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2015
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मन को भटकाने वाले ये घोड़े
इनको खुल्ला कभी न छोड़ें
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मन की गंगा
एस. डी. तिवारी
प्रस्तावना एस. डी. तिवारी
मेरी बात
मन एक ऐसा विषय है, जिसका पार पाना असंभव है। यह एक अत्यंत कठिन विषय है। मन मनुष्य के शरीर के भीतर ही अदृश्य रहकर, मनुष्य को भांति भांति प्रकार से नाच नचाता रहता है। मन में जागृत इच्छाओं की संतुष्टि के लिए, मनुष्य जाने क्या क्या कर्म करता है। कई बार मनुष्य अनैतिक कार्य करने पर उतारू हो जाता है। मन में कितनी ही इच्छाएं जागृत होती हैं, सभी इच्छाओं का पूरा होना संभव नहीं हो पाता। जब कोई इच्छा संपन्न होती है तो प्रसन्नता की अनुभूति होती है, और वही अपूर्ण इच्छा मन में निराशा उत्पन्न करती हैं। इसी प्रकार मन में नाना प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। सकारात्मक विचार अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करते हैं और नकारात्मक विचार मन के विकारों को जन्म देते हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथों में मन पर नियंत्रण और सकारात्मक सोच पर बार बार बल दिया गया है।
मन का सम्बन्ध सीधे ईश्वर से जुड़ा है। मन का थाह पाना बहुत कठिन कार्य है। विज्ञान भी वर्षों के शोध के पश्चात मन की वास्तविकता का पता नहीं लगा पाया। मनोविज्ञान मनुष्य के व्यवहार और उसकी मानसिक स्थिति के विषय में ही बताता है। किसी व्यक्ति के मन कोई वस्तु अच्छी या प्रिय क्यों लगती है? किसी अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को मनोचिकत्सा के द्वारा संत बना दे, किसी मूढ़ को विवेकी बना दे आदि सब बातों का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। इसका उत्तर धर्म, योग और साधना में ही मिलता है।
मन को छठीं इन्द्रिय भी माना गया हैं। कई लोगों ने मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय मानते हैं; पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और एक मन। वस्तुतः मन इन्द्रियों का स्वामी है। रस, रूप, गंध स्पर्श तथा शब्दों का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा होता है, किन्तु इनका अनुस्वादन हम मन के द्वारा करते हैं। सुख दु:ख आदि भीतरी विषय हैं, जिनका अनुभव हमें मन के द्वारा होता है। मन ही है जो अच्छे-बुरे सभी कार्यों को करने के लिए प्रेरित करता है। मानव जीवन का सही कार्य में विनियोग हो, इसके लिए आवश्यक है मनोदशा का ठीक रहना। मन की दोषपूर्ण धारणा मनुष्य को धर्म से भटका देती है।
सब दुखों की जड़ है मन। मन को नियंत्रण में रखना सबसे कठिन कार्य है। मन है कि अपने मन का दौड़ता है। भांति भांति के योग, ध्यान, साधना आदि का प्रयोग करके ही इसे निंत्रण में रखा जा सकता है। और इसके लिए सबसे आवश्यक है ज्ञान, संयम और संतोष। जो व्यक्ति मन को नियंत्रण में रखते हैं, इन्द्रियां स्वतः ही उनके नियंत्रण में रहती हैं। मन में जो भाव प्रबल होते हैं, उन्हीं से मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वाभाव के अनुसार ही उसकी जीवनचर्या या वृत्ति होती है। वृत्तियों को चार भागों में बांटा जा सकता है :१. ईश्वरीय वृत्ति, २. सात्विक वृत्ति, ३. राजसी वृत्ति, ४. तामसी वृत्ति।
इन वृत्तियों की उत्तमता इसी क्रम में है। निम्न स्तर की वृत्ति से जितना हो सके दूर रहना चाहिए और यह आत्म-नियंत्रण से ही संभव है। मन को वश में रखने के लिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में बहुत प्रकार से समझाया गया है।
