Monday, 22 July 2019

Geet Gunjan se bhojpuri geet


सोहर गीत

अंगना में खेले ललनवा, गगनवा मगन भइल हो।
ललना, बाजेला दुअरे बधाई, भवनवा धन भइल हो।

डोल के झुलावेला झुलनवा हौले से पवनवा हो।
ललना, विंहसेला देखि चनरमा बाबा अंगनवा हो।

चाचा ले के अइलें घुघुनवा कि चाची बजावेली हो।
ललना, ननदी डोलावें पलनवा, संगही गावेली हो।

माई का खिलल बाटे मनवा खुशी खुशी झुमेली हो।
ललना, आजी चमके नयनवा मुंह के चुमेली हो।

चहके चारी ओर सजनवा, होरिला का जनमवा हो।
ललना, बाबा लुटावे अन्न धनवा, होते बिहनवा हो।

- सत्य देव तिवारी 




















खिलौना गीत

निशानी मांगे ननदी, लाल की बधाई। 
कंठ-हार मांगे ननदी, लाल की बधाई। 

ये तो कंठ-हार मेरे ससुर जी ने दीन्हा,
अंगूठी ले ले ननदी, लाल कि बधाई। 

ये तो अंगूठी मेरी सासु जी ने दीन्हा,
झुमका ले ले ननदी, लाल की बधाई। 

ये तो झुमका मेरे जेठ जी ने दीन्हा,
पाजेब ले ले ननदी लाल कि बधाई। 

ये तो पाजेब मेरी जेठानी ने दीन्हा,
मोबाइल ले ले ननदी, लाल की बधाई। 

ये तो मोबाइल मेरे साजन ने दीन्हा,
तू साड़ी ले ले ननदी, लाल की बधाई। 

ये तो साड़ी अपने मायके से लायी,
नगदी ले ले ननदी, लाल की बधाई। 



- सत्य देव तिवारी 












झूमर गीत

घेर आईल कारी बदरिया हो, बरसे धीरे धीरे।
बिछली में सारी डगरिया हो, बरसे धीरे धीरे।

ताका ना तू, एन्ने अनाड़ी,
भीजल बाटे हमरी साड़ी,
फेर ला तू आपन नजरिया हो, बरसे धीरे धीरे।

भीजल जाय रे अंग मोरा,
तनिको नाहीं फिकर बा तोरा,
पास नाहीं हमरे छतरिया हो, बरसे धीरे धीरे।

जियरा हमार जर जर जाय,
रिमझिम सावन नाहीं बुताय,
बड़ा नाजुक बाटे उमरिया हो, बरसे धीरे धीरे।

झूला झूलें सखियाँ सहेली,
गईल सँवरिया छोड़ अकेली,
सावन में सूनी सेजरिया हो, बरसे धीरे धीरे। 



- सत्य देव तिवारी 

















कजरी गीत

घिर घिर आयी काली बदरिया, सावन बरसन लागे ना।
घर नहीं आये रे सांवरिया, जियरा तरसन लागे ना।

ताल तलैया भर गए सारे, हर रोज निहारूं डगर मैं 
कैसे मैं समझाऊं सजन को, उपाय ना कोई नजर में। 
दामन मोरा डर डर जाये, दामिनी तड़पन लागे ना।

सखि सब झूला झूल रहीं, मैं पड़ गयी यहाँ अकेली।
सावन में छोड़ पिया परदेश, बनी हूँ मैं तो पहेली।
ऊँची पेंग दिखा के मोंहे, सखियाँ मटकन लागें ना।

खेतों में उग आये धान, मेढक, मोर, पपीहरा पुकारे।
सावन, कर दे जला के राख, अब तो पिया तू रे।
जब जब आवे ठंडी बयार, अँखियाँ फड़कन लागे ना।


- सत्य देव तिवारी 





















विदेशिया गीत

फागुन महिनवा में गईले परदेशवा,
छोड़ गईले सूनी सेज रे विदेशिया।

रोवत रोवत मोरी अंखिया झुरइली,
भीज गईल तकिया सगरी विदेशिया। 

साँझ सवेरे ले ला तनी बतियाय हो,
फोनवा से मन ना भरे रे विदेशिया।

देख टेलीविजन हम काटीं दिन रतिया,
फ्लैट में चाँद नाहीं लउके रे विदेशिया। 

भाभी भाभी कहके बजावेला घंटी,
पडोसी पूछ जाला हाल रे विदेशिया। 

आंख फाड़ जवानी देखेला जहान हो,
अकेले रहल जैसे पाप रे विदेशिया।


- सत्य देव तिवारी 








Thursday, 11 July 2019

Maha Ramayan

अपनी बात 

प्रभु श्रीराम की कथा से तो सभी परिचित हैं। राम की अमृतमयी कथा के लिए, बाल्मीकि कृत 'रामायण' अथवा तुलसी दास रचित 'रामचरित मानस' दोनों ही ग्रंथों का पाठ कितनी ही बार करें, कम है। श्रीराम चरित्र को बार बार पढ़कर भी मन को पूर्ण संतुष्टि नहीं मिल पातीक्योंकि प्रभु राम का चरित्र एक अथाह सागर है, गुणों का धाम है और दुर्गुणों का निवारक है। 'रामायण' का अर्थ है 'राम की यात्रा' और 'रामचरित मानस' का अर्थ 'राम के चरित्र का सरोवर' जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी, चरित्र निर्माणकारी, दुष्ट दलनकारी, दुर्गुणहारी, कष्ट निवारक, आनंददायक और मोक्ष प्रदायक है। रामायण के विभिन्न चरित्र आदर्श पुत्र, माता, भ्राता, भक्त, सेवक, पति, पत्नी, मित्र, वीर, राजा, कृपालु, दयालु, भक्तवत्सल आदि होने का सन्देश के साथ तेजस्वी, विद्वान, बुद्धिमान, धैर्यवान, जितेन्द्रिय, पराक्रमी, संस्कारी, दुष्टों का दमन करने वाला, बुराईयों के विरुद्ध लड़ने वाला, नीतिकुशल, धर्मात्मा, भक्तवत्सल, दयालुशरणागत को शरण देने वाला, शास्त्रों के ज्ञाता, भक्त, आज्ञाकारी आदि होने की शिक्षा देता है।

तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' भक्ति रस से सराबोर है; जिसमें बार बार डूबने का, अपितु डूबे रहने का मन होता है। रामचरित मानस, एक अत्यंत वृहत ग्रन्थ होने के कारण, बहुत से लोग कई बार यह सोचकर कि पूरा पढ़ने में बहुत अधिक समय लगेगा, 'रामचरित मानस' का पाठन आरम्भ तक नहीं करते।आजकल के व्यस्त जीवन में समयाभाव के कारण, महर्षि बाल्मीकि रचित 'रामायण तुलसीदास कृत 'रामचरित मानसका सम्पूर्ण पाठ, संभव नहीं हो पाता, यद्यपि श्रीराम की कथा बार बार सुनने जानने की जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न होती है। अतः मैंने प्रभु राम की कथा को संक्षिप्त करके तीन पादों या तिपाईयों यानि कि तीन पंक्तियों के छंदों में प्रस्तुत करने की सोचा।

पहले मैंने हाइकु छंदों के द्वारा रामायण का संक्षिप्त दर्शन कराने का प्रयत्न किया, परन्तु हाइकु-छंद के अतुकांत होने के कारण, श्रीराम की महिमा के सरस रसपान आनंद नहीं मिलता। काव्य के लयवद्ध होने से ही आनंद की प्राप्ति हो पाती है। हिंदी काव्य में अनेक प्रकार के छंद हैं, किन्तु किसी भी छंद में पूरी रामायण लिख पाना अत्यंत चुनौती भरा कार्य है। मैंने अपने हाइकु और पंजाब में प्रचलित आंचलिक काव्य-विधा माहिया का सहारा लिया तथा श्रीराम की कथा को इन तीन पंक्तियों के छंदों में लिखने का निर्णय लिया। वैसे हाइकु में सत्रह वर्ण होते हैं और माहिया में चौंतीस मात्रा-भार; मैंने इस पुस्तक में सैंतीस मात्रा-भार के छंदों का निर्माण किया। प्रभु राम की कृपा से यह ग्रन्थ सहज ही पूर्ण हो गया। इन छंदों के द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र के चरित्र का संक्षिप्त अवलोकन सरलता से किया जा सकता है। संभवतः श्रीराम  के आदेश से ही मैं यह कार्य करने को उद्यत हुआ और प्रभु ने सहज ही सफलता भी प्रदान किया। यह रचना अत्यंत संक्षिप्त है, किन्तु मुझे विश्वास है कि पाठक को श्रीराम की कथा से अवगत कराने में सक्षम है। 

श्रीराम चरित्र, मन को आनंद से भर देने वाला तथा भव से पार लगाने वाला है। श्रीराम के सम्पूर्ण  चरित्र का विस्तार पूर्वक आनंद, महर्षि बाल्मीकि और संत तुलसीदास की उपरोक्त  कृतियों के द्वारा लिया जा सकता है। यह रचना प्रभु श्रीराम के स्मरण और उनका संक्षिप्त दर्शन कराने के ध्येय से की गयी है। राम की महिमा अपार है, जिसका न कोई आदि है न अंत। राम की महिमा का वर्णन युगों से होता आ रहा है, परन्तु अभी तक कोई पार नहीं पा सका। यदि आध्यात्मिक पहलू को छोड़कर भी देखें तो 'राम' शब्द की शक्ति सोच से भी परे है। राम-नाम की शक्ति कितनी विशाल है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि करोड़ों अरबों लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग श्रीराम-नाम में निवेश है। राम की पूजा-अर्चना, राम का भजन, राम का कीर्तन, राम का मनन, राम का स्मरण, राम का जाप, रामचरित्र का पाठ, राम मंदिरों के दर्शन, राम-लीलाओं के अवलोकन आदि के द्वारा विश्व की एक बड़ी जनसंख्या अपने जीवन की संतुष्टि और प्रसन्नता ढूंढती है। करोड़ों लोग 'राम' का नाम लेते राम की पवित्र नगरी अयोध्या जाते हैं और 'राम' नाम में डूब जाते हैं। कितने ही फूल और दीये 'राम' का नाम लिए, पावन सरयू तथा अन्य नदियों में बहाये जाते हैं। जहाँ राम, भगवान हैं; वहीं राम का नाम हमारे लिए एक अनमोल निधि है, जो अनेक कष्टों का निवारण करता है तथा मन को परम आनंद प्रदान करता है। संत तुलसीदास के अनुसार, कलियुग में प्रभु राम को बस 'राम' के नाम से ही पाया जा सकता है। कलियुग में तो राम का नाम अमृत समान है।  इस पुस्तक में सभी काण्ड और भजन आदि मिलाकरपरम पावन शब्द 'राम' का बार बार प्रयोग किया गया है, जिससे कि यह पुस्तक पढ़ने से राम-नाम जपने का भी लाभ मिले। जिन्हें भगवान श्रीराम के चरित्र का ज्ञान है, वे इस संक्षिप्त पुस्तक को पढ़कर, राम की पूरी जीवन गाथा का स्मरण कर पाएंगे और उसका भरपूर लाभ उठा सकेंगे। जिन्हें राम की कथा का ज्ञान नहीं है; वैसे तो यह पुस्तक, उनकी कथा से अवगत करा देगी, इसके  अतिरिक्त राम के विषय में और अधिक जानने के लिए जिज्ञासा उत्पन्न करेगी तथा श्रीराम का चरित्र विस्तार से जानने हेतु प्रेरित करेगी, ऐसा मुझे विश्वास है। चाहे किसी भी प्रकार हो प्रभु राम के नाम का स्मरण अनेकों प्रकार से लाभ और सुख-शांति दिलाने वाला है। 

