Wednesday, 29 January 2020

Khel aur bachche

खेल कूद से स्वस्थ तन-मन। 
खेल कूद से होता मनोरंजन।  

नकारात्मक विचारों से दूर, 
प्रेरणा और साहस से भरपूर,   
शारीरिक क्षमता  में हो वृद्धि  
रहता है मन सदैव प्रसन्न। 
खेल कूद से स्वस्थ तन-मन। 

टीम में साथ चलने की क्षमता 
और बढ़ जाती है एकाग्रता 
समग्र व्यक्तित्व का विकास 
खेल कूद से आता अनुशासन।  
खेल कूद से स्वस्थ तन-मन। 

खेल कूद से ऊर्जा मिलती
अच्छे खेल से ख्याति बढती 
खिलाडी के  लिए है आवश्यक 
अभ्यास, ध्यान और लगन। 
खेल कूद से स्वस्थ तन-मन। 



पप्पू पड़ा रहता घर में ही छुट्टी में। 


क्योंकि दुनिया कर ली है मुट्ठी में। 
जबसे मोबाइल हाथ आया है,
खाने पीने का भी होश नहीं 
अजीब सा रोग लगाया है।  
बाहर कहीं खेलने नहीं जाता  


उसी में सिर गड़ाए रह जाता।
कैरम भी पड़ा कोने में रोता है। 
गेम तो अब मोबाइल पे होता है। 

कैरम पड़ा रोता है
बच्चों का अब तो खेल
फोन पर होता है

सिर पे धार 
परीक्षा का पहाड़
ढोना पड़ता

एक पे एक
बनाया पिरामिड
गिरा हामिद

दिखाया जोश
धूप में दौड़ा जॉनी
हुआ बेहोश

हारती स्वाती
जब कभी खेल में
आंसू बहाती

खेल ही होते
बनाते बिगाड़ते
बच्चों के रिश्ते



बहाना कर
खेलने चला जाता
चंपा के घर

छुपं छुपाई
मोना ढूँढ न पाती
हंसी आ जाती

छुपं छुपाई
जब मिला न भाई
आयी रुलाई

लड़ झगड़
फिर से खेल शुरू
धर पकड़

खेले क्रिकेट
बिना ड्रेस विकेट
हम भी खूब

पैसा न धेला
गली में जा के खेला
पिट्ठू का खेल

उखाड़ देते
हारने पे क्रिकेट
सीधे विकेट


जैसे काटा
भइया की पतंग
पा गया चांटा

मन को भाया
निशानची बनाया
कंचे का खेल

फोन सुनाता
अब हमें कहानी
कहाँ है नानी

लूटने दौड़ा
पप्पू की पैंट फटी
पतंग कटी

हाथी उड़ाया
खेलने में हमने
चिड़िया उड़

छूकर चंपा
आइस पाइस में
बोली थी धप्पा

चोर ढूंढता
खेल छुपं छुपाई
छुपे सिपाही


जी भर कर
खेलने भी न देती
पापा की सख्ती

कटी पतंग
लूट में हाथ लगी
फटी पतंग

खेल में देर
चाचा ले जाते घर
कान पकड़

मोनू का छक्का 
सुरेश की खिड़की 
बिन शीशे की 

छुपं छुपाई 
जैसे ही बारी आयी 
ताई बुलाई 

कैरमबोर्ड 
पड़ा कोने रोता है 

नाली निकल 
खेल शुरू हो जाता 
डंडे से बाल 

नाली में बाल  
ले के डंडा निकाल 
खेल शुरू 

पप्पू क्रिकेट खेल कर आया 
आते ही माँ ने गले लगाया 
वह बोला आज तो दोहरा शतक लगाता 
बस एक सौ निन्यानबे रन और मिल जाता 

गली की सहेलियां हुईं इकठ्ठा 
शुरू हुआ खेल रूमाल झपट्टा
लड़कियां तो थीं खेल में व्यस्त 
कुत्ता ले भागा जुली का दुपट्टा 


फुटबॉल 
गोल करना है 
बॉल पहले से ही गोल है 

हॉकी 

खम्भे से बांध  बैडमिंटन 
चिड़िया पेड़ पर अटक  जाती है 

रेस साँस फूली 
कुश्ती 

बड़े प्यार से हीरे से संचे 
गली में जीते वो कंचे 







सपने को मरते देखा

मैंने सपने को मरते देखा,
माटी में कहीं बिखरते देखा।

सपने लेकर वह जन्म लिया,
या जनमते ही सपने जागे,
देश दुनिया में कहीं भी जाये,
सबसे सदैव आगे ही भागे।
उसको निर्धनता का अभिशाप,
औरों का भाग्य सुघरते देखा।

खेतों में काम, कर के घर आता,
जाके कहीं तब, स्कूल वो जाता;
मात पिता के साथ में मिल कर,
घर के काम में हाथ बंटाता।
खूंटे से कभी जब खुल गया तो, 
बछड़े को पछाड़ धरते देखा।

स्कूल में तो प्रथम जाता,
आगे की राह कौन दिखाता !
बाहरी दुनिया का पता नहीं था,
स्कूल से आगे कहाँ वो जाता !
प्रशिक्षण को पैसा पास नहीं, 
धन का अभाव अखरते देखा।

लगे नजर ना उसे किसी की,
बांधा था माँ ने काला धागा।
लाल, श्रृंग को छूकर आये,
देवी, देवों से मन्नत माँगा।
उड़ने को मिला आकाश नहीं,
पंखों को पुनः बटुरते देखा।

सोचा, हो जाये पुलिस में भर्ती,
संभवतः वहीँ भाग्य भी जागे।
दौड़ लेगा वह चोरों के पाछे,
दौड़ सकता जो देश के आगे।
प्रतिभा बड़ी पर कद छोटा था,
खुलने से द्वार नकरते देखा।

माटी का जन्मा रहा माटी में,
प्रतिभा भी हो गयी मटियामेट।
माटी को कर दिया जीवन अर्पित,
सपनों को रखा माटी में समेट।
गेहूं बाली, सरसों के फूलों पर,
मकरंद के संग विचरते देखा।

उर भरा सदा उत्साह, लगन,
और विजय का पावक होता।
सपनों को हवा मिल जाती तो,
वह आज देश का धावक होता।
हताश, निराशा हाथ में लेकर,
आस को ताक पर धरते देखा।



 भोली भाली है बच्चों की दुनिया 
भोला है मुन्ना, भोली ही मुनिया ।
चाहे पहना दो सूट बूट अंग्रेजी,
चाहे पहनाओ पतलून पख्तूनिया ।
भोली भाली है ।

मुन्ना की पतलून ढीली ढाली,
मुन्नी की पायल है रूनझुनिया ।
पैसे पाते फ़ौरन चले जाते,
चॉक्लेट खरीदने दुकान परचूनिया।
भोली
खेल के इनके अपने नियम
केक खाते ब्रिटानिया
मन के सच्चे, तन के कोमल
बिखरते हैं महक प्रसूनिया



मेट्रो से सीखा साफ़ सफाई
बुजुर्गों का सम्मान
सिर झुकाये रहते हैं
मोबाइल पर
धैर्य
पंक्ति से सुरक्षा
लटक कर चलने का 
द्धारका

Sunday, 19 January 2020

Man geet

मन की बात / गंगा


समाया है अंदर  
गहरा अनुराग अथाह 
दिल ये प्रेम समुन्दर

सर्वश्रेष्ठ है जलधर 
धरे प्रेम का पावन जल   
दिल ये प्रेम समुन्दर

रत्न समाये सुन्दर
जगत के बड़े अनमोल 
दिल ये प्रेम समुन्दर

विशाल जहाज बनकर 
तैरते सपने हजार 
दिल ये प्रेम समुन्दर 

पार न पाते पुरंदर 
असीम चाहत की थाह
दिल ये प्रेम समुन्दर  

पाले जंतु भयंकर  
लिप्सा, वासनाओं का 
दिल ये प्रेम समुन्दर  


बहुत विकट, जन-मन का द्वन्द।
मन नहीं रहता जन के वश में,
जन को रखता मुट्ठी में बंद।

मन के पाछे, जन नित भागे।
भांति भांति की इच्छा जागे,
रस के लोभ में बन मकरंद।
बहुत विकट, जन-मन का द्वन्द।

मन हो जाता अक्सर पापी।
जन से कराता आपा धापी,
पूरी कराने को इच्छा चंद।
बहुत विकट, जन-मन का द्वन्द।

देख पराया जी ललचाया। 
ना संतुष्ट कुछ भी पाया, 
गंद में ढूंढें जन आनंद। 
बहुत विकट, जन-मन का द्वन्द।

****

मेरी, छोटी सी आत्मा, मेरे परमात्मा,
भीतर कैसे समायेगा तू ?
तूने, उस पर दिया है, चंचल चपल मन,
और कितना भटकायेगा तू ?
तू तो, भटका रहा मन, पाने को रतन धन,
लालसा कब तक हटायेगा तू ?
था यह, बड़ा ही निर्मल, किया तूने ही खल,
पापों को कब मिटाएगा तू ?
मुझको, जगह दे अपने, बड़े से घर में,
बड़ा तभी तो कहलायेगा तू।

****


मन! क्यों तू मरता तन के लिए।
तन, कुछ ना करता तेरे लिए।
भोग सम्भोग तू तन से कराता,
नैतिक गुणों से नित है हराता, 
पापों को बुलाता घेरे लिए। तन, कुछ न  ..

तन तो सुख सुविधा का दास।
तुझे भी वही सब आता रास।
भांति-भांति से तन को नचाता,
तन के सुख में ख़ुशी मनाता,
रहता है अनेकों फेरे लिए।  तन, कुछ न  ..

तन संवारता अपने को नित।
तू किस पर रहता है आश्रित।
तू भी हो जाय यदि सुन्दर,
लगने लगेगा मन तू मंदिर,
हरि बस जायेंगे डेरे लिए।  तन, कुछ न  ..

