है बहुत सुखकारी, श्री रामचंद्र का नाम।
जगती में भजकर भक्त, बहुत सुख पायो जी।।
राम नाम समाहित, अनमोल सुखों की खान।
देव, ऋषि, मुनि, संत सभी, राम गुण गायो जी।।
मचाने आते भू पर, जब जब दानव उत्पात।
हेतु मिटाने पाप, खुद धरती पर भगवान।
धर मनुज रूप श्रीराम, अवध मेंं जायो जी।।
दशरथ के महल में, थी किलकारी की गूंज।
विहँसत बालक श्रीराम, माँ को रिझायो जी।।
देख दिव्य श्रीराम, चकित कौसल्या माँ।
विश्व में सब संभव, कृपा से राम की होय।
आनंद राम का नाम, भजे बरसायो जी।।
इस जीवन के भवसागर से पार। ले जाने का तंत्र, राम का नाम।।
बन जाते बिगड़े उसके सब काम। जो जपता निरंतर, राम का नाम।।
जगाने वाला सूरज को नित्य। त्रिभुवन का विहान, राम का नाम।।
कण कण में होता राम का वास। सबको सहज लब्ध, राम का नाम।।
सिखाता सदाचार, राम का नाम। भगाये दुष्विचार, राम का नाम।।
करता यही हर सांस को पावन। रुग्ण मन का उपचार, राम का नाम।।
संतों का मनोरथ भजकर सिद्ध। भज संकट मिटते, राम का नाम।।
पग पग पे सहारा, राम का नाम। अघ से छुटकारा, राम का नाम।।
फंस गयी यदि नईया मझधार। भवसागर तारा, राम का नाम।।
हिय के तम का नाश, राम का नाम। अमल मन-आकाश, राम का नाम।।
स्मरण मात्र भर देता ज्योति। मणि सम तीव्र प्रकाश, राम का नाम।।
भगाता सकल संताप, राम का नाम। मिटाता मन के पाप, राम का नाम।।
विघ्न बाधायें पास ना आतीं। कर लेने से जाप, राम का नाम।।
जग में परम पवित्र, राम का नाम। है क्षण क्षण का मित्र, राम का नाम।।
भरे हुए शक्तियां चमत्कारी। करता शुभ चरित्र, राम का नाम।।
संसार में सत्य है, राम का नाम। शब्दों में भव्य है, राम का नाम।।
हर युग में है ये अमृत के जैसा। क्षण क्षण जो श्रव्य है, राम का नाम।।
दूर करता विकार, राम का नाम। कुत्सित हरे विचार, राम का नाम।।
बुरे दलदल में फंस जाय जब नाव। उसको भी खेता, राम का नाम।
हर समय सुखदायक, राम का नाम। संकट में सहायक, राम का नाम।।
मन की इच्छा पूरी कर देता। सुख का परिचायक राम का नाम।।
करोड़ों का आधार, राम का नाम। इस जीवन का सार, राम का नाम।।
आस्था नहीं, एक अटल सत्य यह। सब करता साकार, राम का नाम।।
आदर्श और नीति, राम का नाम। जग में सत्य व प्रीति, राम का नाम।
जग में अद्भुत नशा, राम का नाम। बदले मन की दशा, राम का नाम।।
अवध से रामसेतु तक, राम का नाम। जोड़े राष्ट्र को सब, राम का नाम।।
भारत के कण कण में, राम का नाम। भक्तों के क्षण क्षण में, राम का नाम।।
बस राम नाम से यह चलता त्रिभुवन। जीवन के कारण में, राम का नाम।।
धारे गहरे भेद, राम का नाम। सुन के भागते प्रेत, राम का नाम।।
यदि क्रूर भी जपता, राम का नाम। क्रूरता को तजता, राम का नाम।।
दुष्ट पापी भी नित्य प्रति भजकर। कई अघ से बचता, राम का नाम।।
जो भी अपनाता, राम का नाम। दुर्गुण को भगाता, राम का नाम।।
करता आया हर बाधा को दूर। हर कष्ट मिटाता, राम का नाम।।
श्रेष्ठ जगत की निधि, राम का नाम। सुखी जीवन की विधि, राम का नाम।।
साधु संतों का जीवन, राम का नाम। बझाये कोटिक मन, राम का नाम।।
हिंदुत्व का आधार, राम का नाम। सब मन्त्रों का सार, राम का नाम।।
करा देता सब कुछ सिद्ध सहज ही। कर लेने से उच्चार, राम का नाम।।
गाती बहती सरयू, राम का नाम। भज लो कहती सरयू, राम का नाम।।
साधु संतों का गायन, राम का नाम। बोल बरसता सावन, राम का नाम।।
गलियों, उद्यानों, मैदानों में। बूढ़ा, युवा, बालक भजता, राम का नाम।।
रामचन्द्र की तीनों महतारी। ले के खिलावें ललना, राम का नाम।।
लंका पुर के अशोक वाटिका में। जपते समय बितायीं, राम का नाम।।
रावण ने छल से जब किया हरण। बिलखीं करके सुमिरन, राम का नाम।।
मात्र नहीं है नाम, राम का नाम। सकल गुणों का धाम, राम का नाम।।
जो भजता भव से तर जाता। करके मन निष्काम, राम का नाम।।
भज मन कर जोड़ राम का नाम। वेदों का निचोड़, राम का नाम।।
भर देता उस समग्र स्थल को। जीवन का हो खोड़, राम का नाम।।
जग में परम पवित्र राम का नाम। अद्भुत रखे चरित्र राम का नाम।।
मात्र शब्द नहीं यह परम ब्रह्म है। श्रीराम स्वयं सचित्र, राम का नाम।।
है जन जन को पाले राम का नाम। संसार संभाले, राम का नाम।।
तप कर स्वच्छ पावन बन जाता। जो हृदय में ढाले, राम का नाम।।
कितनों के कठिन समय का सहारा। निःशुल्क मन का रंजन राम का नाम।।
ठान लेने पर कोई प्रताप का काम। सफलता का निश्चय, राम का नाम।।
मानवता आदर्श राम नाम में। आनंद का समुद्र, राम का नाम।।
दे लोगों को भक्ति, राम का नाम। पापों से विरक्ति राम का नाम।।
धर्म पथ पे चलो, प्रेरित करता। अलौकिक प्रेम शक्ति, राम का नाम।।
बाल्मीकि को भाया, राम का नाम। मन तुलसी समाया, राम का नाम।।
र से रचयिता, आ से आश्रयदाता, म से मोक्ष प्रदाता राम का नाम।
करुणा का दाता, राम का नाम। कृपा वृष्टि कराता, राम का नाम।।
निकृष्टता समूल नष्ट करके। जीवन श्रेष्ठ बनाता, राम का नाम।।
हरता हर विपत्ति, राम का नाम। शुद्ध कर देता चित्त, राम का नाम।।
करता है हर प्रकार कल्याण। देता सिद्धि संपत्ति, राम का नाम।।
है तो ढाई अक्षर, राम का नाम। परमानन्द का घर, राम का नाम।।
मनुष्य के जीवन की यात्रा का। जग में अंतिम पत्थर, राम का नाम।।
जल थल से गगन तक, राम का नाम। पूजन से नमन तक, राम का नाम।।
हर प्राणी की रट राम का नाम। सुन झुक जाता मस्तक राम का नाम।।
देता है वीरता राम का नाम। हरता अधीरता राम का नाम।।
राम नाम युग युग की भक्ती। राम नाम में अद्भुत शक्ती।
वर्ण, शब्द, छंद, रस, वाणी। हे अधीश्वरी वीणापाणी !
