Sunday, 12 July 2020

BOOND PYAR 3

सुगंध जब आती है 
रसोई से व्यंजन की 
आलस भग जाती है  

रहते एक आवास   
फूल अरु कांटे दोनों 
प्रेम ना आता रास। 

अश्रु का आना ठीक, 
किसी प्रिय के मिलने पर,  
प्रेम का है प्रतीक। 

बजती रही चूड़ियां; 
बड़े दिनों के पश्चात्  
मिटीं पिय से दूरियां। 

देर से आया पिया; 
कुछ खाया नहीं पीया  
बुझाने लगा दीया। 

बरसा मेघ घनघोर 
जोहे पपीहा प्यासा  
स्वाती की एक ठोप। 

आते कार्तिक माह 
उन्मुक्त स्वान उन्मुख 
प्रेम प्रणय की राह। 

आते जाते मौसम;
प्यार की ऋतु अलबेली 
कभी ना होती खत्म। 

ऐसे हुए दीवाने;
शाम को उनकी गली,
दीया चले जलाने।

अनेक नारी अरु नर 
श्रेष्ठतम करके प्यार;
हुए हैं जग में अमर।

चीटियों में भी प्रेम;
आते जाते पूछतीं 
आपस में कुशल क्षेम।  

कौवा बैठा मुड़ेर;
लगता कितना प्यारा  
सुनाता शुभ सन्देश।  

नभ के प्यारे तारे
मन को हैं बहलाते; 
लगते मीत हमारे।  

होता सूर्य जब उदित;  
स्वर्ण आभा में घुलकर 
आनंद से मन मुदित। 
 
अंगना जब भी आती
गौरैया फुदक फुदक के; 
मन को भी चहकाती। 

चला बादल को चीर 
मही के घर दीवाना; 
बूंदों के रस्ते नीर। 

अनुकूल अवसर ताड़; 
वसुधा का मन जुड़ाने  
जल चला घन को फाड़। 

लगती है अति प्यारी 
आती निंदिया लेकर; 
रातों की अंधियारी। 

जिस धरती ने पाला; 
प्रेम का ऐसा नशा,  
हवा ही लगे मधुशाला। 

प्राणों से प्यारी है; 
रक्त में घोली रज कण,  
जन्मभूमि न्यारी है। 

खेला जिन गलियों में, 
बसता प्यार अब भी मन,  
मिला रंगरलियों में। 

जुट के घर के छत पर; 
प्यार का दाना चुगने, 
चले आते कबूतर। 
 


देखे ना जाति धर्म;
होता है प्यार अँधा,
देखता मात्र मर्म


रहस्यों का है घड़ा;
ढूंढे मिलता प्यार में
जीवन का मन्त्र पड़ा।


ठण्ड या मौसम गर्म,
प्यार रहे चलता नित्य,
कभी भी न होता कम।




प्यार है घातक शस्त्र;
ले लेता प्राण को ये,   
बहाये बिन ही रक्त।  

सजाते लोग मुखड़ा; 
होय जब की मन भीतर, 
प्यार का तत्व सिकुड़ा। 

अनुभूति आत्मा से 
करे जो प्रेम साधना 
मिले परमात्मा से 

रति अनुरक्ति
तेरा मेरा प्यार
विरह विरक्ति
ऋतु मौसम
घर, परिवार, समाज
प्रकृति
वस्तु, स्थल,

विविध 
प्रेम पंचक 

मेरी बात 

प्रेम और श्रृंगार रस पर आधारित सबसे अधिक काव्य लिखा जाता है। उर्दू की शायरी तो टिकी ही है, प्रेम रस पर। प्रेम यानि प्यार, रति, प्रीति, अनुरक्ति, राग, अनुराग, लगाव, चाह, वात्सल्य, ममता, प्रियता, प्रणय, लगन, भक्ति, दुलार, लाड़, छोह, मोह, चाहत, इश्क, मुहब्बत आदि कुछ भी कह लें ईश्वर की अद्भुत देन है, जिसका संचालन मन से होता है। प्रेम मनुष्य के जीवन  का  आवश्यक अंग है। प्रेम के बिना जीवन नीरस और बोझिल हो जायेगा। मनुष्य न केवल मनुष्य से ही प्रेम करता है अपितु बहुत से अन्य जीव-जंतुओं, वस्तुओं, स्थानों, नदी, पर्वत, मेघ, प्रपात, ऋतु, वृक्ष, तड़ाग, उद्यान, पुष्प, खेत,कला, भोजन, पेय, परिधान, क्रिया, अंतरिक्ष, ग्रह, ईश्वर, सम्बन्ध इत्यादि से भी प्रेम करता है। प्रेम जीवन का आधार है। प्रेम से ही संतुष्टि और शांति मिलती है। प्रेम कोई सिखाता नहीं है, यह स्वयं ही हो जाता है।  जिसके हृदय में प्रेम नहीं, उसके हृदय में दया नहीं होती और पशुता निवास करती है। प्रेम से बल मिलता है, किन्तु प्रेम वश उत्पन्न लिप्सा आसक्त भी करती है। 


