Sunday, 30 June 2019

kanoon


हम माननीय हैं
हमारा ही छौना है
क्या कर लेगा हमारा
कानून बौना है


कानून क्या कर लेगा
नाम हटाने की फीस

जाँच

फटे हाल मुवक्किल तो, केस का सर्वनाश।
खाली हाथ आन पड़ा, वकील जी के पास।
न्याय क्या मुफ्त मिलेगा।

कुछ दिन और रह ले तू, जेल में ही बेटा।
अगली तारीख पर ही, अब लिखेगा लेखा
जज साहब छुट्टी पर भागे ।

प्रतीक्षा अतिशय किया, बुरे हुए अब हाल
तारीख हि पड़ती रही, बीते सालों साल
फैसला कब आएगा

रखे सरोकार न क्या, मुवक्किल की व्यथा
कह डाले कचहरी में, दुनिया भर की  कथा
बड़ा वकील वही है

लोकतंत्र में है बुना, कानूनों का जाल
उलझे रहते उसी में मिलता ना है न्याय
वादी की लाचारी 



Wednesday, 19 June 2019

Europe dekha

यूरोप देखा

मैंने ठोप ठोप देखा,
यूरोप देखा।।

भवन आलीशान देखा
मकान एक समान देखा।।
बर्फ से ढके पहाड़ देखा
ठंड, कंपाती हाड़ देखा।।
हरे भरे खेत देखा
धूल ना रेत देखा।।
प्रकृति का उपहार देखा
धरा का शृंगार देखा।।
मैदान में चरती गैया देखी
नहर में चलती नैया देखा।।
वादियों में हरियाली देखा
कहीं न बुर्के वाली देखा।।
म्यूनिख एम्सटर्डम देखा
गोरी लम्बी मेम देखा।।
जगह जगह नहर देखा
नहरों का शहर देखा।।
हर जगह सफाई देखा
दूध बिना मलाई देखा।।
आम बिना चोप देखा
यूरोप देखा।।

नगर साफ सुथरा देखा
आते जाते बदरा देखा।।
सड़क पर पटरी देखा
छत पर छतरी देखा।।
शाम को बार पर जुटते देखा
गिलासों पर टूटते देखा।।
लोगों को करते चीयर देखा
पानी से ज्यादा बीयर देखा।।
बीयर से मंहगी चाय देखा
भारतीयों को करते हाय देखा।।
अंग्रेजों को पीते देखा
पीकर ही जीते देखा।।
अपनों को नेपते देखा
पीने मे झेंपते देखा।।
सम्बन्धों में खाईं देखा
ससुराल बिना जमाई देखा।।
रात देखा, भोर देखा
मगर नहीं चितचोर देखा।।
आत्मीयता का लोप देखा
यूरोप देखा।।

नेताओं का न भाव देखा
अधिकारियों का न ताव देखा।।
शासन देखा, अनुशासन देखा
चुस्ती भरा प्रशासन देखा।।
पटरी पर ना कब्जा देखा
भवन से निकला ना छज्जा देखा।।
सड़कों पर सन्नाटा देखा
भीड़ का न ज्वार भाटा देखा।।
भवनों की भव्यता देखा 
पाश्चात्य सभ्यता देखा।।
साइकिल का अलग ट्रैक देखा
पैदल वालों के लिए ब्रेक देखा।।
उलटे हाथ की ड्राइव देखा
माइकल की नौवीं वाइफ देखा।।
डेढ़ सौ की स्पीड देखा
टैक्सी में चलती मरसीडीज देखा।।
कार का कारखाना देखा
ड्राइवर दीवाना देखा।।
शौचालय बिना पानी देखा।।
भारतीयों की परेशानी देखा
पेशाब पर यूरो खरचते देखा
कुछ एक को सटकते देखा।।
जबरदस्त महगाई देखा
पुलिस की ढिठाई देखा।।
शीशी में सोप देखा
यूरोप देखा।।

खामोश गाड़ी के हार्न देखा,
थियेटर में पार्न देखा।।
करते न बात खास देखा
गाइड की बकवास देखा।।
भारतीयों को खाने मे संलिप्त देखा
रोटी पाकर तृप्त देखा।।
बेल्जियम का ब्रूज देखा
कैनाल में क्रूज देखा।।
आस्ट्रिया, बेल्जियम देखा
नेशनल म्यूजियम देखा।।
चाकलेट की दुकान देखा
क्रिस्टल का सामान देखा।।
हवा को बनाते बिजली देखा
फूलों से उड़ाते तितली देखा।।
सड़क बाड़़ के अन्दर देखा
कहीं न उछलते बन्दर देखा।।
ट्रेन देखा, ट्राम देखा
चुम्बन सरेआम देखा।।
तम्बाकू न पान देखा
थूकते ना इन्सान देखा।।
सिगरेट के फेके टुकड़े देखा
कहते गोरों को दुखड़े देखा।।
चिपके गोपी गोप देखा।
यूरोप देखा।।