देने वाली जगत को ज्ञान। माँ सरस्वती! कोटि प्रणाम ।
सब कार्य को मंगल करते। विघ्न वाधा सदा ही हरते।
करने वाले सफल सब काम। गणेश, गणपति! कोटि प्रणाम ।
महादेव, हे ! ज्ञान भंडार। करते उत्पत्ति और संहार।
त्रिपुरारी सबके भगवान। जय शिव शंकर ! कोटि प्रणाम ।
जिनके वशीभूत है सृष्टि। जो करते कृपा की वृष्टि।
भक्त वत्सल, कृपा के धाम। जय श्रीराम! कोटि प्रणाम ।
राम भक्त हो, बल के धाम। नहीं असंभव कोई काम।
अंजनिपुत्र पवनसुत नाम , जय हनुमान!कोटि प्रणाम ।
देवि, देवता, साधु, संत को। धरा, गगन, सूर्य, चंद्र को।।
करते नित जग का कल्याण , जय वेद पुराण! कोटि प्रणाम।।
सोहर गीत
कहवाँ पे मंगल गान, केवन गावे सोहर हो।
अरे अवध में मंगल गान, रमणी गावें सोहर हो।
रामा, अयोध्या में बाजे बधाई, कि लागे मनोहर हो।
कहाँ जनम लिए राम, केकरि शुभ अंगना हो।
रामा के हो खेलावेला गोदिया झुलावेला पलना हो।
अयोध्या जनम लिए राम कि दशरथ के अंगना हो।
रामा, कौशिल्या खेलावेलीं गोदी कि सोनवा की पलना हो।
कौन लुटावे अन्न धन सोनवा, कि कौन सी नगरी हो।
ललना, अम्बर से बरसे फूल, प्रसन्न नर नारी हो।
दशरथ लुटावें अन्न धन सोनवा, अयोध्या नगरी हो।
ललना, हर्षित तीनों महतारी, कि पुर के नर नारी हो।
दिव्य विराट स्वरुप कि अद्भुत रूप प्रकट हुए रामा हो।
ललना लोचन ललित, छवि विशिष्ट, बदन घनश्यामा हो।
करुणा के सागर, सब गुण आगर कि सुखों के दाता हो।
ललना बालक रूप कौशिल्या के अंक स्वयं ही विधाता हो।
राम जनम सुनि दशरथ हर्षित। देहि दान मन होइहि पुलकित।।
राम नाम ले जे भी आवा। भूप दीन्ह उन्ह सब मन भावा।।
बधाई मांगे पवनी, राम की बधाई।
कोई मांगे अन्न धन सोनवा। कोई मांगे मुदरी गहना।
बधाई मांगें दासी, राम की बधाई।।
छुरी ले आयी काटने नारि। बधाई मांगे दाई, नारि की कटाई।।
ले के आयी बजाने को नगाड़ा। बधाई मांगे महरिन नगाड़ा बजाई।।
ले के आयी डुगडुगी बाजा। बधाई मांगे नाउन डुगडुगी फेराई।।
ले के आयी फूल का तोरण। बधाई मांगें मालिन फूल की लोढ़ाई।।
ले के आयी जच्चा का लुग्गा। बधाई मांगें धोबिन लुग्गा की धुलाई।।
ले के आयी रामजी के झुल्ला। बधाई मांगे दरजी, झुल्ला की सिलाई।।
ले के आया रामजी क पलना। बधाई मांगे बढ़ई पलना के गढ़ाई।।
रूनझुन करत ठुमक चलें राम।।
ललित अति नयना तन घनश्याम
रूनझुन करत ठुमक चलें राम।।
पावत मातु देखि आनंद अति
गिरत उठत धावत शिशु राम।।
माता करत दुलार गोद ले
किलकि किलकि विहँसत हरि राम।।
राम ही राम गूंजत पल पल
सुबह से शाम दसरथ धाम।।
धन्य मनावत अवध निवासी
बालक रूप उतरे भगवान्।।
ऋषि गौतम के शाप से बनकर,
पड़ी रही वर्षों तक पत्थर,
आकर राम ने उसको तारी।
बड़ी है राम की लीला न्यारी।
वह पा रही थी, सजा किये की,
धूप बारिश में, पड़ी शिला सी।
बन गए रामचंद्र उपकारी।
बड़ी है राम की लीला न्यारी।
जैसे ही चरण छुई राम की,
भजकर राम, परलोक सुधारी।
बड़ी है राम की लीला न्यारी।
राम लखन मिलि दोऊ भाई। गुरु
आश्रम में शिक्षा पाई।।
श्याम रंग और कोमल अंग। विराजमान सीता जी संग।।
धारण किये धनुष और बाण। भक्तों का करने कल्याण।।
रक्षा करना,
सुखों के धाम हे रघुनायक। कष्ट निवारि प्रनत सुखदायक।।
सदा ही करने वाले मंगल। भक्तों के हरि कृपा के वत्सल।।
रक्षा करना, कृपा के धाम ! जय श्रीराम, जय जय श्रीराम।।
कृपा के कन्द , सब द्वन्द हरण। सभी को देने वाले शरण।।
मोह माया दुखों के हर्ता। सुखदायक दैत्यों के हन्ता।।
रक्षा करना, हे रघुनाथ! जय श्रीराम, जय जय श्रीराम।।
अगुण सगुण गुण मंदिर सुन्दर। करहु निवास मम उर अंदर।।
कर पंकज राजीव विलोचन। दीन बंधु प्रभु संकट मोचन।।
रक्षा करना, हे भगवान। जय श्रीराम, जय जय श्रीराम।।
लीला रची श्रीराम की हो, दुर्गम वन में।
राम-पद पड़े, बढ़ी पावनता,
चित्रकूट, प्रयाग धाम की हो, दुर्गम वन में।
जीव प्रसन्न सभी कानन के
दर्शन पाय रघुनाथ की हो, दुर्गम वन में।
आव भगत सब, ऋषि मुनि कीन्हीं ,
जय बोले प्रभु राम की हो, दुर्गम वन में।
कोयल शुका मयूरा की रट
हरे राम सुबह-शाम की हो, दुर्गम वन में।
वन के संकट सह लीं सीता
सुमिरत नाम प्रभु राम की हो, दुर्गम वन में।
राम रउर बिन गति कछु नाहीं। है वह धन्य राम मन माहीं।।
सब तज रामहिं जे उर लायी। रहहुँ नाथ मम हृदय में आयी।
चित्रकूट गिरि श्रृंख सुहावन। ठहर राम कर दीजै पावन।।
राम यहाँ सब ऋषि मुनि संता। बहती सरि मंदाकिनि कंता।।
कोल भील बन देवा आये। राम हित पर्णकुटी छवाये।।
चित्रकूट सब ऋषि मुनि आये। दर्शन राम परम सुख पाए।।
पशु पक्षी शुक मोर चकोरा। वनहिं राम चहके चहुँ ओरा।।
चित्रकूटहिं राम पग धारे। स्वर्गलोक सम ठौर सुखारे।।
पर्णकुटी अति रामहिं भावा। कन्द मूल फल वन में खावा।।
राम लखन अति ठाँव सुहावा। रह विचरत वहँ हर्ष मनावा।।
लौट सुमंत अवध पुर आये। राम-कुशल अरु क्षेम बताये।।
पुनि पुनि पूछत क्षेमहि दशरथ किस हाल राम सुनाइहौ।
कहत सुमंत्र नृप आप ज्ञानी हृदय शोक नहीं धारिहौ।
जनम-मरण संग-वियोग लाभ-क्षति सुख-दुख वश काल करम।
भेजि राम प्रणाम कोटि पितु मातु गुरु जन-श्रेष्ठ चरणन।
हेतु मंगल अवध के वन में राम करते नित्य वंदन।
सुनत नरेश गिरे अकुलाई। राम बिछोह सहा नहिं जाई।।
राम राम कह थामे सीना। विकल पीड़ से दूभर जीना।।
रोवत बिलखत दौड़ीं रानी। राम वियोग न जाय बखानी।।
राम वियोगहिं राम ही टेरू। नहीं बचेंगे प्राण पखेरू।।
राम राम कहि बारम्बारा। पूछे नृप कहँ राम पिआरा।।
राम बिना अब जीना नाहीं। भूमि पड़े शून्य की माहीं।।