सत्य देव तिवारी 





सूची - क्रम

श्रीराम कथा 

बाल काण्ड

अयोध्या काण्ड

अरण्य काण्ड

किष्किन्धा काण्ड

सुन्दर काण्ड

लंका काण्ड

उत्तर काण्ड

रामायण सार 

भजन 




तर्क से परे
अगणित अपार
श्रीराम कथा

कष्ट निवार
करे भव से पार
श्रीराम कथा

मिलती मुक्ति
कर लेने से श्रुति 
श्रीराम कथा 

जीवन मन्त्र
बाधा मुक्तक यंत्र
श्रीराम कथा

मन भावन
करती है पावन
श्रीराम कथा

मंगलमय 
हरती सब भय 
श्रीराम कथा

संत समाज 
भजता दिन रात 
श्रीराम कथा

कष्ट व खल  
सुन दूर सकल 
श्रीराम कथा

वेद विज्ञान
भरे शास्त्रों का ज्ञान 
श्रीराम कथा

प्रकृति संग 
चारित्रिक प्रसंग 
श्रीराम कथा

मन ले हर
ज्ञान का सरवर
श्रीराम कथा


मनोवांछित
कराती कार्य सिद्ध 
श्रीराम कथा


मिटाती भ्रम 
इन्द्रियों पे संयम 
श्रीराम कथा

धर्म व भक्ति 
देती नैतिक शक्ति 
श्रीराम कथा


सुखदायक 
जीवन सुधा रस 
श्रीराम कथा

पापों से मुक्त 
सुन के श्रद्धायुक्त 
श्रीराम कथा

श्रेय की वृद्धि 
करे कार्य की सिद्धि 
श्रीराम कथा

संत सत्संग 
समाजिक सम्बन्ध 
श्रीराम कथा

बाल्मीकि कृत 
जीवन का अमृत 
श्रीराम कथा

तुलसी दास 
कर दिए कृतार्थ 
श्रीराम कथा

करे प्रदान
गुरु सा गूढ़ ज्ञान
श्रीराम कथा


दम्भ पाखंड
जला करती भस्म
श्रीराम कथा

संत संगत
हर ले कुसंगत
श्रीराम कथा 

सरि की भांति
राम सिंधु ले जाती
श्रीराम कथा 


बाल काण्ड




दिलाता है सत्संग;
मनुष्य को बुद्धि, विवेक,
जगत में परमानन्द।

मिल जाय यदि सत्संग,
शठ, खल भी सुधर जाते;
सीखकर अच्छे ढंग।

औषधि, वायुजल, वस्त्र,
सुसंग पा भले जगत में;
बुरा, कुसंग से हश्र।

पानी बुझाता प्यास;
ओला की प्रकृति विलग,
फसल का करता नाश।

कालिख, पा के कुसंग;
धुआं बन जाये स्याही,
लिख डालता है ग्रन्थ।

बिना गुरुवर के ज्ञान,
मनुष्य को मिलता नहीं;
ज्ञान बिना सम्मान।

जीव, जंतु  पदार्थ;
किसी ना किसी रूप में,
सभी मनुष्य के अर्थ।

कृतज्ञ होवो पाकर;
करना धर्म हर वस्तु की
मर्यादा का आदर।

ईश्वर सृष्टि में एक;
जीव, पदार्थ, कृति सभी
हैं उसी प्रभु की देन।

कभी ना करना गर्व,
न्यून या अधिक पाकर;
प्रभु ने दिया सर्वस्व।

हटाता कपट, कुतर्क,
कुमार्ग और कुचाल को;
राम चरित्र सर्वस्व।


शिव जी से पार्वती
अनुरोध कीं सुनने का
शुभ कथा रघुनाथ की;

अवतार से रावण वध,
कहें लीलाएं उनकी;
बनने तक भूप अवध।

राम के सभी रहस्य;
समाया है जो उनमें,
भक्ति, ज्ञान और तत्व।

शिव बोले, पार्वती!
काकभुशुण्डि ने कही,
कथा सुनो श्रीराम की -

राम कथा अति पावन;
शोक, मोह, भ्रम दूर हो,
लगती है मन भावन।

राम के गुण का गान,
देने वाला परम सुख,
कल्पवृक्ष के समान।

ज्ञान गुणों के धाम;
जीव, माया जगत में,
सभी के स्वामी राम।

आदि ना उनका अंत;
राम का स्वरूप अथाह,
पार पाँय मुनि, संत।

करने से नित वर्णन,
अघाते वेद, पंडित;
माया दशरथनन्दन।

काकभुशुण्डि ने कहा,
गरुण ने जिसे था सुना;
हे  देवीसुनो कथा।

हित करने के कारण
भक्तों के ही भगवान;
शरीर करते धारण।

था पवित्र  निर्मल;
महर्षि पुलस्त्य का कुल,
संतानें दुष्ट सकल।

पूर्व शाप के कारण;
हुआ पुलस्त्य के यहाँ,
उत्पन्न पुत्र रावण।

ब्रह्मा से माँगा वर;
रावण मरे किसी से,
सिवाय नर या वानर।

इतना रहे आहार,
कुम्भकर्ण को वर मिला;
जगत का करे उजाड़।

सुत सौतेला विभीषण;
माँगा था प्रभु का प्रेम,
कमल चरणों में शरण।

मय ने दे दी पुत्री;
जान होगा वह राजा,
रावण को मंदोदरी।

पुष्पक विमान लाया,
हरा कुबेर को रावण;
अपनी शक्ति बढ़ाया।

ब्रह्मा द्वारा निर्मित
दुर्ग, त्रिकूट पर्वत पर;
स्वर्ण, मणियों से जड़ित। 

रावण बने किला पर,
जमाया स्वयं अधिकार;
योद्धा सभी हराकर।

दैत्यों को भड़काता;
रावण देवताओं को,
अपना शत्रु बताता।

बड़ाई, बलसंपत्ति;
बढ़ती नित रावण की,
राज-पाट संतति।

सुत ज्येष्ठ रावण का;
मेघनाद एक योद्धा,
सबसे बड़ा जगत का।

देवताओं से छीन;
छल बल से किया राज्य,
सबका अपने अधीन।

कभी  भोग से तृप्त
व्यसन के वश था रावण;
रहता पाप में लिप्त।

बेटेपौत्र अधर्मी;
परिवार में रावण के  
हो गए सब कुकर्मी।

राक्षस थे अभिमानी;
विमुख हो धर्म, दया से,
करते सब मनमानी।

असुर उठाकर लाते,
बल से देव कन्यायें;
भार्या उन्हें बनाते।

बुरे सब कार्य कलाप;
अत्याधिक बढ़ गया था,
राक्षसों का उत्पात

दुःखी थी अति  धरती;
बढ़ती जा रही पल पल,
राक्षसों की शक्ती।  

पड़ी बड़ी लाचारी;
बढ़ गया था पाप विकट,
वसुंधरा पर भारी।

पृथ्वी को था लगता,
पापों का सिर पर भार;
पहाड़ों से भी बड़ा।

ब्रम्हा के पास गयी,
गाय का धर के शरीर;
व्याकुल हो के मही।

सुनाई जा के धरनी,
विपत्ति सकल ब्रम्हा से;
राक्षसों की करनी।

दैव का करो स्मरण,
बोले धरा से ब्रह्मा -
वही करेगा निवारण।

हरि का करने लगी,
स्मरण संग देवों के,
वापस आकर पृथ्वी।

हुई आकाशवाणी,
करूँगा निश्चित उद्धार,
सुन ले तू, हे प्राणी !