****


मन, तू ना कर मनमानी।
नियम धर्म का पालन कर ले।
थोड़ा सा अनुशासन धर ले।
हो न फिरे फिर, कहीं पे भटके,
यदि, चला डगर अनजानी।

सोच समझ कर कदम बढ़ाना।
लोभ मोह में पड़ मत जाना।
तुझे ही होगा कष्ट उठाना,
किया यदि तूने नादानी। 

थोड़ा धन दौलत को पाकर।
पत्थर के टुकड़े घर लाकर।
खुद से निर्बल को सताकर,
हुआ जा रहा है अभिमानी।


*****

मन तू चंगा ही रहना।
तुझमें गंगा को  बहना।
झूठ कपट के पेंच में पड़कर ,
लूट झपट के खेल में पड़कर ,
फेंक आवरण सदाचार का 
खुद को नंगा ना करना। मन तू  ..

काम, क्रोध व अहंकार,  
मोह, लोभ ये पांच विकार। 
इनका तू करना प्रतिकार,
सदैव रखना स्वच्छ विचार।
धर्म, नियम से विचलित हो,   
पथ बेढंगा ना चलना। मन तू  ..

दुर्गुणों को आने न देना।
सच से मुंह मोड़ न लेना।
दुष्विचारों से बच के रहना।
बुरा न सुनना, बुरा न कहना।
बुराईयों की छीटें डाल,  
वसन कुरंगा न करना। मन तू  ..


****


मन कैसे मैं तुझको स्वस्थ रखूँ?
तू रुग्ण न होगा, आश्वस्त रखूँ।

मंडराते रोग हैं तेरे पास।
पल भर में तू हो जाता दास।
विषय-वासना, भोग-विलास,
कैसे उन सब को पस्त रखूं?

किसी डोर से तू नहीं बंधता।
मस्त सृष्टि में विचरण करता।
साधना से भी तू ना सधता,
खुद को कितना अभ्यस्त रखूं?

स्थिर मुझे तू ना होने देता।
सत की माला न पिरोने देता।
लोभ मोह तू ना धोने देता,
विकारों को कैसे ध्वस्त रखूं ?

मन कैसे मैं तुझको स्वस्थ रखूँ?


****

कभी दूर, कभी पास ये होता।
बिना बात मन उदास ये होता। 

खुश होय कभी कुछ पाकर के ये,    
गंवाकर कभी निराश ये होता।

कभी तो आसमानों का स्वामी,  
चाहत का कभी दास ये होता।

झूमता है कभी किसी जीत से,
असफलता पर हताश ये होता।

कभी कभी हो जाता हरजाया,
कभी किसी का खास ये होता।

कभी तो विमल गंगा-जल सा ये,
कभी धारे कंजास ये होता।

कभी तो बटुरे पंख कोतड़ में,
कभी उड़ता आकाश ये होता।



मन उड़े पवन के संग,
जग रहे देख के दंग।

रखे विशाल सा पंख,
जैसे हो गरुण विहंग।
कभी लगे गगन के अंग,
मन उड़े पवन के संग।

उड़ने के निराले ढंग,
बच्चों सा कभी उदण्ड,
कभी जैसे कटी पतंग,
मन उड़े पवन के संग।

कभी दिखा दिखा के रंग,
कभी जैसे मस्त मतंग,
कभी पतली गली से तंग,
मन उड़े पवन के संग। 

कभी करता ये हुड़दंग,
कभी भर के बड़ा उमंग,
कभी जैसे निर्मल गंग,
मन उड़े पवन के संग।

******


मन
 अच्छा सा लगता है।
जब सच्चा सा लगता है।

पाले होता अनेकों वृत्ति, 
जाने करता क्या क्या कृति? 
भावनाओं में जब बहता, 
मन कच्चा सा लगता है।
  
खेलने लगता माटी में, 
घुलता सहज परिपाटी में,  
मन बच्चा सा लगता है।

भोग से रहकर अतृप्त, 
होता वासनाओं में लिप्त 
देता गच्चा सा लगता है। 

*****

धोती धोती तन धोती माँ।
धोती धोती मन धोती माँ।
तन मन धोती, जन जन धोती,
कण कण धोती, जीवन धोती माँ।

संताप तू धोती, पाप को धोती;
दीन दरिद्रता के शाप को धोती।
हरेक मलिन छाप को धोती;
तू मन के दर्पण धोती माँ।

लोभ को धोती, क्षोभ को धोती;
अहं को धोती, क्रोध को धोती।
ईर्ष्या, मिथ्या कठोर को धोती,
दिव्य दृष्टि नयन धोती माँ।

हर हर गंगे, हर हर गंगे;
तेरे द्वार पर तेरे ही मंगे।
भवसागर के सभी अड़ंगे
दूर कर, दारुण धोती माँ।

****



जब मन में होवे विकार,
ये संजोए बुरे विचार। 

क्रोध, लोभ, द्वेष से हट के, 
लड़ो दम्भ, चिंता से डट के। 
रहो न दुष्कर्मों से सट के, 
न हो दुष्विचारों से प्यार। 

सत्कर्मों से मन जब भटके, 
खाये भांति भांति के झटके।  
बुराई अंत में नीचे पटके,
मन को रखे बहुत बीमार। 

मन भीतर व्यभिचार खटके,
बुरे भाव रहें मन में लटके। 
बिगाड़ देते हाल ये घट के, 
दुर्गुण ही करें विहार।
जब मन में होवे विकार,



जिसके मन प्रभु का बसेरा होता है।
मनभावन उसका सवेरा होता है।

परमानन्द की होती अनुभूति सदा,
नित हर्ष का घर में डेरा होता है।

ईश्वर उससे सदा दूर ही रहता, 
जिसके हृदय में अँधेरा होता है।  

स्वच्छ अरु पावन रख लेने से मन को, 
ईश्वर का स्वयं हि फेरा होता है। 

मन वह अत्यंत ही पावन हो जाता,  
हरि का नाम जहाँ उकेरा होता है। 

दुःखों में ही वह रहता पड़ा सदैव, 
जिसके मन पाप ने घेरा होता है। 

दिया हुआ है ईश्वर का सारा कुछ, 
जगत में क्या तेरा मेरा होता है।  


*****

दूर का ढोल सुहावन लागे।
धुन सुन के मन गावन लागे।

देखे दूर मरीचिका रे मन,
नीर जानि के धावन लागे।

हाथ में जो कुछ, लगे तुच्छ है,
और के हाथ लुभावन लागे।

उन बातों से दूर ही रहता,
जो सबको ही पावन लागे।

भ्रम को कभी ये ऐसे पाले,
तपता जेठ ही सावन लागे।

पाप कर्म से मुंह न मोड़ता,
जब तक नहीं डरावन लागे।


*****

ढोता क्यों मन, पाप की गठरी ?
राम नाम बिन रह जायेगा, 
ताल में जैसे जल बिन मछरी।

काम, क्रोध, मद तेरे दुश्मन;
मारने बैठी तुझको रे मन,
पापों की ये सेना सगरी।

मोह माया में घिर जाएगा,
जो पाया सब लुट जायेगा, 
ठगनी है यह माया नगरी।

बोझ लिए ना जा पायेगा,
भटक गया तो पछतायेगा,    
गली में जाना प्रभु की सकरी।



हारा रे मन काहे को हारा? 
मोह माया में प्रभु को विसारा।

काम वासना में डोलत रह गया, 
रूप तू अपना क्यों संवारा?

बात बात पर करे अति क्रोध तू, 
आनंद, शांति को उर से निकाला  

माया मोह के जाल में फंसकर, 
सत्कर्मों से कर लिया किनारा

देखे पराया, लोभ के मारे, 
दर दर फिरता तू मारा मारा। 

अहंकार को सिर पर बिठाकर, 
दबा रहता पर ढोता तू भारा। 

कहें सत्यदेव जी जय पाना तो, 
दिशा को फेर तू प्रभु के द्वारा। 

हारा रे मन काहे को हारा?


*** 


किस भांति कहूं मन मेरा है। 
भ्रम इसमें करे बसेरा है।  

देख औरों की करता आस।   
वैभव विलास हो मेरे पास। 
लोभ में पाप ने घेरा है। 
किस भांति कहूं मन मेरा है। 

कतराता करने से सुकाम। 
चाहूँ जब लगाना लगाम,
विपरीत दिशा मुंह फेरा है।  
किस भांति कहूं मन मेरा है। 

कितना सब गुब्बार भरा है। 
पीड़ा से भी नहीं डरा है।  
तेरा मेरा ही नित टेरा है। 
किस भांति कहूं मन मेरा है। 


 ***
  

उड़ उड़ जाय, मन का पंछी।
रहे अकुलाय, मन का पंछी।

देख चमक मृगतृष्णा सा,
इत उत धाय, मन का पंछी।

दूर का ढोल लगे सुहावन,
रहे भरमाय, मन का पंछी।

लोभ का मारा फिरे बेचारा,
तुष्टि ना पाय, मन का पंछी।

सोचे बिन करता मनमानी,
पाछ पछताय, मन का पंछी।

आडम्बर की चीजों से ही,
हरषता जाय, मन का पंछी।


**** 


  
मन बावरा रे!
तू बना क्यों फिरता, जहाज का पंछी?

डोले लोभ का मारा,
बिना कोई सहारा,,
मिलने से किनारा, रह जाये तू वंचित
मन बावरा ...

कभी ईत तू झांके,
कभी उत  तू ताके,
खुद को न आंके, ठहरे न किंचित
मन बावरा ...

रहे आगे ही आगे,
मैं सोऊँ तू जागे,
करे तृष्णा में भागे,, सपनों को संचित
मन बांवरा  ...

 ***




पिजरे वाला मनवा 

उड़ि उड़ि धाये लोभ के मारे, 
देख परायी लुभाय गयो रे, 
पिजरे वाला  ..