प्राणों का बस राम सहारा। राम बिना जीवन धिक्कारा।।
पुनि पुनि दसरथ राम पुकारे। थोरि काल बैकुंठ सिधारे।।
नानियायुर से वापस आये। भरत राम नहिं घर पर पाये।।
दुखी अत्यंत विकल हुआ मन। ब्रह्मलोक पितु भ्रात राम वन।।
अस करनी माँ की न सुहावा। पितृ घात वन राम पठावा।।
राम अहित तू सोची जननी। अधम कहायेगी यह करनी।।
कही मातु सुत तेरे ही हित। बुनी प्रपंच राम के अनहित।।
राम विरुद्ध सोच अपराधी। बना पाप का मैं भी भागी।।
गुरु समुझाइ राजपद लेहू। फिरें राम उन्ह वापस देहू।।
हित हमार रामहिं सेवकाई। प्राण बिना कहँ देह सुहाई।।
राम बिना नहिं राज सुहावा। भल लछमन रामहिं पद पावा।।
आज्ञा देहु अरण मैं जाऊं। राम लछमन सिय को मनाऊं।।
देखि राम प्रति बहु अनुरागा। भरत वचन सबको प्रिय लागा।।
सबके मन अति मोद समाया। मिलेंगे पुनि राम रघुराया।।
लाने राम विकल अकुलाई। उत्सुक खड़े लोग लोगाई।।
करने लगे विविध तैयारी। रामहिं लाने पुर नर नारी।।
तिलक सामान लेहु समाजा। वहिं करहुं मुनि राम को राजा।।
राम मिलन रथ पालकि घोड़े। चली प्रजा पैदल कर जोड़े।।
चले बैठ रथ गुरु दो भाई। मना लाने राम रघुराई।।
देखा निषाद भरतहिं आते। राम विरुद्ध परिस्थिति आंके।।
रक्षा-राम हेतु अकुलाई। सुमिर राम वाहिनी लगायी।।
वृद्ध नागरिक तब समुझावा। भरत राम से मिलने आवा।।
सत्य जान तज दिया विषादा। राम राम कह मिला निषादा।।
रामचंद्र मोहें उर लीन्हा। कुल समेत पावन मम कीन्हा।।
राम नाम भजे जेहि कोई। ओकरे अंग पाप न होई।।
राम बखान जे केहु गाई। जड़ खल सबै परम गति पाई।।
जे जग मंगल मोद निधाना। रामहिं सम्मुख बाधा नाना।
बड़े भाग राम जहाँ आवा। जनम जनम के पाप मिटावा।
राम भक्ति अति भरत सुहाई। बढ़ निषाद को वक्ष लगाई।।
अगले वासर होत सवेरा। चला भरत ले रामहिं डेरा।।
सियाराम जय जय सियरामा। कहते चले चित्रकुट धामा।।
मारग करत निषाद बड़ाई। रुके राम जँह ठौर बताई।।
जड़ चेतन मग राम को देखा। पावा सब पद परम विशेषा।।
चाहे सुरेश रचें कुचालू। मिलें ना राम भरत भुआलू।।
देव वृहस्पति तब समुझावा। कोइ राम से पार न पावा।।
जे अपराध भक्त प्रति करई। राम कोप पावक में जरई।।
राग रोष बिन सदा एकरस। रहें राम नित भक्त प्रेम वश।।
गुरु से सुन प्रभु राम प्रशंसा। इन्द्र किये पुष्पों की वर्षा।।
भरत जा रहे संग समाजा। रामहिं राम हृदय में छाजा।।
जिस जिस ठौर राम विश्रामा। किये भरत कर-जोड़ प्रणामा।।
राह भरत को जेहि विलोके। मनाये मिलन राम सु होवे।।
उत्तर दिशा देखि कोलाहल। रहा होइ मन राम का विकल।।
पशु पक्षी सब आ रहे भागे। थमे कई रामाश्रम आगे।।
कोल भील संदेशा लाये। रामहिं मिलन भरत वन आये।।
राम लछमन सोच में दोचित। संग भरत क्यों सेना पोषित।।
चाह भरत निष्कंटक राजू। समर राम से मन में आजू।।
राम निरादर मन में लाई। आज्ञा रामहिं देउँ सिखाई।।
कह लछमन ने चाप चढ़ावा। हेतु राम मति माथ घुमावा।।
राम मगन गगन भई बानी। विपुल बलधाम लखन बखानी।।
राम सुझाये सुनि सुर बानी। सके न राज भरत भटकानी।।
उचित अनुचितहिं पहले परखो। बोले राम धीर धर बरसो।।
राम कह भरत धरमहिं रूपा। चाह न उनकी बनना भूपा।।
रामहिं देखि भरत झट धावा। लगा रंक पारस मणि पावा।।
गिरे राम-पद ज्यों ही आये। मातु कि करनी खेद जताये।।
रामचंद्र उठाय उर लाए। भ्रात मिलाप न बरनी जाए।।
हर्षित राम भरत सम भाई। सुरगण गगन पुष्प बरसाई।।
गुरु को देख राम अनुरागे। करन प्रणाम दंडवत लागे।।
रामहिं मिल जे कुटी पधारे। मिटी थकान अतिथि जो धारे।।
अमृत सम जिसका नाम, भज ले रे मन राम।
जटा मुकुट जिसके सिर पर , तन धारे पीत परिधान
हाथों में ले धनुष व बाण, करता जो सबका कल्याण;
परमानन्द का धाम, भज ले रे मन राम।
विपदाओं को हरने वाला। सब संभव करने वाला।
जगत का है वही रखवाला। सुख सम्पति देने वाला।
हर कष्ट मिटाये राम, भज ले रे मन राम।
सभी तीर्थों से वो ऊपर। मिल जाती मुक्ति भजकर।
सभी गुणों का है वो धाम, भक्तों का कृपा निधान।
प्रातः हो या शाम, भज ले रे मन राम।
प्रभु रूप अनूप सगुण निर्गुण, अनादि अनंत अगोचर हो।
प्रेरक-सत्य अव्यक्त अजन्मा, बदन घनश्याम मनोहर हो।
मुख-सरोज राजीव विलोचन, विशाल बाहु बल असीम धरे।
सर प्रचंड दसशीश विखंडन, जे सकल भव भय मोचन करे।
गोबिंद अनादि अनंत अव्यक्त, धरनिधर द्वन्द के हारी हो।
शीतल सदैव निर्मल स्वभाव, ज्ञान विज्ञान के धारी हो।
शोभा वृन्द करुणा के कन्द , जड़ चेतन सारे मोह रहे।
प्रभु साक्षात् प्रकट यहाँ पे, बहुभांति हृदय में सोह रहे।
कामादि खल दल दुर्गुणों से, हरि सदा हेतु अवसान मिले।
मायारहित निर्विकार ब्रह्म, अज व्यापक कहि श्रुति गावत हैं।
करि ध्यान ज्ञान योग विराग, जेहि संत मुनि सुख पावत हैं।
मन व इन्द्रियां जिनके वश में, भक्तों के वश त्रिभुवन स्वामी।
अगम सुगम सम विषम शांत नित, बसहु हृदय मम अंतर्यामी।
उर में रहे प्रभु अविरल भक्ति, हे राम यही वरदान मिले।
हुई दीवानी खुशी के मारे। सबरी के घर राम पधारे।
क्या क्या रक्खा है घर में, ढूंढे एक एक बर्तन सबरी।
करने राम की आवभगत, कर रही बहु भांति जतन सबरी।
कूंचा ले घर अंगना बुहारे। सबरी के घर ...
क्या खिलाऊँ, कहाँ से लाऊँ, अपने राम को कैसे रिझाऊं।
भाता क्या है राम को मेरे, मैं तो अधम कुछ समझ ना पाऊं।
बैठ राम का रूप निहारे। सबरी के घर ...
अपने प्रभु के पांव पखारी, घर चुन कर लायी बेरी सबरी।
चख चख कर वह मीठे छांटी, राम को जूठे परोसी सबरी।
प्रेम भक्ति को हिय में धारे। सबरी के घर ...
भजे जे मुझको होय सुखारे। सबरी के घर ...