श्रीमद्भागवत गीता में भगवान् ने प्रेम की महिमा का स्वयं वर्णन किया है। ईश्वर से प्रेम को सर्वोच्च प्रेम माना गया है। कामना वश प्रेम, प्रेम नहीं होता; वह लिप्सा होती है। वास्तविक प्रेम निःस्वार्थ होता है और उसका अंत त्याग होता है।  जिससे प्रेम है, मनुष्य स्वयं से अधिक उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित होता है। उसके लिए सब कुछ समर्पित कर देने को जी चाहता है। बदले में उससे प्रेम के अतिरिक्त कोई अपेक्षा नहीं होती। प्रेम में दूसरे पक्ष के गुण ही दृष्टिगत होते हैं, दोष विलुप्त रहता है; वस्तुतः प्रेम में मन अँधा हो जाता है यानि ज्ञान चक्षु बंद हो जाते हैं, जिस कारण वह दोष नहीं, अपितु मात्र गुणों को देखता है। किसी कामना वश प्रेम होने पर, कामना पूरा होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है। सच्चा प्रेम अनवरत होता है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में ईश्वर से प्रेम को ही सर्वोत्तम माना गया है। चूकि मनुष्य को मनुष्य के साथ ही रहना होता है, इसलिए  मानवीय प्यार का महत्व सर्वाधिक है। इस पुस्तक में अन्य सभी वस्तु, पदार्थों, जीवों के प्यार के साथ मानव-प्रेम को अधिक महत्ता दी गयी है। 

विचित्र बनाया चीज,
ईश्वर तूने मन ये;
बोया प्यार का बीज।  


प्रेम में दूसरा पक्ष यानि जिससे प्रेम होता है, स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। प्रेम के वश कितने ही लोगों ने स्वयं को मिटा लिया, और इसके विपरीत घृणा होने पर अन्य को मिटा दिया। किन्तु यह सच्चा प्रेम नहीं है। प्रेम में, घृणा और हिंसा का कोई स्थान नहीं होता। प्रेम से ही सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है। भक्ति प्रेम का ही उच्च व उत्कृष्ट रूप है। मन प्यार का अथाह मेघ है, जिसकी नभ में कोई सीमा नहीं। इस मन रुपी सागर के बूंद बूंद में प्यार है, आवश्यकता है उसे उसी रूप में जानने की। प्यार, मन को कहाँ कहाँ लिए जाता है; इन विषयों को लेकर मैंने यह पुस्तक 'बूंद बूंद प्यार' माहिया छंदों में लिखा। चूकि इस पुस्तक में प्यार ही प्यार है, अतः आनंद ही आनंद है। पाठक के मन को शब्दों में ही प्यार का आनंद मिले, यही इस पुस्तक का उद्देश्य है।   


प्रेम वृष्टि करता है
घन बन मन गगन से यदि, 
मुदित सतत रहता है। 


मैंने इस विषय को 'माहिया' छंदों में ढालने का प्रयत्न किया है। माहिया छंद, पंजाब में गाया जाने वाला चौंतीस मात्रा भार का छंद है। मैंने इस पुस्तक में छंदों को सैंतीस मात्रा भार पर उतारा है। माहिया जापानी विधा हाइकु से काफी मिलता जुलता है। हाइकु में गेयता नहीं होती, जबकि माहिया में गेयता होती है। मैंने हाइकु विधा पर पर्याप्त कार्य किया, जो मुझे बहुत पसंद है; किन्तु उसमें गेयता का आभाव अखरता है, इस लिए इस छंद का चयन किया जिससे की लयबद्ध छंदों के द्वारा पाठकों को प्रेम का आनंद परोसा जा सके। मुझे पूर्ण विश्वास है, इन छंदों को आप जितनी बार पढ़ेंगे आप का आनंद कम नहीं होगा। आपके स्नेह व शुभकामनाओं का आकांक्षी -   