मन की ही वृत्तियों को लेकर, मेरे मन में एक काव्य पुस्तक लिखने का विचार आया। गंगा की भांति विमल और चपल मन जो जीवन पर्यन्त, अनवरत प्रवाहित होता रहता है, मेरी यह पुस्तक 'मन की गंगा' के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है। इस पुस्तक को मैंने लिखना तो प्रारम्भ कर दिया; मगर इसे पूरा करना मेरे लिए एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य था। एक ही विषय को लेकर काव्य की पूरी पुस्तक लिखना, सरल कार्य नहीं है। काव्य गाथा लिखने में तो फिर भी विषय वस्तु पहले से उपलब्ध होती है, बस शिल्प पर ध्यान देना होता है। इस लघु-ग्रन्थ में मैंने एक से अधिक काव्य विधाओं का सहारा लिया। इस प्रकार पाठक को एक ही थाल में कई प्रकार के व्यंजन के अनुस्वादन का आनंद एक साथ मिलेगा। इस पुस्तक में मैंने मन विषय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है, और अपनी बात काव्य के रूप में जिनमे दोहे, गीत, मुक्तक, चौपाई, माहिया (तिपाई) और हाइकु छंदों में कहने का प्रयत्न किया है। चूकि मन गंगा की भांति अनवरत प्रवाहित होता मुझे आशा है कि प्रबुद्ध और स्नेहशील पाठकों का आशीर्वाद सदैव की भांति निरंतर मिलता रहेगा।
मन चालीसा
मन का पंछी है धरे, बड़े अनोखे पंख।
उड़ता नित किस खोज में, राहों पर बेढंग।
मनोविकार से होवे, स्थिति बड़ी गंभीर।
बुद्धि वश में नहीं रहे, बेसुध होय शरीर।विषय मार्ग पर मन ये, करे सदा घुड़दौड़।
भोग भरण भटके फिरे, धर्म नियम को तोड़।
मन के होयँ चालीस घोड़े।
बागडोर बिन ही सब दौड़ें।।
वैभव के पीछे सब भागें।
चोर सभी के अंदर जागे ।।
हर अश्व की दौड़ के
आगे।
मन की बुरी,
नियत ही भागे
।।
विषय डगर पर मन के घोड़े।
ले जाकर पापों में छोड़ें।।
दौड़ लगा उनकी
चंचलता ।
मन की तीव्र करे व्याकुलता ।।
सदा विजय की चिंता होती ।
निष्प्रभाव यदि निंदा होती ।।
मन की इच्छा ख्याति दूर तक ।
धन, अकूत, प्रतिष्ठा और पद
।।
पास में
न हो चाहे पाँखें ।
मन परन्तु उड़ना ही चाहे।।
कभी प्यार के लिए भटकता ।
कभी पाने
को ये सफलता ।।
जीना चाहे
सौ के ऊपर ।
ढोना न हो भार कोई पर।।
और और
करता रहता है।
मगर परिश्रम
से डरता है।।
सत्संग और मंदिर
में भी।
मन लगता
है रंजन में
ही।।
जितना पेट भरो घोड़ों की।
भूख लगी जाती ढेरों सी।।
आरम्भ में बाँध लेते तो।
अपनी सीमा में रहते
वो।।
खुला छोड़ देने पर उनको।
जंगली सा बन
जाते हैं वो।।
दौड़ाओ ना घोड़े इतना।
औरों को पड़ जाय रोकना।।
औरों को पड़ जाय रोकना।।
रोके वो तो दुखी आत्मा।
न रोका
तो दूषित आत्मा।।
लगाम लगाने के हैं यन्त्र।
मात्र विवेक, संयम ही मंत्र।।
रखे जो इन्हें नियंत्रण में।
आनंद हो उनके
जीवन में।।
लगाम लगा
लो इन तीनो
पर।
महत्वाकांक्षा, इच्छा अरु डर।।
सन्मार्ग पर जो है चलता ।
वही बहादुर, पाय सफलता।।
ईश्वर ने भेजा
धरती पर।
सभी कुछ और सबको
देकर।।
अपने पाने को
ज्यादा धन।
छीनते क्यों औरों का अंश
।।
उत्तम, करना पूर्ण हर चाह
।
परिश्रम और तप की ही राह ।।
जैसे जैसे
बढ़ती इच्छा ।
करनी पड़ती
लज्जित चर्या।।
जितना मिले, संतोष मनाय।
धनवान बड़ा वही कहलाय।।
चाह जिसकी होवे न्यूनतम।
धनी न कोई है उसके सम।।
ठीक ना होती इनकी दौड़
।
लोभ, काम,
घमंड व क्रोध।।
बने बाज हमको खा जाते।
सब खोने
पर फिर पछताते।।
इन बाजों को लगाय लगाम।
रहो सुरक्षित मंगल सब काम।।
वीर वही
जो मन को जीते।
भागे न इच्छाओं के पीछे।।
इच्छा आविष्कार की
जननी।
साथ, पर अपराध की
जननी।।
मोक्ष तो मन
पाना चाहे।
मरने से
फिर भी घबराये।।
अंतकाल, पाने को
कुछ क्षण।
सब कुछ त्याग हेतु तत्पर मन।।
सभी कुछ
त्याग देने पर
भी।
यह इच्छा पूरी ना होती ।।
अनेक जन ऐसे भी
देखे।
जो मुझसे
भी निर्धन लेखे।।
देखा निहार उनके भीतर ।
पाया खुद का तंगी में घर।।
उनके पास मुझसे था अधिक।
करने हेतु प्रभु को समर्पित।।
जो अपना मन
वश में रक्खे।
इन्द्रियां होंय वश
में उसके।।
जिसका ध्यान लगा ईश्वर में।
