जाने कब से विकल पड़ा हूँ।
अब तो स्वयं ही चल पड़ा हूँ।
पुस्तक खोलने वाला न कोई,
इसलिए बाहर निकल पड़ा हूँ।
ये जो धर्म के प्रति कट्टरपन है
थोड़े से लोगों का अक्खड़पन है
खुद को धर्म का ठेकेदार बताकर
सत्ता से जुड़े रहने का यत्न भर है
आग से पहले मैंने कभी नहीं खेला,
क्योंकि मन में बहुत बड़ा डर था।
आज ही आग लगा कर आया हूँ,
लोग बता रहे, वह मेरा ही घर था।
एस. डी. तिवारी
चिंगारियां फेंका, उन्हें डराने के लिए।
वो शोला भी बनेंगी, इससे बेखबर था।
क्या कुछ स्वाहा हुआ, मुड़ के न देखा;
अब लोग बता रहे, वह मेरा ही घर था।
काम बांटा समाज ने, वर्ण बना के चार।
ऊंच नीच का भेद तो, लघुता का व्यव्हार।
जातियां बदल रूप जब, कहलायीं व्यवसाय।
जातिगत कामों से ही, होती ऊँची आय।
कर्म में हो लगी लगन, सार्थक हों प्रयास।
सफलता चली आयगी, स्वयं तुम्हारे पास।
सफल वही जो कर्म निभाता
कर्म ही जीवन सेतु बनाता
कर्म से जिसको होता प्यार
वही जग में निपुण कहलाता
बेटे ने खेत में हिस्से के लिए केस दाल
उन्होंने रख रखाव के लिए
ढलती उम्र के लमहे किस्मत फोड़ गए।
जीर्णावस्था में अपने भी साथ छोड़ गए।
जिन जहाजों को मैं किनारा देता था,
वो तो बुढ़ापा देखते ही नाता तोड़ गए।
बारिशों की बूँदें घावों को कुरेद जाती हैं।
हवा और धूप दर्द को बार बार जगाती हैं।
लहरें जो कभी मेरे साथ खेला करती थीं,
बुढ़ापे में टक्करें देकर जी भर सताती हैं।
हे प्रभु! मेरे किये का तू, कुछ तो सिला दे।
गर किसी काम का नहीं, मौत ही दिला दे।
यूँ जर्जर खड़ा रखने से तो यही अच्छा,
जिस मिट्टी से बनाया है, उसी में मिला दे।
सब धर्मों पर नहीं है चलता, धर्म का कानून।
संविधान की सीमा में रहता, धर्म का कानून।
मात्र उस धर्म के अनुयायियों पर ही लागू,
पूरे राष्ट्र का नहीं हो सकता, धर्म का कानून।
राजनीति में, स्वार्थ पर चाव टिका है।
रावणीयत पर, नेता का पांव टिका है।
मतदाता की आँखों पर पैसे का पर्दा,
दारू की बोतलों पर, चुनाव टिका है।
जमाखोरी पर वस्तुओं का भाव टिका है।
जमाखोर राजनीतिज्ञों की छाँव टिका है।
आम आदमी हर हाल बेबस ही दिखता,
कटती जेब का न अब कहीं बचाव टिका है।
अलगाव के बीज धरती पर बोने न देंगे ।
देश के दुश्मनों को चैन से सोने न देंगे ।
पाकिस्तान के हो जाएँ कितने भी टुकड़े,
एक और जिन्ना यहाँ अब होने न देंगे ।
बोली का जबाब प्यार की बोली से देंगे।
गोली का जबाब आग की गोली से देंगे।
सुन रे पाक! एक बूंद भी खून बहायेगा,
बदला, हजारों के खून की होली से देंगे।
किसी का भाई, किसी का लाल था।
सीमा पर खड़ा, अरि का काल था।
हवाएं नम कर गया, हर वो शहीद,
हमारा गौरव, भारत का भाल था।
हमारे किये को तुम ना निष्काम करना।
तन मन दे दिया, इतना तो काम करना।
हमने लहू बहाया है, तुम्हारी ही खातिर,
आंसू भी बहाना तो देश के नाम करना।
लहू के प्यासे नहीं हम, पर खून बहाना जानते हैं।
सामने ललकारते शत्रु को धूल चटाना जानते हैं।
किसी को धोखे से हम, पीछे से घात नहीं करते;
मगर किये का स्वाद, माकूल चखाना जानते हैं।
बहर पर रियाज खर्च कर, पड़े हो ऐंठे
अरे, लकड़ी मंहगी हो गयी तो क्या
प्लास्टिक की कुर्सी पर भी ना बैठें
रंग तो रंग है, हर रंग को प्रेम से चूमो।
सभी रंग मिल के बनता, इंद्रधनुष सा झूमो।
केसरिया को इतना भी ना बदनाम कर दो
खुद के चेहरे पर कालिख पोत कर घूमो।
शीर्ष-पोस्ट --7<> शुक्रवार- 'मुक्तांगन' - सभी काव्य -विधाएं एवं 'अवधी हमारि' 19--अक्टूबर-'18:'' विजय दशमी पर्व समारोह :'' विशेष आयोजन
" मुक्तक-लोक 227 <> मुक्तांगन- विजय दशमी विशेष समारोह "
