SD Tiwari
Thursday, 16 January 2020
Maya angelou
माया एंजेलो की कविता 'स्टिल आई विल राइज' पर आधारित
इतिहास में चाहे निम्न करके लिखो,
मुझे
अपने घुमावदार,
झूठे
शब्दों में।
चाहे मुझे
गिरा दो, मिला दो
धूल में,
कुचल दो, पटक कीचड़ भरे गड्ढों में।
मैं फिर भी
उड़ूँगी, चाहे
धूल सी ही उडूं, मैं
उड़ूँगी।
तुम उदासियों से क्यों घिरे जाते हो?
क्या मेरा अदम्य साहस तुम्हें सताता है?
वैसे मैं यह भली प्रकार से जानती हूँ
मेरा वहीं पड़े रहना ही तुमको भाता है।
किन्तु सूरज की भांति और चाँद की भांति,
ज्वार-भाटा की अटल संभावनाओं की भांति,
ऊँची उठ रही आशाओं की भांति, उड़ूँगी
मैं तो
उड़ूँगी, मैं फिर भी
उड़ूँगी, मैं उड़ूँगी।
क्या तुमने मुझे टूटा हुआ देखना चाहा ?
गड़ी ऑंखें, सिर
झुका हुआ देखना चाहा?
आसुओं की भांति मेरे गिरते हुए कंधे
अन्तःमन निर्बल, रोता हुआ देखना चाहा?
उन मलिन गलियों से निकल कर आयी हूँ।
तुम्हारी इच्छाओं के विरुद्ध, बदल कर आयी हूँ।
हर कोई मेरे पंखों को जकड़ना चाहता था,
मगर अब मैं भली प्रकार संभल कर आयी हूँ।
अपने उड़ने के लिए एक बड़ा आकाश ढ़ूढ़ूंगी,
जहाँ मैं ही मैं उड़ूँगी, मैं तो उड़ूँगी, हाँ उड़ूँगी।
क्या मेरी गर्मियां
तुम्हें अपराधी बनाती हैं ?
क्या उनसे तुमको दोषपूर्ण मुश्किलें देती हूँ?
क्योंकि हंसती हूँ, जैसे मेरे पास सोने की खान है,
जिसे मैं अपने ही आंगन से खोद लेती हूँ।
मुझे तुम चाहे अपनी आँखों से काट डालो,
बेशक अपने तीखे शब्दों से मार डालो,
अपनी घोर घृणा में झोंको,
मैं
नहीं मुड़ुँगी।
हवाओं की भांति उड़ूँगी, मैं तो उड़ूँगी, हाँ उड़ूँगी।
क्या मेरे भीतर की कामुकता तुम्हें
सताती है ?
क्या यह सब तुम्हें अचंभित कर देता है -
कि मैं नाचती हूँ क्योंकि हीरों
की मालकिन हूँ,
जो मेरे बदन में ही कहीं छुपा होता है।
मैं लहराता हुआ, विशाल एक सागर हूँ।
फूलती और सिकुड़ती ज्वार सहती गागर हूँ।
अम्बर में, घेरे घन की भांति घुमडूँगी।
मेघ सी उड़ूँगी, मैं तो उड़ूँगी, मैं उड़ूँगी।
बीते शर्म के झोपड़ों से निकल कर, मैं उड़ूँगी।
पिछले गहरे दुखड़ों से उठ कर, मैं उड़ूँगी।
आतंक और डर को पीछे छोड़कर, उड़ूँगी।
एक दिन अनोखे ढंग से पव फूटने पर, मैं उड़ूँगी।
मैं पूर्वजों के दिए सौगात ढो कर लायी हूँ।
मैं दास का सपना और उम्मीद बन के आयी हूँ।
लो मैं उड़ रही, मैं उड़ रही, मैं उड़ रही ....
- एस. डी. तिवारी
४ अप्रैल १९२८ से २८ मई २०१४
माया अंजलौ
एक नारी; जिसे जग ने बहुत सताया था।
वासना के तीर छोड़, गहरे घाव पहुँचाया था।
ज्ञान, गुणों का भंडार थी, उत्साह से भरी थी,
गिर गिर कर के उसने स्वयं को उठाया था।
साहित्य प्रेमी और श्रेष्ठ रचनाकार बनकर,
अंततः जग को हराया था। उसका नाम माया था।
माया अंजलौ।
आत्मकथा हेतु सात पुस्तकें कम थीं।
दशाब्दियों के लिए, ऑंखें उसकी नम थीं।
साहित्यकार, कहानीकार, पत्रकार थी,
अभिनेत्री थी मगर कही गयी अधम थी।
वह सेक्स वर्कर थी, क्लब की डांसर थी,
माँ बाप का नहीं साया था। उसका नाम माया था।
उस पर पड़ी, गरीबी की बड़ी मार थी।
जीवन में परिस्थियों से सदा हार थी।
रंग में कालापन, पर कोयला नहीं थी,
खान में छुपी हुई हीरा चमकदार थी।
उसका भाग्य सदैव मुंह मोड़े ही रहता,
पग पग पर आजमाया था। उसका नाम माया था।
अन्तः के हीरे को उसे स्वयं तराशना था।
संसार तो देखता, उसमें मात्र वासना था।
वह काली औरत थी, बड़ी कलाकार थी,
अपने लिए आकाश स्वयं तलाशना था।
जीवन में कुछ कर दिखाने का उत्साह,
भीतर भरपूर समाया था। उसका नाम माया था।
वह तो एक कोमल लचीली सी लता थी।
किसी वृक्ष के सहारे चढने की क्षमता थी।
वह औरत अवश्य थी, पर अबला नहीं,
उसके भीतर भी बस रही कहीं ममता थी।
तूफानों से लड़ते भिड़ते चलती रही और
स्त्री धर्म को निभाया था। उसका नाम माया था।
उड़ने के लिए बहु भांति फुदकती रही।
इस डाल से उस डाल पर कूदती रही।
कामुक निगाहें उसे नित्य घूरती रहतीं,
वह थी कि अपनी ऑंखें मूंदती रही।
दुनिया ने उसे हर पग पर चोट दिया,
निराशा ही थमाया था। उसका नाम माया था।
दुनिया उसके पंख कतरना चाहती थी।
वह थी, अपने पंख पसारना चाहती थी।
आकाश की ओर ही रखती दृष्टि सदा,
वह तो उड़ना, केवल उड़ना चाहती थी।
एक ऊँची उड़ान, बहुत ऊँची उड़ान पर,
जाकर उसने दिखाया था। उसका नाम माया था।
संसार ने उसकी औरत को मारना चाहा।
जमीन में नीचे, बहुत नीचे गाड़ना चाहा।
उसे किसी भी तौर पीछे नहीं मुड़ना था,
पंख नोचना और घरौंदा उजाड़ना चाहा।
शेक्सपियर, दिक्केंस, डौग्लोक्स से मिली,
पर कुछ भी हाथ न आया था। उसका नाम माया था।
माया अंजलौ
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