सत्य देव तिवारी, एडवोकेट 


प्रेम मन की गहराई में निकलने के लिए कुछ नहीं 

आयु बड़ी होती है 
चलता प्रेम अनवरत 
घडी घडीं नहीं 

प्रभु की ये माया है;
प्यार करने के हेतु,  
मन को बनाया है।  


 
*दिल न बनाया होता;
कोई मनुष्य कहाँ पर, 
प्यार बसाया होता। 
   
*प्रसन्नता का साधन,
साथ का बल है प्यार,
सफलता का आंगन

*प्यार तो समर्पण है;
प्रेमी करता प्रिय को,
अपना सब अर्पण है।


***

गलतियां भी यदि करूँ;

तुम्हीं तो बस हो मेरे, 
रूठ न जाना हे प्रभु। 

लगी है तुमसे प्रीति;
जबसे ईश्वर मेरे! 

मिली जगत की निधि। 


मुझमें बसा प्रभु तू;
मैं रहता तुझमें लीन, 

तू फिर क्यों है दूर। 


प्रभु पड़े हुए अनेक,
तुझको तुझे चाहने वाले;
मुझको तू बस एक। 


लगन है तुझमें लगी,
तुझे ही भजता हे प्रभु,  

चाहत सब और भगी। 


आवारा बना फिरूं;
मुझे हो गया है प्रेम,
तू ही बता क्या करूँ?