इक दिन मैं बन के नर;
प्रकट होउंगा भू पर,
राजा दशरथ के घर।

जोहने लग गए पथ,
होकर आश्वस्त सभी;
हरि के आने की सब।
५० 


रघुकुल की अवध पुरी,
सरयू के तट पर बसी, 
रमणीय एक नगरी। 

सरयू में बहता जल, 
निराला बहुत मनोहर,
स्वच्छ, पावन, निर्मल।   

तट पर सुन्दर उद्यान;
विहँसते फूल सुगन्धित,  
खगों के कलरव गान।  

थी पहले से सदैव,
पूरे तीनों लोक में,
अयोध्या पुरी अजेय।

सर्व गुणों के अधिपति,
इक्ष्वाकु वंश प्रतापी
अज के पुत्र अवधपति।

दसरथ का महान रथ,
दस की दसों दिशाओं में
कहीं भी आता विचर।

थे सुखी और संपन्न,
अयोध्या के सब वासी,
सदाचारी व प्रसन्न।

पति रानियों के तीन,
अवध के राजा दशरथ; 
प्रजा पालन में लीन।    

दशरथ को थीं प्यारी, 
उनकी तीनों रानियां;
अवध कि राजदुलारी। 

रानी बड़ी कौसल्या, 
कैकेयी और सुमित्रा, 
तीनों पावन पवित्रा। 

ग्लानि से रहते त्रस्त, 
रह के संतान विहीन;  
भूप अयोध्या दशरथ। 

नगरी वसिष्ठ आये,   
कराने पुत्रेष्ठि यज्ञ;
श्रृंगी ऋषि को लाये।   

दशरथ यज्ञ कराये,   
संतान लब्धि के हेतु; 
अर्चना विधि निभाए।  

यज्ञ होने पश्चात; 
पाईं तीनों रानियां,
यज्ञ का मधुर प्रसाद। 

हुए दशरथ को प्राप्त,
होनहार चार सुपुत्र;
पुत्रेष्ठि यज्ञ पश्चात। 

अवध की धरती धन्य;  
नवमी, चैत्र शुक्ल पक्ष,
जन्म लिए रामचंद्र।

धन्य हुई महतारी;
कौसल्या की गोद में 
गूंज उठी किलकारी।  

देवता हो के प्रसन्न, 
नभ से फूल बरसाए; 
आच्छादित हुआ गगन।  

माँ कौसल्या की गोद;
खिला दिया श्रीराम ने, 
भरे अनुपम आमोद।  

राम ने ली अवतार,
गौ, ब्राह्मण, संतों हेतु
मानव रूप को धार।

मायें दौड़ी आयीं;
प्रासाद में दशरथ के,
शिशु की सुनीं रूलाई।

दशरथ अतीव प्रसन्न
घर में आये राम स्वयं,
मिल गया परमानन्द।

धर हुए रूप श्रीराम,  
बजा बधावा अवध में 
प्रकट स्वयं भगवान। 

राजमहल में आयीं,
स्त्रियां झुण्ड की झुण्ड;
मंगलगान वो गायीं।

घर घर बजा बधावा;
शिशु के आ चरणों पर,
सबने शीश नवाया।

दशरथ ने लुटाया धन,
किसी को कपड़ा, सोना, 
किसी को गायें, रत्न। 

दिव्य राम किलकारी,  
गुंजा के रख दिया था 
पुरी अयोध्या सारी। 

मिला प्रसाद दो बार, 
कौसल्या, कैकयी एक, 
सुमित्रा के दो लाल।  

कैकेयी की लक्ष्मण, 
जन्मे सुमित्रा की गोद, 
पुत्र भरत व शत्रुघन।   

जो आनंद के धाम,
रख दिए जेष्ठ पुत्र का
वसिष्ठ नाम श्री 'राम'।  

जिसके शुभ थे लक्षण;
श्रीराम के जो प्यारे,
उनका नाम 'लक्ष्मण'।

'भरत' से जग का भरण,
नाम से शत्रु का नाश,
रख दिया नाम 'शत्रुघन'।

रखे चारों के नाम,
राम, लखन, भरत, शत्रुघ्न;
सब थे गुणों के धाम। 

सदैव दौड़ लगाते,  
बालक राम खिलखिलाते; 
माँ को खूब रिझाते। 

चलते ठुमक कर राम;
रूनझुन करती पैजनी, 
झनकता आंगन, धाम।  

नन्हां बालक बन कर, 
भर दिए राम आनंद; 
राजा दशरथ के घर।  

डुला प्यार से पलना,
डोरी धरे कौसल्या;
कहती' राम को ललना।

चलते पहनकर झुल्ला; 
भाते कौसल्या को, 
बकईयाँ राम लल्ला। 

पूजा सामग्री, फल, 
माँ ने था जो चढ़ाया; 
लील गए राम सकल।   

माता थी देख चकित,
श्रीराम को दिव्य हुए; 
हों ज्यों हरि आमंत्रित।  

माता लगी मनाने,
बालपन में ही रहना;
राम लगे मुस्काने।

सुबह से लेकर शाम,  
दशरथ और कौसल्या; 
बुलाते रहते 'राम'। 

भागते जब ठुमक कर, 
दौड़ पड़ती कौसल्या; 
पकड़ने हठपूर्वक। 

शिशु के तोतले बोल; 
बखानी जाय न रूप,  
लट उलझी' उठे कपोल। 

दर्शन से न अघाता, 
दिव्य रूप प्रभु राम का; 
उधर जो कोइ आता।  

तत्पल दशरथ का घर,
राम राम के बोल से,
पूर्णतः गया था भर। 

जब पुत्र हुये कुमार;
दशरथ ने किया उत्तम,
उपनयन संस्कार।

वेद पुराण के' ज्ञाता;
सभी करते अनुपालन,
मातु पिता आज्ञा का।

मारिच, सुबाहु दैत्य,
करते रहते उपद्रव;
मुनी जब करते यज्ञ।

विश्वामित्र ने' सोचा;
राम लक्ष्मण के बिना,
यज्ञ निर्वाध न होगा।

गए दशरथ के पास;
विश्वामित्र ने माँगा, 
राम लछमन का साथ।  

सुन विचलित थे दशरथ;
क्रूर दैत्यों का सामना,
कैसे करेंगे बालक।

विश्वामित्र की बात,
दशरथ टाल ना पाए;
भेजे सुतों को साथ।

विश्वामित्र की रक्षा;
साथ ही हो जाएगी,
सुकुमारों की शिक्षा।

चले राम ले निश्चय;
करेंगे ऋषि मुनियों को 
राक्षसों से निर्भय।  


आयी असुर ताड़का; 
राम ने तुरत चलाया,  
शिकार बनी बाण का।   

राह पड़ी एक शिला;   
राम के  चरणों को छू,  
नारी बनी अहिल्या। 

रामचंद्र ने तारी;
शाप से ग्रसित अहिल्या
पाहन से हुइ नारी। 

करने को ज्ञान ग्रहण,  
विश्वामित्र ले लाये  
आश्रम, राम लक्ष्मण।  

ज्ञान ग्रहण किये राम,  
गुरुवर विश्वामित्र से;
स्वयं गुणों के धाम। 

सिखाने के पश्चात;
विश्वामित्र ने राम को
भेंट किये दिव्यास्त्र।

ऋषि, मुनि थे त्रस्त, 
राक्षस आ आश्रम में 
भंग किया करते तप। 

आ उत्पात मचाया,
पहुंचते ही मारीच;
राम ने' बाण चलाया।

छोड़े राम तत्काल,
एक ही बाण से उसे,
भेजे समुन्दर पार।

सुबाहु को फिर मारा;
लखन ने बाण चलाकर,
सेना को संहारा।

भयमुक्त तप में लीन; 
ऋषियों हेतु किये राम, 
क्षेत्र को असुर विहीन। 

गुरु जी को पता चला,
नृप जनक ने पुत्री का
पुर में स्वयंवर रचा।

राम लखन को लेकर, 
निकल पड़े विश्वामित्र; 
जनकपुर की डगर।  

सप्रेम किया सत्कार,
ऋषिवर विश्वामित्र का;
जनक ने अपने द्वार।

जनक ने' मुनि से पूछा,
राम लछमन का परिचय;
मुग्ध देख थे शोभा।

मुनि से परिचय पाकर,
अतिथि गृह  में ठहराये;
जनक उन्हें ले जाकर।

दोनों जग में न्यारे,
हैं दामाद के लायक;
मन ही मन वे' विचारे।

बाद में राम लक्ष्मण
आज्ञा लेकर निकले,
करने को नगर भ्रमण।

जनकपुरी अभिराम; 
मनोहर छटा विलोक, 
मोहित थे बड़े राम। 

देख राम थे विस्मित;
जनकपुर की सुंदरता,
भवन रत्नों से जड़ित।

सुन्दर जल के तड़ाग,
रंग बिरंग फूल खिले, 
भरे सुगंध से बाग। 

पुर के सब नर नारी,
मोहित देख दोनों का,
रूप विस्मयकारी।

देखे न ऐसे किशोर;
श्रीराम का रूप देख,
स्त्रियां भाव विभोर।

दर्शन से हि मनातीं,
आत्मिक सुख वो मन में;
बखान फिर बतियातीं।

पहुंचे पुष्प वाटिका
घूमते हुए राम लखन,
खोये देख सुंदरता।

नाना फूल सुगन्धित;
लता मंडपों से होती,
छटा बाग की मंडित।

फूल तोड़ने आयीं
पुष्प वाटिका में सिया;  
रूप निराली पायीं। 


बाग में श्रीराम पर,
लोचन पड़े सीता के;
मुग्ध छवि अभिराम पर।    


मिल गए नेह से नेह,
सिया और श्रीराम के;
पनपा अद्भुत स्नेह। 

पलक दोनों की अचल, 
अटकी रहीं कुछ काल; 
हृदय भाव से विह्वल।  

श्रीराम का वह चित्र;
छप सा गया था किंचित, 
देवि सीता  के चित्त। 

मन में लिया वर मांग,
माँ गौरी से आशीष;
सीता को भाये राम।  

छवि जानकी की लिये,
वापस आये श्रीराम;
छापे प्रतिबिम्ब हिये। 

प्रसन्न राम का हृदय,
मुनि से लिए आशीष
होते ही सूर्योदय।

अति विशेष अम्बर था;
जनकपुर में चहल पहल,
सिया का स्वयंवर था।

विचारे राम लक्ष्मण;
चलो चलें देख आएं,
सिय करतीं किसे वरण।

सीता के विवाह को 
जनक ने रखा सामने;   
प्रण एक निर्वाह को। 

कसेगा जो प्रत्यंचा,
शंकर के पिनाका पर;  
वरण करेगी सीता।  

अनेक राजा आये;
जानकी की सुन्दरता,
सुनकर ही मोहाये।

कई तो अभिमानी थे;
धनु को समझे खिलौना,
जड़ और अज्ञानी थे।

बहु भांति बल लगाया;
उनमें से कोई भूप
धनुष हिला ना पाया।

सब थे नरेश निराश,
स्वयंवर में जो आये;  
हेकड़ी रख दी ताक।    

जनक हो रहे चिंतित; 
धनुष को हिला न पाते,  
बैठते नृप लज्जित।  

चला फिर रावण विकल; 
शक्ति युक्ति लगाया पर, 
हो नहीं पाया सफल।  

लक्ष्मण भर आवेश; 
बोले धनु तोडूं अभी,  
राम का हो आदेश। 

जाओ राम अब आप; 
मुनि ने दिया तब आज्ञा,  
हरो जनक संताप। 

गुरु की आज्ञा पाकर; 
स्वयं चले रामचंद्र,  
जीतने सिय स्वयंवर।  

विहँस पड़े सब राजा; 
बालक चला चढ़ाने, 
प्रत्यंचा धनु पिनाका।

राम ने धनु उठाया;
इक हाथ धर के मोड़ा,
अन्य से चाप चढ़ाया।

अति अभेद्य वो लक्ष्य;
शिव के धनुष को राम,  
तोड़ दिए बड़े सहज। 

गूंज उठा ब्रह्माण्ड,
मधुर मंगल गान और
बोल से 'जय श्रीराम'। 

गाने लगे सब किन्नर;
मिल बरसाये देवता,
भरा पुष्प से अम्बर ।

धनुष पिनाका टूटा;
सुन कर परशुराम का 
क्रोध भयंकर फूटा।

बहुत ही किया बवाल;
देने लगे धमकी परशु,
करेंगे बड़ा विनाश।

बोला चढ़ उपर माथ,
परशुराम का क्रोध जब,
लखन से हुआ विवाद।

शील हो बोले राम; 
क्षमा करें बालक को, 
बच्चा अभी अज्ञान।  

श्रेष्ठ आप परशुराम; 
धीर और ज्ञानी मुनि 
ब्राह्मणों में महान। 

देख हुए परशुराम,
कुछ ही देर में शांत;
जब दिव्य हुए श्रीराम।  

जनक हर्ष से झूमे; 
हुआ प्रण उनका पूरा,  
हाथ राम के चूमे। 

सीता ने झट डाला;
रामचंद्र के गले में,  
जीवन की वरमाला। 

पहले ही लिए थे हर, 
हिया को रामचंद्र ने; 
हो चले, सिया का वर। 

बड़ा ही हुआ प्रसन्न,
राम को पाय दामाद,
महीपति जनक का मन। 

आरम्भ मंगल गान;
देखते ही बनती थी,
नारियों की मुस्कान।

भेजा जनक ने दूत;
दशरथ को बुलवा लिया,
शीघ्र अति उसी मुहूर्त।

सजाये अपना रथ; 
लिए बारात संग में, 
आये राजा दशरथ। 

मंडप सुन्दर छाया;
जनक ने बीचों बीच,
शुभ चौका पुरवाया।

जुटे जनक के धाम,  
सब स्वागत बारात में;  
दुलहा थे प्रभु राम। 

चारों ओर अति मंगल;
हाथी, ऊँट से सज्जित,
दिव्य विवाह का स्थल।

बजे नगाड़े व ढोल;
स्वागत किया जनक ने
बारात का मन खोल।

देख के सुन्दर लगन,
विवाह का रखा मुहूर्त;
हेमंत, मास अगहन।

भेजा गया न्यौता;
व्याह का साक्षी बनने, 
पधारे सब देवता। 

निभाकर वैदिक रीति,
विवाह हुआ संपन्न;
स्त्रियों ने गाया गीत।

जानकी की मांग में; 
चुटकी से लाल सिंदूर,
भर दिया श्रीराम ने। 


देखी न ऐसी जोड़ी,
वर कन्या ने भांवर ली 
विधिपूर्वक गठजोड़ी। 

वैवाहिक संस्कार, 
निभाकर हुआ विवाह; 
गाये मंगलाचार। 


बनकर समधी भाई,
दशरथ जनकपुरी में 
गाली भी थी खाई। 

राम के न्यौछावर,
पा नाई, भाँट, बारी;
हर्षित शीश नवाकर।

गुरु की आज्ञा पाये;
जनक माण्डवी, श्रुतकीर्ति,
उर्मिला को' संग लाये।

उसी विधि के अनुसार;
व्याहे गए तीनों से,
दशरथ के अन्य कुमार।

मांडवी तो भरत से,
शत्रुघ्न से श्रुतिकीर्ति,
उर्मिल व्याही लखन से।

एक ही मंडप व्याह;
जनक की सभी सुतायें,
चलीं अपने ससुराल।

नाता जोड़ सम्बन्धी,
दोनों बहुत थे गर्वित;
दशरथ और जनक जी।

देकर बहुत सी सीख,
विदा कीं माँ सुनयना;
पुत्रियों को आशीष।

नगर ने अश्रु बहाई
जनक, सुनयना संग;  
सिय की हुई विदाई। 

जनकपुर था बेहाल,
बेटियों की विदाई से;
नगरी अवध निहाल।

शहनाई, दुंदुभि बजी,
दुल्हनों के आने पर;
अयोध्या पूरी सजी। 

गूंजा मंगलगीत;
हो रही थी अयोध्या, 
स्वर्ग नगरी प्रतीत। 

चौखट पे नई दुल्हन;
मातायें करने लगीं,
आरती और परछन। 

देख ऐसा उत्साह,
सीता थी मन में मगन
और सुन्दर ससुराल। 

पड़े सीता के पांव,
जी भर हर्ष मनाई,
अब कौसल्या ठाँव। 

मायें हर्ष से फूलीं;
वधुओं के स्वागत में
बाकी सब कुछ भूलीं।


१६० 





अयोध्या कांड

















अवध में शोभायमान, 
सृष्टि कि श्रेष्ठ दम्पति;
सीता और श्रीराम।   

अयोध्या में नित नित,
शुभ पड़े सिया के पांव,  
मंगल सदा ही घटित। 

अयोध्या के वासी;
रामचंद्र राजा बनें, 
सब के सब अभिलाषी। 

दशरथ ने सब विचार,
गुरु वसिष्ठ से पूछा;
क्या राम हों युवराज ?

बताये शुभ मुनिराज;
अयोध्या के है हित में
यदि राम हों युवराज।

छाया हर्ष चहुँ ओर;
युवराज बनेंगे राम,
कौसल्या के किशोर।

आरम्भ हुई तैयारी,
राम राज्याभिषेक की;
जन जन के सुखकारी।

नहीं सकते थे देख,
सुखी अयोध्या पुरी को;
कलुष मन कुचक्र देव। 

राजमहल की दासी; 
कुचक्र चलाकर भ्रमित,  
की बुद्धि मंथरा की। 

मंथरा होते सुनी, 
राम तिलक की चर्चा; 
जाल कुचक्र का बुनी। 

जा कैकेयी के पास,
आग लगाई दासी; 
रानी घर में उदास। 

कैकेयी मन भायी;
राम नहीं, सुत को राज,
दासी की सिखलाई।   

नीच बड़ी वो कुबड़ी;
कैकेयी के मन में   
भर दी घर की फोड़ी। 

दुष्ट मंथरा ताई;
उसी थाल में छेद की, 
जिसमें थी वो खाई। 

बिना लगाम दासी,
छूटी पूरी स्वतन्त्र; 
घर में आग लगा दी। 

दुष्ट सेविका की सुन;
कैकेयी ने लिया मन,
अति गहन पाप को बुन।  

नीच की पायी संग
कुसंगति से कैकेयी
कुटुंब पर हुई कलंक।

ये दसरथ का था प्रण,
देंगे वो कैकयी को;  
माँगा उसने दो वर। 

मनवाने को मन की;
कैकयी जा के लेटी, 
भू पर कोपभवन की। 

कोपभवन की बात; 
पहुंचते ही दशरथ को 
गहरा लगा आघात।  

ज्यूँ ही दशरथ आये;
रानी को रूठी देख,
मन में अति अकुलाये।

वह याद दिलाई प्रण;
पूछे जब कैकेयी से
रूठने का नृप कारण।

क्रूर द्रृष्टि से देखी; 
जैसे कि कोई नागिन, 
मुंह से विष को फेंकी।  

मांगी पुत्र को राज,
रूठी रानी राजा से; 
प्रभु राम को वनवास। 

मांग ली सुत को राज;
स्वार्थ भरी कैकेयी, 
घोल के पी गयी लाज।  

राजा दशरथ सुनकर,
हो गए विवेक शून्य;
रह गए माथ धुनकर। 

नागिन ने डंसा हो; 
या नाग ने दशरथ को   
अपने पाश कसा हो।  


दशरथ लाख मनाये;
भूपति की कोई बात,
कैकयी को भाये। 

कैकयी एक न मानी;
दशरथ से उनका प्रण,
मनवाने की ठानी।

हुई थी घोर निर्दयी;
कुटुम्ब के भी हित की
सोची नहीं कैकयी।

लगी हृदय पर चोट,
मूर्छित हो गए दशरथ;
रानी के वचन कठोर।

हुआ राम को ज्ञात;
पहुंचे पिता से मिलने,
जब वनवास की बात।

मूर्छा से वो जागे;
आना जान के दशरथ,
राम की ओर ताके।

होकर दशरथ विह्वल,
राम को गले लगाए;
बह चले अश्रु निर्झर।

दशरथ ने मनाया -
बदल दें राम निर्णय,
ब्रह्मा रच दें माया।

तोड़ दें राम प्रण को;
नर्क जाऊं या बैकुंठ,
सह लूंगा अपयश को।

पुत्र स्नेह को छोड़ें;
तब राम ने समझाया,
प्रेम के वश ना सोचें।

मुझे दें आशीर्वाद;
आपका प्रण हो पूरा,
सफल मेरा वनवास।

कह राम चले वहां से,
हेतु वन की तैयारी;  
लेने आशीष माँ से।

माँगा नवाकर शीश, 
शोकाकुल कौसिल्या से 
राम ने शुभ आशीष।  

माता सुन हुई विकल;
आंसुओं की एक नदी,
आँखों से पड़ी निकल।

रोकने के सब प्रयत्न,
माँ के भी हुए विफल;
राम को जाने से वन।

राम को वन पठाई,
कुबड़ी दासी मंथरा  
ऐसी आग लगाई। 

सुन राम को वनवास, 
शोक में थी अयोध्या;  
नर नारि सभी उदास।   

होता नहीं विस्वास,
हर एक सुनकर विस्मित,
प्रभु राम को वनवास !