उड़ि उड़ि बैठे महल अटारी, 
ठाट देख ललचाय गयो रे, 
पिजरे वाला  … 

उड़ि उड़ि देखे ठाट पहनावा, 
सुंदरता देख मोहाय गयो रे ,
पिजरे वाला  …

उड़ि उड़ि झांके पडोसी के घर , 
सुख को देख दुःख पाय लियो रे ,
पिजरे वाला …
  


तन को धोये हर कोई, मन धोये ना कोय।  
मन है ये पापी बड़ा, मैल की गठरी ढोय। 
मन का पाप अति पीड़ादायी
सद्विचार ही इसकी दवाई  
मन यदि मैला करे, कष्ट में जीवन होय। 
सत्य ना जाने, सत्व ना जाने, 
सृष्टि का सच्चा तत्व ना जाने
मन की ना सुन तू जन, धर्म ज्ञान को खोय।   
दौड़े अज्ञ जो मन के पीछे, 
रोते ही उसका जीवन बीते  
आम चखेगा कैसे, पेड़ बबूल का बोय। 


मन को यूँ ही न मारा करो। 
और ना मन से हारा करो। 
मन तो है गंगा का जल, 
बहने दो तटों के अंदर, 
रोका न इसकी धारा करो। 
कभी मित्र मुंहबोला लगता, 
कभी बच्चे सा भोला लगता, 
प्यार से मन को दुलारा करो।  
प्रेम का संचालक मन है, 
प्रेम बिना आधा जीवन है, 
घृणा न मन में उतारा करो।  
भांति भांति के खेल ये खेले, 
होने ना पर वस्त्र दो मैले, 
सद्विचारों से संवारा करो। 


जगाती नित उत्साह, मन की चाह। 
लाती ऊर्जा प्रवाह, मन की चाह। 
प्रेरित करती है कुछ पाने को,
कराती आविष्कार, मन की चाह 
नई मंजिलों के सपने जगाती, 
खेती बन मल्लाह, मन की चाह।  
उंचाईयों को छूने की ललक,  
चलती प्रगति की राह, मन की चाह।  
छुपी प्रतिभाओं को उभारती,
लेकर आती वाह, मन की चाह।  
असफलताओं के आशंका की, 
दीवार देती ढाह, मन की चाह।


मन की मेरे मन ही रही। 
सारी उमरिया विरह सही।  
रखता है वो हजारों कान,
पर ना सुना मेरे अरमान, 
संकोच के मारे कुछ न कही। 
उससे मिलने की लेकर आस,  
हार थकी गयी पिया के पास,
निकाल के बैठा खाता बही। 
उसको मैं क्या देती हिसाब, 
पढ़ा स्वयं ही मन की किताब, 
वक्ष से मुझको लगाया वही। 
मन की सब मेरे पूरी हुई।  



मन लगा न खुद को सजाने में। 
व्यस्त रहा रूठने मनाने में। 
सच्चाई से ऑंखें मींचे,  
भागता रहा मिथ्या के पीछे, 
छोड़ के मणियां खजाने में। 
मन की होती हजारों इच्छा, 
दौड़े पीछे बिन किये समीक्षा,  
आडम्बर का वैभव पाने में। 
भरमाता रहा आत्मा को मन, 
मन को जीतना बड़ा पराक्रम, 
ये उलझा रहा उलझाने में। 


आत्मा शुद्ध तो परमात्मा की प्राप्ति

आत्म नियंत्रण से गौतम बुद्ध
खोले मोक्ष का मार्ग अवरुद्ध


आस्था विश्वास आराधना
मन को नियंत्रित आत्मा कराती मन इन्द्रियों
मन का विज्ञानं


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।  
मन में लागे लगन जब, बस जाती है प्रीत। 


मन मुक्तक

धन्यजो लेता बना, मन मंदिर।
उसके हरि होता बसा, मन मंदिर।
दूर हो जाय मन का अँधेरा,  
श्रद्धा का दीया जला, मन मंदिर।


जिसके मन प्रभु का बसेरा होता है।
मनभावन उसका सवेरा होता है।
परम सुख की होती अनुभूति सदा,
प्रसन्नता का घर में डेरा होता है।



सपनों के लेकर पंख, बिंदास हो गया।
पाले अनेक इच्छाओं का दास हो गया।
कोमल पंखों पर किया भरोसा इतना,
टूटा कोई सपनामन उदास हो गया।

अच्छे बुरे का संग्राममन देख लेता है।
किया चोरी से भी काममन देख लेता है।
आँखों से नहींसुंदरता को मन से देखना,
प्रभु की कृति अभिराम, मन देख लेता है।



जुगुप्सा सेबिखर जाता है मन।
सत्कार देनिखर जाता है मन।
मिलना प्यारे सबसे तुम प्यार से,
प्यार भर केसंवर जाता है मन।

मन की बातों का प्रतिकार  करना
विकार भर के मन बीमार  करना
मन तो चंचल है बड़ाकहे से उसके,
नैतिकता कदापि न्यौछार  करना। 

संसार की बातों से मन ऊब जाता है। 
प्रपंचों का झाड़ शूल सा चुभ जाता है। 
चला जाता हूँ दूर पर्वतों के बीच कहीं
हरी उन वादियों में मन डूब जाता है। 

मन को कब क्या भा जायक्या पता?

शठ जाने किस बात पर आय! क्या पता? 

रोकता मगरलुढ़क कर ये किधर

थाली के बैगन सा जाय, क्या पता? 


टूटने पर ना जुड़ती, मन की गांठ।
गहरे घाव है करती, मन की गाँठ।
पड़ने न दो, बहुत दुःख देती है ये;
पड़े तो रहे खटकती, मन की गांठ।

मन अच्छा सा लगता है।
जब सच्चा सा लगता है।
नटखट तो है बहुत यह,
पर बच्चा सा लगता है।

मन में जब विकार होता है।
संजोये बुरे विचार होता है।
बुरी चीजों से होने पे प्यार,
अक्सर मन बीमार होता है।

कभी रंग में डूब जाता है।
कभी गंध में डूब जाता है।
मन का अजब पागलपन,
कभी गंद में डूब जाता है।

रहता नित मन-बुद्धि का द्वन्द।
ढूंढता मन अपना आनंद।
बुद्धि दिखाती मन को दिशा,
चलना चाहे मन, पथ स्वछन्द।

विषय सड़क पर, मन का रथ दौड़े।
जुते इन्द्रियों के चंचल घोड़े।
बैठ आत्मा चली जाए मोक्ष को,
बुद्धि हाँकती, लिए हाथ में कोड़े।

इन्द्रियों पर करता राज है मन।
करें वो जो मन का निर्देशन।
इनके कार्य दुखों के कारण,
ढूंढती हैं नित भोग के साधन।

मन तो इन्द्रियों का स्वामी है।
इन्द्रियां मन की अनुगामी हैं।
चलते हैं सब ये सही मार्ग पर,
बागडोर यदि बुद्धि ने थामी है।

इन्द्रियों से मिलता विषय का ज्ञान।
मन देता विषय के स्वाद का भान।
आसक्त न होवें ये विषय में ही,
बुद्धि का काम नित पकड़े रहे कान।

इन्द्रियों ने तार, मन से जोड़ा।
जिधर मन चाहा, उधर मुख मोड़ा।
विषय वासना में रहा घुमाता,
अंत में जा के न कहीं का छोड़ा।

उत्तम आहार से तन हो सम्पुष्ट।
उत्तम स्वाद से मन हो संतुष्ट।
आहार न मिले तो तन हो निर्बल,
स्वाद मिले ना हो जाए मन रुष्ट।

जो मिल जाय उसको छोड़।
भागे मन अप्राप्त की ओर।
समझाने पर ये ना समझे,
'पकड़ ले मन तू प्रभु की डोर'।


दैहिक, दैविक, भौतिक व्याधि, 
पीड़ा, शत्रु, आपदा इत्यादि, 
सब ईश्वर के हाथ में है। 
वही मिटाता सभी विषाद।   
कुसंग, व्यसन, आवारापन
बुद्धि-विवेक का करे दमन।
विद्या भी दूर-दूर रहती
कष्ट में रहता सदा ही मन। 

भय है अगर कुछ खोने का;
उसके लिए क्यों रोने का ?
जीने का ढूंढ और सामान ,
मन! होगा ही, जो होने का।

करा देतीं निश्चित पतन।
नष्ट कर देती हैं जीवन।
अनियंत्रित भागते जब,  
मिल इन्द्रियां और ये मन।

रखता है मन, धन की आस। 
होता प्रसन्न, यदि वैभव पास। 
टूट जाता जब इसका खिलौना,  
हो जाता यह बहुत उदास। 

राग, द्वेष सब मन की माया। 
ईर्ष्या, क्रोध भी लिए समाया। 
धन, प्रतिष्ठा की रखे लालसा 
रखता लोभ मन देख पराया।  

मन की होती हजारों आस। 
पूर्ति हेतु नित करता प्रयास। 
क्या भला है? क्या बुरा है?, 
रखता सोच सही ना पास।  


मन ही है इन्द्रियों का स्वामी, 
बना देता मनुष्य को कामी।    
बढाती हैं मन का ही कष्ट,  
इन्द्रियां बन कर अनुगामी।  

इच्छा जब होती संपन्न, 
हो जाता है मन प्रसन्न। 
इच्छाएं अधूरी मन की, 
कुंठा को करती उत्पन्न।   

मन ही है जो सपने जगात।  
मन औरों को अपने बनात।  
सपने टूटे, अपने रूठे तो 
ये ही मन फिर झरने बहाता। 


तामसी गुण पनपाते पाश्विक प्रवृत्ति।
जीवन में बढ़ाते अशांति व विपत्ति।
सात्विक गुणों की होने से अवहेलना,
कष्ट अरु दुःखों से ना होती निवृत्ति।


