हिंदी हूँ मैं
मैं हिंदी हूँ। हिन्द की हिंदी हूँ।
अपने ही ठोकर मारते, फिर भी जिन्दी हूँ।
माँ सरस्वती की सबसे दुलारी बेटी हूँ।
संकट आता तो उसी का नाम लेती हूँ।
माँ ने कहा था, भारत पर राज करेगी।
लोगों का इतना प्यार मिलेगा, नाज करेगी।
भारत सरकार ने मुझे राज-भाषा बनाया।
राष्ट्र-भाषा बनने की पूरी आशा जगाया।
वैज्ञानिक, समृद्ध, गुणों में चुनिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।
मुझमें भरा मधु का मिठास है।
मुझमें धरा युगों का इतिहास है।
राम कृष्ण की गाथाएं मुझमें।
चिर पौराणिक कथाएं मुझमें।
स्वाभाव से मैं तो बहुत सरल हूँ।
बड़ी प्राचीन हूँ और सबसे विरल हूँ।
पावन जैसे भागीरथी, कालिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।
हिन्द की मैं सजीव चित्र हूँ।
कई अन्य भाषाओँ की परम मित्र हूँ।
दोहा, चौपाई, मुक्तक छंद मुझमें।
विविध काव्य विधाएँ स्वछन्द मुझमें।
मुझमें अध्यात्म, स्वर व सुर है।
जुड़ा मुझसे भारत का उर है।
आध्यात्मिक ग्रन्थ, पुराणों की नंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।
अपने ही घर में मैं सौत सी क्यों ?
पल पल झेलती हूँ मौत सी क्यों ?
उत्तर दक्षिण के राजनीति में जकड़ी,
हिंदुस्तान में रहना पड़ता सिकुड़ी।
सारे संसार में आज मैं विस्तृत हूँ,
पर अपने घर में रहती उपेक्षित हूँ?
कुछ अपनों की करनी पर शर्मिंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।
कुछ बनतुओं की बात, कहाँ से कहूं!
उनकी करनी पर, चुप भी कैसे रहूं!
उनको तो है गोरी अंग्रेजी से प्यार।
उसके लिए करते मुझपे अत्याचार।
वे रंग देखते; रस, रूप का ज्ञान नहीं।
दिया जो मैंने गौरव, उसका भान नहीं।
जब कि मैं सुंदरता की बुलंदी हूँ। मैं हिंदी हूँ।
मेरे पास राग है, अनुराग है,
भ्रमर और बाग है,
फूलों का पराग है,
स्वरों का तड़ाग है,
चाँद है, चांद का दाग है,
टेसू की आग है,
चोटी का नाग है,
प्रभु का सन्मार्ग है,
रस है, अलंकार है,
सोलह श्रृंगार है,
मेघ है, फुहार है,
भावों का संसार है।
उसके पास क्या है?
न मधुमास है, न फाग है,
न कोयल, न काग है,
न सिंदूर है, न सुहाग है।
बस जिंदगी का गुणा भाग है।
फिर भी अकड़ रखती है,
प्रशासन पर पकड़ रखती है।
बाहरी हो के भी इतराती है।
मेरे घर में मुझे चिढ़ाती है।
किसी तरह सब दुःख सह रही हूँ।
बस आधे भारत के सहारे रह रही हूँ।
बाहर मेरा सम्मान कितना! तुम क्या जानो!
मैं भाषाओँ में महान कितना, तुम क्या जानो!
जो निधि छुपाये हूँ, माँ वीणापाणी जानती है।
अपनी वीणा का सुर, ब्रह्मा की वाणी मानती है।
किंचित ही मैं पूरे संसार में व्याप्त हूँ।
भारत की धाक जमाने हेतु पर्याप्त हूँ।
वसुधा पर आयी, मैं देवलोक की वासिन्दी हूँ।
मैं हिंदी हूँ। हाँ मैं हिन्दी हूँ।
एस. डी. तिवारी
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हिंदी पढ़कर स्कूल सरकारी में।
पड़ गयी जिंदगी लाचारी में।
चतुर, चुपके अंग्रेजी पढ़कर।
बन गए जा सरकार में अफसर।
हमको झोंक बेरोजगारी में।
'हिंदी पढ़ो' के नारे लगाए।
अपनों को वे अंग्रेजी पढ़ाये।
हम रह गए इस मारा मारी में।
गिटपिट कर वे कहाँ निकल गए।
गरीबी के हम गढ्ढे फिसल गए।
मन लगा के हिंदी प्यारी में।
लेने आती उन्हें मोटर गाड़ी।
टाई के आगे हम बने अनाड़ी।
रहे साईकिल की सवारी में।
न्याय व्यवस्था है अंग्रेजी में।
झेले अन्याय रह स्वदेशी में।
फंसकर भाषा की बीमारी में।
अंग्रेजी बिन जीवित चीन, जापान।
मर रहा था फिर क्यों हिंदुस्तान।
रह मातृभाषा की गद्दारी में।
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हिंदी गीत
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।
हमको प्राणों से प्यारी है।
हिंदी उर कंठ लगाएंगे,
हिंदी का मान बढ़ाएंगे,
हिंदी से है हिंदुस्तान,
विश्व विजयी बनाएंगे।
सब भाषाओँ पर भारी है।
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।
हिंदी माँ के जैसी है,
हिन्द जनों की हितैषी है,
शुद्ध, मधुर, पावन उर इसका,
रस, राग में सबसे बेसी है।
परम पूज्यनीय हमारी है।
हिंदी त्रिलोक में न्यारी है।