बस यही राम के मन;    
हर स्थिति में सर्वोपरि, 
पितृ आज्ञा का पालन।  

साधु का धर के वेश,   
श्रीराम किये प्रस्थान;
अवधपति हुए अचेत।

कैकेयी की इच्छा;
चौदह वर्ष हेतु चले
छोड़ राम अयोध्या। 

सीता ने ठाना हठ,
जाएँगी साथ वन को,
सह लेंगी सब संकट। 

चली जानकी जंगल,
पति श्रीराम के संग; 
कोमल कली हो विह्वल। 

सीता को समझायीं,
श्रेष्ठ स्त्रियां भी सभी
उन्हें रोक न पायीं।

जीवन संगिनी बनी, 
घनघोर वन को सीता 
संग रामचंद्र चलीं। 

जंगल हैं अति दुःसह; 
मदद को साथ चलूँगा, 
किया लखन ने आग्रह। 

गयी अश्रु में पूरी, 
वन को चले रामचंद्र,
डूब अयोध्या पुरी। 

अवध में बड़ा विषाद,
शोक ग्रस्त नर नारि सब,
पुरी में आर्तनाद।

तीनों वन के मार्ग,
कहते सब एक स्वर में
अवध के फूटे भाग।

उठे मूर्छा से दशरथ;
बोले, सुमंत्र छोड़ दो
तीनों को लेकर रथ।

छा गया अवध में तम; 
जीव, पशु, पक्षी व्याकुल,
घेरा ज्यों हो अधर्म। 

बैठ सुमंत्र के रथ पर;
गमन राम का वन को, 
अवध को सिर नवाकर।  

प्रजा भी चल दी साथ,
लौटाए लौटे नहीं; 
पड़े दुविधा रघुनाथ।  

पहुंचने पर रघुवीर; 
विश्राम के लिए रुके, 
तमसा नदी के तीर।  

थक कर सो गए कई; 
देवताओं की माया से, 
बेसुध हो गए कई। 

अवसर निशि में पाकर, 
आगे ले चले सुमंत्र, 
गंगा तट रथ लेकर।   

मच गया हा-हा-कार; 
राम, राम होने लगी,
प्रातः होते पुकार।

मन में घोर संताप,
थक हार वापस आये, 
सब ही करते विलाप। 

गंगा के ले गया तट; 
राम, लखन और सीता,  
सबको सुमंत्र का रथ। 

गंगा में कर स्नान;
श्रीराम सहित सभी ने 
मिटाया वहीं थकान। 

बहुत ही कर के युगत;
निषादराज ने राम का 
किया बड़ा आव-भगत। 

समझा बुझा लौटाया; 
सुमन्त्र को प्रभु राम ने,
वापस अवध पठाया।   

पुनः समझाए राम;
वन का वास कठिन बहुत,
सिया तुम जाओ धाम।

कहीं सिय, मुझे न दुःख;
सह लूंगी वन के कष्ट,
राम चरण मेरा सुख।

चलने को उद्यत राम;
सरि गंगा के उस पार,
चित्रकूट पावन धाम।

रामचंद्र ने माँगा
तट पर केवट से नाव;
जाने को पार गंगा। 

बिठाने अपनी नाव;
केवट पहले पखारा,
प्रभु श्रीराम के पांव। 

पांव छू, स्त्री पाहन;
कहाँ ये काठ की नाव,
इसी से मेरा पालन।

प्रभु राम ने बढ़ाई;
केवट की ओर मुद्रिका
गंगा पार उतराई।

राम! आप के दर्शन,
केवट ने बोला यही;  
है उतराई वेतन। 

सभी को देता तार;
केवट ने है उतारा
उन्हीं राम को पार। 

किये त्रिवेणी दर्शन, 
राम लखन सीता गए , 
भारद्वाज के आश्रम।  

भारद्वाज कराये, 
भोजन स्वादिष्ट हरी को; 
सुयश जगत में पाये। 


कैसे भी मिल जाय,
प्रभु श्रीराम के दर्शन;
उमड़ा सारा प्रयाग। 

प्रभु श्रीराम के पांव,
तीर्थ स्थल हो जाता;   
जिस किसी पड़ते ठाँव।

देखते चारु सरवर,
कानन के मोहक फूल;
मंडराते हुए भ्रमर -

पहुंच गए श्रीराम,
बाल्मीकि के आश्रम;
सोचे करें विश्राम। 

बाल्मीकि थे गदगद;
पड़े उनके आश्रम में
प्रभु रामचंद्र के पद।

राम ने किया प्रणाम;
बाल्मिकी से पूछा,
रहने का उचित स्थान।

वैसे तो सुन्दर घर,
आपके लिए, हे राम!
मेरा यह मन मंदिर।

चरणों आपके चित्त,
स्वामी, सखा, गुरु आप;
प्रभु के हृदय निमित्त।

रहिये इस कुटिया में;
यद्यपि बता रहा स्थान,
लगता जो बढ़िया, मैं।

निवास कीजै सुन्दर
समीप मन्दाकिनी के;
चित्रकूट पर्वत पर।

श्रेष्ठ मुनि अत्रि आदि, 
उस स्थल करते निवास; 
पशु, पक्षियों के साथ। 

प्रभु रामचंद्र पधारे;
हो गया चित्रकूट भी, 
पावन, संत सुखारे। 

लौटकर के अयोध्या 
सुमन्त्र ने विस्तार से  
हाल रोकर बताया । 

होकर के अति चिंतित;
पुत्र राम की याद में 
दशरथ हुए मूर्छित। 


राम का मांग वनवास;  
कैकेयी ने पति का,
मांग लिया स्वर्गवास।   

बनकर आया काल, 
राम वियोग दशरथ का; 
त्यागे प्राण तत्काल। 

अभागिन, पापिन हुई;
कैकेयी स्वार्थ के वश,
सुहाग आपन खोई। 

ननिहाल से लौटे; 
भरत, शत्रुघन सुनकर, 
तात शोक में डूबे। 

देखीं माँ कौसल्या,
करते विलाप भरत को;
छाती से लगा लिया।

क्रोध में भरे शत्रुघन, 
मारे कुबड़ी को लात;
दिया करनी का दंड। 

भ्रात जा लिए वन में;
पिता सिधारे बैकुंठ,  
भरत थे दुःखी मन में। 

दुष्ट कह के पुकारा,
कैकेयी को भरत ने; 
माँ को अति धिक्कारा। 

कैकेयी समझाई; 
सुत! हेतु तुम्हारे हित, 
सभी प्रपंच रचाई।  

ठुकरा दिए थे भरत,
अयोध्या का राजतिलक;
माँ का आग्रह गलत। 

स्वार्थ कौन से आप, 
पूछे भरत कैकेयी से, 
बोईं बड़ा ये पाप?

भरत को उर लगायी;
कहकर निति की बातें  
कौसल्या समझायी।  

भरत को ना सुहाई;
बिना राम के राज की
सम्मति नहीं जताई। 

बीत जाने पश्चात् 
पिता की अंतिम क्रिया; 
वसिष्ठ कहे, हे तात!