मन होता है कभी ना बूढ़ा। 
वैभव विलास ढूंढता मूढ़ा। 
औरों का सुख देख देख कर, 
पागल ये, मन ही मन कूढ़ा। 


एक मन के तैतीस भाव। 
कभी घृणा तो कभी लगाव। 
हास्य, शोक, भय, क्रोध से,  
संचालित मन का बर्ताव। 

देती शोध को जन्म, मन की जिज्ञासा।  
ढूंढती छुपे हर मर्म, मन की जिज्ञासा।  
नापने को उत्सुक सारा ब्रह्माण्ड,  
चलती ढूंढने ब्रह्म, मन की जिज्ञासा। 


होती मन की कथा बड़ी। 
गति भी मन की तथा बड़ी।  
इच्छा यदि पूरी ना हो,  
टूटे मन की व्यथा बड़ी। 

आत्मा बुद्धि मन आयु के साथ बढ़ते



मन का पंछी है धरे, अनंत दृष्टि के दृग। 
भटके नित किस खोज में, ज्यूँ कि मरू का मृग।


मन के दोहे

स्थिति बुरी हो मन की, झेले कष्ट शरीर। 
दोनों के दुःख मिलकर, आत्मा को दें पीर। 

पड़ जाये कभी मन पे, कोई बड़ा तनाव। 
आचरण में मनुष्य के, ले आता बदलाव। 

किसी भांति आने न दो, मन में बुरे विचार।  
गलत राह भटकाय वो, देता विवेक मार।  

मनोविकार से होवे, स्थिति बड़ी गंभीर। 
बुद्धि वश में नहीं रहे, बेसुध होय शरीर।  

मनोविकार से न होय, भले बुरे का बोध। 
कब जाने खुश हो जाय, कब आ जाये क्रोध। 

मन के ऊपर ही करे, आत्मा नित सवार।
लगाम यदि हो हाथ में, यात्रा होय सुचार।

मन को रखता स्वस्थ है, सदा सत्य का ज्ञान।
भर देते विकार बड़े, मिथ्य शान, अभिमान।

मन का दुख तन से बड़ा, दवा भी दुर्लभ होय।
तन को भी यदि कष्ट हो, सदैव मन ही रोय।

कभी किसी से भी नहीं, अनुचित हो व्यवहार।
खुद के लिए मन भाये, करो वही आचार।

घेर लेते दुःख कई, हो प्रतिकूल विचार।  
गांठ मन में कुण्ठा की, कोई ना उपचार।  

सत्संग में जायें पर, होता मन कहिं और।
ज्ञान चक्षु कैसे खुले, प्रपंच घेरे घोर।

तनाव दर्शाता सदा, हुई मानसिक हार।
बहुत बड़ी आकांक्षा, ही इसका आधार।


दुःख में होय मन अगर, वश में ना हो सोच। 
किये हुए कार्य सभी, प्रतीत नीरस होय।   

जितेन्द्रिय, विद्यार्थी, और करे सत्संग।
बैठे पाप ना मन पर,  निर्मल बहती गंग।

धैर्य, संयम हो नहीं, बुरे उपजते भाव।
आवेश के भंवर में, उलझे मन की नाव। 

निर्मल मन हो सदा ही, रहे न कोई द्वेष।
कहें 'देव' उस व्यक्ति को, मिलता सबसे स्नेह।



पनपने ना दो मन में, कलुषित कोय विचार। 
कर देता सोच दूषित, उत्पन्न मनोविकार। 

अस्वस्थ हो मन अगर, हो आच्छादित शक।  
कर देता है शक-सुबह, जीवन को ही नरक। 

मन को मिले प्रसन्नता, पा जाय सौहार्द।  
संतुष्ट होता है अति, मन पाकर अनुराग।  

नाना प्रकार की रखे, पागल मन ये चाह। 
होने लगता विकृत जब, बाधा आती राह। 

बाधा आय तो मन क्यों? हो जाता तू व्यग्र।  
ईश्वर पर कुछ छोड़ दे, करेगा ठीक समग्र। 

बात बात पर खुश रहे, बिन बात के उदास। 
समझ से हो जाय परे, तेरी आदत खास। 

मन की यदि ना होय तो, काहे होय निराश ? 
स्मरण कर ले ईश को, पूरी करेगा आस। 

मन पर जमे मैल अगर, घटे ख़ुशी का भाव। 
हाथ लगे निराशा ही, रूचि का होय अभाव। 

मन लगे सत्कर्मों में, स्वच्छ स्वतः ही होय। 
मिले पुण्य का पुण्य ही, विकार आय न कोय। 

दुष्विचार मन में पले, धरे कई अवसाद। 
मैला जल ले जाय सरि, भरे सागर में गाद। 

******
मनोविकार से ना हो, सही गलत का ज्ञान। 
वास्तविकता की उसे,  होती ना पहचान। 

विकार लाता है सदा, उत्पन्न असंतोष।
प्रभु ने दिया जो उसमें, कर ले मन संतोष।

देख सिंदूर और का, दिखाने हेतु लाल।
फोड़ न माथा आपुनो, विवेक को खंगाल।

काम, क्रोध, मोह, लिप्सा, ईर्ष्या, चिंता, शोक।
लोभ, भय, मद, दम्भ, द्वेष; सब हैं मानस रोग।

सोच, तर्क, स्मृति, कल्पना; होते मन के विषय।
पा जाये मन सफलता, समझे अपनी विजय।

मन है सम्पूर्ण जगत, मन ही शत्रु विराट।
मन से हैं प्रपंच सभी, कठिन ढूंढना काट।

मन की चाहत यदि बड़ी, पूरा करना दूर।
थक कर के जाते हार, बड़े बड़े भी सूर।

जरूरत का बोझ न्यून, सकारात्मक सोच।
जिंदगी के मार्ग में, आने पाय न लोच।

मन की अपूर्ण इच्छा, झेले कई अभाव।
बैठ जाती चुपके से, कुण्ठा लिए तनाव।


प्रभु वो सब रखता दूर, जो कुछ मन को भाय।
जो मुझको पसन्द नहीं, झोली में भर जाय।


मन में हो जिसके भरा, कलुषित कोई विचार। 
पनपने लग जाते हैं, मन के कई विकार। 

रक्तचाप, मधुमेह अरु, मस्तिष्क पर दबाव।  
बढ़ने लग जाते स्वतः, मन में होय तनाव। 

मन में होय विकार यदि, मनुज रहे बीमार।   
खिन्न रहता मन सदैव, कष्ट अनेक प्रकार। 

अधि इच्छा अरु द्वेष से, उपजें मानस रोग।
विलास के पीछे धायं, फिर भी अन्धे, लोग।

मनोविकार का कारण, रखना धन का लोभ।
स्थायी ना धन की हानि, रखो न इसका क्षोभ।

अपने में खोये रहे, बिना मित्र चुपचाप।
मनोविकार को न्यौता, देते हो खुद आप।   

मन के पीछे भागता होय न जिसको बोध।
जीवन यात्रा मुक्ति में, मन लाता अवरोध।

प्यार के दो बोल और, आपसी मेल जोल।
हंसी ख़ुशी जीवन कटे, गांठों  को दे खोल।

****

प्रकृति की गति अरु स्थिति, रहते नहीं समान।
मन की प्रकृति भी बदले, रखना तुम ये ध्यान।

संबंध में खींचतान, उपजाय मनमुटाव।
मन में करे विषाद अरु, पैदा करे तनाव।

अपनाने से स्वच्छता, अरु ग्रंथों का पाठ।
मन को करे प्रसन्न नित, जीवन में हो ठाट। 

वृद्ध, निर्बल की सेवा, व सत्य का अनुसरण।
मन के दोष नष्ट करे, हो पापों का हरण।

मन में ईश्वर है सदा, ईश्वर में मन होय ।
मंदिर जाते इसलिए, मन हेरे हर कोय ।

दैहिक, दैविक, आत्मिक; तीन भांति संताप।
मन की शक्ति होय प्रबल, विजयी होवे आप। 

आभूषण से तन सज्जित, सुशोभित होय न मन।
मन की शोभा आचरण, रखे जो सुन्दर जन।

खींच कर ले जाता मन, नित अधर्म की ओर।
क्यों नहीं थामे रखता, सत्कर्मों की डोर ?

कर्मों से यह जन बड़ा, नहीं आयु से कोय।
उम्र बढ़ने से मनुष्य, मात्र वृद्ध ही होय।

पनपी मन में निराशा, एक विकट है रोग।
मन को तो अस्वस्थ करे, उन्नति देती रोक।

चिंता होती मनुज की, चढ़ी बेल-आकाश।
खाये जाय विवेक को, हरदम रखे निराश।

लालच और तृष्णा से, पनपता असंतोष।
मन की पीड़ा ना मिटे, कितना भी हो कोष।

असंतोष है अति बड़ा, मन में बैठा व्याधि।
अभाव की चिंता खाय, सुख शांति इत्यादि।

लोभ जीत लो त्याग से, संयम जीते काम। 
क्रोध जीतो धैर्य से, मोह प्रेम के नाम। 

मोह से होवे चिंता, मोह से होता भय।
मोह दुखों का कारण, मोह से ज्ञान का क्षय।

****

सात्विकता से धुलती, मन पर बैठी मैल।
सादा जीवन ही सदा, सुख का होता रेल।

मन का अंध हो जाता, ज्ञान ज्योति से दूर।
भोग विलास के सदैव, मद में रहता चूर।

संस्कारों के दोष से, उपजे नाहीं ज्ञान।
मन रहे बीमार सदा, अवगुण की हो खान।

बात बात पर जो मनुज, करता रहता क्रोध।
होता ना उसको तनिक, सही गलत का बोध।

लोभ, क्रोध, अहं, व्यग्रता, करते मन को खिन्न।
खिन्नता वश मनुष्य का, होय व्यवहार भिन्न।

लोभ, क्रोध, दम्भ व द्वेष, मद मोह अहंकार।
सीमा जब जायें लाँघ, बनते सभी विकार।

मोह, क्रोध शक्ति बनते, संतुलत हो प्रयोग।
स्वाभिमान के रक्षार्थ, इनका है उपयोग।

प्रभु ने मन में जो दिया, सभी शक्ति के रूप।
प्रयोग मनुष्य के हाथ, विवेक के अनुरूप।

प्रभु ने दिया मनुष्य को, संग गुण और दोष।
ज्ञान की छननी दिया, करो नहीं अफसोस।

कभी हो जाता है मन, इच्छाओं में नंग।
रहेे ये अपने मन का, कौन सिखाये ढंग ?