इक न इक दिन आएंगे राम, रखी कई वर्ष सबर सबरी।
जाने ना कब राम पधारें, सजाय रखती नित घर सबरी।
राम भजन में जीवन अर्पित, करती रट राम बसर सबरी।
अपने को जो अधम समझती, राम को पा, गयी तर सबरी।
नीच कुल मैं भीलनी हेहू। चरणन मोहिं राम रति देहू।
धरे जाति धरम कुल ख्याति धन गुण धीरज चतुर वीरहीं।
सुनहु कर ध्यान नौ भांति भक्ति, कहउँ मन में जे धारिहौ।
प्रथम भक्ति सत्संग जान तू, द्वि मम कथा रति लगाइहौ।
तीसरी भक्ति गुरुवर की सेवा, चत्वार मम गुण गावहीं।
पंचम भजन जप मन्त्र मम छठ धर शम करम कुछ त्यागहीं।
सप्तम मो में देखि मय जग मो से अधि संत विचारिहौ।
अष्ट यथा लाभ तुष्टी नौ भरोष मम निश्छल राखिहौ।
मम दर्शन फल परम जानि धरे सकल भगति तू साधवी ।
जानती पता जो जानकी की राह बता हे मानवी।
जानत सब मो पूछत रघुबर। जाहु राम तुम पम्पा सरवर।।
राम लखन चलि वन में आगे। लता फूल तरु सुन्दर लागे।।
खग मृग मादा संग सुहाई। सिय बिन रामहिं मन अकुलाई।।
वन में कामदेव का डेरा। करने भ्रमित राम को घेरा।।
काम क्रोध तृष्णा मद माया। सब मिट जाय राम की दाया।।
राम नाम ही जीवन का सच। जग ये सपना हरि को भज।।
पहुंचे राम सरोवर तीरा। पिअहिं जीव सब निर्मल नीरा।
कुमुद मीन जल नाना रंगा। राम विलोकहिं गूंजत भृंगा।।
चारु विटप मुनिन्ह गृह छाये। कोकिल कूक राम मन भाये।
ताल नहाइ राम सुख पावा। स्तुति हेतु देव मुनि आवा।।
जहाँ राम थे सुख आसीना। आये नारद साजत वीना।।
गावत राम चरित मृदु वानी। कह नाथ हे कृपा के दानी।।
माँगउँ राम एक वर स्वामी। यद्यपि जानत अंतर्यामी।।
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका। राम नाम श्रेष्ठतम नेका।।
राम नाम जस नभ राकेशा। नाम होय तारा यदि शेषा।।
एवमस्तु कह राम रघुनाथा। नारद तुरत नवाये माथा।।
मैं विवाह जब चाहउँ कीन्हा। काहे राम नाहिं कर दीन्हा।।
संतन के लक्षण रघुवीरा। कहहु राम भव भंजन भीरा।।
प्रौढ़ भये माँ प्रीति करइ पर, स्व-रक्षा सुत बल धारही।
मोह विपिन लइ नारी बसंत, जे जप तप नियम सुखायिनी।
काम क्रोध मद डाह लोभ धरि मायारूप दुखदायिनी।
सकल धरम-सरोज वृन्द तिन्ह, हिम होइ नारी दाहती।
षट-विकार तज पुण्य अकाम सुचि सत्यसार धरि ज्ञानही।
सतर्क मानद मदहीन धीर, धरम-प्रवीण सम भावही।
रहउँ संतवश कारण एहि धरि निर्मल सरल स्वभावही।
जप तप व्रत संयम नियम दम से ईश्वर से प्रेम करे।
विवेक विराग विनय विज्ञान वेद पुराण का ज्ञान धरे।
करि श्रवण गात मम लीला अरु परहित में मन लगावही।
सुनु मुनि गुण संतन के ना सकत शारद वेद बखानही।
अस गुण संत हरि निज मुख कहे। सुनि मुनि राम पद पंकज गहे।।
युवती तन मन हो न पतंगा। राम भजन कर अरु सत्संगा।।
राम चरित जे सुनहिं गावहीं। तप विराग बिन राम पावहीं।।
किष्किंधा काण्ड
पूरी करता
देवों से सेवित राम, वेदों से वन्दित राम।
बल जिनका अतुलित राम, निशाचरों पर विजित राम।
ज्ञान विज्ञान के धाम; बोलो राम राम राम।
धनुष बाण के धारक राम, पापों के निवारक राम।
दैत्यों के संहारक राम, त्रिपुरारी के उपासक राम।
बना देते बिगड़े काम; बोलो राम राम राम।
श्यामल रूप सुहावन राम, अतिशः वो मनभावन राम।
सुख के हैं बरसावन राम, सबसे जग में पावन राम।
अमृत सा जिनका नाम; बोलो राम राम राम।
देखि राम कह सुनु हनुमाना। कौन पुरुष दोऊ बलवाना।।
गए कपीश सुग्रिव निर्देशा। राम समीप विप्र के वेशा।
को तुम श्यामल गौर शरीरा। रामहिं पूछत हनुमत वीरा।।
राम लखन दशरथ के जाए। तात वचन धरि वन को आये।।
हमहि राम सीता मम दारा। निशिचर कोइ सघन वन हारा।।
राम उठाइ विप्र उर लावा। हनुमत प्रकट रूप निज आवा।।
माया वश मैं फिरउँ भुलाना। कारण राम नहीं पहचाना।।
जानउँ ना कछु भजन उपाई। मोहिं राम काहे बिसराई।।
पर्वत श्रृंग सुग्रीव निवासा। हे प्रभु राम ते तव दासा।।
राम अभय करि बालिहि सोई। सिया खोज में सेवक होई।
राम लखन लइ पीठ चढ़ाई। जाइ सुग्रीव कराइ मिताई।।
साधु बनकर राम जहाँ पर, आयो हनुमान जी।
रघुवर के चरणों में माथ, नवायो हनुमान जी।
देख मनहर छवि पम्पा की, भये मुग्ध श्रीराम।
पम्पा सरवर के उन्ह दरश, करायो हनुमान जी।
प्रभु राम को उनकी कथा सब, बतायो हनुमान जी।
वानरराज सुग्रीव से लाय, मिलायो हनुमान जी।
सुनहु राम यहाँ एक बारा। सह मंत्रिन्ह कर रहउँ विचारा।
राम राम हा राम पुकारी। नभ मग जाइ रही इक नारी।।
हमहि देख पट वसन गिराये। राम को ला सुग्रीव दिखाये।।
सुनहु राम त्यागहु आकुलता। खोज जानकी हमरी चिंता।।
रामचंद्र मम बालि सहोदर। भया शत्रु बस एक बात पर।।
सुनहु राम मम इक पखवारा। बालि बिठाकर मांदहि द्वारा।।
मायावी सु करने लड़ाई। खोह राम हे घुसि मम भाई।।
मोहिं राम वह रिपु सम मारा। छीना सरबस अरु मम दारा।।
दीन्ह राम सुग्रीव दिलासा। हरऊँ कपि तव सकल विषादा।।
राम वचन सुन गदगद होई। आज्ञा नाथ करब कह सोई।।
चले राम ले सर धनु हाथा। भेजि सुग्रीवहिं बालि निवासा।।
राम बल पाय बालि के द्वारा। जाय सुग्रीव उसे ललकारा।।
दौड़ा बालि नारि समुझावा। नाथ सुग्रीव राम बल पावा।।
सुग्रीव बालि कहि तृण कि भाँती। राम कर मरउँ सदगति भागी।।
बोले राम रूप सम दोऊ। भ्रम ते नाहीं मारउँ सोऊ।।
पहना राम सुमन के माला। भेजे पुनि बल देइ विशाला।।
पुनि दोनों में घोर लड़ाई। विटप ओट सर राम चलाई।।
गिरा बालि खा बाण कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा।।
मैं बैरी सुग्रीवहिं प्यारा। कारण केहि राम मह मारा।।
राम बालि तन खींचहिं तीरा। कहो प्राण युत रखउँ शरीरा।।
मोक्ष काल प्रभु दर्शन प्यारा। देहु राम मम भक्ति अपारा।।
मम सम बली राम तव दासा। राखउ अंगद अपने पासा।।
भांप ली पहले ही,तारा, आया था जो काल सुनो।
बड़ा समझाई, पर न माना, अभिमानी था बालि सुनो।
सब समझाए बन जाओ सुग्रीव की महरानी हो।
युवराज बनवा ली लाल को, किष्किंधा में।
धारी माथ परम ज्ञान को, किष्किंधा में।
राम लीन्ह सुग्रीव बुलाई। राज की नाना निति सिखाई।।
विपिन मनोहर शैल अनूपा। राम विराजै मंगलरूपा।।