याद करो - कहे वचन;   
पिता की जो है आज्ञा
करो उसी का पालन।   

त्यागो शोक युवराज;
शास्त्र सम्मत है ग्रहण,
पिता दे जिसको राज।

समझाए कई भांति;
भरत के मन ना उतरी,
किसी की कोई बात।

राजनीति का पालन;
नहीं है मेरे योग्य,
रामचंद्र सिंहासन।

मेरा निहित कल्याण,
श्रीराम के चरणों में;
बसा उन्हीं में प्राण।

भ्राता को लाऊंगा,   
भरत ने ठाना मन में;
सिंहासन बिठाऊंगा।   

कहूंगा - श्रेष्ठ, हे तात! 
मैं आपका अपराधी, 
कर दें क्षमा सब पाप। 

मत भरत का सराहा;
राम का दर्शन पाने,  
सबने चलना चाहा। 

श्रीराम को मनाने, 
चले प्रजा संग भरत; 
वापस अवध बुलाने। 

किये दल बल के साथ;
भरत, शत्रुघ्न, वसिष्ठ सब,    
चित्रकूट प्रस्थान।  

देखा पथ में निषाद, 
भरत को सेना समेत; 
बड़ा ही हुआ विषाद।  


सोचा राम को मार,
भरत चाहते अवध पर,
सहज निष्कंटक राज।

जाकर मिला भरत को;
सत्य को जान गया जब,
निषाद चला मदद को।

शंका में लक्ष्मण भी; 
सोचे आया है भरत, 
मन लिए आक्रमण की। 

भरत को शत्रु जाना; 
लछमन ने उनकी ओर, 
लक्ष्य कर तीर ताना।  

जैसे समीप आये;
भ्राता भरत को राम,
मिल उर कंठ लगाये।  

किया भरत ने विनती, 
वापस चलें अयोध्या; 
सहित लछमन जानकी।   

किये बड़े ही उपाय,
ताकि भरत संग, राम
लौट अयोध्या जांय।

राम तुरत ठुकराए,
लौटने के आग्रह को;  
अधर्म उसे बताये।    

सबसे बड़ा है धर्म 
पिता का आज्ञा पालन;
हरेक पुत्र का कर्म। 

लिये राम से अनुमति 
भरत घूमे चित्रकूट; 
मनभायी अतिशः छवि।   

देख पर्वत, वन हरे,
चित्रकूट के मुग्ध भरत,
रुचिर पशु, पक्षी भरे।

तीर्थस्थल चित्रकूट;
भरत से अत्रि स्थापित,
करवाए भरतकूप।

पुनः किया प्रार्थना;
भरत ने राम से चलें,
देखें राज्य अपना।

समझा बुझा के सबको
विदा किया श्रीराम ने;
वापस धाम अवध को।

मांगे शीश झुकाकर,
राम की चरण पादुका;
लिए भरत सिर पर धर।

पादुका ले राम की, 
भरत, शत्रुघन घर गए,  
शुभाशीष निधान की।

संग लौटे सब स्वजन;
जहाँ से जो आया था,
अपने सभी निकेतन।

कानन के पशु पक्षी,
भरत, शत्रुघन गमन से
उदास हुए अति  सभी।

विदा किये थे प्रियजन;
वट की छाँव में बैठे,
दुःखी सिय, राम, लखन।

भरत अयोध्या आकर;
राम का रखे खड़ाऊँ,
सिंहासन पे सजाकर

प्रभु की चरण पादुका,
सिंहासन पर रख भरत;   
काम करते राज का।  

अपने लिए छवाये,
नन्दिग्राम में पर्णकुटी;
आसन कुश का बिछाए।

छोड़, भरत भव्य सदन; 
राम का करते सुमिरन, 
पर्ण कुटिया में मगन।  

राम से प्रेम अगाध; 
बीता भरत का जीवन,
कर प्रभु भजन निर्वाध।  


143  










अरण्य काण्ड














रह के राम के साथ,

सहीं अरण्य के सीता; 
अनेकों दुःख विषाद। 

तज राजमहल के सुख, 
राम शरण रहीं सीता; 
सह वन के असह दुःख।   

राम बनाये चुनकर; 
प्रेम से पहनीं सीता, 
फूलों के आभूषण। 

जयंत मार के चोंच; 
कौवा बना सीता के,
जांघों पर किया चोट।  

कौवे पे छोड़े बाण,
राम ने सरकंडे का;
बचाने भागा प्राण। 

देखा संकट भीषण;
श्रीराम के ही कौवा, 
अंत में आया शरण। 

माँगा दया की भीख;
दिये कृपालु श्रीराम,
कौवे को उत्तम सीख।   

थे हरि स्तुति में लीन;
महर्षि अत्रि के आश्रम,
पहुंचे राम तल्लीन। 

अनसूइया दी सीख, 
सीता सीखीं लगन से, 
सारे धरम की नीति।    

आने पे संकट काल;  *
धैर्य, धर्म, मित्र, स्त्री 
सभी ये परखे जात। 

होय सिमित हित धारक,
मातु, पिता और भाई;
पति असीम सुख कारक।

किये पति का अपमान;
स्त्री को प्राप्त होती,
मात्र दुखों की खान।

रह अत्रि पास प्रसन्न,
राम ने मांगी आज्ञा
जाने को दूजे वन।

आया दैत्य विराध,
पंचवटी की राह में
मार डाले रघुनाथ।

अस्थियों का था ढेर,
पड़ा मार्ग में आगे;  
व्यथित राम थे देख।  

बतायी अपनी व्यथा,
साथ चल रहे ऋषि-मुनि;
हड्डियों की सब कथा।

प्रभु! खा गये हैं मार,
ऋषि, मुनियों को राक्षस;
अस्थियों का अम्बार। 

कर राक्षसों का वध, 
करेंगे धरा को रिक्त; 
प्रभु राम हुए प्रतिवद्ध। *

राम पहुँच के आश्रम;
तप में लीन अगस्त्य  
मुनि के पाये दर्शन। 

सुतीक्ष्ण ने बताये,   
गुरु अगस्त्य मुनि को; 
राम लखन हैं आये।

अगस्त्य तप से जागे;
सारे काम को छोड़,
राम से मिलने भागे।     

मुनि बोले - स्थल उत्तम,
निवास हेतु पंचवटी;  
राम! यहीं जाओ रम। 

पावन हुई पंचवटी; 
बन गयी वहां पर जब, 
प्रभु रामजी की कुटी।  

हर्ष में वन में राम;
पल पल नित्य बसे रहे, 
सीता के मन में राम।  

खाकर जिए फल फूल, 
राम, लक्ष्मण, सीता,
अरण्य के कंद-मूल।  

सूर्पणखा बन सुंदरी,  
आयी राम समक्ष; 
विचित्र प्रस्ताव धरी। 

सूर्पणखा प्रस्ताव; 
राम से, 'कर लो आज 
तुम मेरे संग विवाह'।    

दुर्व्यवहार, दुराग्रह, 
सूर्पणखा की राम से; 
परिणाम अति भयावह।  

दिखाई जब ढिठाई, 
सूर्पणखा ने राम से, 
अपनी नाक कटाई।  

बताई सारा हाल,
नकटी जा जंगल में 
खर दूषण के पास। 


सेना ले खर, दूषण;
बहन के प्रतिशोध में 
करने चले आक्रमण।  

छोड़े बाण पे बाण; 
राम से लड़ खर-दूषण,  
अपने गंवाए प्राण। 

करते फिर वो विलाप,
पहुंच गई सूर्पणखा;
भ्रात रावण के पास।  

देखा बहन का हाल;
रावण, मुख पर रुधिर, 
हुआ क्रोध से लाल। 

मन में भरकर क्रोध;
रावण बोला बहन का,
लूंगा मैं प्रतिशोध।

सताने लगी चिंता;
खर दूषण को मारे,
ईश्वर के कौन सिवा।

मन में करके विचार;
परम गति ही पायेगा,
यदि हरि लिए अवतार।

गया मामा के पास;  
रावण ने मारीच को, 
कहा देने को साथ। 

वध के भय से दे दी,
मारीच ने कपट की, 
रावण को स्वीकृति। 

स्थिति भांप राम ने 
कहा देवी सीता से; 
तब तक रहो अग्नि में। 

मुझे करनी है अभी, 
मानव रूप में लीला;
अद्भुत एक अनोखी।  

रख कर अपनी छाया,  
सीता समायीं भीतर; 
स्वयं अग्नि की ज्वाला। 

मृग बन मारीच आया; 
राम के हाथों मर कर, 
मोक्ष उसने चाहा। 

मुग्ध हो गयीं देख, 
सीता स्वर्णिम मृग को;
मांगीं छाला विशेष।  

उठाये धनुष व बाण,
राम तो भागा मृग वो;   
बचाने अपने प्राण।

राम ने चलाया सर, 
मारीच स्वर्ग सिधारा; 
सीधे लगा लक्ष्य पर।  

मारीच कह पुकारा -
लक्ष्मण! हा लक्ष्मण!
धोखे में वह डाला। 

आवाज राम की सुन,
मदद हेतु पुकारते;
हुई  सिया अति व्याकुल।

शीघ्र सिया ने भेजा, 
लक्ष्मण चले मदद को
खींच लक्ष्मण रेखा। 

साधु वेश में रावण,
आया सिया को छलने; 
स्त्री होने के कारण। 

माँगा सिय से भिक्षा; 
साधु देख भ्रमित हुईं,  
चलीं भीख ले सीता। 

सीता ने धैर्य छोड़ा,
हरण का बना कारण; 
लक्ष्मण रेखा तोड़ा। 

कपटी बन के रावण,
रचा धूर्त ने माया; 
किया सीता का हरण। 

कर के जानकी हरण,
दिया काल को न्योता;
अपने ही खुद रावण। 

गगनमार्ग से चला, 
रावण लिए लंका को; 
जान सिया को अबला।

करे जा रहीं विलाप; 
लक्ष्मण की ना मानी,
मन लिए सिय संताप।    

राह में सुना विलाप;
सहायता हेतु शीघ्र,
पहुंचा गिद्ध जटायु। 

जटायु ने छुड़ा लिया; 
पर आहत कर रावण,   
सीता को उठा लिया।  
किया जटायु ने युद्ध; 
पंख गिद्ध के काट दिया 
होकर लंकेश क्रुद्ध। 


करते सिया की खोज,  
पहुंचे राम जटायु तक;  
कहा वृतांत धर कोप।   

किया न्यौछावर प्राण; 
करने में गिद्ध जटायु 
देवि सीता का त्राण।  

पाया राम चरण में, 
जटायु मोक्ष की गति; 
मनाया सुख मरण में। 

पूछत चले श्रीराम,
पशु, पक्षी, मृग, पेड़ से;
सिया का पता ठिकान। 

पहुंचे प्रेम में मग्न,
सीता को ढूंढते राम; 
सबरी के फिर आश्रम। 

हृदय सबरी के राम, 
दिन रात भजना नाम; 
और ना दूजा काम। 

घर में मिला परस दी;
खाने को श्रीराम को
पड़े बेर चख कर दी।

भक्ति का ऐसा श्रेय;
खाया था श्रीराम ने,
भीलनी के जूठे बेर। 

पम्पा सुग्रीव का धाम;
सबरी ने उन्हें सुझाया,
पहुंचें मदद को राम। 

कपि सुग्रीव अति वीर; 
सीता को ढूंढने में,
मदद लेवें रघुवीर! 

है पम्पा एक सरोवर;
वहीँ सुग्रीव का वास,
ऋष्यमूक पर्वत पर। 

सुझाया जो सबरी ने, 
पहुँच गए राम लखन; 
सुग्रीव की नगरी में। 

सुन्दर बहुत मनोहर
देखकर मोहित राम,
वन में चारु सरोवर।  




७२ 




किष्किन्धा
कांड








सुन्दर श्रेष्ठ कानन;
हुआ प्रभु श्रीराम का 
ऋष्यमूक पे आगमन। 

दिव्य देखकर कानन;
ऋष्यमूक में खो गया,
राम लक्ष्मण का मन। 

वन में पम्पा सरवर, 
लगे निहारने राम;
देख चकित छवि मनहर।   

लगता स्वयं सजाया, 
वनों की देवी ने स्थल; 
चरम पे छवि पहुँचाया।  

सहसा देखे सुग्रीव; 
विद्यमान कुमारों को,
पम्पा के अति समीप।  

सुग्रीव विलोक विचलित;
ऋष्यमूक के पास में,  
मनुष्य दो अपरिचित।  

सुग्रीव ने हनुमान को 
भेजा, कौन? पता करो;     
आया इस स्थान को।  

धारे धनुष तलवार; 
आये क्या दो वीर ये,
हम पर करने प्रहार!

जाओ हे अंजनी पूत;
पता करो न हों कहीं,
बालि के भेजे दूत।

गए धर ब्राह्मण वेश;
मन प्रसन्न हनुमान,
देखे शेष, अवधेश।

पूछा - हे महावीर!
हनुमान ने, कौन आप?
श्यामल, गौर शरीर।

सुकोमल, सुन्दर अंग;
अत्यंत दुःसह वन में
आये क्या ले प्रसंग।

कहे राम, अकुलाये,
हर ली गयी हैं सीता,
उन्हें खोजते आये।

हनुमान ने पहचाना;
करके दंडवत साष्टांग,
चरित अपना बखाना।

विलोक रहा मैं नाथ,
इस सन्यासी वेश में
आपको वर्षों बाद।

आपके सेवक सुग्रीव,
रहते ऋष्यमूक पर;
बलशाली हैं अतीव।

लायेंगे निकालकर,
चाहे कहीं हों सीता;
सुग्रीव के सब वानर।

आये लिए हनुमान,
सुग्रीव के दरबार में;    
श्रीराम को ससम्मान। 

चढ़ हनुमान के कंधे
राम लक्ष्मण दो भाई; 
ऋष्यमूक श्रृंग चले।  

ज्यों ही सुग्रीव मिले; 
राम लक्ष्मण ने उन्हें, 
लगाया सप्रेम गले। 

मिलाये थे हनुमान;
रामचंद्र और सुग्रीव, 
जगत के मित्र महान। 

ले जा रहा निज धाम, 
सुग्रीव बताये 'रावण'; 
सीता रट रहीं 'राम'। 

लिए जा रहा रावण,
बिठा विमान में लंका; 
सीता का किये हरण। 

अपना चिन्ह गिराया,  
विमान से जानकी ने; 
रक्षक उठा के लाया।  

लेकर सुग्रीव आया, 
सिय के परिधान मिले;
श्रीराम को दिखाया। 

सुग्रीव सुनाया कथा 
त्रस्त बहुत था बालि से; 
राम को अपनी व्यथा। 

सुग्रीव कहा राम से,    
बालि ने भार्या हर के; 
निकाल दिया धाम से।

है एक बार की बात; 
मायावी महादैत्य, 
ललकारा एक रात।  

थी कुछ दूर इक गुफा;
जब चला युद्ध को बालि, 
जा भाग दानव घुसा। 

खड़ा कर मुझे मुहाने,
गया बालि भी भीतर; 
लगाने उसे ठिकाने।   

वहीं रहा मैं ठाढ़े
बालि की प्रतीक्षा में, 
पूरे दो पखवाड़े। 
  
माह गया यूँ बीत;
रुधिर की धार से हुआ,
मुझे बालि मरा प्रतीत।

गुफा छोड़ मैं आया;
तबसे किष्किंधा राज,
मुझसे बैर लगाया।

उसी बालि से डर कर,
हेतु शरण मैं आ गया,
ऋष्यमूक पर्वत पर।

सुग्रीव को दिए वचन;
न्याय करेंगे  प्रभु राम,
कर के बालि का अंत।

सुग्रीव ने ललकारा; 
उलटे भागा तेज जब, 
बालि ने घूंसा मारा। 

दोनों भाई इक रूप; 
राम न चलाये तीर, 
होये कहीं ना चूक।   

फूलों की एक माला; 
राम साधे लक्ष्य तब,  
गले सुग्रीव के डाला।  

बालि को था वरदान;  
आधी शक्ति ले लेता, 
सामने जो बलवान।  

पेड़ सात थे ताड़ के; 
राम ने वेधा बालि को, 
उन वृक्ष की आड़ से।  

चला के तीक्ष्ण बाण;
रामचंद्र ने हर लिया,
दुष्ट बालि के प्राण। 

पुराना बालि का भय; 
मार कर दिया राम ने,
कपि सुग्रीव को निर्भय। 


भेज दिए प्रभु राम;
वह माँगा हरि की शरण,
तब बालि को परम धाम। 

बालि वध का कारण,
बना उसका पाप किया;  
पर भार्या का हरण। 

तारा धरे अति पीर, 
बालि निधन से व्याकुल;
ढाढ़स दिए रघुवीर।  

मांग ली राम से वर,  
प्रभु चरणों में भक्ति; 
तारा पाकर अवसर।  

मिला सुग्रीव को राज,
किष्किंधा प्रदेश का;
अंगद हुआ युवराज।

ऋतु वर्षा कि बिताये, 
राम मनोरम देश में; 
पम्पा में सुख पाये। 

गरजती घुमड़ती घटा, 
मन लुभाती हरियाली;
राम को भायी छटा। 

बीतते ही बरसात;
लक्ष्मण याद दिलाये,   
सीता खोज की बात।  

अविलम्ब सुग्रीव ने 
सजाई वानर सेना; 
जानकी को ढूंढने।   

सिय खोज के काम को; 
सुग्रीव, सबसे सक्षम 
सौंप दिए हनुमान को।  

सहस्रों वानर संग; 
हनुमान की सेना में, 
चले अंगद, जामवंत। 

व्याकुल सब प्यास से;
हनुमान को दिखी गुफा, 
ढूंढते जल पहाड़ से।  

पहुंचे सब गुफा में; 
प्यास बुझाई उनकी, 
जल दे स्वयंप्रभा ने।  

फल देकर स्वयंप्रभा,
राम की कृपा पाकर,   
चली आश्रम बद्रिका। 

था गुफा के उस पार,
कपि समूह के सामने; 
सागर अत्यंत विशाल। 

अति चिंता में वानर;
योजन कोस चौड़ा यह,
कौन करे पार सागर!

सम्पाति देख बाहर,
गुफा से, हुआ प्रसन्न;
भोज को ढेर वानर!