मन हो यदि पावन शुद्ध, रहे आत्मा शुद्ध।
ईश्वर से मिलने का, खोले पथ अवरुद्ध।

दूषित भावना हों मन, डालें बुरा प्रभाव।
मित्रों में अपमान मिले, पाये सदा दुराव।


कुटिल जन का स्वभाव ज्यूँ, नागफनी का फूल।
रंगिनियों के बीच से, बदन चुभावे शूल।

लोभी मनुष्य करवाय, जगह जगह परिहास।
फैलाये रखता हाथ, तृप्त न होवे आस।

मित्र, भ्रात, दास, लघु से,, कर उचित व्यवहार ।
होवे कितनी भी बली, पाय बुराई हार।

तन तो भोगे सुख सभी, मन भोगे बस कष्ट।
उन सुखों के हेतु कभी, मन हो जाता भ्रष्ट।

तज द्वेष, घृणा, क्रूरता,, क्षमा, दया, धर प्रेम।
तेरी इसमें वीरता, इसमें ही मन क्षेम ।


******


चिता जलाये मृतक को, चिंता जीवित व्यक्ति।
मंद सोच हो द्वन्द से, क्षीण मानसिक शक्ति।

मनुष्य दिखे उदास अति, मन होवे बीमार।
स्वस्थ मन से मन मिला, कर लेना उपचार।

रुग्ण मन करता सदैव, व्याकुल बहुत व व्यग्र।
मन को स्वस्थ रखो सदा, अच्छे पाना हश्र।

मन  हो ना प्रसन्न अगर, भ्रम को लेता पाल।
डगमगाता है जीवन, बिगड़ी होती चाल।

प्रभु ने जो कुछ है दिया, सहर्ष कर स्वीकार।
औरों की चांदी देख, लाना नहीं विकार।

होते ऐसे लोग भी, देते कमी निकाल।
उनका देना ध्यान ना, खुद को लो संभाल।

होवे यदि कोई कमी, रख न भावना हीन।
अपने पर विश्वास रख, भगवान पर यकीन।

असफलता समक्ष अगर, होना नहीं निराश।
अगला अवसर है खड़ा, उत्तम लेकर आस।

रखो दूर मन से  सदा, नकारात्मक सोच।
करता सब कुछ ईश्वर, मन पर क्यों हो बोझ।

लाभ हानि हैं क्षणिक,  माया के सब खेल।
उलझ इसमें ना कर मन, जीवन मटियामेट।

दुखी होने की ना कर, असफलता में भूल।
नित नहीं होती रे मन, परिस्थिति अनुकूल।

ऊँचा दिखने में मनुज, लगाता है विवेक।
कभी ना उपयोग करे, बनने में खुद नेक।

अध्यात्म से दूर होंय, मन के सभी विषाद।
करे न आय विकार मन, सतत 'कृष्ण' को याद।

समय समय पर साफ हो, व्यर्थ हिया की बात।
हल्का मन हर्षित रहे, लिए उमंगें साथ।

निकल जाता हर संकट, बलशाली मन होय।
गये पश्चात आंधियां, वृक्ष फिर स्थिर होय।

मन को रखना यदि सही, रोज करो व्यायाम।
सोच रखो सीधी दिशा, भज लो 'जय श्रीराम'।

दूसरों का धन मिटटी, साधन समझो व्यर्थ।
अपने बल के अनुसार, बनते रहो समर्थ।

ऊँची अति आकांक्षा, ना मन रखना पाल।
गिरे ऊंचाई से हो, शीशे जैसा हाल।

अनियंत्रित है कामना, सब दुखों का कारण।
सुरसा लेखा मुंह बड़ा, नहीं मिले निवारण।

और औरं की व्यग्रता, लेय नींद को छीन।
अधिक भाग्य से ना मिले, करे दिनोंदिन दीन।

थामे रखता मन सदा, विचित्र भ्रम की छोर।
भ्रम ही मन में है रखा, जीवित डायनासोर।

साधन सब उपलब्ध हैं, फिर क्यों रहना पिड़ित।
मनोरोग की चिकित्सा, आध्यात्म में निहित।


औरों का सुख देख कर, रखो न मन में डाह।
जाने कब किसकी 'हाय', किसकी होवे 'वाह'।

देख सिंदूर और का, नहीं फोड़ना माथ।
सच्चाई को परख के, कहीं डालना हाथ। 


लेकर जाती विजय पथ, मनु को मन की आग। 
बुझती है दिल में लगी, पाने पर अनुराग।  

आविष्कारों की जननी, होती मन की चाह।  
पा न सका विज्ञान भी, गहरे मन की थाह। 

पाया नहिं मन का मर्म, करके शोध विज्ञान।
परिस्थिति जन्य व्यवहार, सका मनुज का जान।

पकड़े जो मन की दौड़, बना न पाया यान। 
मन सदा आगे भागे, पीछे रहे विज्ञान। 

मन देता आत्मा को, परमात्मा सु जोड़।
ध्यान लगाए जो मनुज, आडम्बर को छोड़।

छू ना सकता कोय मन, ना ही सकता देख।
भ्रमित भटकता आदमी, मरीचिका की लेख।

सब संपत्ति से ऊपर, होती मन की शांति।  
फिरता फिर क्यों मन तू, मरु के मृग की भांति।  