* संयोजक –संचालक *
सुश्री लता यादव जी
सुश्री यशोधरा सिंह जी
श्री अखंड गहमरी जी
* संयोजक –संचालक *
सुश्री लता यादव जी
सुश्री यशोधरा सिंह जी
श्री अखंड गहमरी जी
मेरा लिखा एक गीत -
छोड़ अवध की गली, सीता वन को चली।
थी फूलों सी पली, सीता वन को चली।
जनकदुलारी थी वो, राम की प्यारी थी वो।
मूरत त्याग की, आदर्श नारी थी वो।
वन बड़ा था विकट, थी वो कोमल कली।
सीता वन को चली।
मन, करने का प्रण, पतिव्रता का निर्वहन।
हेतु राम कष्ट वन के, कर लेगी सहन।
पति का देने को साथ, पल पल तप में जली।
सीता वन को चली।
पड़ा देना पति हेतु, पग पग पर परीक्षा।
रखी राम के चरण, जीवन की सब इच्छा।
हाल जिस राम रहे, वह भी उसमें ढली।
सीता वन को चली।
- एस. डी. तिवारी
शीर्ष पोस्ट-6 <>गुरुवार, 18 अक्टूृबर, 2018<>गीतिका-गुंजन 227
***************************************************************
चयनित छंद- चौपई (जयकरी)
मात्रा भार- 15, अंत 21 से. चौपाई के अंत में एक मात्रा कम करने से चौपई छंद बनता है.
पदांत- स्वच्छंद, समांत- स्वच्छंद
पदांत- स्वच्छंद, समांत- स्वच्छंद
समारोह अध्यक्ष आदरणीय श्याम केशव धर्मपुरीकर
संचालक - डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'अकुल'
मेरी रचना
बिछाता रहता है बिसात। खाता जबकि सदैव मात।
भोंकता है हमारे छुरा,
पीठ में वो लगाकर घात।
पाक की आदत कुछ ऐसी, समझ न आती सीधे बात।
बना हुआ भूत वो ऐसा,
माने बस खाकर ही लात।
एक बार तो बड़ी मार से,
छुड़ानी होगी खुराफात।
आतंकवाद छोड़ेगा वो,
दिखा दें जब उसे अवकात।
एस. डी. तिवारी
शीर्ष पोस्ट -5 <>बुधवार 26/9/18<>चित्र-मंथन समारोह 224
``````````````````````````````````````````````````````````````````````````````````
समारोह अध्यक्षा- आदरणीया रजनी रामदेव जी
समारोह संचालक -
````````````````````
आद. श्यामल सिन्हा जी , आद. ओम अभिनव जी, आद.त्रिलोचना कौर जी
मनुष्य को कई बार, अंधकार परख जाता है।
दिखता नहीं है, कब वो भाग्य लिख जाता है।
घोर तम में भी होता, कोई तो झरोखा 'देव'झांकने पर, इंद्रधनुषी पुंज दिख जाता है।
- एस. डी. तिवारी
शब्द युग्म - कृत कृत्य
अध्यक्ष आद. पूनम रस्तोगी, संचा. आद. कान्ति शुक्ला और आद. उमा प्रसाद लोधी, संरक्षक आद. विष्वमभर जी शुक्ल
ढूंढने में खोने लगी थी किनारा, जिंदगी।
बुरी तरह घेरी हुई कोई धारा, जिंदगी।
भयभीत भटकी भव के भयंकर भंवर में,
कृत-कृत्य हुई, मिला उनका सहारा, जिंदगी।
लोकतंत्र की संस्कार बनी है।
सत्ता सुन्दर व्यापार बनी है।
निर्वाचितों की कीमत देकर,
जोड़-तोड़ की सरकार बनी है।
- एस. डी. तिवारी
मैं जिंदगी में खोया या जिंदगी मुझमें खोयी है!
जब जब दौड़ा हूँ जिंदगी के पीछे, शूल चुभोई है।
आडम्बर के पीछे दौड़ते, खुद भी ये बेचैन रहती,
थकन, तो कभी हार का गम लिए बार बार रोई है।
16.9.2018
कुछ लोग हैं जो लाल कालीन पर जरूर चले हैं ।
उनको भी देखो; कंकड़, काँटों में मजबूर चले हैं ।
चलने का ढिंढोरा, उनका ही ज्यादा पीटा जाता,
पैरों में धूल लगी नहीं, कहते हैं बड़ी दूर चले हैं ।
आदमी को आज तो परिधान से पहचाना जाता।
चोरी से कमाए चाहे, पैसे वालों को बखाना जाता।
पड़ा है आँखों पर लोगों की अब तो पैसों का पर्दा,
हराम की खाने वालों को बड़े काम का माना जाता।
15.9.2018
तुम मुझे पीड़ दोगे, फिर भी तुम्हें नीर ही दूंगी।
मैं भी एक मां हूँ, लाल को सुख की कुटीर ही दूंगी।
कचरे का मुझे वाहक बनाकर, वक्ष में विष घोलोगे,
और चाहोगे मुझ नदी से, तुम्हें शुद्ध क्षीर ही दूंगी !