सुन गोकुल की धेनु;
मन में मगन हो जातीं 
कृष्ण की बजती वेणु। 

देखता फूलों के रंग;
दिया तूने मुझे इतने, 
होता देख के दंग। 


*भक्त के रति में डूबे 
खा गए बेर रघुवीर 
दिए भिलनी के जूठे 

*मीरा प्रेम दिवानी 

पी गयी विष का प्याला
कर ली अमर कहानी  

*जन्म लीं कई बार
पुनि पुनि पाने के लिए
पार्वती शिव का प्यार

राधा 

विचित्र बनाया चीज,
ईश्वर तूने मन ये;
बोया प्यार का बीज।  

मन को जो भा जाये; 
मन का खेल निराला, 
उससे प्यार हो जाये।

प्रभु की बड़ माया है;
प्यार करे मानव हर,   
हृदय को बनाया है।   


सागर से भी अथाह, 
बूंद बूंद हरि मन के, 
किया समाहित प्यार।  

विचित्र बनाया चीज; 
प्यार उमड़े यदि मन में, 
पत्थर जाये पसीज। 
 
प्यार आकर्षण है; 
समझ सके नहीं अब तक,
या प्यार समर्पण है।  

पुष्प रेणु से मिलता 
आकर कोई पराग; 
फूल का वंश चलता।  

  
छोटी सी एक भूल
बन जाती कई बार; 
प्यार के बीच में शूल।  

मन से मन मिलता है;
उद्यान मेंं जीवन के
प्यार पुष्प खिलता है। 



कहाँ से चली आई?
लिए हुए सुन्दर रूप,
परी भी देख लजाई। 

नैन ये गहरे झील,
कैसे पार हो पाता;   
डूब गया मेरा दिल। 

कलाईयों में भरी 
बुलातीं रहीं खनक कर; 
पी को चूड़ियां 
हरी। 


खोये रहे छटा में, 
घेरे केश बन बादल,  
चाँद छुपा घटा में।  



खुशियां जो हैं मेरी;
एक एक पल की सारी, 
सब दी हुईं हैं तेरी। 

करके बड़ी साधना,
पाए हैं हम तुमको;
करने दो अराधना।


आती नहीं है आंच; 
जलाती धीरे धीरे,   
लगती प्रेम की आग। 


उमंग में सरि बहती
देखकर  बहने लगी, 
प्रेम की मन में नदी। 


मद मेंं मस्त जी लिया;
मिल गया मतवाले को
मन प्रेम रस पी लिया। 

होठोंं को सी लिया

भेद की बात छुपाने;
मन प्रेम रस पी लिया। 

नापी आँखों से डगर; 
पिया गया है विदेश

आने की नहीं खबर।  

बोला मुड़ेर पे काग;
आएगा पी परदेशी
संदेशा आया आज।   

कौन कर रहा याद 
फड़कने लगी आंख 

श्रृंगार 

देख रहा था चकोर,
अनुरक्ति में हो के  
पागल चाँद की ओर।  

रहा नित्य प्रति रोता
सुग्गी के बिना उदास
पिंजरे में बंद तोता 

पोष ना मानी गाय 
बिकने पर कई दिन तक;
खूंटे से उसे प्यार। 

तेरी कृपा भगवान; 
हुआ स्थान्तरण उनका,  
हम दोनों इक स्थान।  

आशीर्वाद पाया 
माता पिता का अपने; 
सुन्दर दुल्हन लाया।  

तारे तोड़ने चले 
खाकर के लौटे चोट,
प्रिये तुम्हारे लिए। 

**सर्दी बहुत सतायी
अकेले में मुझको अति  
चुभती रही रजाई

**** 


जिया सनक जाता है,
फागुन के महीने में; 
प्यार  पनप जाता है।  

फूल गमक जाता है, 
बसंत की छटा बढ़ाने; 
प्यार  पनप जाता है। 

मेघ थिरक जाता है,
गा मल्हार सावन में; 
प्यार  पनप जाता है। 

जाड़ा कड़क आता है, 
डराने माघ महीना;  
प्यार  पनप जाता है। 

रूप चमक जाता है, 
प्यारा सा नयनोँ में; 
प्यार  पनप जाता है।  

***


चाँद हुआ अति क्रूर, 
छेड़ा हमें जी भर के; 
तुम हो गए जब दूर। 


होकर बड़ा मजबूर,
बितायीं विरह में रातें; 
तुम हो गए जब दूर। 


मेरी आँखों का नूर,
धुला भीगी पलकों में; 
तुम हो गए जब दूर। 

थक कर हुए हम चूर, 
उठ बैठ निहारे पंथ; 
तुम हो गए जब दूर। 



दी पीड़ हमें भरपूर,
सर्द रातों की ठंडक; 
तुम हो गए जब दूर। 

****



धरती को हर्षाया, 
सावन मुझे तरसाया; 
पिया नहीं घर आया। 


तनिक मुझे ना भाया,
यूँ मधुमास का आना;   
पिया नहीं घर आया। 

स्याह निशा का साया, 
किससे करूँ सखि बातें;
पिया नहीं घर आया। 


रात की नींद उड़ाया, 
छाती पर डोले नाग; 
पिया नहीं घर आया। 


बैरी बड़ा सताया,
देकर सपने भयानक' 
पिया नहीं घर आया। 


****

कोयल, बुलबुल, विहंग  
गाने लगे गीत रसिक;
देखो आया बसंत। 


भौंरे फूलों के संग
कभि चूमें कभि झूमें; 
देखो आया बसंत। 


पलाश वनों के अंग, 
खिल कर के दहकाता।   
देखो आया बसंत। 


मन रंगा ऋतु के रंग,
होकर आज बसंती;
देखो आया बसंत। 

हो गए प्रेम के संत,

ऋतु में प्रेमी युगल;
देखो आया बसंत। 



*****


घेर के आयी बदरी, 
दिल को किया दीवाना;
रे सखि तू ना हंस री। 

सुनने आया सखि री,
बहका हुआ ये सावन;
प्रीत के गीत हमरी।

झरे घन, प्रेम रस री, 
दिल चाहता है गाना;  
मल्हार अरु कजरी। 

समझे न प्रीत गहरी,
लिए गया पिया विदेश; 
दिल की गली संकरी। 

रखूंगी बांध अब री, 
सावन पुनः आएगा;  
धर के प्रेम रसरी।  

****

कहाँ चले हो भाग?
भड़का कर तुम प्रियवर;
मन में प्रेम की आग। 


जागा अभी अनुराग
क्यों दे के चले जाते?
भोले दिल को विराग। 

लगा ही दिए जब आग 
लपट तो उठ जाने दो;
बुझाते क्यों हो लाग? 