निंदा सुन दुःख में मन 
सुकर्म से मिले प्रशंसा 
सराहना सुन प्रसन्न। 






ये मन मतवाला है;
अपनी करवाने मुझे,
वश में कर डाला है।

मनुज ने बिगाड़ा हाल;
अपने आप ही बुनकर,
राग द्वेष का जाल।

हो यदि मन में विकार;
उस मनुष्य के मानस,
पनपे दूषित विचार।

पनपे न मानस रोग;
करें यदि तन्मयता से,
मन वश करने का योग।

सद्गुण अपनाने से;
मन को सुख मिलता सदा,
कर्तव्य निभाने से।

मन सुन्दर होता है;
उस मनुष्य का जीवन,
अति मनहर होता है।


मन जो होय बलवान; 
सुचारु चले ये जीवन,   
होता बड़ा वरदान। 

मन जो बिगड़ता है; 
अच्छे भले कामों के,  
बीच में हि अड़ता है। 

जो जीत लिया मन को; 
महावीर उसे जानो, 
समझो जीता जग को। 



अगर हो ऋण का भार; 
दबा ही रहता ये मन,
सिर से जल्दी उतार।

नियंत्रित करना थाम;
अपने मन का घोड़ा, 
ज्ञान का तगड़ा लगाम। 

मन घेरे रहता है, 
घनघोर सा अँधेरा;
जब ज्ञान न बहता है। 

लगी पाप की काई;
मन लिए चला जाता,
अति गहरी सी खाईं। 

खो जाता है फौरन; 
आडम्बर को पा जाय, 
उसमें कहीं चंचल मन। 



मेरी ही नादानी;
करने देता कभी जो
मन को मैं मनमानी। 


मन में अनेक विकार;
बुद्धि का प्रयोग करके,
कर सकोगे प्रतिकार।

मिथक में भटके नित मन;
मिल जाय सत्य का ज्ञान,
सफल हो जाए जीवन।

मन के हैं पांच विकार;
मोह, लिप्सा, क्रोध, काम
मनुष्य का अहंकार।

कर सकते प्रतिकार;
संयम, प्रेम, त्याग, नम्रता,
धैर्य से मनोविकार।

औरों से न रखना डाह;
चाहे होय ना पूरी,
स्वयं के मन की चाह।

किसी से हो मतभेद;
सोच लेना है बहुत,
सबका ईश्वर एक।

न हो सकता मन पुष्ट;
और अधिक की दौड़ में,
यदि होवे ना संतुष्ट।

रखे अधिक का लोभ;
पूरा करने मन दौड़े,
बिन सही गलत के बोध।

न होने पर संतोष;
भीतर ही भीतर लेय,
विकारों को मन पोष।

फंसा मोह में मानव;
बुरे कर्म में लिप्त हो,
बन जाता है दानव।

****

किया गलत हर काम;
मोह के वश में पड़कर,
देता दुष्परिणाम।

करना मन नियंत्रित,
धर्म, ध्यान, अनुष्ठान से,
हरि को कर अभिमंत्रित।

बड़े विचित्र हैं खेल;
मन के खेल मनुष्य का,
कर दें माथा फेल।

मन के रूप हजार; 
कभी क्रोध, घृणा, अनबन, 
कभी दिखाता प्यार।  

कभी किसी से लगाव; 
कभी बिना बात के मन,
कर लेता मनमुटाव।  

क्यों न करता चिंतन;
ईश्वर दे देगा स्वर्ग,
'प्रभु' का तू मेरे मन।

चाहत लाती बंधन;
चाहतों से रखे विरति,
मुक्त सदा रहता मन।

कामना का यदि वास;
मन से स्वतः हो जाता
सत्कर्मों का प्रवास।

लघु दिखाने का यत्न;
देगा कष्ट बड़ा तुझको,
न करना किसी को मन।

कितना भोला भाला;
अपनी ही आँखों पर,
मन तू पर्दा डाला।

कैसी कैसी तू चाह
रखता रे भोले मन;
लगा नहिं पाऊँ थाह।

काम दुखों का कारण;
रखने से संतोष ही,
इसका होय निवारण।

भोग विलास में फंसा,
धरे दुराचरण ये मन;
करनी पर जग हंसा।

भागे धन के पीछे;
ना सही गलत की सोच,
मन आँखों को मींचे।

पाल ना मन बुराई,
खींच ले जाय न करनी
तुझको गहरे खाईं।


हैं ईश्वर की संतान;
हम मानें अगर उसकी,
वो होगा कृपा निधान।

हरि में मन लगाय जो;
मन को मिलती शांति,
प्रसन्नता पाए वो।

बनाया मन क्या चीज!
हरि ही वश में रख सके
डाला है ऐसा बीज।

करके अनेकों शोध
मनोविज्ञान न मन के
मर्म का पाया बोध।

वैज्ञानिक आविष्कार;
ऐसा जटिल बना मन,
अब तक न पाया पार।

मातु पिता का कहना
बच्चों से यही होता -
मन लगा कर पढ़ना।

मन से किया जो काम,
सदा ही देता है वो  
सुन्दर ही परिणाम। 
 


जाते नैनों से छलक;
मन का रंग है कैसा?
दिखलाते अश्रु झलक।


माँ तू देना ये वर;
सबका करूँ कल्याण
मन को वश में कर। 

होवे यदि पावन मन;
आये दुष्विचारों का,
निश्चित करता दमन।

प्रेम से हरि को भजे
मन हो जाये पावन;
शुद्ध सुविचार सजे।


सावन में आती है;
विरहन के ठंडी फुहार
मन अग्नि लगाती है।

मिल जाते जब दो मन;
सुखमय व सफल होता,
वैवाहिक तब जीवन।

चहकने लगता है
जब हर्षित होता मन;
कथ अपनी कहता है।

उड़ता रहता है मन,
सपनों के लेकर पंख;
यहाँ से वहां हर क्षण।

ग्रहण करने में स्वाद
पाल लेता क्यों रे मन?
नाना भांति विषाद।

पालता क्यों मन रोग?
छोड़ स्मरण ईश्वर का
रटता है बस भोग।

ढोता पापों का बोझ;
दब जायेगा तू तले,
खुद ही मन एक रोज।

दो नहिं मन को यन्त्रण;
परिस्थित यदि प्रतिकूल,
कर लो आत्मनियंत्रण।

मन को रखे प्रसन्न;
करना ऐसे सब काम,
वही जीवन का धन।

*** *

मिले वो पर ना कही;
थी मन की ऐसी झिझक
मन की मन ही रही।

करो न हार पर ग्लानि;
आगे की चिंतन करो,
अपनी ही होगी हानि।

मन में भरा हो खोट;
कर लो स्वच्छ अति शीघ्र
हो ना ताकि विस्फोट।

रहें इन्द्रियां वश में;
ईर्ष्या, लोभ से दूर,
मन ना हो अपयश में।

मन को जो कुछ भावे;
कोई युक्ति लगाकर
चाहता मन वो पावे।

मन की कोई न थाह;
उड़ता अंबर से ऊँचा
गहरा जैसे पाताल।

दे मन जिसको उतार;
पाना कठिन हो जाता
फिर से वापस प्यार।

पावत नहीं तू चैन;
चैन ढूंढने में मन
भटकता है दिन रैन।

हो मन में सद्विचार;
करने को प्रेरित करे
मानव को सदाचार।

अच्छा घर, बढ़िया कार;
इससे ज्यादा जरूरी
रखना अच्छे विचार।

मन ये क्या करता है?
जीने के लिए ही तू
जाने क्यों मरता है।

इन्द्रियों का यूँ दौड़;
उद्देश्य बिना ले जाय
विपत्तियों के मोड़।
**

सुख दुःख मन की सोच;
अतृप्त भावना मन की
मारती रहती चोंच।

त्याग मन के विकार
हरि का कर लो स्मरण;
जीवन को लो सुधार।

खूंट से बांध लो बात;
भटकना लक्ष्य के बिन
मन को करता उदास।

मोह दुखों का कारण;
विछोह में तड़पाता,
होता नहीं निवारण।

जैसे की निर्मल जल
रंग जाय, पड़े जो रंग; 
होता बच्चों का मन। 

सहज ही जाता बहल,  
पाकर कोई खिलौना; 
कोमल बच्चों का मन। 

संग प्रकृति का पाता;
मन में उपजते जो भी,
व्याधि सभी बिसराता।  

मन जीवन का दर्पण;
भला बुरा जो जन करे
रहे दिखाता क्षण क्षण।

जितेन्द्रिय अरु ज्ञानी;
ईर्ष्या, लोभ, क्रोध, मोह,
शोक उसे है पानी।

ईश्वर का भी दर्शन;
एकाग्र चित्त जब होय
करवा देता है मन। 

कहीं भटक जाए मन;
करने वाला नियंत्रण
ईश्वर का मात्र भजन। 

ध्यान में 
हरि के मगन;
होगा स्वच्छ सुरक्षित,  
यदि नित्य रहे ये मन। 


जाय न उमरिया बीत,
भजन के बिना कहीं; 
रखना लगा के चित्त .

भक्ति पूर्ण उपासना,
पूरा करती मनुष्य की 
सभी मनोकामना। 
ईश्वर में लगाया,

माया छोड़ जो मन को;
वो ही सब कुछ पाया। 

मन को लेता जीत,
इस दुनिया में मानव;
प्रभु से लगा के प्रीत। 

मन का तम घोर गहन; 
मिट जाता है जड़ से, 
करके हरि का भजन। 


तुझको मेरे भगवन,

चाहे पर ढूंढ  पाय, 
मेरा ये चंचल मन। 


संतोष समाये मन; 
समझो मिला है उसको,   
सबसे बड़ा एक धन। 

संतोष समाये मन; 
सुखी उसके समान, 
दूजा ना कोई जन। 


मन होता जैसे जल;   
ईश्वर का कर के ध्यान, 

रहता है स्वच्छ तरल। 

जिसके मन हरि-बसेरा;
रहता नित्य उसके घर, 
अनुपम सुख का डेरा।  

तेरा ना कुछ मेरा;
सब कुछ उस ईश्वर का,
है माया का फेरा। 


जैसी होती नियत;
कर देता है ईश्वर, 
जन की वैसी तबियत। 


मन की इच्छा विशाल,
होकर छोटी कराती;
हरि भक्ति को हर हाल।  


प्रभु की बड़ी माया है;
भक्ति करने के हेतु,  

मन को बनाया है।   


*****

आत्मा पर भारी है;

क्या क्या खेल दिखाता,

मन बड़ा मदारी है। 



चाहता ये सारी है; 

दुनिया के बड़े वैभव,

मन बड़ा मदारी है। 



बनाता व्यभिचारी है; 

नचा नचा कर सबको, 
मन बड़ा मदारी है। 



बन जाता भिखारी है; 
रूप के आगे ये तो, 
मन बड़ा मदारी है।  


क्या किसकी लाचारी है; 

सोचे नहीं तनिक ये,  
मन बड़ा मदारी है। 



यह भरे उड़ारी है, 

सात अम्बर से आगे;