गोरी गोरी मेम देखा
मर्द सेम टू सेम देखा।।
वहां भी कौवा काला देखा
कार्ड से खुलता ताला देखा।।
सत्रह घंटे का दिन देखा
जीवन थोड़ा भिन्न देखा।।
भोजन का विचित्र राग देखा
खाते हॉट डॉग देखा।।
आटा का डब्बा खाली देखा
घरों में ना कामवाली देखा।।
तनहा जीता व्यक्ति देखा
कैसिनो में बिताते  वक्त देखा।।
धूप सेंकते नदी का कूल देखा
सबको पालन करते रूल देखा।।
कमाल करते लुटेरा देखा
जालसाजों का डेरा देखा।।
हिटलर का गैस चैम्बर देखा
निर्दयता का अम्बर देखा।।
कार पर चलती साइकिल देखा
चर्च मे रखी बाइबल देखा।।
सुन्दर बने चर्च देखा
भारी भरकम खर्च देखा।।
प्रेम में डूबा पोप देखा
यूरोप देखा।।

एस. डी. तिवारी


कुछ क्षणिकाएं

समागम में -
दूर दूर से आये लोग मिले,
एक परिवार सा लगा।
चले जाने के बाद,
सूखे के मौसम में
पड़ी बौछार सा लगा।

समागम में -
प्रयोजन से अधिक
व्यवस्था की चिंता होती है
फिर भी सेकता तो
आयोजक ही रोटी है।

अपनों का साथ था
फोटो खींचने में भी पक्षपात था।

हर आगंतुक अपनी रोता है,
समागम कुछ ऐसा ही होता है।

हाथ मिलाये, अजनवी से भी मिले
हाथ हिलाये, घर को चले।


एस. डी. तिवारी




Sunday, 9 June 2019

Hindi geet


हिंदी हूँ मैं 

मैं हिंदी हूँ। हिन्द की हिंदी हूँ।
अपने ही ठोकर मारते, फिर भी जिन्दी हूँ।

माँ सरस्वती की सबसे दुलारी बेटी हूँ।
संकट आता तो उसी का नाम लेती हूँ।
माँ ने कहा था, भारत पर राज करेगी।
लोगों का इतना प्यार मिलेगा, नाज करेगी।
भारत सरकार ने मुझे राज-भाषा बनाया।
राष्ट्र-भाषा बनने की  पूरी आशा जगाया।
वैज्ञानिक, समृद्ध, गुणों में चुनिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ। 

मुझमें भरा मधु का मिठास है। 
मुझमें धरा युगों का इतिहास है।
राम कृष्ण की गाथाएं मुझमें। 
चिर पौराणिक कथाएं मुझमें। 
स्वाभाव से मैं तो बहुत सरल हूँ।  
बड़ी प्राचीन हूँ और सबसे विरल हूँ। 
पावन जैसे भागीरथी, कालिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।

हिन्द की मैं सजीव चित्र हूँ। 
कई अन्य भाषाओँ की परम मित्र हूँ। 
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद मुझमें। 
विविध काव्य विधाएँ स्वछन्द मुझमें। 
मुझमें अध्यात्म, स्वर व सुर है। 
जुड़ा मुझसे भारत का उर है।  
आध्यात्मिक ग्रन्थ, पुराणों की नंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।

अपने ही घर में मैं सौत सी क्यों ? 
पल पल झेलती हूँ मौत सी क्यों ? 
उत्तर दक्षिण के राजनीति में जकड़ी, 
हिंदुस्तान में रहना पड़ता सिकुड़ी। 
सारे संसार में आज मैं विस्तृत हूँ, 
पर अपने घर में रहती उपेक्षित हूँ? 
कुछ अपनों की करनी पर शर्मिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ। 

कुछ बनतुओं की बात, कहाँ से कहूं!
उनकी करनी पर, चुप भी कैसे रहूं!
उनको तो है गोरी अंग्रेजी से प्यार। 
उसके लिए करते मुझपे अत्याचार। 
वे रंग देखते; रस, रूप का ज्ञान नहीं। 
दिया जो मैंने गौरव, उसका भान नहीं। 
जब कि मैं सुंदरता की बुलंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।

मेरे पास राग है, अनुराग है,
भ्रमर और बाग है,
फूलों का पराग है, 
स्वरों का तड़ाग है,
चाँद है, चांद का दाग है,
टेसू की आग है,
चोटी का नाग है,
प्रभु का सन्मार्ग है,
रस है, अलंकार है,
सोलह श्रृंगार है,
मेघ है, फुहार है,
भावों का संसार है। 
उसके पास क्या है?
न मधुमास है, न फाग है,
न कोयल, न काग है,
न सिंदूर है, न सुहाग है।
बस जिंदगी का गुणा भाग है।
फिर भी अकड़ रखती है,
प्रशासन पर पकड़ रखती है।
बाहरी हो के भी इतराती है। 
मेरे घर में मुझे चिढ़ाती है। 
किसी तरह सब दुःख सह रही हूँ। 
बस आधे भारत के सहारे रह रही हूँ। 