दुबके वानर डरकर;
किये जटायु की बात, 
चकित सम्पाति सुनकर।

सुन वानरों की चर्चा;
समझ गया सम्पाती, 
ये राम के अभिकर्ता। 

सम्पाती देख लिया; 
अशोक वाटिका में थीं, 
वहीं से बैठी सिया।  

लंका में सागर पार,
है इक अशोक वाटिका;
रही हैं सिया विराज।  

लाता उनको इस दम,
मगर हूँ पंख बिना मैं;
उड़ पाने में अक्षम।

सूर्य छूने चले थे,
साहसी गिद्ध, सम्पाति; 
राह में पंख जले थे। 

लाँघ पायेगा कौन?  
सौ योजन का समुद्र;
सोच कर सब थे मौन।   

पार जाने की सभी,
लगे लगाने में युगत;
भांति भांति के कई।

बल का करते वर्णन; 
कहता कूद लूंगा दस, 
तो कोई तीस योजन।   

बोला तब जाम्बवान; 
करेंगे कार्य पूरा, 
हनुमान अति बलवान।  


लगा रहे थे अनुमान,
अपनी शक्ति का सभी;
सहसा बोले हनुमान -  

लांघूँगा मैं सागर; 
कहा जब हनुमान ने,
हर्षित हुए सब वानर। 

रावण को हि मारकर;
कहो तो लाऊँ पर्वत,  
त्रिकूट को उखाड़कर।   

तब जांबवान ने कहा;
जाओ लंका से लाओ,
देवि जानकी का पता। 

है किसमें तुम सा बल!
कपि का उत्साह बढ़ाया,
जांबवान ने कहकर।


७२ 










सुन्दर काण्ड














चले हनुमान कहकर;
शीघ्र लौट आऊंगा,
सिय का पता लगाकर। 

कूच करने को तत्पर;
शीघ्रता से हनुमान,
चढ़े उच्च पर्वत पर।

मैनाक पर्वत आया,
हनुमान करें विश्राम;
वापस उसे पठाया।

बदन अति विशाल किया,
सिंधु लांघने को कपीश;
सबने जयकार किया।

हाथ से गिरि दबाया; 
टूटने लगीं चट्टानें, 
सुमेरू डगमगाया। 

लगाये तीव्र छलांग; 
लंका जाने के लिए,  
अम्बर में हनुमान। 

लगा आया भूकंप;
शिलायें टूट कर गिरीं,   
प्राणियों में हड़कंप।  

जीव जंतु सब तत्पल,
छुपने लगे इधर उधर;  
मचा तीव्र कोलाहल।  

लंका मैं जाऊंगा
बोले कपि - न मिलीं सिया;
रावण बांध लाऊंगा।

वधाएं थीं अनेक;  
राह के पार कर गए, 
हनुमान जैसे मेघ।  

नभ में दिखते हनुमत;
मानो कि पंख लगाये,
उडता कोई पर्वत।

राह रोक ना पाई,
सुरसा भी हनुमान की;
मुंह फैलाये आयी।  

जीव उधर से जाता;
ब्रह्मा के वरदान से, 
मुख सुरसा के समाता।  

सुरसा ने मुंह फैलाया;
कपि आकार बढाकर,
सूक्ष्म किये फिर काया।

आकार नन्हां धरकर; 
भीतर घुसकर लौटे 
सुरसा मुख से कपिवर।  

तुरंत मार छुड़ाया;
जब सिंहिका ने ग्रही, 
हनुमान की छाया। 

अपने प्राण गंवायी;  
हनुमान को रोकने, 
राह सिंहिका आयी।  

कपीश कभी उतराते;
कभी चन्द्रमा जैसे,
बादल में छुप जाते।

सभी बाधाएं पार;  
कर पवनसुत जा पहुंचे, 
समुंदर के उस पार।   

उड़ते गये हनुमान;
जा पहुंचे लंका पुरी,
विशाल सिंधु को लाँघ। 


धर मच्छर का रूप;
देख न पायी लंकिनी,  
कपि घुसे लंका के पुर।  

जैसे कोई तूफान, 
देख घबराई लंकिनी;
लंका में हनुमान। 

बड़ा ही सुख मनाई;
पवनपुत्र के दर्शन,
लंकिनी घर में पायी। 

ललकारी वह कपि को;
जा न सकता लंका में,
मेरी ना अनुमति हो। 

मुक्के का खा प्रहार,
हनुमान के बलशाली; 
लंकिनी गयी सिधार।

लगे देखने चढ़कर; 
कपीश, कहाँ हैं सीता?
पर्वत के उच्च शिखर।

रह गए हक्का बक्का;
देखा जब हनुमान ने 
लंका की सुंदरता। 

दीवारें रत्न जड़ित;
वैभव संपन्न थी लंका,
विश्वकर्मा से निर्मित। 

लंका, स्त्री सा सुन्दर;
मोहक अट्टालिकाएं,
बाग, तड़ाग के अंदर।

वीर व पराक्रमी थे;
देखे कपीश राक्षस,
तेजस्वी, उद्यमी थे ।

देखे अंजनी-नंदन,
सोते हुए रावण को;
सिय के ना पर दर्शन।

स्वर्ण महल सज्जित था;
शूल, खड्ग लिए दानव,
पूर्णतया रक्षित था।

महल में दिव्य विमान;
जिसका विश्वकर्मा ने,
किया था स्वयं निर्माण।

जपते हुए दिव्य मन्त्र,
दैत्यों को देखा कपि ने;
सिद्ध करते हुए तंत्र। 

चकित हुए कपि सुनकर;
विभीषण को लंका में,
राम-नाम करते जप।  

जा विभीषण के पास,
बड़े आदर से पूछे;
कपि सीता का निवास।

सीता का पूछ पता   
पहुँच गए हनुमान,
शीघ्र अशोक वाटिका। 

रहतीं शोक संतप्त,   
अशोक वाटिका में सिय;
यातनाओं से त्रस्त। 

लोभ देता हुआ दिखा,
लंकेश नाना रत्न का;
अविचलित थीं सीता। 

त्रास में बैठीं जानकी,
राक्षसियों से घिरीं;
याद लिए श्रीराम की। 

गए अशोक वाटिका,
डाल से नीचे हनुमत,
गिराए राम मुद्रिका। 

सीता दुःख का अंत,
अति शीघ्र करेंगे राम; 
ढांढस दिए हनुमंत।  

भूखे कपीश उस पल;
खाने लगे उद्यान के
स्वादिष्ट रसीले फल। 

अक्षय आकर टोका;
हनुमान का खाना फल,
आदेश दे के रोका। 

न मानने पर अक्षय;
करके कपि पर आक्रमण,
दिलाया क्रोध कतिपय।

अक्षय ने फिर खाया,
हनुमान का एक मुक्का;
समक्ष अँधेरा छाया। 

पकड़ कर के घसीटा;
अक्षय के साथ आये,
राक्षसों को पीटा।

सुनकर इंद्रजीत भी
धरने चला कपीश को; 
था बहुत भयभीत भी।  

रावणसुत  ने बांधा,
ब्रह्मास्त्र से पवनसुत; 
जिसने सागर लांघा। 

कपि को डोर से बांध;
रावण के दरबार में 
लिए चला मेघनाद। 

बल्कल रस्सी से बंधे,
चल रहे थे हनुमान; 
पीछे दानव बच्चे। 

महल जा के पवनसुत,
समझाए लंकेश को 
आया मैं रामदूत। 

बोले राक्षस राज से 
लौटा दो जानकी को;
बचना यदि विनाश से। 

तेरा हठ अनैतिक;
लंका पुर का विध्वंस,
करा देगा निश्चित।

बात सुन हनुमान की, 
लंकेश होकर क्रोधित;
ठाना लेने प्राण की। 

विभीषण ने बताया;
उचित नहीं है दूत की, 
हत्या वो समझाया। 

पूंछ उसकी  प्यारी,
होती अति वानर को;
जला, सजा दो न्यारी।

रावण की आज्ञा से;
कपड़ा लपेट राक्षस,
कपि की पूंछ जलाये।

पूंछ में आग दहका, 
उछलने लगे राक्षस;
लपटों में शीघ्र लंका। 

पश्चात् किये प्रस्थान,
पूँछ की आग बुझाने;
सुमंदर को हनुमान। 

गये अशोक उद्यान,
ढाणस फिर से बंधाने;
जानकी को हनुमान।

चूड़ामणि को निकाल,
चिन्ह दिया सीता ने;
कपि ले आये संभाल। 

लंका से वापस आये;
सीता का कुशल क्षेम  
कपि सबको बतलाये।

हर्षित हुए अवधेश;
पाये प्रिय सीता के,
कुशलता का सन्देश।

सीता को खोज पाई;
हनुमान ने खेमे में 
सबसे बड़ी बड़ाई। 

दैत्य त्रास के कारण;
कपि बोले सिय माह भर,
प्राण करेंगी धारण। 

लिया राम ने शपथ,
सिय को शीघ्र लाऊंगा;
सहना नहीं अब विरत।

सुरक्षा की व्यवस्था,
समझे ठीक से राम;
बना राखी जो लंका।

लेकर के सब विवरण,
हनुमान  से श्रीराम;
किये पूर्ण विश्लेषण।

आज्ञा दी सुग्रीव को 
राम ने आक्रमण का;
छुड़ाने हेतु सिय को। 

राम के काम बटोरे,
कपीश वानरी सेना;
लंकेश दर्प जो तोड़े।

हनुमान पटके पूंछ;
लेकर अपनी सेना, 
किये लंका को कूच। 


लिए उन्माद लंका,
चली हनुमान वाहिनी;
बजाने विजय डंका। 

कपि करते उछल कूद,
करोड़ों की संख्या में;
लंका को किये कूच।

सेना करी प्रस्थान;
नभ को गुंजाने वाला,
हुंकार भरे हनुमान। 

चले सेना के साथ;
हनुमान के कन्धों पर,
कृपालु श्री रघुनाथ। 

उदित शुक्र भृगुनन्दन;
सफल मनोरथ के सब,
प्रकट हो रहे लक्षण।

पहुंचे सब सागर तट;
समुद्र पार करने की 
समक्ष समस्या विकट।

सिंधु तट पड़ा पड़ाव;
सोचने लगे बैठ सभी,
जाने का पार उपाय। 

विनती  किये प्रभु राम;
मार्ग उचित दे दे जलधि,
जाने को लंका धाम।

हल नहीं पाये राम;
सुखाने हेतु समुद्र को 
उठाये धनुष व बाण। 

राम का भय सताया;
सिंधु, जाने का मार्ग
व्याकुल हो के बताया। 

तैरती जल पर शिला,
नल नील के स्पर्श से;
उनको वरदान मिला। 

सेतु बना दें भ्राता; 
जिससे नष्ट नहीं हो,
समुद्र की मर्यादा। 

लगाते जीवन पार;
उन राम को चाहिए,
सेतु जाने को पार।

लंका को जाने हेतु,
राम बोले बनाने को
जितना शीघ्र हो सेतु।

जामवंत ने बुलाया, 
नल नील भ्राताओं को;
सेतु के काम लगाया। 

वानर भालू ला के,
बनाने सेतु शिलायें,
नल नील को थमाते।

तैरतीं शिला सारी;
नल नील के स्पर्श से,
हुआ अचम्भा भारी। 

वानर ला चट्टानें, 
नल नील को छुआकर,
लग गए सेतु बनाने।

नल, नील दोनों भाई,
पत्थर छू लंका तक; 
सिंधु पर सेतु बनाई। 

परखे कपियों का काम;
कितना सुदृढ़ है बना,
सेतु पर चल कर राम। 

मिला सेना को त्राण;
नल व नील की मदद से  
हो गया सेतु निर्माण।

शिव की कर स्थापना;
समुन्दर के उस तट पर,
राम किये उपासना। 

रामेश्वरम में स्थापित,
विधिपूर्वक शिवलिंग; 
राम द्वारा पूजित। 

चले करोड़ों वानर;
बने उस पुल के द्वारा  
हो गए पार सागर।

लंका में छाया भय;
वानरी सेना पहुंची,
करते राम की जय। 

भरे लंका में वानर; 
होने लगी प्रतीत इक 
वानरों का वो सागर।

विभीषण ने दी राय,
संधि की लंकेश को;  
हुआ न उसको मान्य। 

रावण को देना राय;
नशे में दर्प के अँधा,
सुझाना उसको राह। 
  
बता कर निति की बात,
रावण अभिमानी को;, 
विभीषण खाया लात। 

जा पहुंचा विभीषण,
छोड़ के लंका नगरी;
श्रीरामचंद्र की शरण। 

कृपावत्सल प्रभु राम;
होते हेतु शरणागत, 
कृपा के सदा निधान। 

राम ने गले लगाया,
मित्र की भाँति सादर;
विभीषण को अपनाया।

लंका के भेजे दूत,
आये राम शिविर में;
पकड़े गए जासूस। 

रावण को दे सन्देश;
लौटाए राम कृपालु,
दूतों को उनके देश। 



१०५ 
















लंका काण्ड












जलचर पाकर अवसर;
राम का दर्शन पाने,
आ गए जल के ऊपर। 

पड़ा राम का डेरा;
समुद्र पार लंका में,
संकट का मेघ घेरा। 

भय से व्याकुल लंका;
सर्वनाश होने में,
तनिक नहीं अब शंका ;

सीता को लौटा दो;
मंदोदरी समझायी,
लंका अब भी बचा लो। 

 हैं वो कृपा के धाम;
जानकी को लौटा दो,
क्षमा कर देंगे राम।

जानते राम का बल! 
जला दिया था लंका, 
उनका भेजा वानर। 

सीता को लौटाकर,
यश ही पाएंगे आप
मित्रता राम से कर। 

दी कोई भी सन्मत,
रावण को ना भाई;
वह पड़ा काल के वश। 

कदापि रावण न सुना,
पत्नी की नैतिक बात; 
काल ही उसने चुना। 

ले संधि का सन्देश;
राम दूत बनकर गए,
अंगद, पास लंकेश।  

जाकर अंगद, दरबार; 
रावण को दिया सन्देश,
संधि का करो विचार।

मानो राम की बात; 
सीता को लौटाकर, 
मांगो क्षमा तत्काल।  

काल को गले लगाया; 
मैत्री के सन्देश को 
रावण ने ठुकराया। 

गर्व से बोला रावण; 
साहस भला है किसमें,
कर सकता मुझसे रण।  

रावण! बड़े नादान; 
चाहे तुम हो रखते, 
बीस नेत्र और कान।  

कौन यहाँ पर योद्धा, 
अंगद बोले ललकार; 
दे मेरे पांव उठा। 

प्रयोग करके असफल ;
लंका के वीर योद्धा,
बैठे निराश होकर।  

चला मेघनाद ऐंठा; 
हिला तक सका न पैर,
लज्जित होकर बैठा। 

रामचंद्र की माया;
जकड़े पांव अंगद के,
उठा न कोई पाया। 

किसी से नहीं उठा,
अंगद का कोई पैर; 
उठाने रावण झुका। 
पकड़ पांव, प्रभु राम के;
अंगद कहा रावण से, 
क्षमा मांग तू पाप के।   

