तीर तलवार जब चले, छलनी करे शरीर ।
शब्दों का बाण देता, अन्तः को ही चीर ।
सिर काटन के हेतु ही, उठती है तलवार ।
उठ के मेरी लेखनी, सबको बाँटे प्यार ।
आधुनिकता में सिमटा, आज परस्पर प्यार।
सतत टूटते जा रहे, संबंधों के तार।
मंदिर-मस्जिद का बुझा, शदियों बाद विवाद।
चाहते कुछ जीवन भर, लगी रहे ये आग।
रोटी कैसे सिकेगी ?
संतों के अब पास ना, जाने की दरकार।
व्हाट्सप्प पर आजकल, सूक्ति की भरमार।
बनो मुफ्त में ज्ञानी।
किसका होता खेल यह, किसका चलता दाव।
रह रह कर लहसुन, प्याज, बड़े दिखाते भाव।
तड़का कर रहा कड़का।
बहुमत सिद्ध होने तक, विधायक नजरबन्द।
चुराने वाला कोई, पा ना जाय गंध।
कबूतरबाज शहर में।
फसल खा गया पाक का, टिड्डियों का झुण्ड।
आवाम खायी तल भुन, उनको समेत मुंड।
बदला या पेट का मसला ?
बिकता सहज मिलावटी, खाने का सामान।
लाभ कमाने का लोभ, ले औरों की जान।
कानून धरा पन्नों पे।
दिखा दिखा कर डराती, पति को दोनों जून।
जीवन भय के साये मेंं ।
घरेलु हिंसा का बना, राष्ट्र में कानून।
लाभ उसका उठा सके, पर केवल खातून।
पति चाहे पिट जाय।
जाते जब जब कचहरी, मिल जाती तारीख।
खेत सूखे पर होती, इंसाफ कि बारीश।
तब तुम क्या काटोगे?
वोट की खातिर नेता, लगे खोलने चूल।
खेत का जल बह जाता, मेड़ जाय जब टूट।
मित्रता का होय अंत, बात जाय जब फूट।
दोस्ती मेल से चलती।
शिक्षा है संविधान में, सबका ही अधिकार।
मनुष्य पैसे के लिए, करता क्या क्या खेल
कभी हिलाता दुम कभी, देता गर्दन रेत
करता है ये आदमी, मानुष का प्रतिकार
मरी वस्तुओं से मगर, दिल से करता प्यार
धूल का गुब्बार
धुएं का अम्बार
रोटी का फेर
जंगल व पहाड़ बेचा, बेचा नदी का रेत।
दबंगों ने छीन बेचा, गरीबों का खेत
धूल, धुएं में साँस ले, कैसे हों दीर्घायु।
एक दिन ऐसा आयगा, बिका करेगी वायु।
परोसें पुराने गीत, विकृत मति के लोग।
धुन की टंगरी तोड़ के, धारे धन का लोभ।
ऐनक खींचे बार बार, पढ़न न दे अखबार।
स्वप्न से तकदीर बने, न पानी पे तस्वीर।
उत्साह से आलस मरे, संयम से तृष्णा।
मिले कभी कोई भी, मिलना रखके प्यार।
ऋण, रोग और शत्रु को, शीघ्र करो समाप्त
कष्टकारी हो जाते, होयँ जब ये व्याप्त
चन्दन भी ना छोड़ती, जंगल लागी आग
डंस लेते हैं किसी को, दुष्ट व्यक्ति अरु नाग
करने वाला मित्र ही, आपात काल स्नेह
मन को बहुत सुहाय सूखा में बरसे मेह
शब्दों का बाण देता, अन्तः को ही चीर ।
सिर काटन के हेतु ही, उठती है तलवार ।
उठ के मेरी लेखनी, सबको बाँटे प्यार ।
आधुनिकता में सिमटा, आज परस्पर प्यार।
सतत टूटते जा रहे, संबंधों के तार।
सरेआम हरा जाता, पांचाली का चीर।
क्यों चाहेंगे? देश में, चल पाये गणतंत्र।
दाव में लिप्त आज के, अर्जुन, भीम प्रवीर।
क्यों चाहेंगे? देश में, चल पाये गणतंत्र।