मन बड़ा मदारी है। 


****
स्वच्छ रखोगे चंगा,
अंतःकरण को अपने;
मन में बहेगी गंगा। 

करें नहीं यदि दंगा, 
भीतर घुस के विकार;
मन में बहेगी गंगा। 

करती सबको नंगा;  
यदि रहे वासना वश में,
मन में बहेगी गंगा। 

बनने न दो भुजंगा 
चिंता, डाह, मद, दम्भ;
मन में बहेगी गंगा। 

चलो नहीं बेढंगा 
चाहतों की राहों पर;
मन में बहेगी गंगा। 

डालो नहीं अड़ंगा
सत्कर्मों पर चलने में; 
मन में बहेगी गंगा। 

****

कुछ देखा नहिं भाला,
क्या उचित क्या अनुचित है; 
अजब ये मन मतवाला। 


खुद को मलिन कर डाला, 
स्वार्थ का धूल लपेटे;
अजब ये मन मतवाला।  

मिला जो नहिं संभाला, 
पीछे और के भागा; 
अजब ये मन मतवाला। 

खुद को नहीं खंगाला, 
निराशा में रहा पड़ा;
अजब ये मन मतवाला।  

विषाद अनेकों पाला, 
कामना की पूर्ति में; 
अजब ये मन मतवाला। 

बुद्धि पर डाला जाला, 
चाहतों के चक्कर में;
अजब ये मन मतवाला।  

*****

मन कितना भोला है; 
सुन्दर वस्तु देखा जब,  
इच्छाओं से तोला है। 

मन कितना भोला है;
गिरगिट सा जग को देख,  
नित बदले चोला है। 

मन कितना भोला है;
मुख पे जाय मोहाय,   
झुलनी पर डोला है। 

मन कितना भोला है;
पापों का कचरा पाय, 
भर लाता झोला है। 

मन कितना भोला है;
आते जब सद्गुण द्वार, 
किवाड़ नहीं खोला है। 

*****


पाय जो, आय न रास;
जाने क्या रहे ढूंढता,
मन चाहतों का दास।

बिन बात होय उदास;
संतुष्टि को यह त्याग,
मन चाहतों का दास।

घूमे धरती आकाश;
करन को अपनी पूरा,  
मन चाहतों का दास।

भर लेता है कंजास;
भले बुरे से अज्ञान,
मन चाहतों का दास।

होता विवेक का नाश;
बन जाता है कभी जब,
मन चाहतों का दास। 



****


और के पीछे गमन, 
करता अँधा होकर;
पाले बीमारी मन। 

करता नहीं है नमन, 
ऊँचा दिखने के हेतु;
पाले बीमारी मन। 

इच्छाओं का शमन, 
करने से कतराता;  
पाले बीमारी मन। 

धरे है कई व्यसन, 
फंसता पाप के दलदल; 
पाले बीमारी मन। 

रखने हेतु सुखी तन, 
दुःख बहु भांति उठाता;  
पाले बीमारी मन। 

****

तू कहाँ खो गया है, 
करता न नजर इधर को;  
तुझसे मन मिल गया है। 


दरश को तरश गया है,  
जोह में भटका वर्षों; 
तुझसे मन मिल गया है। 

तुझको क्या हो गया है,  
लेता सुध न मेरी तू;
तुझसे मन मिल गया है। 

तू नभ में सो गया है, 
मिलता ना क्यों धरा पर; 
तुझसे मन मिल गया है। 


तू हि बंधु, तू सखा है,
जीवन का आस, विश्वास;     
तुझसे मन मिल गया है। 


*****

कभी मनन, कभी नमन,
कर उसका, वो सुख देगा;  
हरि भजन कर तर जा मन।  

वही रतन, वही है धन, 
माया लोभ को तू छोड़;    
हरि भजन कर तर जा मन।  

चिंताओं का भी शमन, 
करेगा निश्चय हि वही; 
हरि भजन कर तर जा मन।  

ध्यान में तू हो मगन, 
पार लगायेगा वही; 
हरि भजन कर तर जा मन।  

उसको भज ले, कर जतन,
अपन को रख के पावन;  
हरि भजन कर तर जा मन।  


****
मन क्यों करता ढिठाई, 
मिले मुफ्त में माल कहुँ; 
जा पहुंचे तू धाई। 


मन क्यों करता ढिठाई, 
चाहता घर को भरना; 
परिश्रम से कतराई। 

मन क्यों करता ढिठाई, 
चाहे तू  बंगला कार;
देखे ना मंहगाई। 

मन क्यों करता ढिठाई, 
चाहे छप्पन भोग कभी; 
मेवा कभी मिठाई। 

मन क्यों करता ढिठाई, 
याद ना करता हरि को; 
हर चाहत की दवाई। 

*****


मन है बहता पानी,
होय ना कोय किनारा; 
इसकी अजब कहानी। 

होवे कभी तुफानी, 
राह में लड़ता भिड़ता; 
बहता मन मनमानी।  

बहने की मन ठानी,  
पहाड़ों से लड़ जाता;
उन्माद लिए चट्टानी।  

कभी तो समझ सयानी,
कभी राहों में करता; 
हरकत मन बचकानी।  

होती चाल सुहानी,
कभी कभी मन थम जाता; 
चोट खाय अंजानी।


 ****

जब होता मन उदास, 
कुछ बातें कर लेता हूँ; 
जा पशु खगों के पास। 

जब होता मन उदास, 
जाता नदी के तट पर; 
खेलने मत्स्यों के साथ। 

जब होता मन उदास, 
सींचने लग जाता हूँ; 
लान में फूल व घास। 

जब होता मन उदास, 
संभालने को हालात; 
थमाता मित्रों के हाथ।  

जब होता मन उदास, 
लग जाता हूँ करने; 
रामचरित का पाठ। 

****

मन चाहता रहने को, 
कहीं जा उद्यानों में;  
फूलों सा महकने को।  

मन चाहता रहने को, 
जाकर कहीं कानन में; 
खगों सा चहकने को। 


मन चाहता रहने को, 
पहाड़ों की चोटी पर;
मेघों सा घुमड़ने को।  

मन चाहता रहने को, 
सागर के किनारे कहीं; 
लहरों सा लहरने को। 

मन चाहता रहने को, 
प्रियतम का थामे हाथ; 
मस्ती में बहकने को। 

****





मनन भजन 

बारी 
धारी 
सुमारी 
विचारी 




कह मुकरी 
  
रसों का है यह जन्मदाता। 
मन की दशा यही दर्शाता।
मुद्रा, व्यवहार, चित्र या काव्य।   
क्या सखि साजन ? नहीं सखि भाव। 

रखता नहीं है मन संतोष। 
अनेक दुखों को लेता पोष। 
विलास में हो जीवन बदनाम। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि काम। 

माल देखि के नियति डोले।  
मन चाहे, सब मेरी हो ले। 
करनी पर नहीं करता क्षोभ। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि लोभ। 

औरों को जलाने का राग।  
लगाये मन अपने में आग।  
जल जाता खुद का ही बोध।  
क्या सखि साजन ? नहीं सखि क्रोध। 

चित्त को कर देता उद्विग्न।  
उत्तेजना में मन हो खिन्न।  
रूक ना पाता मन का वेग। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि उद्वेग। 

कभी मनाता था सुख जिससे,  
विछोह में मुंह लटका उसके।  
सिर पर बैठा ताल ये ठोक।   
क्या सखि साजन ? नहीं सखि शोक। 

इच्छा की जब पूर्ति ना होय, 
हताशा में बैठा मन रोय। 
मन भीतर करे तीव्र निनाद।  
क्या सखि साजन ? नहीं सखि विषाद।  

अपनी शक्ति पर बड़ा गरूर।  
समझे न किसी और को शूर। 
तना रहे जैसे कोई खम्भ। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि दम्भ। 

चारों ओर से मन को घेर,
डाले रखे कई कई फेर। 
रहता मन उसमें भरमाया। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि माया। 

मन हो जाता है आसक्त। 
आव भाव से हो जाय व्यक्त।    
कठिन हो जाता सहना विछोह। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि मोह। 

जो चाहूँ वह हो नहीं पाय,
सोच सोच कर बुद्धि खप जाय।    
जलाती रहती तन को जिन्दा।   
क्या सखि साजन ? नहीं सखि चिंता। 

मुझसे रहे ना बढ़िया कोय, 
मन की सदैव सोच ये होय।  
रखता कुढ़न, पाल के मिथ्या।   
क्या सखि साजन ? नहीं सखि ईर्ष्या। 

क्षमता पर है नहीं भरोसा। 
दुर्बलता को मन में पोषा। 
तिरस्कार का रहता है भय।  
क्या सखि साजन ? नहीं सखि संशय। 

क्या सोचेगा? रहूं सोचती। 
संकोच में मन मसोसती। 
मन में भय होने की निंदा। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि लज्जा। 

हो औरों की प्रगति पर रोष।  
निंदा करके मिले संतोष। 
दुर्भावना घर रखे विशेष। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि द्वेष। 
  
दूजे का धन देख के त्रस्त।  
रहे हीनभावना से ग्रस्त। 
होय कोसते खुद को अक्सर।  
क्या सखि साजन ? नहीं सखि मत्सर

कितना खा लो भूख न मिटती।  
और अधिक की चाह न हटती। 
भला करे अब उसकी कृष्णा। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि तृष्णा । 

मन न चाहे करना स्वीकार।  
बुरा समझ कर करे प्रतिकार। 
वस्तु, वृत्ति दें मन को पीड़ा। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि घृणा। 

माल उड़ा स्वामी से चुपके।   
घर ले आया उससे छुप के।  
परायी वस्तु हो गयी मोरी। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि चोरी। 

मन में कुछ, दिखाता कुछ और। 
सच को छुपाता बन के चोर। 
था जो उस पर, टूटा भरोसा। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि धोखा। 

प्रेरणा अरु उत्साह विहीन। 
कार्य के प्रति हो उदासीन। 
टाल मटोल करता मानस। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि आलस। 

पहुंचाये ना मुझको हानि। 
सोच सोच होता परेशान।  
आया ऐसा भयानक समय।  
क्या सखि साजन ? नहीं सखि भय। 

स्वार्थ भरा है ये संसार। 
नहीं रहा अब किसी से प्यार।  
जी चाहे कहीं जाऊं भाग। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि वैराग्य। 

लग चुकी है अब तो अनुरक्ति। 
मन चाहे ना उससे विभक्ति। 
देता मुझे विशेष वह शक्ति। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि भक्ति । 

बात कोई हो अप्रत्याशित। 
अद्भुत होय या चमत्कारिक। 
अचंभित होवे, देख हृदय। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि विस्मय। 

किसी भी स्थिति से ना डरता।  
नित विजय की ललक है रखता।
कार्य प्रवृत्ति की रहती चाह। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि उत्साह । 

घंटों तक गोरी का सजना। 
मोहित क्यों ना होवे सजना।  
देखते ही मन उमड़ा प्यार। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि श्रृंगार। 

परदे के जी पीछे क्या है?
अरु ढक्कन के नीचे क्या है?
मन चाहे लगे शीघ्र पता। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि उत्सुकता।  

जितना मिल जाये वही सही। 
स्वत्व से अधिक की चाह नहीं। 
कमी भी हो तो हो ना रोष। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि संतोष। 


उसके गुण जो मन को भाये,
बहुत अधिक सम्मान जगाये।
आदरपूर्ण रहे भाव सदा।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि श्रद्धा। 

कठिन भी हो करने से काम,
जी न थकता, न करे आराम। 
पूरा करके मन लेता दम। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि श्रम।  

सत्य हो कुछ, प्रतीत कुछ और, 
सत्य का ज्ञान न सीधे तौर।  
मन में पले दुविधा का क्रम। 
क्या सखि साजन ? नहीं सखि भ्रम।  


अज्ञात दृश्य, मन में अवतरण।
याद, कल्पना, सोच का मिश्रण।
प्रकट हों करते समय शयन।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि स्वप्न।

इच्छानुसार पूर सब काम।
जैसा चाहा मिला परिणाम।
पुलकित मन झूमता सगर्व।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि हर्ष।

हो जाता है मन मतवाला।
अपने काम का रोग पाला।
होती और न दूसरी बात।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि उन्माद।

कभी यूँ लगता है ना पूछ।
कटती दिखती खुद की मूंछ।
भाव मिले ना; जिसकी अपेक्षा।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि उपेक्षा। 