लगन गई है जाग 
तड़पाने लग जायगा;
डंस के विरह का नाग।    

गाऊं कौन सा राग, 

मधु के महीने अबकी;
खेलूं कौन संग फाग?


****


हो गया फोन विशेष,
कान से चिपका रहता;    
पिया गया है विदेश। 


फोन पे आये सन्देश 
देखूं रोज कई बार;
पिया गया है विदेश। 


सन्यासन का है वेश 
श्रृंगार धरे सब ताक; 
पिया गया है विदेश। 


मरुस्थल सा परिवेश 
रूखे से मेरे मन में;
पिया गया है विदेश। 


लगता हिया में ठेस, 
छेड़तीं हैं जब सखियाँ;  
पिया गया है विदेश। 




****
तुम नहीं थे प्रियतम; 
कैसे बताऊँ, कैसे?
बीत रहे थे मौसम।    

तुम नहीं थे प्रियतम; 
भ्रमर चिढ़ाते फूलों पर,
हम भी कहां थे हम!
 

तुम नहीं थे प्रियतम; 
मारते ताने तारे, 
नयनों को देख के नम।   

तुम नहीं थे प्रियतम; 
सुगंध कहाँ फूलों में, 
मुरझाये थे हरदम। 

तुम नहीं थे प्रियतम; 
सुनाने नहिं आती थी, 
कोयल अपना परचम। 

*****

उमंगें मन में भरी,
चली सिंधु पिया के घर;
निभाने शपथ नदी। 

मिलने मचलती चली,
रहता वो कोसों दूर;
अपने पिया से नदी। 


मूर्छित जा के गिरी,
बाँहों में सिंधु पी के;  
थकी मांदी सी नदी। 

प्यार में ऐसी डूबी,
जाते ही मुखड़ा चूमी;  
हिय में समायी नदी। 

तन मन समर्पित कर दी;
सागर से गहरा प्यार;
हो गयी उसकी नदी। 



*****




रे जो प्रियवर तेरी, 
दृष्टि यूँ मुझ पर पड़ी; 
जैसे बिजली गिरी। 

जैसे बिजली गिरी,
तेरे
 प्यार में फंस के; 
प्रियतम हाय मैं मरी। 


प्रियतम हाय मैं मरी,
डाला प्रेम का जादू;

पड़ी हूँ मैं जकड़ी। 


पड़ी हूँ मैं जकड़ी,
चल रही तेरे संग;
सजन हाथ को पकड़ी। 


सजन हाथ को पकड़ी, 
छोड़ के दुनिया सारी;
चली अँधेरी गली।  

****


संकटों की भरमार, 

मोल ले लिया खुद ही; 
मैंने किया जब प्यार। 


कांटे मिले हजार,
कलियाँ मिलीं न ढूंढे; 
मैंने किया जब प्यार। 


दिल हो गया बीमार, 
जाने कहाँ खोया रहा; 
मैंने किया जब प्यार। 


पीड़ा मधुर सुमार,
हो गयी है दिल में; 

मैंने किया जब प्यार। 

ईर्ष्यालु हुआ संसार,
देखता टेढ़ी ऑंखें;  

मैंने किया जब प्यार। 

****


भूली नहीं बरसात,
निकल कर पहली बार; 

भीगे थे हम साथ। 

क्या मोहक थी वो रात,
स्वर्ग उतर आया था;  

भीगे थे हम साथ। 


वो प्रेम की सौगात,
तुम्हारा दिया है याद;  

भीगे थे हम साथ। 


चाहत गयी थी जाग,

सिमटे पास तुम आये; 
भीगे थे हम साथ। 


कहीं खो  जाय याद,

रक्खे संभाले दिल में; 
भीगे थे हम साथ। 


****

देख के घेरे घन,
दूर क्षितिज के आगे; 
घुमड़ रहा है मन। 

प्रेम के अनुपम वन, 

पंछी बना दीवाना;  
उड़ने लगा है मन। 

सावन अतिषः पावन,
आते ही हो आनंदित; 