मुक्तक समस्यापूर्ति सम्मान- 03
2122 - २१२ 2 २१ 22 212
आशिकी के फिर वही गुजरे जमाने आ गये।
इश्क के, दिल पर, रंग अति खूबसूरत छा गये।
मचलने, गाने लगा दिल फिर तराने इश्क के,
चमन में भौरे मंडरा, दिल के तार बजा गये ।
१. किरणों ने चूमा
किरणों
ने चूमा,
फूलों का मुख।
दोनों
का भागा,
सारा ही दुःख।
फूलों
ने दिया,
किरणों को महक।
किरणों
ने भरा, फूलों में लहक।
फूल के घर का अँधेरा
गया,
किरणों
को मिला न्यारा सा सुख।
किरणों
ने चूमा
...
किरणों
ने फूलों
को प्यार
दिया,
फूलों
ने उन्हें
श्रृंगार दिया।
किरणों
ने किया चमन को रौशन,
फूलों
ने उनके मन को प्रसन्न।
गर्मी
से अगर व्याकुल भी हुए,
फूलों
ने धूप सहा, रह के चुप।
किरणों
ने चूमा
...
शाम हुई, सूरज उलझा सा गया,
फूलों
का चमन, मुरझा सा गया।
रात का दिया अँधेरा फिर से,
कब मिल पायेगा सवेरा फिर से।
माली का डर न सताएगा पर,
ये रात रहेगी
जब तक सम्मुख।
किरणों
ने चूमा
...
२. पाती मेरी
पाती मेरी, पहुँच ना पायी।
लौटी फिर से वापस वो आई।
भेजूं जगह किस पता नहीं था,
अपना नहीं वो दिया पता था।
ढूंढी जग में, पूछो न कहाँ मैं,
जाती जहाँ, ना उसका पता था।
दर दर मुझको बहुत भटकाई।
पाती मेरी ..
सरि में ढूंढी, सागर में ढूंढी,
कानन किसी वह वन में नहीं था।
टीले, पर्वत, झरनों से पूछी
शायद छुपा, मन में ही कहीं था।
उसकी छवि भर भर के समायी।
पाती मेरी ..
सोची थक हार, चिठ्ठी ही डालूं ,
पहले उसके, उत्तर को पा लूँ।
जाऊं मिलने, फिर अपने पिया से,
उसको पकड़ मैं, गले लगा लूँ।
धर धर उसे सखि लूंगी बलाई।
पाती मेरी ..
लौटी फिर से वापस वो आई।
भेजूं जगह किस पता नहीं था,
अपना नहीं वो दिया पता था।
ढूंढी जग में, पूछो न कहाँ मैं,
जाती जहाँ, ना उसका पता था।
दर दर मुझको बहुत भटकाई।
पाती मेरी ..
सरि में ढूंढी, सागर में ढूंढी,
कानन किसी वह वन में नहीं था।
टीले, पर्वत, झरनों से पूछी
शायद छुपा, मन में ही कहीं था।
उसकी छवि भर भर के समायी।
पाती मेरी ..
सोची थक हार, चिठ्ठी ही डालूं ,
पहले उसके, उत्तर को पा लूँ।
जाऊं मिलने, फिर अपने पिया से,
उसको पकड़ मैं, गले लगा लूँ।
धर धर उसे सखि लूंगी बलाई।
पाती मेरी ..
३. बसंत न भाया मुझे
इधर रह
गए हम तो थामे जिगर।
इन फूलों
ने बहुत सताया हमें।.
हमसे रूठकर,
तुम गये हो किधर?
अबकी बरस
बसंत न भाया हमें।
तितलियों
के पंख बदरंग से लगे।
तुम बिन
काटे पल भुजंग से लगे।
गौरैयों
का रोज मेरे अंगना,
आकर चहकना
बेढंग से लगे।
रूठी सी
लगीं बहारें इस साल,
बेशक फूलों
ने हंसाया हमें।
बागों में
बहुत उदासी छा गयी,
भौरे भी
लौटे, मन मसोस कर।
मौसम ये
सारा पतझड़ सा लगा,
कोयल भी
गायी थी अफ़सोस कर।
चाँद पा
अकेले देता था जला,
क्रूर ऋतु
ने बहुत सताया हमें।
दिन ने
छीना था सुख चैन अपना,
कठिनाईयों
की हालातों से लड़े।
नैनों की
नींद गयी तन्हाई में,
अश्रु भरी,
काली रातों से लड़े।
दुष्कर
राहों ने भटकाया बहुत,
तारों ने
मिलकर उलझाया हमें।