राम विलोकि घटा घनघोरा। गरजत बरसत नाचत मोरा।।
छलकत चलि सरि भरि जल सोई। हर्षित मही राममय होई।।
धरि वसन हरा शोभित धरा, घन जहँ तहँ छटा बिखेरहीं।
बरसात बीति उदित अगस्त, ऋतु शिशिर वसुधा निखारहीं।
खग खंजन स्वच्छ आकाश निर्मल भूमि कहुँ कीचड़ नहीं।
गूंजत भ्रमर निशि ताप हरे शशि पाप हरे जस संतहीं।
मिटे बरसाती जीव जस पाय सद्गुरु भ्रम संशय मिटै।
लगाय टकी चकोर चन्द्रमा जस भक्त हरि को ध्यावहीं।
राम सोचत शरद ऋतु सोहई, सिय सुधि नाहीं पावहीं।
वर्षा बीति शरद ऋतु आयी। सोचत राम न सिय सुधि पायी।।
नृपहिं चरण हनुमत सिर नावा। राम काज उन्ह याद दिलावा।।
कह लछमन तुम भय ना खायी। कारज रामहिं सोइ भुलाई।।
रघुपति राम सुयश गा तारा। विनय कर लखन कोप उतारा।।
राम की माया बड़ी अजूबा। रहा विषय में सुग्रिव डूबा।।
नाथ हुई अब ऋतू सुहानी। राम काज लइ दूत पठानी।।
रामप्रिया सब खोजहु जाई। एक माह में आयहु भाई।।
कारज राम पाय हनुमाना। आपन जनम सुफल करि माना।।
राम हनुमान निकट बुलाई। काढ़ि मुद्रिका उन्हें थमाई।।
देहु जानकी रामहिं चीन्हा।आयउँ भीतर एक महीना।।
राम काज करिबै को आगर। हर्षित चले दिशा चहुँ वानर।।
अंगद नील जामवन हनुमत। चलि सिय खोजन रामहि सुमिरत।।
चले नदी वन पर्वत खोहा। राम काज विसारि तन छोहा।।
लगे अकुलाने प्यास के मारे। राम रटत ढूंढत जल सारे।।
राम कृपा अस होइ विशेषा। गिरि चढ़ि कपि गुफा एक देखा।।
घुसे राम की जय कर अंदर। भीतर उपवन मंदिर सरवर।।
स्वयंप्रभा थी रामहिं ध्याना। सबहिं कराइ सुरुचि जलपाना।।
आँखें मूँद कहो श्रीरामा। मारग पायउ तुम्हरे कामा।।
नयन मूँद पुनि खोलहिं वीरा। माया राम सिंधु के तीरा।।
स्वयंप्रभा गइ जहँ रघुनाथा। राम कमल पद नाई माथा।।
लेइ राम से आशीष परम। जाई प्रभा बद्रिका आश्रम।।
कारज राम विषय तट सागर। करत विचार परस्पर वानर।।
जामवंत बहु कथा सुनावा। राम ब्रह्म अज अजित बतावा।।
सुनि बतकही कहहि सम्पाती। दीन्ह राम भोजन बहु भाँती।।
अंगद कह मन सोच उपाया। राम काज जटायु तजि काया।।
सुनि सम्पाति बंधु की करनी। आय समीप राम गुण बरनी।।
सम्पाती निज कथा सुनावा। मिलिहैं राम दूत वर पावा।।
गिरा गगन से पंख जरावा। राम काज करिबै दिन आवा।।
लंका अशोक उपवन अहई। रामप्रिया तहँ दोचित रहई।।
देखउँ सिन्धु पार शत योजन। राम कृपा गिध दृष्टि विलोकन।।
लांघ सके विशाल जो सागर। ढूंढे सिया राम बल पाकर।।
राम कृपा गिध पुनि पर पावा। सागर लाँघ उपाय सुझावा।।
राम दूत सब बल अजमाई। सक्षम नाहिं पार जे जाई।।
जामवंत कह सुनु हनुमाना। राम कृपा तुम अति बलवाना।।
राम काज लइ तव अवतारा। सुन हनुमान पर्वताकारा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लाघउँ सिंधु राम लइ खारा।।
जाय गिराऊं रावण मारी। राम को देउँ त्रिकुट उखारी।।
निशिचर मारि राम सिय आनी। जइहैं यश रघुवीर बखानी।।
रामहिं यश भेषज सुखकारी। सिद्ध मनोरथ सुनि नर नारी।।
नील कमल सम श्यामल काया। नाशहिं पाप राम गुण गाया।।
कोमल काया, जिन वश माया, श्याम रूप सुहावन।
अति मन भावन, सुख बरसावन, जग में सबसे पावन
अमृत है जिनका नाम, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम।
लोचन सरोज, पीत परिधान, कर में धनुष व बाण।
सिर जटा मुकुट, सुन्दर तिलक, तन भूषण शोभायमान
भक्तों के कृपा निधान, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम ।
रघुकुल नायक, भजन के लायक, जो त्रिभुवन के पालक।
पाप निवारक, दैत संहारक, शिव जी के उपासक।
जो परम आनंद के धाम, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम ।
बल अतुलित, वेदों से वन्दित, सभी गुणों के धाम।
ऋषि मुनि देवों से जो सेवित, हैं जग के कृपानिधान।
जिनसे सकल ज्ञान विज्ञान, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम।
ब्रह्मा विष्णु शिव में जो, वाणी, शब्द, अक्षर में जो।
ज्योति और कृशानु में जो, वायु, तोय, दिनकर में जो।
जो वेद पुराणों के प्राण, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम।
राम बखानि कहहि जमवन्ता। हर्षित अतीशः सुनि हनुमन्ता।।
सिंधु तीर एक पर्वत सुन्दर। रामदूत चढ़ेउ ता ऊपर।।
जस अमोघ रामहिं कर बाना। चले तीव्र गति अति हनुमाना।।
जलनिधि देखि दूत श्रीरामा। कह मैनाक देहु विश्रामा।।
गिरि छू कपीश कीन्ह प्रणामा। राम काज पूरहिं विश्रामा।।
रामदूत वहं आवत देखा। सुरसा कह आहार विशेषा।।
सुनत वचन कह पवनकुमारा। राम काज कर बनउं अहारा।।
सुन अबहीं जावन दे माई। राम काज करि तव मुख जाई।।.
वहि तब योजन बदन पसारा। कपि कह राम दुगुन विस्तारा।।
सोलह योजन मुख ते करऊ। रामदूत झट बत्तिस भयऊ।।
शत योजन जब आनन कीन्हा। रामदूत सूक्ष्म हो लीन्हा।।
सुमिर राम कपि मुख में जावा। सुरन्ह बल बुद्धि मरम दिखावा।।
आशिष पाइ चले हनुमाना। राम काज करिबै को ठाना।।
छायाग्रही सिंहिका आवा। रामदूत धरि मारि गिरावा।।
लांघे सिंधु राम की माया। पहुँचि पवनसुत धरि लघु काया।।
सुमिरि राम निहारहीं लंका। धरि निशाचरी लंकिनि शंका।।
रामभक्त को वह ललकारी। कहवाँ जाइ कीट तन धारी।।
अंजनिसुत मुक्का इक मारी। गिरी लंकिनी राम पुकारी।।
लंकिनी मनहि धन्य मनावा। रामदूत के दर्शन पावा।।
जाहु नगर भीतर कपि राजा। हृदय राम रखि करि सब काजा।।
अपरम्पार राम की माया। जो कुछ जग में वही बनाया।।
अति लघु रूप धारि हनुमंता। सुमिरत राम घुसहिं पुर लंका।।
रामप्रिया को खोजत कपिवर। भीतर महल रूप सूक्ष्म धर।।
अचरज देखि नगर में मंदर। राम जपत साधु कोउ अंदर।।
विप्र रूप धरि गए हनुमाना। रामहिं भक्त विभीषण जाना।।
राम कथा हनुमंत सुनावा। वैदेही खोजत यहँ आवा।।
राम चरित्र विभीषण भावत। पुलकित दोनों सुनत सुनावत।।
कृपा राम की तव यहँ आवा। सियहिं विभीषण हाल बतावा।।
उपवन अशोक सुनु कपि अहहीं। जाउ रामप्रिय जहवाँ रहहीं।।
कपि लघु रूप वाटिका जाई। सुमिरि राम तरु पात लुकाई।।
देखि दुखित कपि सीता दीना। मनहीं राम कमल पद लीना।