कुम्भकर्ण ने भी कही, 
लौटा दो सीता को; 
रावण न माना सही।  
  
नीति की कोई बात,
रावण के न बुद्धि घुसी;   
चुना अपना प्रतिघात। 

रावण ने अपनी बुनी;
मंदोदरी की भी राय, 
सिरे से की अनसुनी। 

नहीं किसी की मानी; 
दर्प में  दुष्ट दशानन,  
राम से रण की ठानी। 

मिल कर सभी विचारे,
लंकेश के मंत्रीगण;
राम को कैसे मारें।

किया पुनः रावण छल;
सिय से कहा राम मरा,
मायावी सिर लेकर।

सीता ने दुत्कारा;
तुमसा दुष्ट से राम,
नहीं जा सकते मारा।

कुछ ही काल उपरांत,
मस्तक हो गया ओझल;
समाप्त हुई भ्रान्ति।

तब सरमा ने बताया;
राम का नकली मस्तक,
माया से बनाया।

प्रभु पद से हो विमुख;
राम महिमा ना जाना,  
रावण काल के सम्मुख। 

राम बल से अनभिज्ञ; 
रण हेतु तत्पर रावण,
होते हुए भी विज्ञ। 

विभाजित हुए वानर,
तत्काल चार दलों में; 
हुआ युद्ध का आगर। 

मचा लंका में तत्पल;
मारो, काटो, भागो का
चहुँ ओर कोलाहल।

वानर ले के टूट पड़े, 
राक्षसों को मारने, 
पर्वतों के टूक बड़े।  

युद्ध करने को आयीं;
मारो धर वानरों को  
पिशाचिनियां चिल्लाईं। 

बहादुर वानर खड़े; 
दानवों से रक्षा में  
विटप उखाड़ कर बड़े। 

दैत्यों का संहार;
बह चली रुधिर की सरि,
लंका में हा हा कार।

राम के बल को पाकर; 
किये जा रहे विदीर्ण,
निशाचरों को वानर। 

सह  पाये आक्रमण,
वानरों के जोरों का; 
दैत्य भागे छोड़ रण।  

दैत्यों के आहत तन;
देखकर होने लगा, 
व्याकुल रावण का मन। 

आगे बढ़े हनुमान; 
धूम्राक्ष, अकम्पन को 
पहुंचा दिया सुरधाम।  

युद्ध करने को चला,
इंद्रजीत सेना  लिए
वानरों में भय पला।  

मेघनाद करता बढ़ा,  
वानरों को विदीर्ण; 
लछमन को क्रोध चढ़ा।  

छिड़ा युद्ध भयंकर; 
छोड़े हुए अस्त्रों से 
वातावरण प्रलयंकर। 

नभ हुआ आच्छादित, 
दोनों के बाणों से; 
मेघ न था मर्यादित।  

छुप के चलाया मेघ,
वीरघातिनी शक्ति; 
शेष हो गए अचेत। 

देख लखन को मूर्छित,
सेना में छाया शोक;
राम हुए अति चिंतित।

उठा लाये हनुमान;
शीघ्र जाकर लंका से,
वैद्य सुषेन महान। 

सुषेन कहा कर जाँच; 
हिमालय पर इक औषधि  
वही खोलेगी आँख।  

औषधि बड़ी वो दिव्य;
सूर्योदय होते ही,
हो जाती है अदृश्य।  

पहले ही सूर्योदय से,
संजीवनी मंगा लो;
गिरिराज हिमालय से।

बोल पड़े जांबवान;
यह महान कार्य बस,
कर सकेंगे हनुमान।

उड़े उत्तर दिशा में,
कपि लाने संजीवनी;
अंधियारी निशा में।

चला रावण नई चाल;
कालनेमि से बोला,
बुनने को माया जाल।

व्यवधान राह में रोप;
हनुमान को हिमालय,
तुम जाने से लो रोक।

रचकर तत्पल माया; 
कालनेमि ने मार्ग में, 
अवरोध एक लगाया।  

बनाकर एक मंदिर;
राम राम जपने लगा,
कालनेमि जा अंदर।

पहले प्यास बुझाऊँ,
सोचे कपि आश्रम में;
तब आगे मैं जाऊं। 

जलाशय में नहाओ,
दिखा बोला कालनेमि;
जल पीने तब आओ।

वहां जाते ही, मगर,
कपीश का पकड़ा पांव,
इक माया रुपी मकर।

कपि धर पूंछ घुमाया; 
कालनेमि का छद्म,
कोई काम  आया। 

परलोक को उड़ चली; 
कहते एक अप्सरा, 
शाप से मकरी बनी।

ढूंढने के क्रम में, 
पर्वत पर संजीवनी; 
पड़े हनुमान भ्रम में। 

जानकर, लेने आया,
औषधियां हुईं अदृश्य;
हनुमान को न भाया। 

मूल से लिए उखाड़;
लेकर वापस चल दिए,  
कपि सम्पूर्ण पहाड़।

उड़ते आये अवध पे,
लगा बाण हनुमान को;  
छोड़ा जिसे भरत ने। 

गिरे कपि लेते नाम; 
अयोध्या में उस  काल,
कहते जय श्रीराम। 

करनी पर पछताए;
होकर के भरत उदास, 
पास कपीश के आये। 

बोले - बैठो बाण पर;
पहुंचा दूंगा मैं तुम्हें, 
शीघ्र अति लंका नगर।  

फिर से उड़े हनुमान;
मना कर दिया भरत को,
पहुंचे गंतव्य स्थान। 

पिला संजीवनी रस;
लक्ष्मण के प्राण बचा, 
सुषेन ने पाया यश। 

फिर से युद्ध आरम्भ; 
दोनों ओर के योद्धा, 
दिखाने लगे पराक्रम।  


भ्राता कुम्भकरण को,
जगा नींद से गहरी;
रावण भेजा रण को।  

बिता लेता था पिशाच;    
छः माह सोते हुए,  
कुम्भकरण दिन रात।  

नहाता न धोता था; 
महीनों बिन भोजन के, 
कुम्भकर्ण सोता था। 

रथ को भली सजाया;
भैंसा, सुअर आदि उसे,
जी भर के खिलाया।

चल दिया भर हुंकार;
कुम्भकरण ज्यों आया,
मच गया हाहाकार।

देखे कुम्भकरण को; 
डर के मारे वानर,   
छोड़ के भागे रण को।  

बढ़ चला पर्वताकार;
करता हुआ कुम्भकर्ण,
वानरों का संहार।

भुजाओं में लपेट;
खा जाता वानर, भालू, 
फटता न उसका पेट।

कर दिया वह घायल,
नल, नील व अंगद को;
बढ़ता ज्यूँ दावानल।

सेना को इस प्रकार,
रौंदते देख राम ने
धनु का किया टंकार।

घायल किया चलाकर, 
दनादन राम ने बाण;  
भू पर गिरा निशाचर।  

कुचल गए तब दब कर; 
गिरने से कुम्भकरण के 
नीचे अनेक वानर। 


लिए श्रीराम के बाण, 
इस प्रकार रणभूमि में 
कुम्भकर्ण के प्राण। 

लंका में हा हा कार;
रावण ने किया विलाप,
कर हाथी सा चिंघाड़।

युद्ध के लिए आये,
सौतेले सभी भाई;
लंकेश के पठाये।

दिए गए मार सभी,
अंगद, हनुमान द्वारा;
अन्य लंकेश सुत भी।

आज्ञा पाकर वानर,  
जलाने लगे भवन सब;   
लिए मशाल जलाकर। 

कुम्भ निकुम्भ आये; 
कुम्भकर्ण पुत्रों को,   
श्रीराम स्वर्ग पठाये। 

रावण सुत अतिकाय, 
आकर लक्ष्मण से लड़ा; 
गया परलोक सिधार। 

भेजा लंका भूप ने 
इंद्रजीत को लड़ने; 
अंत योद्धा रूप में।  

आया पुनः मेघनाद,
लड़ने हेतु लक्ष्मण से; 
विजय का ले उन्माद। 

मेघ बाणों की बौछार,
किया ज्यूँ बरस रही हों
नभ से जल की धार।

दोनों श्रेष्ठ धनुर्धर,
चलाये चले जा रहे;
घातक बाण परस्पर।

लक्ष्मण ने चलाया,
तब मेघ पर इन्द्रास्त्र;
सिर को काट गिराया।

लक्ष्मण के बाणों ने, 
इंद्रजीत पर घात किया; 
देह छोड़ा प्राणों ने।  

इंद्रदेव प्रसन्न हुए,
इंद्रलोक उल्लासित;  
वानर सब मग्न हुए। 

रावण प्रयोग में लाया;
अंतिम अस्त्र बनाकर, 
अहिरावण की माया।

किया धारि अहिरावण,
विभीषण का तब भेष;
राम लखन का अपहरण।

गया ले पाताल लोक,
राम का बलि देने को;
वानर सेना में शोक।

पता लगते तत्काल;
लेकर के गदा हनुमान,
जा पहुंचे पाताल।

गदा से मार गिराया;
राम लखन को दैत्य से
हनुमान ने छुड़ाया।

बचा न एक भी वीर;
बचे खुचे योद्धा लिए,
हो रावण चला अधीर।

पाये कर के एक एक, 
हनुमान के हाथों गति; 
दैत्य सैनिक अनेक। 

गति को हो गए प्राप्त,
लंका के सभी योद्धा;
था रावण अति हताश।  

स्वर्ण रथ पर आरूढ़; 
रावण सेना के साथ, 
लेकर चला आयुध। 

लंकेश क्रुद्ध होकर,  
लड़ने चला राम से; 
छेड़ा युद्ध भयंकर।

प्रत्यंचा की टंकार;
दोनों के ही धनुष की, 
गुंजाई धरा आकाश। 

भयंकर देख के युद्ध;
नभ, धरा और  पाताल,
सब के सब थे क्षुब्ध।

देखते ही राम ने,
मार गिराया सहस्रों;
राक्षस गिरे सामने।

राम का किया प्रहार
लगा दिया रणभूमि में
दैत्य शव का अम्बार।

रावण छोड़ा राम पर,
उत्तम धरे बाणों को;
आये नहीं काम पर।

काटे राम निकालकर,
रावण के छोड़े अस्त्र;
अपने तूणीर से सर।

राम ने काटा मस्तक,
तीर से रावण का एक;
फिर हो आया प्रकट।

राम ने काट गिराए,
दसों मस्तक रावण के;
फिर से सब उग आये।

जब भी काट गिराते; 
रावण के भंग अंग, 
तुरंत फिर उग आते। 

राम के छोड़े बाण,
हो जाते थे व्यर्थ सब; 
लक्ष्य रावण पर साध। 

राम हो रहे चिंतित;
मारे बालि, खर, दूषण,
बाण विफल हैं किंचित।

छोड़े तब बाण तीस;
काटा रावण के साथ,
बीसों हाथ, दस शीश।

रावण फिर जस का तस;
राम को देख विभीषण,
लंकेश के आगे विवश।

रावण धरे, बताया, 
नाभि के भीतर अमृत;
अमरत्व को है पाया।  

प्रत्यंचा को चढ़ा कर;  
छोड़े राम इक्तिस बाण 
लक्ष्य साध रावण पर।

काटा दसों ही शीश,
साथ में बीस भुजाएं;
सुखाया इक से अमृत। 

घोर अँधेरा छाया,
रावण गिरा धरती पर; 
जैसे प्रलय हो आया। 

कांप उठी वसुंधरा;  
दब गए अनेक वानर,
रावण जब नीचे गिरा।  

रावण ने छोड़ा प्राण;
परम गति को वह पाया, 
खाकर इक्तीस बाण।  

पाप की उसकी चाह,
लेकर गई रावण को;
खींचे काल की राह। 

निज स्वार्थ के कारण;
पूरे कुटुंब को स्वाह।
करवाया था रावण। 

धर्म के विरुद्ध करनी, 
रावण की पाप भरी; 
पड़ी अंततः भरनी। 

विभीषण ने फिर किया,
विधि विधान के द्वारा;  
रावण की अंत क्रिया। 

रामचंद्र की भक्ती,
विभीषण को दिला दी;
लंका की राजगद्दी। 

श्रीराम के हाथों से; 
विभीषण का राजतिलक,
हुआ धर्म संस्कारों से।  

दैत्यों पर राम विजय;
गूंज उठे धरा, गगन,
श्रीरामचंद्र की जय।

करने लगे बखान, 
देवता हो के प्रसन्न;  
श्रीराम का गुणगान। 

फूलों की वर्षा की, 
नभ से देवताओं ने;
दसों दिशा हर्षायी।  

समाया हर्ष विशेष;
प्रभु राम के विजय का,  
सीता पाईं सन्देश। 

पालकी में हो विराज,
पहुंचीं देवी जानकी; 
प्रभु श्रीराम के पास। 

दे के पुष्टि कीं सीता, 
रमा राम में मन था; 
तत्पल अग्नि परीक्षा।  

दाह से उन्हें बचाया; 
अग्नि देव ने राम को, 
सिय सकुशल लौटाया। 

आया पुष्पक विमान;
अयोध्या चले श्रीराम, 
होकर के विराजमान। 

बांटे वस्त्र आभूषण, 
लाकर के वानरों को; 
लंका नरेश विभीषण।  


करने लगे जयकार,
एकत्रित सभी वानर; 
उड़ा विमान आकाश।   

राह में प्रमुख स्थान;
दर्शन करने के लिए,
राम का रूका विमान।

रुक अगस्त्य आश्रम; 
कराया जनकसुता को,
चित्रकूट के दर्शन। 

इनसे मिली सफलता;
राम ने हनुमान की,
मुनि से किया प्रशंसा।

पाकर राम की आज्ञा;
कुशल क्षेम लाने गए, 