मन उसका स्वतः नियंत्रण में।।
राग, द्वेष
से होय वो मुक्त।
धर्मानुकूल व मन से शुद्ध।।
***
जाँच लो तुम मन का घुड़साल।
रखो दूर चालीस हर हाल &
लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, दुर्भावना,
कपट, लालसा, निंदा, वासना,
धृष्ठता, अभद्रता, बर्बरता,
बेईमानी व हठधर्मिता,
असत्य, अवज्ञा, आलस्य, कृपणता,
अन्याय, शोषण, स्वार्थ, धूर्तता,
पद-प्रतिष्ठा, लिप्सा, असभ्यता,
उत्पीड़न, अनुशासन-हीनता,
तिरस्कार, अनादर व व्यभिचार
अनैतिकता, दुष्टता, अहंकार,
***
जाँच लो तुम मन का घुड़साल।
रखो दूर चालीस हर हाल &
लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, दुर्भावना,
कपट, लालसा, निंदा, वासना,
धृष्ठता, अभद्रता, बर्बरता,
बेईमानी व हठधर्मिता,
असत्य, अवज्ञा, आलस्य, कृपणता,
अन्याय, शोषण, स्वार्थ, धूर्तता,
पद-प्रतिष्ठा, लिप्सा, असभ्यता,
उत्पीड़न, अनुशासन-हीनता,
तिरस्कार, अनादर व व्यभिचार
अनैतिकता, दुष्टता, अहंकार,
द्वेष, असंयम, कटुता, नृशंसता,
होड़, अधीर, शत्रुता, निर्दयता,
on a fine day of the summer
everyone is calmer and happier
dogs bark with joy and
people jog in clear weather
मन हाइकू
गर अधूरी
बिलवा दे पापड़
मन की चाह
बिलवा दे पापड़
मन की चाह
चाह न जागे
वैभव देखकर
मन की जीत
तैरें सपने
मानो मन हो गया
तरणताल
लगा रहता
माँ का कोमल मन
बेटे में बस
माँ का कोमल मन
बेटे में बस
बिना पंख के
मन भरे उड़ारी
तारों के पार
मन भरे उड़ारी
तारों के पार
धन अभाव
मन की बड़ी चाह
पड़ा कष्ट में
मोक्ष तो चाहे
मरने से डरता
मन बावरा
मरने से डरता
मन बावरा
मन का पंछी
पिंजरे में जकड़ा
उड़ान ऊँची
पिंजरे में जकड़ा
उड़ान ऊँची
कह लेने दो
मन हल्का हो जाय
मन की बात
मन में तम
बाहर उजियारा
अंधे के सम
दिखा देता है
भले बुरे कर्मों को
मन दर्पण
मन दर्पण
सावन आया
साजन नहीं आया
मन में आग
मन में आग
मन में रहे
घनघोर अँधेरा
ज्ञान के बिना
घनघोर अँधेरा
ज्ञान के बिना
मन की इच्छा
जीतनी न्यूनतम
जन को अच्छा
जीतनी न्यूनतम
जन को अच्छा
इतनी भाई
हिमालय की वादी
अकेला लौटा
अकेला लौटा
मन वश में
जीवन हो यश में
गीता का ज्ञान
जीवन हो यश में
गीता का ज्ञान
मनमोहन
मोहा राधा मीरा को
व मेरा मन
मोहा राधा मीरा को
व मेरा मन
दिखला देता
भले बुरे का भेद
मन दर्पण
भले बुरे का भेद
मन दर्पण
चंचल हो के
करे आकृष्ट मन
दुराचरण
करे आकृष्ट मन
दुराचरण
खुल्ला जो छोड़ा
बिन लगाम घोडा
हो जाता मन
चंचल मन
ढक लेता जीवन
बादल बन
ढक लेता जीवन
बादल बन
बना देता है
असंतुष्ट जीवन
स्वार्थीपन
असंतुष्ट जीवन
स्वार्थीपन
उन्मुक्त मन
कर आता भ्रमण
धरा गगन
कर आता भ्रमण
धरा गगन
आएगा अब
जाने वो कब तक
मन उदास
सावन आया
साजन नहीं आया
मन में आग
सावन माह
मन की ऊँची पेंग
नव दम्पति
चूम लेने को
जी चाहे बार बार
नन्हा सा शिशु
साजन नहीं आया
मन में आग
सावन माह
मन की ऊँची पेंग
नव दम्पति
चूम लेने को
जी चाहे बार बार
नन्हा सा शिशु
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मन में बैठे
दौड़ाते हैं मन को
पापों के घोड़े
बस के बनी
मेरे मन मंदिर
प्रेम की देवी
मन हो गया
मस्तिष्क पे आरूढ़
घेरे दुर्गुण
वह सुखमय रहता है
मन की बागडोर कसकर
जो थामे रहता है।
दुष्ट विचार और पाप
बस जायें जिसके मन
घेरे रहते संताप।
जिसके मन में पाप
यदि करता होय बसेरा
बसते नहीं प्रभु आप।
मोड़ दे प्रभु के द्वार
मन की अपनी दिशा को
मेरे मन मंदिर
प्रेम की देवी
मन हो गया
मस्तिष्क पे आरूढ़
घेरे दुर्गुण
वह सुखमय रहता है
मन की बागडोर कसकर
जो थामे रहता है।
बस जायें जिसके मन
घेरे रहते संताप।
जिसके मन में पाप
यदि करता होय बसेरा
बसते नहीं प्रभु आप।
मोड़ दे प्रभु के द्वार
मन की अपनी दिशा को
हो जायेगा उद्धार।
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