रावण आकर भय देखावा। सीता अडिग राम चित लावा।।
रामहिं बल न जानेउ पापी। तुम्हरे दर्प मिलइहैं माटी।।
निशिचरिन्ह कह महल को जायउ। रामप्रिया पर त्रास बढ़ायउ।।
त्रिजटा दनुजा गुणी विवेका। चरणन राम रति अति विशेषा।।
देखि स्वप्न कह सियहिं पुकारी। रामदूत आ लंका जारी।।
दसमुख प्राण राम हर लीन्हा। लंका-भूप विभीषण कीन्हा।।
सीता अपनी व्यथा बताई। राम गए कहुँ मोहिं भुलाई।।
त्रिजटा सुनि सियहिं समुझावा। राम महिम बल सुयश सुनावा।।
तबहीं कपि करि हृदय विचारी। अंकित राम मुद्रिका डारी।।
सीता देख चकित अति भारी।। मुदरी राम दीन्ह को डारी।।
रामप्रिया विचारि करि नाना। मधुर वचन बोले हनुमाना।।
रामदूत मैं मातु जानकी। मुदरी यह करुणानिधान की।।
राम कथा कपि बरनै लागा। सुनत सिया का सब दुख भागा।।
सुनिय राम गुण सिय विश्वासा। कह नहिं सहन होय अब त्रासा।।
अइहैं राम शीघ्र अति माई। हरिहैं तव सब दुख रघुराई।।
कह कपि हृदय धीर धरु माता। सुमिरउ राम सकल सुखदाता।।
जे प्रभु राम होत सुध पाई। करते नहीं देर रघुराई।।
रामचन्द्र शीघ्र अति अइहैं। निशिचर मारि तोहिं ले जइहैं।।
अबहीं मातु मैं संग ले जायउ। राम से पर न आयसु पायउ।।
सीता ने संदेह दिखावा। रामदूत निज रूपहिं आवा।।
रामप्रिया से अनुमति पाई। चले कपीश चारु फल खाई।।
रावण पठये सब रखवारे। रामदूत हाथों गय मारे।।
रावण सुत अक्षय जब आया। रामदूत ने स्वर्ग पठाया।।
देखि राक्षस विनाश रावण, सुत इन्द्रजीत पठावहीं।।
तुम हो बल के धाम जे वोहि, लघु कीश को धरि लावहीं।।
हनुमान उखाड़ मार तरु से, रथ के कई टुकड़े किये।।
लंकेशसुत को मारि मुक्का, झट उछल तरु पर जा चढ़े।।
अभिमंत्रित कर किया मेघ ने ब्रह्मास्त्र का संधानहीं।।
तटस्थ हुए तब हृदय धारि हनुमान राम का ध्यानहीं।।
ब्रह्माजी का करि सम्माना। बँधेउ राम सुमिरि हनुमाना।।
राम काटते बंधन भव के। दूत बंध गए कारज उनके।।
रावण सभा मेघ ले जावा। हनुमत राह राम को ध्यावा।।
वानर कौन कहाँ से आया। रामहिं दूत उन्हहीं पठाया।।
धरि जे राम विविध अवतारा। बार बार राछस संहारा।।
चले बल जाके सृष्टि सारी। हर लाये तुम राम कि नारी।।
सोइ प्रभु राम से बैर न कीजै। मातु जानकी लौटा दीजै।।
रावण तुम निज कुलहि विचारी। भजहु राम उर भक्ती धारी।।
राम नाम बिनु कंठ न सोहा। देहु त्याग रावन मद मोहा।।
राम विमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई ना पाई।।
होहिं मोह मद अति दुखदायक। भज सब त्याग राम रघुनायक।।
राम गुणगान सुनि लंकेशा। पूँछ जरायउ कह आवेशा।।
जेहि राम की करत बड़ाई। पूंछहीन वानर वहं जाई।।
पूंछ लपेटहिं वसन निशाचर। रामदूत करि बड़ी बढ़ाकर।।
वसन लपेट घृत तेल सोखावा। रामदूत को नगर घुमावा।।
कपि पूँछहिं जब आग लगाई। राम नाम लइ लंक जराई।।
नगर निवासी अति अकुलाई। त्राहि माम् करि राम दुहाई।।
रामदूत सागर को जाई। लागि पूंछ की आग बुझाई।।
जा कह देहु मातु कछु चीन्हा। जैसे रामचंद्र ने दीन्हा।।
तात मोर चूड़ामणि लीजै। रामहिं मम संदेशा दीजै।।
मास दिवस जे राम न आयउ। वैदेही को जीवित न पाययु।।
राम कपीशहिं आवत देखा। पूर काज मन हरष विशेषा।।
राम हरषि हनुमत उर लाये। कपि उन्ह चूड़ामणी दिखाये।।
राम विरह में सीता जरई। भारी विपति न जाई कहई।।
राम कह कोउ नाहिं तनधारी। कपि तुम सम सुर नर उपकारी।।
राम वचन सुन हरषि कपीशा। निहुरि परेउ चरण जगदीशा।।
पूछि राम भांति केहि लंका। दहेउ जाई तुम हनुमंता।।
बोलि कपीश राम रघुराई। मम करनी राउर प्रभुताई।।
राम कृपा ना अड़चन कोई। राम सुमिरि सब मंगल होई।।
बोलि कपिन्ह रामहिं जयकारा। आज्ञा दें प्रभु लंक प्रहारा।।
कीश राम कृपा बल पावहीं। चले रावण पाठ सिखावहीं।।
राम सिंधु तट लेकर दलबल। भय आकुल लंका में हलचल।।
मय-पुत्री रावण समुझावा। भार्या राम देहु लौटावा।।
राक्षस झुंड मेढ समाना। विषधर नाग राम कै बाना।।
राम बखान न दसमुख भाया। मंदोदरी सुमति ठुकराया।।
बैठउ सभा सूचना पायी। सेना राम सिंधु तट आयी।।
विभीषण कह चाह कल्याना। जानहु राम सृष्टि भगवाना।।
काम क्रोध मद नरक के पन्था। भजहु राम भजहिं जेहि सन्ता।।
राम नहीं नर जग रखवाला। अनादि अनंत कालहु काला।।
कृपा सिंधु मानुष तन धारी। गो द्विज देव राम हितकारी।।
तेहि राम से बैर न करहू। सीता देइ नाम उन्ह भजहू।।
राम नाम तहँ संपत्ति नाना। राम विमुख वहं विपति निदाना।।
सुनि गुण राम कुपित लंकेशा। लात मारि निकालहीं देशा।।
मारि मोहि भले ही भ्रात मम, पिता समान तुम्ह मानहीं।
चलउं त्याग राज तोहार हित, राम भजन और ध्यानहीं।
चलेउ विभीषण हरषि तत्पल, रघुबर शरण सुख-दायिहों।
जिन्ह चरणन उर-भरत पादुका, दरश उन्हकर नित पाइहौं।
मारग वायु राम शरणागत। कीन्ह विभीषण लेटि दंडवत।।
राम! दशानन का मैं भ्राता। शरण लेहु मो अपन विधाता।।
रहउ ठाढ़ि छवि राम विलोकी। विभीषण पलक एकटक रोकी।।
रावण निशिचर दुष्ट सुभावा। राम ताहि राज्य तजि आवा।।
लोभ मोह मत्सर मद माना। राम नहिं बसत उर खल नाना।।
सगुण उपासक परहित प्रेमा। राम कह करउँ ते जन क्षेमा।।
तुम्हरे उर गुण सकल समाया। कह उर लाय राम रघुराया।।
लंकापति अब तुमही सुहावा। राम कह राजतिलक लगावा।।
पूछसि राम लंक भूपाला। केहि विधि पार जलधि विशाला।।
चाहेउ राम बाण चलाई। क्षण में सागर देउ सुखाई।।
सिंधु प्रतिष्ठा राम विचारी। विनय करि देहु मग जलधारी।।
सखा कही तुम नीक उपायी। बैठे राम तट कुश बिछायी।।
रावण भेजे पाकर अवसर। राम शिविर घुसे दो गुप्तचर।।
शुक जासूस बांध कपि लाये। राम अनुज हँसि उन्हें छुड़ाये।।
वापस भेजहिं देइ संदेशा। रामहिं भय करि कहु लंकेशा।।
रामचंद्र हैं बड़े कृपाला। जनि बुलायहू आपन काला।।
राम को लौटा दे जानकी। त्राण कर अपनों के प्राण की।।
दूत नाइ लछमन पद माथा। गावत चले राम गुण गाथा।।
दूत लौट सब कही कहानी। रामहिं गुण लंकेश बखानी।।
सैन राम जनि जानहुँ वानर। हरेक उनमें बल का सागर।।
रामचंद्र त्रिलोक के स्वामी। बैर लेहु नहीं तिन्ह से स्वामी।।
मारि कुपित हो रावण लाता। चलि शुक शरण राम रघुनाथा।।