जो चाहते कर लेते, उनका है स्व-तंत्र।
आग लगी पंजाब में, दिल्ली छिड़के नीर।
धुआं पसरा अम्बर में, मद्धिम ना हो पीर।
दादा ने सोचा न था, मोल मिलेगा नीर।
पड़पोते क्रय करेंगे, बोतलों में समीर।
गलत काम का सभी को, पड़े चुकाना मोल।
धुआं पसरा अम्बर में, मद्धिम ना हो पीर।
दादा ने सोचा न था, मोल मिलेगा नीर।
पड़पोते क्रय करेंगे, बोतलों में समीर।
गलत काम का सभी को, पड़े चुकाना मोल।
मारा जाता शेर भी, होता आदमखोर।
राजनीति का खेल भी, ज्यूँ क्रिकेट का मैच।
जाने कब छक्का लगे, जाने कब हो कैच।
मनाते हैं बाल दिवस, लगातार हर वर्ष।
बच्चों पर थमता नहीं, होना मगर अनर्थ।
राजनीति का खेल भी, ज्यूँ क्रिकेट का मैच।
जाने कब छक्का लगे, जाने कब हो कैच।
मनाते हैं बाल दिवस, लगातार हर वर्ष।
बच्चों पर थमता नहीं, होना मगर अनर्थ।
मंदिर-मस्जिद का बुझा, शदियों बाद विवाद।
चाहते कुछ जीवन भर, लगी रहे ये आग।
रोटी कैसे सिकेगी ?
संतों के अब पास ना, जाने की दरकार।
व्हाट्सप्प पर आजकल, सूक्ति की भरमार।
बनो मुफ्त में ज्ञानी।
किसका होता खेल यह, किसका चलता दाव।
रह रह कर लहसुन, प्याज, बड़े दिखाते भाव।
तड़का कर रहा कड़का।
बहुमत सिद्ध होने तक, विधायक नजरबन्द।
चुराने वाला कोई, पा ना जाय गंध।
कबूतरबाज शहर में।
आवाम खायी तल भुन, उनको समेत मुंड।
बदला या पेट का मसला ?
पुत्रमोह में नेता, बन जायं धृतराष्ट्र ।
पुत्र पा जाये कुर्सी, जाय रसातल राष्ट्र।
योग्यता बाप का रुतबा।
एकाध विधायक काश, लग जाता जो हाथ।
इधर का उधर भेजकर, कमाते कई लाख।
इधर का उधर भेजकर, कमाते कई लाख।
सौदा खरा खरा।
बिकता सहज मिलावटी, खाने का सामान।
लाभ कमाने का लोभ, ले औरों की जान।
कानून धरा पन्नों पे।
सजा हेतु कानून में, सबकी एक किताब।
पर प्रभावी लोगों का, होता अलग हिसाब।
रुपैय्या बड़ा रे भइया।
महिलाओं को मिला, रक्षा का कानून।
जीवन भय के साये मेंं ।
घरेलु हिंसा का बना, राष्ट्र में कानून।
लाभ उसका उठा सके, पर केवल खातून।
पति चाहे पिट जाय।
जाते जब जब कचहरी, मिल जाती तारीख।
खेत सूखे पर होती, इंसाफ कि बारीश।
तब तुम क्या काटोगे?
कानून का पेड़ बड़ा, गजब दिखाए रूप।
सींचे, उसे छांव मिले, बाकी सबको धूप।
न्याय का फल कहां है?
न्याय का फल कहां है?
असली सिपाही रण में, रिपु की गोली खाय।
नकल करता अभिनेता, पर नायक कहलाय।
ऊपर से मालामाल।
नकल करता अभिनेता, पर नायक कहलाय।
ऊपर से मालामाल।
पुर्जा पुर्जा हो बेशक, समाज यह समूल।
कुछ तो हाथ लगेगा।
गाँधी जी की सोच थी, मिटे जाति का भेद।
आरक्षण ने जाति नव, किये कई अन्वेष।
सूची क्या और बढ़ेगी ?
तनिक किये बिन चिंता, बात जा रही किधर।
चैनल यूँ ही चलेगा?
आरक्षण ने जाति नव, किये कई अन्वेष।
सूची क्या और बढ़ेगी ?
बन कर नारद मीडिया, करे इधर की उधर।
चैनल यूँ ही चलेगा?