फुहारों में डोला मन। 


बिताये साथ वो क्षण, 
लाकर के कोई दे दे;
ढूंढता फिर से मन। 

आवारा बादल बन,
फिरता दूर अम्बर में; 
पागल हुआ ये मन। 



****

प्रियतम तुम  जाना;
देर रात को मेरी, 
आकर नींद चुराना।  

प्रियतम तुम  जाना,
जोहूंगी वाट तुम्हारी, 
कर के कोई बहाना। 

प्रियतम तुम  जाना,
बिछाये रखूंगी पुष्प; 
सेज मेरी महकाना।  

प्रियतम तुम  जाना;
बिखरे हों यदि मेरे
कुंतल को सुलझाना 

प्रियतम तुम  जाना;
सोने लगूंगी जब मैं, 
सपनों को जगाना। 


****
जाने क्या क्या न किये!
इस प्यार की डगर में,
प्रिये तुम्हारे लिए। 

कुटुंब तक तज दिए,
घर अलग एक बसाये;  
प्रिये तुम्हारे लिए। 

होठों को रखे सिये,
कितनी बातें छुपाये
प्रिये तुम्हारे लिए। 

मन को मार जिए, 
धरे ताक पे सब शौक;    
प्रिये तुम्हारे लिए। 

बिना हारे अरु थके, 
लड़ते रहे दुनिया से, 
प्रिये तुम्हारे लिए। 

**** 



कप चाय का थमाना,  
उठते ही नित्य प्रातः;  
ये प्यार ही तो है ना।  

परोसकर पूछ लेना,  
क्या तुमको पसंद आया?  
ये प्यार ही तो है ना। 


निकलते ही कह देना,  
जल्दी लौट के आना; 
ये प्यार ही तो है ना।   


झोला थमा के कहना, 
चीनी का डब्बा खाली 
ये प्यार ही तो है ना।   


कह कर डांट लगाना, 
अब तक दवा न खाये!
ये प्यार ही तो है ना।  

***

रूठे तो फिर मनाया, 
नोक झोंक में जब हम; 
वो प्यार नहीं तो क्या !

कर का पुष्प थमाया 
मिलते ही उन्होंने
वो प्यार नहीं तो क्या !

आंसू छलक आया, 
उनकी कहानी सुन कर; 
वो प्यार नहीं तो क्या !

मन उदास हो आया, 
दो दिन से किये न फोन; 
वो प्यार नहीं तो क्या !

संवरने में बिताया 
मिलने से पहले घंटों; 
वो प्यार नहीं तो क्या !



***जागा कैसा स्पंदन!
रोम रोम पुलकित हुआ, 
पाकर तेरा चुम्बन। 

मन करता नृत्य मगन;
ऐश्वर्य पाया हो ज्यूँ,  
पाकर तेरा चुम्बन। 

भुलाये सारा भुवन; 
कुछ समय के लिए हम, 

पाकर तेरा चुम्बन। 

किया जो कष्ट वहन;
भूला दिया मेरा मन,
पाकर तेरा चुम्बन। 


सफल हो गया जीवन; 
जीने का मिला अवलंब,  
पाकर तेरा चुम्बन। 


****


जीना था दुस्वार; 
जिंदगी चल पड़ी है, 
जबसे हुआ है प्यार। 


लगता था जीवन भार, 
उड़ने लगे हैं अब हम; 
जबसे हुआ है प्यार। 

मन सितारों के पार, 
घूमता रहता है नित, 

जबसे हुआ है प्यार। 

मन के झंकृत हैं तार;
बजाया है तू ऐसे,  
जबसे हुआ है प्यार। 



तेरी बाहों का हार;

चाहूँ गले में हर पल,   
जबसे हुआ है प्यार। 

****

इन आँखों में तेरी,
मन मेरा जब झाँका;
अद्भुत छटा बिखेरी।

इन आँखों की तेरी,
बादल बन के माया,   
मेरे मन को घेरी।

इन आँखों से तेरी, 
प्रेम को देखा मन की   
कोठरी में अँधेरी।  


इन आँखों ने तेरी,
प्रेम राग यूँ छेड़ा;
भरने लगा मन टेरी। 

इन आँखों को तेरी,
जान कोई रत्नाकर;
मन प्रेम रतन हेरी।

****


तकता रहता चकोर, 
चांदनी में न सो पाय; 
लगा प्रेम का रोग। 
स्वाति की जोहे ठोप, 
सावन प्यासा पपीहा;
लगा प्रेम का रोग। 