विनय तीन दिन जलधि न माना। राम उठाय तानि धनु बाना।।
कोपहिं राम उदधि भय खायी। जीव जंतु सब लगि अकुलाई।।
गहि पद सिंधु राम रघुराई। नाथ ना हरहुँ मोरि बड़ाई।।
राम नील नल कपि द्वौ भाई। परस किये गिरि जल तर जाई।।
तिन्ह वरदान प्रयोगहिं लाई। लेहु राम सिल सेतु बनाई।।
मंगलदायि राम गुण गाना। सादर सुनहिं तरहिं भव नाना।।
लंका
प्रसन्न हो प्रभु मन में बसते, जो भजते श्रीराम।
सफल मनोरथ होते
उनके, जो भजते श्रीराम।।
बिगड़ी बनाने को पर्याप्त, लेना हरि का नाम।
दूर करते, पापों को मन के, जो भजते श्रीराम।।
करने से ही नाम स्मरण, पूरे होते काम।
मन विकार सब ही के हरते, जो भजते श्रीराम।।
चरण तुम्हारे, मेरे स्वामी, सभी सुखों के धाम।
शरण में प्रभु की वे ही बसते, जो भजते श्रीराम।।
पड़ी है नइया, मेरी भंवर में, आकर के तू थाम।
भव से बेड़ा, पार लगाते, जो भजते श्रीराम।।
भज ले प्यारे, नाम है पावन, कौड़ी लगे न दाम।
भंडार सुखों का, उनके भरते, जो भजते श्रीराम।।
क्यों ना भजता राम नाम मन। पार करे भव जिनका वंदन।।
काल राम के धनुष समाना। कल्प वरष युग जिन्हके बाना।।
सिंधु वचन सुन मंत्रि बुलावा। राम शीघ्र कह सेतु बनावा।।
विटप शिला उखाड़ि जस खेला। राम सुमिरि थमाय नल नीला।।
छुवत नील नल गिरि कपि लाई। राम कृपा जल पर तर जाई।।
सुन्दर सेतु सुदृढ़ बनावा। रामचंद्र के मन अति भावा।।
राम कह भूमि यह मनभावन। इस थल करउँ शम्भु अस्थापन।।
राम वचन सुनि दूत पठाये। सुग्रीव ऋषि मुनि सकल बुलाये।।
जे भक्त शिव शम्भू ध्यावहीं। राम कृपा अति सहज पावहीं।।
जे रामेश्वर दर्शन करहीं। राम कह तन तजि मुक्ति तरहीं।।
रामसेतु चढ़ि चलि रघुराई। दर्शन करि जलचर उतराई।।
मकर व्याल नक् जीव विशाला। राम दरश करि होइ निहाला।।
आयसु राम चले कपि पायी। देखत बनि कपि दल विपुलाई।।
सिंधु पार कपि डालहिं डेरा। लंका नगर राम भय घेरा।।
समाचार अस रावण पावा। सागर बांध राम यहँ आवा।।
मंदोदरी बोलि सिर नाई। रामहिं देहु सिया लौटाई।।
तुमहि राम में अंतर ऐसा। भगजोगिनी भानु के जैसा।।
राम विरोध नाहिं करि नाथा। काल करम जीव जेहि हाथा।।
बुद्धि शक्ति, शम-यम-नियम तीर, विजय उपाय ना दूजही।
राम कह रथ-धरम अस जाकें। जीत सकइ रिपु वीर न ताकें।।
राम शक्ति कपि निसिचर मारहिं। गहि पद पटक अवनि पर डारहिं।।
कपि धरि मसल लागि दसकंधर। त्राहि राम करि भागहिं बन्दर।।
रक्षा करउ हे राम गोसाईं। दानव दलत काल की नाईं।।
विकल देखि दल चलि धनु हाथा। लछमन नाइ राम पद माथा।।
राम सुमिरि करि शेष प्रहारा। उभय ओर बाणों की धारा।।
दसमुख शक्ति लखन उर लागी। मूर्छित भये राम अनुरागी।।
माया राम लखन उठ जागे। शत सर साथ असुर उर दागे।।
आहत दनुज छाड़ि रण भागा। राम विरुद्ध यज्ञ करि लागा।।
रावण यज्ञ राम सुधि पाए। करहु विध्वंस सुभट पठाये।।
ध्वंस लौटि राम यहँ बन्दर। क्रुद्ध कालमुख चलि दसकंधर।।
देव करि अस्तुति हरि अनंता। करहु राम अब खेलहि अंता।।
धारि सारंग कटि कस बाना। राम चले हति पापहिखाना।।
राम असुर रण अस घनघोरा। गर्जत चमकत घन चहुँ ओरा।।
कोप बाण रामहि प्रलयंकर। कीन्ह धूरि सब दनुज भयंकर।।
माया रचा अपार दशानन। राम समझ सो करि निस्तारन।।
देवन्ह रामहि पैदल देखा। झट पठाय रथ इंद्र विशेषा।।
विप्रहिं चरण राम सिर नावा। द्वन्द युद्ध रथ हेतु चलावा।।
कहि दुर्वचन क्रुद्ध दसकंधर। छोड़े राम ओर अगणित सर।।
छाड़ि अनल-सर राम रघुवीरा। दीन्ह जराय निशाचर तीरा।।
कोटिन्ह आयुध अस्त्र चलावा। राम सहज ही काट गिरावा।।
तीस तीर प्रभु राम चलाये। शीस भुजा कट पुनि उगि आये।।
पुनि पुनि काटि राम भुज शीशा। शीस भुजा छाये चहुँ दीशा।।
त्रिजटा कथा सुनाइहिं सीता। रामप्रिया सुन भइ भयभीता।।
त्रिजटा कहि सीता समुझाई। राम जगदीश जानहु माई।।
नाना माया रचा दशानन। कीन्ह राम क्षण सहज निवारन।।
कहि विभीषण नाभि में याके। सुधा राम जीयत बल ताके।।
राम छाँड़ि पुनि सर इकतीसा। चले बाण ज्यों काल फणीसा।।
एक से राम सुधा सुखाये। काटि भुजा सिर शेष गिराये।।
धरनि धंसी धड़ गिरा प्रचंडा। राम कीन्ह सर हति दुइ खंडा।।
भुजा शीस मंदोदरि आगे। धरि सर रामहि तरकस साजे।।
रावण तेज राम के आनन्। हरषे देखि शम्भु चतुरानन।।
बरसहिं सुमन देव मुनि वृन्दा। जय श्रीराम जय हे मुकुंदा।।
जय कृपा के कन्द द्वन्द के हर्ता राम सदा सुखदाता हो।
दुष्ट विदारक कष्ट निवारक करुणा कृपा के प्रदाता हो।
कारण के कारण जग के पालक व्यापक सृष्टि विधाता हो।
विजय के दायक भजन के लायक ब्रह्म जीव के नाता हो।
राम विभीषण ओर विलोका। रावण क्रिया करहु तज शोका।।
बोले राम जाहु ले लछमन। राजतिलक करि देहु विभीषन।।
राम पवनसुत लंक पठाये। सीता कुशल जाइ ले आये।।
सिय कह जतन करहु अस ताता। देखौं शीघ्र राम मृदु गाता।।
हर्षित राम सन्देश पायहु। कह सादर सीता लै आयहु।।
मन में भांप राम की इच्छा। दी बैदेही अग्नि परिच्छा।।
राम वाम सिय बैठि साजहिं। गगन देव सुमन बरसावहिं।।
रावण नष्ट देव सुख पावा। मिलि आकाश राम यश गावा।।
राम अजित अमोघ करुणामय। अगुन ब्रह्म तुम अनघ अनामय।।
जब जब राम सुरन्ह दुख पायो। नाना तन धरि कष्ट मिटायो।।
तुम्ह राम देवता उपकारी। त्राहि माम सब शरण तिहारी।।
देवता गण जहँ तहँ करि विनती। अस्तुति राम कीन्ह ब्रह्माजी।।
स्तुति
श्रीरामचरितमानस से उद्धृत
जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।
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तेहि अवसर दसरथ तहँ आये। राम विलोकि नयन जल छाये।।
राम पिता पद वन्दन कीन्हा। आशिर्वाद तात तब दीन्हा।।
दिव्य रूप प्रभु राम दिखाये। पितु तजि भेद भक्ति उर लाये।।
रामहिं करि बहु बेर प्रणामा। धरि हिय भक्ति गए सुरधामा।।
सुरपति रामहि शोभा देखी। अस्तुति किन्हीं हरषि विशेषी।।
जय राम प्रताप भुजबल प्रबल, दायक प्रनत विश्रामहीं।
तव धारि तरकस चाप सायक, प्रभु श्रेष्ठ शोभा धामहीं।
बुलाये अवध की प्रीत हो रामा, राम नहीं आये।