चीलम भरते थे कभी, अब भर रहे गिलास।
बुझा हुक्का काका का, बोतल आई रास।
शाम होते ही खुलती।
शाम होते ही खुलती।
मरीज से पहले आय, तब जा पूछें मर्ज ।
बड़ा रोग निकला अगर, लेना पड़ता कर्ज।
पैसा बड़ा रोग है।
पैसा बड़ा रोग है।
खेत का जल बह जाता, मेड़ जाय जब टूट।
मित्रता का होय अंत, बात जाय जब फूट।
दोस्ती मेल से चलती।
शिक्षा है संविधान में, सबका ही अधिकार।
कुछ लोगों के हाथ का, शिक्षा क्यों व्यापार?
गुरु की दुकान चल रही।
क़त्ल करने वाले को, रूलाती थी प्याज।
खरीददार के आंसू, बहा रही है आज।
दीवाने फिर भी ना कम।
तो क्या चक्की पिसेगा ?
पीछे कुछ तो पकेगा?
भाईयों के झगड़े में, बांटा गया मकान।
बहुओं को कमरे मिले, पायी सास दलान।
होता दिल रोता अश्रु बहाते नैन
कान सुन ढाढ़स देते, दूरभाष के बैन
काजल कितना भी लगे
स्वच्छ रहा अश्रु
झुक पाता तो है वही, जिसमें होती जान।
मंदिर मस्जिद का हुआ, झगड़ा अब समाप्त।
लोग कई करते योग, शांति न हो व्याप्त।
रगड़ा अब भी बाकी।क़त्ल करने वाले को, रूलाती थी प्याज।
खरीददार के आंसू, बहा रही है आज।
दीवाने फिर भी ना कम।
जैसी पत्नी पा गया, बेटा उसे सहेज।
चूं चुपड़ किया तो ससुर, लगा देगा दहेज़।तो क्या चक्की पिसेगा ?
सम विषम का फेर डाल, बंद कर दिया कार।
सड़कें भरने हेतु बस, मंगवाती सरकार।पीछे कुछ तो पकेगा?
चढ़ा पुलिस के हाथ में, किया नहीं अपराध।
जुर्म कई कबूल लिया, पड़ते ही दो हाथ।
अपराधी यूँ भी बनते।
अपराधी यूँ भी बनते।
बनाया है इंसान ने, यातायात तमाम।
प्रभु तक पहुंचने में, कोय न आता काम।
वहां चढ़ कर्मों पर, जाना।
वहां चढ़ कर्मों पर, जाना।
भाईयों के झगड़े में, बांटा गया मकान।
बहुओं को कमरे मिले, पायी सास दलान।
होता दिल रोता अश्रु बहाते नैन
कान सुन ढाढ़स देते, दूरभाष के बैन
काजल कितना भी लगे
स्वच्छ रहा अश्रु
झुक पाता तो है वही, जिसमें होती जान।
लकड़ी, मुर्दे की अकड़, मरने की पहचान।
सफलता या असफलता; जगह न देना खास।
एक मन में घमंड भरे, दूजा करे उदास।
समय समय की बात है, घटते बढ़ते भाव।
समय समय की बात है, घटते बढ़ते भाव।
कब गाड़ी हो नाव पर, गाड़ी पर कब नाव।
पार्किंग के विवाद ने, बना दिया माहौल।
बहस बहस में आपसी, निकल जाय पिस्तौल। मनुष्य पैसे के लिए, करता क्या क्या खेल
कभी हिलाता दुम कभी, देता गर्दन रेत
करता है ये आदमी, मानुष का प्रतिकार
मरी वस्तुओं से मगर, दिल से करता प्यार
धूल का गुब्बार
धुएं का अम्बार
रोटी का फेर
जंगल व पहाड़ बेचा, बेचा नदी का रेत।
दबंगों ने छीन बेचा, गरीबों का खेत
जीते जो अपने लिए, जीवन रखें फिजूल।
जिन्दा अपने हेतु नहीं, नदिया, पेड़ व फूल।
धूल, धुएं में साँस ले, कैसे हों दीर्घायु।
एक दिन ऐसा आयगा, बिका करेगी वायु।
पोता करता गोद में, दादा से तकरार।
स्वप्न से तकदीर बने, न पानी पे तस्वीर।
करनी से भरनी मिले, राखि करे जो धीर।
पौत्र सीखा दादा से, उंगली पकड़ चलना।
सिखलाता मोबाइल पे, उंगली वो रखना।
बिना किसी संघर्ष के, हो न कोई महान।
रह काँटों के बीच में, गुलाब रखता शान।
जिंदगी उनकी है हंसीं, हंसें जो हर हाल।
कांटों की चिंता नहीं, हँसता फूल गुलाब।
छूट जाते हैं एक दिन, हर साँस और साथ।
साँस गए एक बार मरे, छोड़ सौ बार साथ।
औरों का हक़ छीन के, बनते हैं धनवान।
शेर होता पहलवान,
ले औरों की जान।
धन के बल जो आदमी, हो जाता है बड़ा।
पाप का बोझ, सर ऊपर, रखे होत है बड़ा।
मोटा होवे आदमी, घटे पेट की भूख।
जैसे जैसे हो धनी, बढ़ती धन की भूख।
भोजन कर ले पेट भर,
मिटे पेट की भूख।
जपो जी भर राम नाम, मिटती मन की भूख।
देख समय को, बुढ़ापा, आय सज्जन के मन ।
देख समय को, बुढ़ापा, आय सज्जन के मन ।
बूढ़ा हो जाय दुर्जन,
बुढ़ापा आय न मन।
उत्पन्न हो जाय पुत्री,
होता पिता चिंतित।
कैसा होगा घर व वर?
सुख क्या साथ किंचित ?
स्त्री कुल की मर्यादा,
सरिता के हैं कूल।
बिगड़ी स्त्री कुल तोड़े, उफनी सरिता कूल।
तेज होकर पवन बहुत, रखता ताकत बड़ा।
गिरा दे खड़े पेड़ को, कर न सके फिर खड़ा।
शत्रु व रोग ज्यों जन्में,
दीजो तुरत दबाय।
हो जाते हैं जब बड़े, घातक वे हो जांय।
छोड़ देते मित्र सभी, ना हो जब कुछ हाथ।
गाय से दूध ना मिले, बछड़ा छोड़े साथ।
रईस कृपण से बड़ा, दानी निर्धन होय।
जल का कुआँ पूजें सब, सागर को ना कोय।
तपते लोहे पर भस्म, जल सीप में मोती।
सोना संग लाख की, सोने सी गति होती।
उदित होता या डूबता, सूरज रहता लाल।
ज्ञानी का सुख दुःख में, रहे एक सा हाल।
इंसान कर ले वश में, बाघ भालू व सर्प।
खुद के पाले हों नहीं, वश में क्रोध व दर्प।
सोना का संग पाकर, लाख चमक ना पाय।
मूरख सन्त प्रताप से, वंचित ही रह जाय।
तपते लोहे पर भस्म,
जल सीप में मोती।
सोना संग लाख की, सोने सी गति होती।
उदित होता या डूबता, सूरज रहता लाल।
ज्ञानी
का सुख दुःख में, रहे एक सा हाल।
इंसान
कर ले वश में, बाघ भालू व सर्प।
खुद के पाले हों नहीं,
वश में क्रोध व दर्प।
देह चलातीं इन्द्रियां, वा इन्द्रियों को मन
माया का अथाह समुद, बुद्धि से नियंत्रण
पूजा, प्रार्थना, श्रद्धा, भक्ति, ध्यान व ज्ञान
सही मार्ग ले जानें की मन की हैं लगाम
सत्व, राजसी, तामसी तीन गुणों में द्वन्द
किसकी गति तीव्र करो चाहो जिसको मंद
काम, क्रोध. लोभ, मोह, मन को करें बीमार
दया, सत, प्रेम से वंचित धारण करे विकार
वैद्य देता है दवा होय जो तन का रोग
साधना ही ठीक करे, मन का हो गर रोग
अहं, स्वार्थ, ईर्ष्या व हठ, बुद्धि पे झंडा गाड़
ह्रदय के करते बंद, ये ही खुले किवाड़
संतोष मारे हवस को, दान मारे लोभ ।
दया मारती ईर्ष्या
