आंच में जलने का मुझे तू शाप न दे।
छनछनाहट की धुन पे नाचूं, थाप न दे।
रौशनी के वास्ते एहसान है तुझ पर,
सूरज! इतनी कि जल जाऊँ, ताप न दे।
धुआं बनकर मिलूं बादलों में बेमतलब
ऐसी कि उसमें खो ही जाऊं, भाप न दे।
गर्मी तेरी किस तरह, सह पाऊँगी मैं,
जले का मिटा न मैं पाऊं, छाप न दे।
धीरे धीरे जला तो कोई बात नहीं है,
पिघला सांचे में ढाले तू, थाप न दे।
रौशनी से चमक जाऊं तो है अच्छा,
छुप कर बादलों में कहीं तू, ढांप न दे।
दिन का उजाला देना रोज यूँ ही तुम
अँधेरा देखकर कहीं रूह काँप न दे।
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