ये दो कह मुकरियाँ -
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठी जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन ? ना सखि तारा।
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गयी नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन ? ना सखि बुखार।
उपरोक्त के आधार पर यदि निष्कर्ष निकालें तो कह मुकरी के निम्न मूल तत्व होते हैं -
१. चार चरण के चार पंक्ति की तुकांत कविता।
२. प्रथम तीन चरण में, पहेली के रूप में किसी विषय वस्तु का विवरण।
३. विवरण का दो अर्थी होना।
४. पहली दो चरण सोलह सोलह मात्राओं के और अंतिम दो पंद्रह से अट्ठारह।
५ . चौथे चरण के पहले आधे भाग में पुष्टिकरण हेतु पहेली का अनुमानित उत्तर, जो पहेली में कहे विवरण के एक संभावित अर्थ से मेल खाये।
६. चौथे चरण के ही उत्तरार्ध में, पुष्ट व सही उत्तर, जो पहेली के दूसरे अर्थ को दर्शाये।
'कह मुकरी' की जीवन यात्रा, आधुनिक युग के महाकवि भारतेन्दु हरिश्चंद ने आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी कह मुकरियों में, अंग्रेजों के शासन काल में देश की दुर्दशा, शोषण, कुशासन आदि का सजीव वर्णन किया है। उनकी व्यंगात्मक शैली, उनकी रचित कह मुकरियों में बड़े सुन्दर ढंग से मुखरित हुई है। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामायिक विषय को समाहित करके, आधुनिकता लाने का भरसक प्रयास किया। उनकी भी कह मुकरियाँ, अमीर खुसरो की कह मुकरियों के आयाम पर ही ढली हैं, उन्होंने 'ऐ सखि साजन' के स्थान पर 'क्यों सखि साजन' प्रयोग किया। उनकी कह मुकरियाँ उस समय की वास्तविकताओं को जीवन्त रखने में पूर्णतः सक्षम हैं। उनकी एक कह मुकरी है -
सीटी देकर पास बुलावे,
रूपया ले तो निकट बिठावे,
ले भागे मोहिं खेलहिं खेल,
क्यों सखि साजन? नहिं सखि रेल।
भारतेन्दु जी के काल में, भारत में रेलगाड़ी एक नई वस्तु थी, जो अपने आप में एक कौतुक का विषय थी। इस कह मुकरी में उन्होंने, रेल का विवरण बड़े सुन्दर ढंग से किया है। पहली तीन पंक्तियों में समझ पाना कठिन है कि वे अपने विवरण को किस दिशा में ले जा रहे हैं, मगर सीटी और दाम लेने की बात कहकर उस ओर संकेत भी दे रहे हैं।
और इसे देखिये -
सब गुरुजन को बुरा बतावे,
अपनी खिचड़ी अलग पकावे,
भीतर तत्व न, झूठी तेजी,
क्यों सखि साजन? नहिं अंगरेजी।
उपरोक्त 'कह मुकरी' में अंग्रेजी का समर्थन करने वालों पर करारा कटाक्ष है और तत्कालीन परिस्थिति को बहुत ही सशक्त तरीके से प्रस्तुत करती है।
जहां तक मैं समझता हूँ कह मुकरी को 'साजन' शब्द की परिधि से बाहर निकाल कर, इसके क्षेत्र का और अधिक विस्तारीकरण होना चाहिए, ताकि यह विधा भी हिंदी साहित्य की यात्रा के साथ, सुगमता पूर्वक, सुचारु रूप से सतत चलती रहे। वैसे कुछ रचनाकारों ने इस तरह का सार्थक प्रयास किया है। मैंने स्वयं भी साजन के इस सीमा से बाहर निकलने का प्रयास किया है। मेरी इस पुस्तक की ही एक रचना -
एक ही घर दोनों का वास,
इससे नफ़रत, उसी से प्यार।
प्रभु ने कैसी किस्मत बांटा।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि कांटा।
यह 'कह मुकरी' उस पौधे के विषय में है, जिसमें फूल और कांटा दोनों हैं। चूकि पहले तीन चरणों में दिए विवरण के लिए 'साजन' कुछ अटपटा सा लगता, मैंने अनुमानित उत्तर हेतु सौतन शब्द का प्रयोग किया। मैं समझता हूँ साहित्यकार मेरे इस विचार से सहमत होंगे। मैं पूर्ण रूपेण आशान्वित हूँ, हिंदी भाषा के रचनाकार, आने वाले समय में इस मृत प्राय सुन्दर और रोचक विधा को संजीवनी प्रदान करेंगे, और इसे हृष्ट पुष्ट बनाये रखकर, हिंदी साहित्य में 'कह मुकरी' को इसका समुचित स्थान दिलाएंगे। मुझे दृढ़ विश्वास है कि हिंदी साहित्य के मोहक उपवन को यह विधा भी अपनी रंग और सुगंध बिखेर कर, उत्कृष्टता के शीर्ष तक ले जाएगी। मुझे तो यह विधा इतनी रोचक लगी कि लगभग चार सौ कह मुकरियों की यह पुस्तक 'क्या सखि साजन?' लेकर, आपके समक्ष आ गया हूँ। मैंने अपनी इस पुस्तक में साजन की सीमा को तोड़ने का दुःसाहस किया है और साजन के साथ साथ, कई स्थानों पर सजनी, सौतन अथवा विवरण के अनुरूप अन्य कुछ शब्दों को भी सम्मिलित किया है ताकि इस सुन्दर विधा के विस्तारीकरण को और स्थान मिल सके। मुझे उम्मीद है कि आप मेरी अन्य विधाओं की रचनाओं (जैसे हाइकु, गजल, गीत, मुक्तक, कुंडलियां आदि) के साथ 'कह मुकरियों' को भी अपना स्नेह व शुभकामनाएं प्रदान करेंगे।
एस० डी० तिवारी
वादा करता, याद न रखता,
मतलब से इधर रूख करता,
वरना कभी सुध नहीं लेता,
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि नेता।
दम दिखाने का बना अखाड़ा,
जिसका दांव उसने पछाड़ा,
कायदे का ना कोई झंझट,
क्या सखि जंगल ? ना सखि संसद।
खुद नंगा सबको पहनाता,
सूता थामे नाच दिखाता,
घेरे रखता कोना घर का,
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चरखा।
हिंदी
अबला, गई एकोर धकेली,
घर में अपने, भई सौतेली,
वो सिंदूर, ये रह गई बिंदी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।
सौत के साथ समझते शान,
बेचारी का घोर अपमान,
पर प्रेम ने दुर्गति कर दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।
उत्तर दक्षिण में बंट गई,
महिमा खुद के घर में घट गई,
मार दी राजनीति ने गन्दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।
विदेश से अंग्रेजी पढ़ आये,
बड़े हिंदुस्तानी तब कहलाये,
इसके प्रति नफ़रत सी भर दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।
अपनों की अति सही ये मार,
आन पड़ी मरने के कगार,
घुट घुट कर है यह जिन्दी,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।
थोड़े ही हैं अब रखवाले,
आन बान इसकी संभाले,
वरना लुट जाती ये कब की,
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि हिंदी।