को, धैर्य मारे क्रोध ।
उत्साह से आलस मरे, संयम से तृष्णा।
विनम्रता हरे गर्व को, प्यार मारे घृणा।
व्यायाम से हो सुदृढ़, हरेक जीव का तन ।
मानसिक अभ्यास रखे, स्वस्थ मनुष्य का मन ।
तीर्थ, पूजा के करे, स्वच्छता ना आय ।
काम वासना मार दे, मन निर्मल हो जाय।
मिले कभी कोई भी, मिलना रखके प्यार।
हो न कहीं आया हो, तुम्हें दिखाने
राह ।
चाहता हरेक का मन, करने को हर काम।
बना नहीं हरेक हेतु, जग में है हर काम ।
ऋण, रोग और शत्रु को, शीघ्र करो समाप्त
कष्टकारी हो जाते, होयँ जब ये व्याप्त
चन्दन भी ना छोड़ती, जंगल लागी आग
डंस लेते हैं किसी को, दुष्ट व्यक्ति अरु नाग
करने वाला मित्र ही, आपात काल स्नेह
मन को बहुत सुहाय सूखा में बरसे मेह
आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार और कथन :-
3: शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
4: सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
5: एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
6: आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
7: मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।
8: जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।
9: संकट में बुद्धि ही काम आती है।
10: लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
11: यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
12: यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
13: सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।
14: एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है। अर्थात एक विपरीत स्वाभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते है।
15: कल के मोर से आज का कबूतर भला। अर्थात संतोष सब बड़ा धन है।
16: आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है। अर्थात दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, वह सदा दुःख ही देता है।
17: अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
18: भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
19: विद्या ही निर्धन का धन है।
20: विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।
21: शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।
22: अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
23: सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
24: किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करें।
25: आलसी का न वर्तमान होता है, न भविष्य।
26: सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
27: ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है। अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।
28: सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।
29: समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।
30: जो जिस कार्ये में कुशल हो उसे उसी कार्ये में लगना चाहिए।
31: दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।
32: किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें।
33: चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।
34: पहले निश्चय करिएँ, फिर कार्य आरम्भ करें।
35: भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।
36: अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है।
37: शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।
38: कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
39: व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
40: शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे।
41: अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।
42: मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।
43: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
44: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
45: अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।
46: जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
47: स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
48: धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
49: कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली। अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।
50: दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
3: शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
4: सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
5: एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
6: आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
7: मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।
8: जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।
9: संकट में बुद्धि ही काम आती है।
10: लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
11: यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
12: यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
13: सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।
14: एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है। अर्थात एक विपरीत स्वाभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते है।
15: कल के मोर से आज का कबूतर भला। अर्थात संतोष सब बड़ा धन है।
