Sunday, 23 February 2014

Suraj Shaap n de

आंच में जलने का मुझे तू शाप दे। 
छनछनाहट की धुन पे नाचूं, थाप दे। 
रौशनी के वास्ते एहसान है तुझ पर,
सूरज! इतनी कि जल जाऊँ, ताप दे। 
धुआं बनकर मिलूं बादलों में बेमतलब  
ऐसी कि उसमें खो ही जाऊं, भाप दे। 
गर्मी तेरी किस तरह, सह पाऊँगी मैं, 
जले का मिटा न मैं पाऊं, छाप दे। 
धीरे धीरे जला तो कोई बात नहीं है, 
पिघला सांचे में ढाले तू, थाप दे। 
रौशनी से चमक जाऊं तो है अच्छा, 

छुप कर बादलों में कहीं तू, ढांप  दे। 


दिन का उजाला देना रोज यूँ ही तुम 
अँधेरा देखकर कहीं रूह काँप न दे।  

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