अमवा बौराये चौदह बेरी, काहे को प्रभु, कर रहे देरी,
चले गए चौदह चईत हो रामा, राम नहीं आये।
अयोध्या में, भरत अकुलाये, तकते राह, नयन को गड़ाये,
घड़ियाँ न होत व्यतीत हो रामा, राम नहीं आये।
आरती लिए खड़ीं महतारी, जोहें अवध के, सब नर नारी,
गाने को मंगल गीत हो रामा, राम नहीं आये।
संदेशा ले आये, आवन की, आ रहे राम, लछमन जानकी,
कपि किये सबको हर्षित हो रामा, राम देखो आये।
माया भक्ती दोनों नारी। केवल भक्ति राम को प्यारी।।
महिमा राम न जानत कोई। जानि राम
कृपा जेहि होई।।
राम नाम ही जीवन का पथ। राम नाम पुण्यों का रथ।
राम नाम युग युग की भक्ती। राम नाम में अद्भुत शक्ती।
मंगल भवन अमंगल हारी। भजे राम नित हिय में धारी।
तोड़े शिव का धनुष जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
धारे कुटिल विचार मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
वर मांगी ले सीख अधम की, रामचंद्र को विपिन पठाई।
सेवा कीन्ह दिलाकर गुरु का, दुष्ट निशिचरों से छुटकारा।
हो गइ पाहन शाप के कारण, देवि अहिल्या को है तारा।
प्रभु राम चले वनवास सखे, आज्ञा तात का सिर पे धारे।
रक्षा करने हेतु धरम की, दानव दैत्यों को संहारे।
सूर्पणखा जो कीन्ह ढिठाई, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
जाय बिलखती लंका नगरी, भाई रावण को भड़कायी।
माया के वश आ के मांगीं, सीता स्वर्णिम मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं सीता, कपटी रावण ने हर डाला।
राम सदैव भक्त के वत्सल, जूठे बेर सबरी के खाया।
सिंधु कृपा के हैं भक्तों के, पवनतनय को हृदय लगाया।
बालि से रक्षा की सुग्रीव की, अपना मित्र विशेष बनाया।
सेना भेज सुग्रीव वानरी, देवि सिया का पता लगाया।
करते उछल कूद उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।
सीख दुष्ट को दीन्ह विभीषण, गया निकाला अपने घर से।
घर का भेद दिया रघुवर को, नाभि सुधा को सोखे सर से।
सँजीवनि बूटी गिरि से ला, कपि लछमन के प्राण बचाये।
राम लखन मिल दसकंधर का, सारा कुटुंब सुरलोक पठाये।
कर के बैर राम से रावण, स्वयं, स्वयं का काल बुलाया।
सोने की लंका को उसकी, कपि ने जैसे फूस जलाया।
नेति की बात कही सब ही की, रावण ने तत्पल ठुकराया।
दुष्टदलन की नीति राम की, लंकापति पर विजय दिलाई।
धीरज, धर्म, विवेक, वीरता से दैत्यों से मुक्ति पायी।
रावण के साथ मरे लाखों, पुत्र, मित्र व सगे सम्बन्धी।
तज द्वेष, दम्भ, घृणा, अदाया; करुणा, प्रेम, क्षमा को धारो।
धारे भिन्न चरित्र पृथक गुण; सीख समझ के करम सुधारो।
भाई, पुत्र, मित्र, दास और, लघु से होवे व्यवहार उचित।
कितनी भी हो बली बुराई, होना होता उसे पराजित।
हमें शरण मिले, हे राम! तुम्हारे चरणों में
दीनदयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु राम मम संकट भारी।
धरे हुए सोने की काया। मारीच मृग बनकर आया
राम चंद्र की अद्भुत माया
लोचन सरोज, पीत परिधान, हाथों में धनुष अरु बाण।
सिर जटा मुकुट, सुन्दर तिलक, तन भूषण शोभायमान
भक्तों के कृपा निधान, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम ।
रघुकुल नायक, भजन के लायक, जो हैं त्रिभुवन के पालक।
पाप निवारक, दैत्य संहारक, शिव जी के हैं उपासक।
जो परम आनंद के धाम, वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम ।
बल अतुलित, वेदों से वन्दित, और सभी गुणों के धाम।
ऋषि मुनि देवों जो सेवित, हैं जो जग के कृपानिधान।
जिनसे सारा ज्ञान विज्ञान; वो हैं मेरे प्रभु श्रीराम।
केसरी नंदन, हो जग वंदन, गुणों के तुम हो निधान;
जय, जय, जय हनुमान।
राम भक्त, वानरों के स्वामी, बजरंग बली तुम अंतर्यामी।
जग में सबसे बलवान; जय, जय, जय हनुमान।
लांघे समुद्र, लंका जलाये, सीता का जा पता लगाये।
बसाये हृदय में राम; जय, जय, जय हनुमान।
दैत्य पिशाच दूर भगाते, उन पर हैं कृपा बरसाते।
जो भजे लगा के ध्यान; जय, जय, जय हनुमान।
देख मनहर छवि पम्पा की, भये मुग्ध श्रीराम।
उन्हें पम्पा सरवर के दरश, करायो हनुमान जी।
ऋष्यमूक अति सुन्दर तुंग, जहाँ के नृप सुग्रीव।
राम को पहचान लिए जब, बतायो हनुमान जी।
राम लखन दोनों भ्रात को, बिठाय अपने कांधे,
कपि नरेश सुग्रीव से लाय, मिलायो हनुमान जी।
गिराया था सीता ने जो, वहां वस्त्र आभूषण,
झट से लाकर प्रभु राम को, दिखायो हनुमान जी।
सौ योजन सागर के ऊपर, उड़ आयो हनुमान जी।
दी मुद्रिका राम की उनको, थमायो
सीता जी को ढांढस देकर, शीघ्र ले जायेंगे राम,
कपि किये सबको हर्षित हो रामा, राम देखो आये
अहिल्या को तारा, भीलनी को तारा।
केवट को तारा, सुग्रीव को तारा।
जटायु का किये उद्धार, करो जी मेरा भी बेड़ा पार।
ऋषि मुनि नारद शुकदेव तर गए।
सृष्टि का तुम आधार, करो जी मेरा भी बेड़ा पार।
रावण को मारा, बालि को मारा।
सहस्रबाहु खर दूषण को मारा।
विभीषण का किये उपकार। करो जी मेरा भी बेड़ा पार।
राम का नाम लेकर
पातक पापी
सुगन्धित मन कानन, भजकर राम
पावन घर आंगन, भजकर राम
प्रभु श्रीराम का कीर्तन करते हैं किन्तु। अत्याधिक वृहत ग्रन्थ होने व समयाभाव के कारण लोग पूरे श्रीरामचरितमानस का पाठ नहीं कर पाते। इस ग्रन्थ में भाषा को भी सरल और बोधगम्य करने का प्रयास किया गया है। प्रभु श्रीराम की कथा कुछ संक्षिप्त और सरल हो जाय तो यह अधिक लोगों तक पहुँच सकती है।
भागीरथी को तो कोई अपने घर में नहीं रख सकता, किन्तु सभी सनातनी छोटे या बड़े पात्रों में गंगाजल अपने घर में रखते हैं। राम माहात्म्य के महासागर से कुछ बूँदें इस ग्रन्थ के द्वारा आप तक लाने का प्रयास किया है।
राम का नाम किसी भी रूप में उर तक पहुंचनी चाहिए
मैं सन्त तुलसीदास का कोटिशः कृतज्ञ हूँ जिन्होंने यह पावन कार्य करने हेतु मुझे प्रेरणा दिया।
उन्होंने श्रीरामचरितमानस के द्वारा प्रभु राम के प्रति अनुराग जगाकर उनकी कृपा पाने का सुअवसर दिया।
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