लगे तो भीतर तक दे चीर,
कलेजे में करती भारी पीर,
दूर न हो उसकी विष घोली।
क्या सखि साजन? नहिं सखि बोली।
शुद्ध हवा खाने को ताजा,
कोयल, मेढ बजाते बाजा,
देता शीतल तरुवर की छाँव।
क्या सखि साजन? नहिं सखि गांव।
पौष्टिक बहुत, उसे समझाती,
फिर भी बिटिया
मुंह बिचकाती,
बहला फुसलाकर देती घूंट।
क्या सखि साजन? नहिं सखि दूध।
आती छीन ले
जाती साँसें,
भय से ना
खुल पातीं आँखें,
सभी के मन
में उसका खौफ।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि मौत।
रखे तो भरपूर पौष्टिकता,
निर्धन की थाल, पर न दिखता;
महंगाई में है
लाचारी।
क्या सखि साजन ? नहिं तरकारी।
जब भी कोई संकट आये,
मदद हेतु वो हाथ बढ़ाये,
चाहे परिस्थिति हो विपरीत।
क्या सखि साजन?
नहिं सखि मित्र।
लगा रहता है हरदम जाम,
भीड़ भाड़ का सदा ही झाम,
चारों दिशा से जुटते लोग।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चौक।
पहले का तो
अनेकों पड़ा,
मगर नए की जिद्द पे
अड़ा,
खाने हेतु हो
रहा मनौना।
क्या सखि साजन? नहिं सखि खिलौना।
छोड़, दौड़ रही बेतहाशा -
जूते, चप्पल, बचने
की आशा।
भीड़ पर पुलिस
रही थी भांज।
क्या सखि साजन? नहिं लाठीचार्ज।
देखा चलते गजब
बाजार,
मुर्दे जहां बस खरीददार,
आया जो लिया
जरूर सामान।
क्या सखि साजन? ना सखि श्मशान।
बच्चों के मन खूब है भाता,
बिन दाँत का वृद्ध भी खाता,
बीज का ना रखता झमेला।
क्या सखि साजन?
नहिं सखि केला।
मेरे लिये कर देता आड़।
क्या सखि साजन? नहिं सखि किवाड़।
करता रहता सदैव ननाद।
जुटते लोग भर के उन्माद।
मन को भाता उसका गिरना।
क्या सखि साजन? नहिं सखि झरना।
क्या सखि साजन? नहिं सखि हृदय।
लगाय रखता टकी रात भर।
प्यार का खेला खेलता घातक।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चातक।
उसी से संभव है संचार।
क्या सखि साजन? नहिं सखि अक्षर।
ज्वाला ये ना कभी उठाती।
धीरे धीरे है
सुलगाती।
जले आदमी घुट के
जिन्दा।
क्या सखि सौतन? नहिं
सखि चिंता।
भिगो कर के करता
बेचैन।
बिना बरसात
दिवस या रैन।
बहे झरने सा जेठ महीना।
क्या सखि साजन? नहिं
सखि पसीना।
***
गोल बदन पर लम्बा चलकर
उसका काम लगाना चक्कर
गाड़ी उसी पे चलती भईया
क्या सखि साजन? नहिं सखि पहिया।
क्या सखि साजन? नहिं सखि पांव।
साईकिल पर देखा बजते
मंदिर में भी अक्सर सजते
पुजारी दादा
क्या सखि साजन? नहिं सखि घंटी।
दर्शक देखते टुकुर टुकुर
क्या सखि साजन? नहिं सखि नूपुर।
जोड़ा है शब्दों का पहाड़
घंटी
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