हनुमान उड़ अयोध्या।

कुशल लाये हनुमान,
श्रीराम को बतलाये;
अयोध्या चला विमान।



१४९ 

















उत्तर काण्ड














अब तो रह गया शेष;
कल आएंगे प्रभु राम, 
दिवस मात्र बस एक। 

शुभ शकुन होने लगे
भरत बड़े थे आतुर,
अब तो राम मिलेंगे। 

फड़क रही बार बार,
भरत की दाहिनी आंख;
शकुन शुभ, हर्ष अपार।

सन्देश ले पहले ही, 
आये अवध हनुमान;
श्रीराम के आने की। 

भरत से कहे कपीश; 
जिनके विरह में आप,  
वो आ रहे जगदीश। 

लगा लिए भरत गले;
तुम्हें देख लगता है,
मुझे राम स्वयं मिले।

महल में जा बताये;
श्रीराम के स्वागत में,
सबको भरत लगाए।

सजी अयोध्या सुन्दर; 
नर नारी बहुत प्रसन्न, 
राम आगमन सुनकर।  

बंध गए वंदनवार; 
सजाने हेतु अयोध्या, 
नगर वासियों द्वार। 

डूबी हर्ष में पूरी, 
वनवास से हैं लौटे, 
राम अयोध्या पुरी। 

उतरा जैसे विमान;
आरम्भ हुआ नगर में,
स्त्रियों का मंगल गान।

राम का दर्शन पाने,
जुटे सभी नर नारी;
पुष्प उन पर बरसाने।

द्वार तो कोई छत पर;
पुष्प लिए स्वागत में,
खड़े मस्तक नत कर।

आते गले लगाये, 
श्रद्धालु भरत को राम; 
अनुभूति सुख की पाए।  

हर्ष में डूबे भरत; 
लक्ष्मण से लग गले,  
सीता चरणों में नत।  


लगा कोई अमृत रस, 
प्यासे भरत के समक्ष, 
रहा हो जैसे बरस।  

सोचते दिवस व रात;
भरत जिसके विषय में, 
समक्ष खड़ा है आज। 

आरती सब उतारीं,  
राम, लखन, संग सिय की,
मिल  तीनों महतारी।

नवा चरणों में शीश;
लिए श्रीराम उसी क्षण,
माताओं से आशीष।

घर घर में दीप जले;
राम, लखन, सिय संग,
अयोध्या पांव धरे। 

विजयोत्सव में सजी; 
दीपमाला की लौ से, 
नगरी जगमगा उठी।  

पेड़, पौधे लिए उमंग;
खिले फूल कानन के,
कार्तिक छाया बसंत।

उदास निश्चल रहता;
उन्माद में बह रहा,
जल सरयू का मचलता।

प्रभु राम ने बताया,
अयोध्या की पावनता,
वानरों ने सुख पाया।

कैकयी को समझाए, 
बिसारो बीती बात; 
राम शुभाशीष पाए।   

हुए प्रेम में विह्वल,
प्रभु राम ने भरत से,
पूछा प्रजा का कुशल। 

कौसल्या सोच चकित; 
कैसे मारा रावण को,
राम अति कोमल, ललित।   

मिले वसिष्ठ से राम;
शीश झुकाकर के किया, 
कुल गुरू को प्रणाम। 

ब्राह्मणों को बुलाया;
राजतिलक का मुहूर्त, 
वसिष्ठ ने जंचवाया।  

हुआ राज्याभिषेक,
निवासियों का अनुग्रह,
हुए राम अवध नरेश।

मिला राम को राज;
पधारे देवता गण, 
देने आशीर्वाद। 

मन्त्रों का उच्चारण,
करके संपन्न कराये,
राज्याभिषेक ब्राह्मण।

गन्धर्व, किन्नर गाये;
नगाड़ों की धुन गूंजी,  
कीं नृत्य अप्सरायें। 

ब्राह्मणों को दे दान;
विदा किया प्रभु राम ने,
दिया बहुत सम्मान।

लौटे सभी देवगण;
अपने अपने स्थल को,
पाय राम के दर्शन।

धरा से मिटा दशानन;  
श्रीरामचंद्र विराजे,
अयोध्या के सिंहासन। 

मुनि व कलाकारों को,
प्रभु राम ने भेंट  दिया,
देवी,  देवताओं को।

अंगद, सुग्रीवादि को;
प्रभु राम ने विदा किया,
दे के भेंट निषाद को।

सूरज अस्त विरह का;  
उर्मिल हर्ष से फूली, 
इतिश्री दुःख दुसह का। 

करवाने सिद्ध बनी,
पति लक्ष्मण के तप को;  
उर्मिला खुद तपस्विनी। 

जली थी चौदह वरष; 
झोंक विरह की अग्नि में, 
उर्मिला जीवन के रस। 

मन में लिये अँधेरा,
उर्मिला के चौदह वर्ष;
हुआ है अब सवेरा।

हो रहीं हर्षित  सुन,
शिव जी से पार्वती; 
श्रीराम के अनुपम गुण। 

होता न कोई विषाद,
राम के शासन काल, 
अयोध्या में व्याप्त। 

बड़े सुख पूर्वक  प्रजा,
रहती राम राज्य में,
कहुँ न दुःख, दरिद्रता। 

वृक्ष, मांगने से फल,
मांगने से ही मेघ,
बरसा देते जल।

उद्यान भरे रहते,
सुन्दर अति फूलों से;
पंछी चहकते रहते।

घरों में राम के चित्र; 
गाती रहती थी प्रजा,
सदा श्रीराम चरित्र।

सरयू घाट मनोहर;
स्नान करते साधु, संत,
स्वच्छ हृदय को कर।

भाइयों से अति प्रेम;
प्रजा का रहता ध्यान,
लेते राम कुशल क्षेम।

भरत, शत्रुघ्न और शेष;
भाइयों को राम ने,
दिया उत्तम उपदेश।

कुल्हाड़ी भांति असंत;
है चन्दन जैसा संत,
कट कर भी दे सुगंध।

ना के बराबर दुष्ट,
सतयुग और त्रेता में;
कलियुग झुण्ड के झुण्ड।

नहीं है कोई धर्म,
परोपकार से बढ़कर;
भलाई सर्वोत्तम।

मातु, पिता, गुरु, विप्र;
सेवा, सम्मान इनका,
उत्तम करते चरित्र।

लोभ का ऐसा जाल;
खींच ले जाता है नित,
पाप के गहरे ताल।

स्वार्थ परायण कृति;
पुण्य से परे पटकती,
पाप की देती प्रवृत्ति।

वचन अति सार गर्भित;
राम के मुंह से सुनकर,
भाई हुए सब हर्षित।

नगरवासियों से कहे;
मैं सदैव उसके साथ,
मुझसे जो प्रेम करे।

मिटे दुःख हर प्रकार;
भक्त पाता मेरी कृपा,
वो भवसागर से पार।

संतोष से हो संतृप्त;
मैं उसके साथ, जो न
भोग विलास में लिप्त।

पाले न पाप का रोग;
मेरा प्रिय होता वही,
त्यागे विषय व भोग।

करता जो जैसा करम;
अच्छे का उत्तम फल,
बुरे का देता अधम।

सबसे सरल है मार्ग,
मुझे पाने की भक्ति;
कपट, कुटिलता त्याग।

करना मुझसे अनुरक्ति,
ममता, मद, मोह रहित;
सभी सुखों की शक्ति।

परोपकार से भारी,
जप, तप, व्रत आदि भी;
न कोई कर्म सुखारी।

होता है धर्म का सार,
जग में सबसे ही बड़ा;
किया है जो उपकार।

यह मनुष्य का देह,
मिला बड़े ही भाग्य से;
रखना लगाकर स्नेह।

तन की प्राप्ति का फल,
मूर्ख समझ भोग विषय;
कर देते सुधा, गरल।

भक्ति सबसे पथ सरल;
मुझ तक पहुँच पाने का
योग, जप, तप  से विरल।

अमिय वचन सुन राम के;
पकड़े सब हितकारी,
चरण कृपानिधान के।

वसिष्ठ ने किया बखान;
प्रभु श्रीराम का चरित्र,
सुख जीवन का महान।

करके राम की भक्ति;
मिल जाती प्राणी को,
अनेक पापों से मुक्ति।

वेद, मन्त्र या पुराण;
मिल जाता सब ज्ञान,
लेने से प्रभु का नाम।

शिव जी बोले, गिरिजा!
कह दिया मैं राम का,
बुद्धि से अपनी कथा।

सब कुछ उनके हाथ;
देते कर्मों के अनुसार,
फल सबको रघुनाथ।

जग का यथार्थ उनसे;
जीव जंतु  हरेक और
है हर पदार्थ उनसे।

विस्वास बिना न भक्ति,
भक्ति बिना प्रभु नहीं,
प्रभु के बिना ना  शांति।

पतितों को भी पावन;
कर देता करने से,
श्रीरामजी का भजन।

देवताओं को शक्ति,
देने वाला वही है;
और भक्तों को भक्ति।

राम की महिमा अथाह;
मूक हो जाय वाचाल,
अंधे को दिखा दे राह।

सुख का भंडार वही;
गुणों का सागर है वह,
जीवन का सार वही। 

कह डाली मैंने कथा, 
प्रभु श्रीरामचंद्र की;
हरती जो सब व्यथा।

जीव सदा परतंत्र है;
सृष्टि में केवल एक,
ईश्वर ही स्वतंत्र है। 

जीव माया के वश में,
ईश्वर पर न प्रभाव, 
माया प्रभु के वश में। 

जीव जग में अनेक;
हर जीव, वनस्पति का, 
ईश्वर मगर है एक।  

नाम बड़ा सुखदायी,
कहते नारद राम का;
भजो अन्तः से भाई। 

वैभव ना महलों में,
जीवन का है सुख परम,
प्रभु कमल चरणों में।








भजन


प्रसन्न हो वे मन में बसते, जो भजते श्रीराम।  
सफल मनोरथ होते उनके, जो भजते श्रीराम।  


बनाने को बिगड़ीकाफी है नाम; जय श्रीराम।  
पाप मन के, प्रभु दूर करते, जो भजते श्रीराम। 

लेने से नाम, होते पूरे काम; जय श्रीराम।  

मन विकारउन सबके हरते, जो भजते श्रीराम।  

बस तेरे ही चरण हैं सुख के धाम; जय श्रीराम। 
प्रभु की शरण, वे ही पाते, जो भजते श्रीराम। 

पड़ी भंवर में नइया, आकर थाम; जय श्रीराम। 
भव से बेडा, पार लगाते, जो भजते श्रीराम। 

जीवन अमृत रस को पीते, जो भजते श्रीराम। 
सद्गति को निश्चित पा जाते, जो भजते श्रीराम।  

भज ले प्यारे, कौड़ी लगे न दाम; जय श्रीराम
सुख का भंडार उनके भरते, जो भजते श्रीराम। 

जग में सबसे पावन, है मन भावन; जय श्रीराम।  
श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम, जो भजते श्रीराम। 





रामायण सार 

जनम लिए दशरथ के घर, राम उतारने पाप धरा से।
शिव का तोड़े धनुष जनकपुर, व्याह रचाये जनकसुता से।
सेवा किये गुरु का देकर, दुष्ट दानवों से छुटकारा।
शाप के कारण बनी पाहन, देवि अहिल्या को है तारा।

कुटिल विचार धरे मंथरा, कैकेयी को कलह पढ़ाई।
नीच की सीख से वर मांगी, राम को वन की राह पठाई।
राम चले वनवास सखे, आज्ञा पिता की सिर पर धारे।
धर्म की रक्षा करने हेतु, दैत्य दानवों को संहारे।

राम को करना पार नदी, जग का है जो खेवनहारा।
पांव पखार बिठाया नाव, केवट गंगा पार उतारा।
करके ढिठाई सूर्पणखा, प्रभु से, अपनी नाक कटाई।
बिलखती हुई लंका जाके, भाई रावण को भड़कायी।

लोभ के वश आ के  मांगी, सीता स्वर्णिम मृग की छाला।
लक्ष्मण रेखा तोड़ीं जानकी, रावण ने हरण कर डाला।
भक्त के वत्सल राम सदा, सबरी के जूठे बेर को खाया।
कृपा के सिंधु हैं भक्तों के, हनुमान को गले लगाया।  

सुग्रीव की बालि से रक्षा कर, मित्र अपना परम बनाया।
सुग्रीव वानरी सेना भेजा, देवि सिया का पता लगाया।
नल व नील की ले के मदद, सागर पर सुन्दर सेतु बना।
उछल कूद करते उस पुल से, लंका पहुंची वानर सेना।

नीति की बात कही सब ही की, रावण ने तत्पल ठुकराया।  
दर्प, दुष्टता के कारण ही, स्वयं अपना काल बुलाया। 
दुष्ट को सीख दिया विभीषण, गया निकाला अपने घर से।   
घर का भेद दिया राम को, नाभि का अमृत सुखाये सर से।   

दुष्टदलन की नीति राम की, लंकापति पर विजय दिलाई।  
धैर्य, धर्म, विवेक, वीरता से, राक्षसों से मुक्ति पायी।   
रावण के साथ मरे लाखों, पुत्र, मित्र व सगे सम्बन्धी।  
बुरे का साथ देता है जो, जग में पाता आचार वही।  


२७४ शब्द