Thursday, 6 September 2018

Adhura Muktak 2 ghazal

सूरज आग बरसा रहा है।
बादल जल को तरसा रहा है।
भूमि के क्रोध से भी न डरोगे!
जंगल झुलसा जा रहा है।
तुम्हारे कृत्य से घबरा रही है।
समझ रहे झूठे डरा रही है।
इतना भार बढ़ा दिए हो कि,
हवा डोलने से कतरा रही है।

कितना और गिरोगे तुम?
पातालों से नहीं डरोगे तुम !
खांईं गहरी होती जा रही,
उसे अब कब भरोगे तुम?



अधूरा मुक्तक समारोह---785
नव मुक्तक सृजन---177
श्री वीर पटेल जी द्वारा प्रदत्त पंक्ति--
"कब तलक रोयेगा तू, सामने बेपीर के"
समारोह अध्यक्षा - सुविख्यात कवयित्री मंजु गर्ग जी 

जानता न मोल क्या ? नैनों के नीर के
समझे जो है कहाँ ? जज्बात तेरे हीर के। 
जिंदगी है काट रहा, मुर्दों की बस्ती में,   
कब तलक तू रोयेगा, सामने बेपीर के। 

एस. डी. तिवारी 


अधूरा मुक्तक समारोह : 762 🌿
☘ अधूरी ग़ज़ल : 161 ☘
श्री वीर पटेल जी द्वारा प्रदत्त मतला

चाँद से नहीं मुझको खुद से ही शिकायत है ।
ज़िन्दगी में हासिल जो उसकी ही इनायत है ।

मापनी : " 212 1222 212 1222 "
काफिया : " आयत ''
रदीफ़ : " है "

चाँद से नहीं मुझे खुद से ही शिकायत है।
ज़िन्दगी में हासिल उसकी ही इनायत है।

वक्त बेवक्त देखते हैं हम राह उसकी
वक्त की पाबन्दी में देता न रियायत है।

चाहता हूँ पास उसके, बस मैं ही मैं रहूं
साथ होती मगर सितारों की पंचायत है ।

यूँ ही तो नहीं हो जाता, आँखों से ओझल
रखने में दूर उसे, सूरज की हिमायत है ।

किया तो जरूर जलवों से मालामाल हमें,
सच कहें तो गिला शिकवा भी बहुतायत है।

जाने की सूरत न बचती
चमक छोड़ यहाँ बसता खुद विलायत है

पुरानी किफ़ायत



चल झूठी कहीं की

इतनी भी ना भोली रानी
झूठ तू क्यों बोली रानी 

बातें मनगढंत  करके 
प्यार का मेरे अंत करके
मन अपने बांध रखी जो   
गांठ क्यों न खोली रानी 

ना मैंने छुआ तुझको
ना ही कुछ हुआ तुझको
मुझको बदनाम करके 
मशहूर तू हो ली रानी

चढ़ा के आयी पौवा तू
मुझको बनायीं कौवा तू
प्यार का घड़ा मेरा दिल,  
नफ़रत का विष घोली रानी



सोये जज्बातों को, जगाया, उसने। 
हमको आशिक अपना बनाया, उसने।  

पहले देखा, तनिक छुआ, छेड़ा उसे,
बेइंतहां इश्क हमसे जताया, उसने। 

उसके ख्यालों में, डूबे हम इस कदर,
एक दीवाना का नाम दिलाया, उसने। 

फिर बुलाते कभी, बीबी मुंह मोड़ती]
घर से बाहर की राह दिखाया, उसने।   

सोच में डूबते तंग करती वो बीबी,
खयालों से दूर उसे भगाया, उसने।  

कम तो वो भी कहाँ, लड़ पड़ी बीबी से,  
गले लग के बीबी को सताया, उसने।   

वो कहती कि जाओ वहीँ नाता जोड़ो,
मेरी कविता को सौत बताया, उसने। 




खफा क्यों हमसे, सजन हुए जाते हैं!
उन बिन अकेले, अपन हुए जाते हैं।

थाह पाये, हुई क्या खता हमसे;
पराये से वो जाने मन  हुए जाते हैं।

बिछुड़ चुकी हैं अब, बहारें भी  हमसे;
वीराने से गुल  चमन हुए जाते हैं।

तन्हाई में रहने की आदतों के मारे;
खुद के ही हम, दुश्मन हुए जाते हैं।

दरश हुये उनके,  बीत गए बरसों;
थके थके से ये, नयन हुए जाते हैं।

क्या क्या किये, उनके लिए हम;
गुमसूमियत में, दफ़न हुए जाते हैं।

ढक चुकी हैं यादें, वक्त के पीछे अब;
बीते वो लमहे, चिलमन हुए जाते हैं।                                                                                         
    

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