बाहर मेरा सम्मान कितना! तुम क्या जानो!
मैं भाषाओँ में महान कितना, तुम क्या जानो!
जो निधि छुपाये हूँ, माँ वीणापाणी जानती है।
अपनी वीणा का सुर, ब्रह्मा की वाणी मानती है।
किंचित ही मैं पूरे संसार में व्याप्त हूँ। 
भारत की धाक जमाने हेतु पर्याप्त हूँ।
वसुधा पर आयी, मैं देवलोक की वासिन्दी हूँ।
मैं हिंदी हूँ। हाँ मैं हिन्दी हूँ।

एस. डी. तिवारी


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हिंदी पढ़कर स्कूल सरकारी में। 
पड़ गयी जिंदगी लाचारी में। 

चतुर, चुपके अंग्रेजी पढ़कर। 
बन गए जा सरकार में अफसर। 
हमको झोंक बेरोजगारी में। 

'हिंदी पढ़ो' के नारे लगाए। 
अपनों को वे अंग्रेजी पढ़ाये। 
हम रह गए इस मारा मारी में। 

गिटपिट कर वे कहाँ निकल गए। 
गरीबी के हम गढ्ढे फिसल गए। 
मन लगा के हिंदी प्यारी में। 

लेने आती उन्हें मोटर गाड़ी। 
टाई के आगे हम बने अनाड़ी। 
रहे साईकिल की सवारी में। 

न्याय व्यवस्था है अंग्रेजी में। 
झेले अन्याय रह स्वदेशी में। 
फंसकर भाषा की बीमारी में। 

अंग्रेजी बिन जीवित चीन, जापान। 
मर रहा था फिर क्यों हिंदुस्तान। 
रह मातृभाषा की गद्दारी में। 


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हिंदी गीत

हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।
हमको प्राणों से प्यारी है।

हिंदी उर कंठ लगाएंगे,
हिंदी का मान बढ़ाएंगे,
हिंदी से है हिंदुस्तान,
विश्व विजयी बनाएंगे।
सब भाषाओँ पर भारी है।
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।

हिंदी माँ  के जैसी है,
हिन्द जनों की हितैषी है,
शुद्ध, मधुर, पावन उर इसका,
रस, राग में सबसे बेसी है।
परम पूज्यनीय हमारी है।
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।
 
हिंदुस्तान की आन है ये,
भरे अध्यात्मिक ज्ञान है ये,
देवों.और वेदों की वाणी,
जीवन का मंगल गान है ये।
माँ भारती की दुलारी है। 
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।

एस. डी. तिवारी


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देश विदेश में पल रहीं मेरी अनेक बहनें हैं।
उनमें से कई तो मेरा ही आवरण पहने हैं।
प्यार के दम वो भी बहुत मगरूर रहती हैं।
अपनी सुंदरता पर बड़ा गरूर रखती हैं।
सब की सब मुझसे बड़ी दिखना चाहती हैं।
लघु होकर भी ऊँची खड़ी दिखना चाहती हैं।
नुमाइंदी 

तुम्हें पता ही है, कितने प्यार से मैं उनको देखी भाली।
कई प्लास्टिक सर्जरी करवाकर, रूप तक बदल डालीं।
तेलुगु, तमिल ने तो ऐसा मुंह मोड़ा है।
मुझसे बात तक करना भी छोड़ा है।
नहीं समझना कि भोली भाली हैं।
कन्नड़ और मलयाली भी बड़ी मतवाली हैं।

पंजाबी, बंगला, मराठी, उड़िया, गुजराती,
राजस्थानी भी मुझसे कुछ प्रेम अवश्य जतातीं।
असमी, कश्मीरी भी कुछ अलग सी रहती हैं।
मन चाहे कुछ भी हो, पर मेरा भला ही कहती हैं।
उर्दू तो वैसे अभी सखी बनकर खड़ी है।
पर कौन जाने, बदल जाये कौन सी घड़ी है।

बेटियों को लगता, उनके घर हस्तक्षेप कर रही हूँ।
जब कि उन सभी को मैं एक कर रही हूँ।
मुझे ज्ञात है, अगर मैं न रही, आपस में लड़ मरेंगी।
स्वयं तो डूबेंगी, मेरा नाम मटियामेट करेंगी।
मैं तो तुमसे ही कहती हूँ, समझाओ उन्हें।
बड़ों का सम्मान करना सिखाओ उन्हें।
घर में बड़े का होना, कितना लाभ देता है।
बड़ा ही संरक्षण और सही राय देता है।
बड़े परिवार में मिलजुल कर रहोगी।
अपने राष्ट्र को हिंदुस्तान महान कहोगी।

अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली,
मालवी, मेवाती, कांगड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली।
ये सब की सब अभी छोटी हैं।
आकर खेलती मेरी गोदी हैं। 
इनको तो मैं स्वयं ही सम्भाल लूंगी।
अपने ही बूते इनको पाल लूंगी।