16: आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है। अर्थात दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, वह सदा दुःख ही देता है।
17: अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
18: भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
19: विद्या ही निर्धन का धन है।
20: विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।
21: शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।
22: अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
23: सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
24: किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करें।
25: आलसी का न वर्तमान होता है, न भविष्य।
26: सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
27: ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है। अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।
28: सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।
29: समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।
30: जो जिस कार्ये में कुशल हो उसे उसी कार्ये में लगना चाहिए।
31: दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।
32: किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें।
33: चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।
34: पहले निश्चय करिएँ, फिर कार्य आरम्भ करें।
35: भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।
36: अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है।
37: शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।
38: कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
39: व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
40: शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे।
41: अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।
42: मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।
43: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
44: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
45: अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।
46: जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
47: स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
48: धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
49: कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली। अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।
50: दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
51: आग में आग नहीं डालनी चाहिए। अर्थात क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।
52: मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है।
53: दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।
54: दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती। अर्थात आवश्कयता के अनुसार साधन जुटाने चाहिए।
55: कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।
56: कल का कार्य आज ही कर ले।
57: सुख का आधार धर्म है।
58: धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है।
59: अर्थ का आधार राज्य है।
60: राज्य का आधार अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना है।
61: प्रकृति (सहज) रूप से प्रजा के संपन्न होने से नेताविहीन राज्य भी संचालित होता रहता है।
52: मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है।
53: दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।
54: दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती। अर्थात आवश्कयता के अनुसार साधन जुटाने चाहिए।
55: कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।
56: कल का कार्य आज ही कर ले।
57: सुख का आधार धर्म है।
58: धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है।
59: अर्थ का आधार राज्य है।
60: राज्य का आधार अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना है।
61: प्रकृति (सहज) रूप से प्रजा के संपन्न होने से नेताविहीन राज्य भी संचालित होता रहता है।
62: वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है।
63: वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
64: ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
65: आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
66: जहां लक्ष्मी (धन) का निवास होता है, वहां सहज ही सुख-सम्पदा आ जुड़ती है।
67: इन्द्रियों पर विजय का आधार विनर्मता है।
68: प्रकर्ति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
69: शासक को स्वयं योगय बनकर योगय प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
70: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
71: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
72: सुख और दुःख में सामान रूप से सहायक होना चाहिए।
73: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों कोसम्मुख रखकर दुबारा उन पर विचार करे।
74: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
75: शासक को स्वयं योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
76: सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
77: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दोबारा उन पर विचार करे।