मोर मचाये शोर, 
घन को देखता घेरे; 
लगा प्रेम का रोग।  

पीछे घूमे सब छोड़,  
अश्वनी माह में स्वान; 
लगा प्रेम का रोग।  


ढूंढे व्यग्र चहुँ ओर,  
होय दीवानी नागिन; 
लगा प्रेम का रोग। 

****

घन को धरा से प्यार;
तर करने उसका मन,
आता लिये बौछार। 

धरा को नदी से प्यार;
बरसा-जल दे देती,
रखने को उसे उधार। 

सरि को सिन्धु से प्यार;
उसकी गागर भरने,
चल देती लेकर धार। 

सागर को घन से प्यार;
दे देता वाष्प बना,
मेघ को उसका वारि।

होकर प्रसन्न अपार;
उमड़ घुमड़ ढक लेता,
बादल पुनः संसार।

***** 

तारे धूमिल गगन में; 
तुम दूर गए जबसे, 
विरानी छायी मन में। 

आग लगी सावन में; 
तुम दूर गए जबसे, 
शीतलता नहीं पवन में।  

गाती नहीं उपवन में; 
तुम दूर गए जबसे, 
चिड़ी उदास मधुबन में।   

मेघ आवारापन में; 
तुम दूर गए जबसे, 
घुमड़े दूर भुवन में।    

अंधेरों के चुभन में; 
तुम दूर गए जबसे, 
रहते अश्रु नयन में।  

*****

प्रियतम तुम आ जाना; 
बैठी रहूंगी सज-धज, 
आकर नजर लगाना। 


प्रियतम तुम आ जाना; 
बन कर मेरी सहेली,
पहेलियाँ सुलझाना। 

प्रियतम तुम आ जाना; 

मैं करुँगी जो भी उन,
गलतियों पर मुस्काना। 

प्रियतम तुम आ जाना; 

कुम्हलाये जो मन के, 
फिर से पुष्प खिलाना। 

प्रियतम तुम आ जाना; 