परिहास
मेरे पास प्रसन्नता लाती  
और किसी के हाथ दुःख देती

श्रृंगार रति 
करुण  शोक 
वीर  उत्साह 
हास्य
वीभत्स जुगुप्सा
भयानक भय 
रौद्र क्रोध 
अद्भुत विस्मय 
शांत निर्वेद वैराग्य  
भक्ति अनुराग 
संतोष 

भाव
तिरस्कार उपेक्षा
उन्माद
स्वप्न
उत्सुकता
भ्रम
हर्ष
श्रद्धा 
निर्वेद :विरक्ति या  ग्लानि वैराग 
काम, संकल्प, हर्ष, भय,  संशय श्रद्धा लज्जा बुद्धि  मन के रूप

मन जिया हिय हृदय दिल घट जिगर जी इच्छा चाहत भावना सोच मनोदशा नियति

 रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भष, जुगुप्सा और विस्मय को स्थायी भाव के अंतर्गत, 
निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूचा, मद, भ्रम, आलश्य, दैन्य चिंता, मोह, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता गर्व, विषाद, उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विरोध, अमर्ष, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क को ब्यभिचारी भाव के अंतर्गत; तथा 
स्वेद, स्तंभ, रोमांच, स्वरभंग, वेपयु वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय को सात्विक भाव के अंतर्गत रखा हैं ।


मन की बात

शांत हो मन
तभी उग पाएंगे
प्रेम सुमन 

गाने लगता
खुश होता है जब
पक्षी सा दिल

देखता खिला
खिल उठता मन
बाग़ में फूल

उदास मन
कर देता है धुआं
यह जीवन

बतातीं साफ़
चेहरे के रेखाएं
मन की बात
मन की अग्नि
पड़े तो होती शांत
प्यार का पानी

सदा प्रसन्न
जिसका लग जाये
हरि में मन

ज्ञान साबुन
धोकर निकालता
मन का मैल

देख हो जाता
सागर गिरि वन
मन प्रसन्न

चाहता मन
दुनिया की दौलत
मेरी कदम

मन का पाप
देख के ललचाया
धन पराया
जिसका होता
वह ज्यादा सुन्दर
मन सुन्दर

तन से ज्यादा
मन की मजबूती
होती जरूरी

थोड़ा सा प्यार
पाकर के बुझती
मन की प्यास

कर डालता
चरित्र को चौपट
बेकाबू मन

तन से ज्यादा
होना मन सशक्त
है आवश्यक

देखते हम
मन के अनुसार
यह संसार

मन की कही
ना करूँ मन दुखी
करूँ तो जग

अनेकों प्रश्न
ढूंढता है उत्तर
शांति में मन

ख़ुशी गम
होते खुद के हाथ
चाभी है मन

अधूरी यदि
बिलवा दे पापड़
चाह मन की

चाह जागे
वैभव देखकर
मन की जीत

तैरें सपने
मानो बना हो मन
तरणताल

धन अभाव
मन की बड़ी चाह
पड़ा कष्ट में

मोक्ष तो चाहे
मरने से डरता
मन बावरा

मन का पंछी
पिंजरे में जकड़ा
चाहे उड़ना

मन मंदिर
बन के बस जाती
प्रेम की देवी

आएगा अब
जाने वो कब तक
मन उदास

कह लेने दो
मन हल्का हो जाय
मन की बात

मन में तम
बाहर उजियारा
अंधे के सम

दिखा देता है
भले बुरे कर्मों को
मन दर्पण

सावन आया
साजन नहीं आया
मन में आग

सावन माह
मन की ऊँची पेंग
नव दम्पति

लेने को चूम
जी चाहे बार बार
शिशु का मुख

मन की इच्छा
जीतनी न्यूनतम
जन को अच्छा

छोड़ आया मैं
घुंघराली लटों में
चित्त अपना

इतनी भाई
हिमालय की वादी
अकेला लौटा

मन वश में
जीवन हो यश में
गीता का ज्ञान

मनमोहन
मोहा राधा मीरा को
मेरा मन

प्रेरणा देती
ढूंढने हेतु राह
मन की चाह

दर्द ही ढोता
मनुष्य जो रखता
मन में गांठ

सबसे बड़ा
जिसकी जरूरत
सबसे कम

उसका होता
मन मैल जो धोता
स्वच्छ जीवन

मन ले ख़ुशी
सज धज के चली
पिया की गली

धारण करे
काम क्रोध लोभ
मन बीमार

ध्यान ज्ञान
करने के हैं तंत्र
काबू में मन

मन पे काबू
सुन्दर जीवन का
उत्तम जादू

दाम ना कौड़ी
मन खाने को दौड़े
गर्म फुलौड़ी

छाने ना पाय
मन पर विकार
करो उपाय 

चंचल मन
ढक देता जीवन
स्वार्थीपन

चंचल हो के 
करे आकृष्ट मन
दुराचरण

खुल्ला जो छोड़ा
बिन लगाम घोडा
हो जाता मन

चंचल मन
ढक लेता जीवन
बादल बन

बना देता है
असंतुष्ट जीवन
स्वार्थीपन

उन्मुक्त मन
कर आता भ्रमण
धरा गगन 

दिखला देता
भले बुरे का भेद
मन दर्पण

फूलों की डाली
सहज कर डाली 
आकृष्ट मन 

जो कोई देखे
विवश प्रेम वश
फूलों की डाली  

मेरी हो राह
दुनिया की दौलत
मन की चाह

शक्ति की थाह
आजमाती रहती
मन की चाह

रखना बाबू
बहक नहीं जाय
मन पे काबू

प्रेरणा स्रोत
उत्साह जगाने का
मन की चाह

मन की इच्छा
जितनी न्यूनतम
जन को अच्छा

जीत की राह 
लेकर जाने वाली 
मन की चाह

काठ सा तन
अकड़ ना रे मन
आत्मा की सुन

 जितनी बड़ी 
होती मन की चाह 
कठिन राह 

प्रेरणा स्रोत
बुराई का हो जाता
मन का लोभ

मन में होता
कि जरूरत में
लोभ का घर

देता है बढ़ा
मन का अंधकार
मन की व्यथा

मन का बसा
घनघोर अँधेरा
ज्ञान से दूर

जीत की राह 
लेकर जाने वाली 
मन की चाह

काठ सा तन
अकड़ ना रे मन
आत्मा की सुन

मन की सुन
सदैव जो करता
दुखी रहता

मन सुन्दर 
हो तो दिखता पूरा
जग सुन्दर    

लगा रहता
माँ का कोमल मन
शिशु के तन 

बिना ही पाँख 
मन भरे उड़ारी
तारों के पार

जेब है खाली
मंहगाई में मन 
भूख न टाली  

क्रोध का धैर्य 
अहं की विनम्रता 
जय के यंत्र 

जान पाया 
शोध कर विज्ञान
 मन की माया

नीचे गिरा दें 
चाहे स्वर्ग दिखा दें 
मन के पंख

माँ दे ये वर
तामसी प्रवृत्तियां
दूर लूँ कर

मैं नहीं होता
वो हैं मेरी इच्छाएं
नंगा करतीं

हो के  बिंदास
बना लेती है इच्छा
जन को दास 

मन के वश
करे जो मनमानी
गंवाये यश

अँधा भी देखे
भले बुरे को खोल
मन की ऑंखें

धर्म जीवन
करना है पालन
तुझे रे मन

प्रभु की भक्ति
देती है अनुपम
मन की शक्ति

भोगता तन
अनुभव ये मन
जग के सुख

लाते तनाव
व्यभिचारी होकर
मन के भाव

कहाँ से आयी 
चिंतन को बढ़ाई 
कविता मेरी 

हारा रे मन 
जग के प्रपंचों में  
फंस के हारा 

देख पराया 
दुःखी फिरा क्यों मन 
सुख की छाया 

बसते देव 
बन जाय जिसका 
मन मंदिर 

डाल के वह
उलझा देता मन
माया का चक्र

मन में बैठा
उसे देख पाता
भटका मन

हारा रे मन 
जग के प्रपंचों में  
फंस के हारा 

देख पराया 
दुःखी फिरा क्यों मन 
सुख की छाया 

बसते देव 
बन जाय जिसका 
मन मंदिर 

निःस्वार्थ कर्म
देता धार्मिक बुद्धि
मन की शुद्धि

जीवन मृत्यु
सब उसी के हाथ
रखना याद


बोले न होंठ
आँखें देती हैं खोल 
मन की बात

मन हो जाता
कह लेने से हल्का
मन की बात  

कह न देना 
जिसे जाँच न लेना   
दिल की बात

बैठा ऊपर 
सुन लेता है पर 
मन की बात

राग न द्वेष; 


निष्कपट निश्छल,
बच्चों का मन

बच्चों को देख  
खेलते बच्चों को हो जाता 
बच्चों सा मन 

लड़ झगड़ 
फिर एक हो जाता   
बच्चों का मन  


उसकी ज्योति
मन भीतर तक
सूर्य से तेज


जाँच लो तुम मन का घुड़साल,  

वश में हों ये अश्व हर हाल

लगाम रखना कसकर पकड़े। 

ले जायँगे वरना, पापों में गहरे। 


लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, दुर्भावना,

 कपट, लालसा, निंदा, वासना,

धृष्ठताअभद्रता, बर्बरता,

बेईमानी   हठधर्मिता,

असत्य, अवज्ञा, आलस्य, कृपणता,

अन्याय, शोषण, स्वार्थ, धूर्तता,

पद-प्रतिष्ठा, लिप्सा, असभ्यता

उत्पीड़न, अनुशासन-हीनता,   

तिरस्कार, अनादर व्यभिचार  

अनैतिकता, दुष्टता, अहंकार,

द्वेष, असंयम, कटुतानृशंसता,   

होड़, अधीर, शत्रुता, निर्दयता

 

 


सादिक साहा 
संपादक 
कलम क्रांति 
लकी कोल्ड्रिंग 
मेन गेट बस स्टैंड 
कोठी बाजार 
बैतूल एम् प ४६०००१ 

फ 9301614919