78: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी अपनी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
79: ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाए।
80: समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहिए।
81: विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है।
82: लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
83: सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए।
84: मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।
85: मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है।
86: भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
87: मंत्रणा के समय कर्त्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
88: मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
89: राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
90: कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए।
91: छः कानो में पड़ने से (तीसरे व्यक्ति को पता पड़ने से) मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
92: अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है।
93: आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
94: आलसी राजा प्राप्त वास्तु की रक्षा करने में असमर्थ होता है।
95: आलसी राजा अपने विवेक की रक्षा नहीं कर सकता।
96: आलसी राजा की प्रशंसा उसके सेवक भी नहीं करते।
97: शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।98: राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते है।
99: राज्यतंत्र से संबंधित घरेलु और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है।
100: राज्य नीति का संबंध केवल अपने राज्य को सम्रद्धि प्रदान करने वाले मामलो से होता है।
63: वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
64: ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
65: आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
66: जहां लक्ष्मी (धन) का निवास होता है, वहां सहज ही सुख-सम्पदा आ जुड़ती है।
67: इन्द्रियों पर विजय का आधार विनर्मता है।
68: प्रकर्ति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
69: शासक को स्वयं योगय बनकर योगय प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
70: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
71: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
72: सुख और दुःख में सामान रूप से सहायक होना चाहिए।
73: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों कोसम्मुख रखकर दुबारा उन पर विचार करे।
74: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
75: शासक को स्वयं योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
76: सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
77: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दोबारा उन पर विचार करे।
78: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी अपनी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
79: ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाए।
80: समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहिए।
81: विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है।
82: लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
83: सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए।
84: मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।
85: मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है।
86: भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
87: मंत्रणा के समय कर्त्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
88: मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
89: राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
90: कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए।
91: छः कानो में पड़ने से (तीसरे व्यक्ति को पता पड़ने से) मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
92: अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है।
93: आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
94: आलसी राजा प्राप्त वास्तु की रक्षा करने में असमर्थ होता है।
95: आलसी राजा अपने विवेक की रक्षा नहीं कर सकता।
96: आलसी राजा की प्रशंसा उसके सेवक भी नहीं करते।
97: शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।98: राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते है।
99: राज्यतंत्र से संबंधित घरेलु और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है।
100: राज्य नीति का संबंध केवल अपने राज्य को सम्रद्धि प्रदान करने वाले मामलो से होता है।
101: निर्बल राजा को तत्काल संधि करनी चाहिए।
आचार्य चाणक्य का जन्म आज से लगभग 2400 साल पूर्व हुआ था। वह नालंदा विशवविधालय के महान आचार्य थे। उन्होंने हमें ‘चाणक्य नीति’ जैसा ग्रन्थ दिया जो आज भी उतना ही प्रामाणिक है जितना उस काल में था। चाणक्य नीति एक 17 अध्यायों का ग्रन्थ है। अपने पाठको के लिए हम यह 17 अध्याय पहले ही अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर चुके है जो की आप इस लिंक पर पढ़ सकते है – सम्पूर्ण
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