कभी होऊं अगर उदास,
हँसना और हँसाना। 


****

क्यों नहीं गए थे थम !
प्यार के वो चार पल, 
मिले जब तुम और हम।  

याद है तुमको सनम ? 
निभाने की जनम जनम, 
खायी थी हमने कसम। 

खग खुशियों के परचम,
गाये उसी उपवन में; 
जिस जगह मिले थे हम। 
 
लौटे थे घर को हम,
जब मिले थे पहली बार;  
आँखों को करके नम।  

पड़ गए थे कितने कम; 
जी चाहे मिले वो पल, 
प्रिय हमको जनम जनम।   

*** 
प्रियवर तुम आ जाना; 
मुझमें पड़ा है कबसे, 
खालीपन भर जाना। 

प्रियवर तुम आ जाना; 
आ जाने तक नशे में, 
प्यार का घूंट पिलाना।  

प्रियवर तुम आ जाना;
रात में लोरी गाकर,
सोना और सुलाना।  

प्रियवर तुम आ जाना; 
देखें दोनों मिलकर, 
कुछ सपने भी लाना।   

प्रियवर तुम आ जाना;
भुलाये ना जीवन भर,
ऐसा खेल रचाना। 

***


हुआ प्रेम ईश्वर से; 
रहा ना प्यार अब और, 
वस्तु, जीव नश्वर से। 

हुआ प्रेम ईश्वर से; 
पढूं नहीं ग्रन्थ पुराण,  
प्यार ढाई अक्षर से। 

हुआ प्रेम ईश्वर से; 
जहाँ मिलने मैं जाती, 
उस पावन मंदिर से।

हुआ प्रेम ईश्वर से; 
गढ़ के छवि दिखलाता,  
उस अद्भुत पत्थर से। 

हुआ प्रेम ईश्वर से; 
पायी उसे मैं वर में, 
दिए उसी के वर से।   

हुआ प्रेम ईश्वर से;
वो भी करता है प्यार,   
देख मुझे अम्बर से। 



added 

तुझसे जुड़ा था तार;  
बिजली गिरी यूँ सिर पर, 
बिन मृत्यु मरा मैं यार।  

सज धज के चली थी तू; 
मुड़ गयीं आँखें सारी,
पिया की गली जब तू। 

भिगोई थी तन मेरा,  
पहली वो बारिश आ के; 
भीगा ना मन मेरा। 

नभ में घन घुमड़ा था; 
घिर आयी याद उनकी,   
मन में प्यार उमड़ा था।  

देखी न सखी बूंदें; 
निकल भी गया सावन, 
रही मैं नयना मूंदे। 




मुझे नींद नहीं जब आयी
रात को देर सुलाने
तुम्हीं तो आये थे 

किरणें भेज
होते भोर जगाने
तुम्हीं तो आये

भूखे थे हम
छींट अन्न खिलाने
तुम्हीं तो आये

लगी जो प्यास
जल ले के पिलाने
तुम्हीं तो आये

नग्न बदन थे हम
तन पर वस्त्र ओढ़ाने
तुम्हीं तो आये



सूना था मन
बीच प्यार बसाने
तुम्हीं तो आये

वर्षा बसंत
मौसम ये सुहाने
तुम्हीं तो लाये

प्यासी अंखियां
ले के छवि निराली
तुम्हीं तो आये

जलने लगी
पृथ्वी को नहलाने
तुम्हीं तो आये

कांपा ये जग
लिए धूप गर्माने
तुम्हीं तो आये

******************

फूल और इत्र की,
महत्ता रूप के कारन ,
अपनी शान औ कदर।

अन्य भाषा के शब्द,
भा गए जो हिंदी को,
लगा ली अपने वक्ष।

प्यार मदिरालय से,
खोये विवेक और धन,
निष्कासित आलय से।

पांच सितारा होटल;
सुख की नींद कहाँ है?
जो अपने बिस्तर पर।

प्यार और सम्मान,
करके पुस्तक से मिला,
हमें अति उत्तम ज्ञान।

धन से अधिक यदि प्यार;
नाग बन के डंस लेता,
वही बन जाता काल।

कोठी, महल, अटारी;
इनसे क्या करना मुझे,
झोपड़ी मेरी प्यारी।

नमकीन अरु मिष्ठान
जीभ खींचे ले जाती
हलवाई की दुकान।


प्यार की अपने लिखी,
पुस्तक प्रेम से मैंने;
एक भी प्रति ना बिकी।

विचित्र रचा संसार;
बूँद बूँद है सृष्टि की,
करें जिन्हें हम प्यार।

लगन लगे भगवन में,
इच्छाएं मिट जाती;
चाह रहे ना मन में।

***

जीवन का सहारा है;
दिया संस्कृति सभ्यता,
धर्म मुझे प्यारा है।

प्राण को देता त्याग;
सैनिक का सबसे बड़ा,  
धर्म राष्ट्र-अनुराग।

ढूंढें वैद जी वन में,
गुण भरी जड़ी बूटियां,
बसीं रहतीं मन में।

लायी कहाँ से पाल,
माँ ममता का पिटारा?
जाना जा के ननिहाल।

माँ जो लेकर आयी,
इतनी सारी ममता;
नानी के घर पायी।

रखती गर्भ का ध्यान,
अपने प्राणों से अधिक;
माँ तो ऐसी महान।

देखती बुढ़िया दाई;
कहती - मैंने की सब,
माँ चाहे जन्मायी।

खेल निराला खेला;
लगाया अपने पीछे,
प्रशंसकों का मेला।

वाद्य यंत्रों से प्यार;
करके हैं गढ़े जाते,
कितने ही कलाकार।

प्यार से उगाता है;
लहलहाती देख फसल,
कृषक मुस्कराता है।

विरह की पीर बड़ी;
तुम क्या जानो कैसे?
हूँ मैं अब तक खड़ी।

झूमे ताल तलैया;
हर्ष में वर्षा की किये, 
दादुर ताता-धैया।

चंपा और चमेली, 
सजाती हैं गोरी को;
बन के उसकी सहेली। 

टंगा भीत पर चित्र;
देखता टकी लगाए, 
बसा है मेरे चित्त। 

चुप्पी थीं जो तोड़ी;
होंठ तो चुप चाप रहे,
आंखे थीं वो निगोड़ी। 

मिले जीने की शक्ति, 
मनुष्य को है स्वभाविक,
उससे होय अनुरक्ति। 
 

बहता जल की धार
सावन के महीने में
मेढक गाता मल्हार

अपने सजन में
मेरा मन है लागा

लगी लगन हरी भजन में




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जगह युदा तस्वीर जंजीर   

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