पांवों को आकर छू जाती,
मन भीतर जाय गुदगुदाती,
दिल करता, जाये वहीँ ठहर।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे लहर।
छुपा कर रखे अनेकों रत्न,
देख नहीं पाते मगर नयन,
जल से भरा दिखता गागर।
क्या सखि तिजोरी ? नहिं सखि सागर।
इससे बड़ा धरा पे न कोय,
अथाह रखा वो भर के तोय,
सहस्रों जीव छुपाये अंदर।
क्या सखि जंगल ? नहिं सखि समुन्दर।
गला बांध लटकाई मटकी।
दूर कहाँ जल, गर्दन लटकी।
हुई तसल्ली जब जल ने छुआ।
क्या सखि घाट ? नहिं सखि कुआँ।
एकत्र हुई पनिहारिन सगरी,
अपनी अपनी लेकर गगरी,
मन की भरी निकालीं झटपट।
क्या सखि घाट ? नहिं सखि पनघट।
रात होते बढ़ जाती नजर,
दृष्टि दौड़ाता इधर उधर,
वो जागे, मैं चाहूँ सो लूँ।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि उल्लू।
सहकर भी एक बड़ी त्रासदी,
अपना स्थान नहीं पा सकी,
भय में ही सदियां गुजारी।
क्या सखि सौत ? नहिं सखे नारी।
उसपे लगाना चाहें लगाम,
खुद के बेशक क्षुद्र हों काम,
कब तक रहेगी बनी बेचारी !
क्या सखि सौत ? नहिं सखि नारी।
एक दिवार उसका ही होता,
बारह पोस्टर ले खड़ा होता,
हर एक को एक फेंकती फाड़कर।
क्या सखि साजन ? नहिं कैलेंडर।
मैं सोती वो जगती रहती,
टिक टिक के सिवा कुछ न कहती,
एक ही जगह रहती वो पड़ी।
क्या सखि सौत ? नहिं सखि घड़ी।
रोज सवेरे घर आ जाता,
खबर देश की मुझ तक लाता,
करता भी रहता खबरदार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि अख़बार।
बात बात पर ऐंठे दिखते,
पडोसी का न धर्म समझते,
अकड़ में तन जाती बंदूक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि युद्ध।
जोह रही कई दिन से डगर,
आकर बैठा कल मुँड़ेर पर,
बोला तो समझी भाग जागा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कागा।
आया पितरपख, उसकी शान,
गऊ संग, हुआ वो भी महान,
छत पे रखी, आ ले भागा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कागा।
जीवन में है बड़ा जरूरी,
उसके बिन सफलता अधूरी,
मिलता है वो झुकाये शीश।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि आशीष।
आ जाती मेरे अंगना रोज,
मुझे भी रहती उसकी खोज,
चहक उठती मेरी गुड़िया।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि चिड़िया।
बुढ़ापे में मुंह गया विचक,
बिना दांत के गया जो पिचक,
सबका होना यही है हाल।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गाल।
प्राण से ज्यादा उस पर ध्यान,
उसके ही बल होता गुमान,
भय सताता, होवे न चोरी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तिजोरी।
झेल सके वो खड्ग की धार,
आगे अड़ जाती, होवे वार,
चोट की दे आशंका टाल।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि ढाल।
पौष्टिक बहुत, उसे समझाती,
फिर भी बिटिया मुंह बिचकाती,
बहला फुसलाकर लेती घूंट।
क्या सखि पानी ? नहिं सखि दूध।
जब भी मौसम पतझड़ आता,
घर छोड़ कर अलग हो जाता,
पता कि वापस नहीं आ सकता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पत्ता।
मुहब्बत की गहरी लौ जगा,
ध्यान समूचा, उसी में लगा,
देखे अपने चाँद की ओर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चकोर।
तट पर गया पकड़ने मछली,
थोड़ी देर तपस्या कर ली,
हाथ न आयी स्थान बदला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बगुला।
बादल का छोटा सा टुकड़ा,
लगा बादल के नीचे उड़ा,
झुण्ड देख कर मन उड़ चला।
क्या सखि सपना ? नहिं सखि बगुला।
नजर की उसकी नहीं है तोड़,
योजन कोस तक करके गौर,
कर लेता वो उल्लू सिद्ध।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गिद्ध।
चित्रों में वो भर देती रंग,
उससे अच्छा न किसी को ढंग,
चित्रकार की है वो प्रेमिका।
क्या सखि तस्वीर ? नहिं सखि तूलिका।
मिट जाती है उससे दूरी,
होती मन की इच्छा पूरी,
उसमें है बड़ी भारी शक्ति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भक्ति।
आता जब वो बड़ा सताता,
देखते ही बस रोना आता,
क्या कहूं, जोड़ों में घुस जाता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बुढ़ापा।
उसमें बहुत ही मन लगायी,
मगर उसी से मैं घबराई,
कर देता खाली मस्तिष्क।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गणित।
उसके बिन कैसे कह पाती,
मन की मेरे मन रह जाती,
नहीं वो हो तो संवाद ठप्प।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शब्द।
करने लग पड़ता नेता हर,
बरसात के मौसम सा टर्र,
आम जन का बढ़ जाता भाव।
क्या सखि आषाढ़ ? नहिं सखि चुनाव।
एक के लिए झगड़ते अनेक,
वही पायेगा सोचे हरेक,
स्थापित होगा बनके मूर्ति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुर्सी।
निति और संस्कृति को भूल,
व्यभिचार में लिप्त है खुल,
कितना है गिर चुका वो आज।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समाज।
दो घरों की नाव को खेती,
बोझ सारा अपने सिर लेती,
आँचल में पर दर्द समेटी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि बेटी।
छोड़ आयी अपना घर बार,
बसाने हेतु नया संसार,
आते ही चहका घर आंगन।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि दुल्हन।
नारी होती ऐसी कोमल,
गले लग करती हो के विकल,
बिछुड़े या फिर होवे मिलाप।
क्या सखि प्रेम ? नहिं सखि विलाप।
मैं तो हुई बड़ी परेशान,
हालत का नहीं रखती ध्यान,
खा जाती है सारी कमाई।
क्या सखि सौतन ? नहिं मंहगाई।
जी करता वही दोहराऊं,
कोशिश करूँ पर छोड़ न पाऊं,
देतीं सखियाँ मुझको लानत।
क्या सखि नशा ? ना, बुरी आदत।
माखन खाया मटकी फोड़ी,
ऊपर से बइयाँ मरोड़ी,
उसे मगर अपना ही माना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।
शरारत से हो जाती तंग,
खींच ले गया अपने संग,
माँ ने जब ओखली से बांधा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।
कानों पे आन भुनभुन किया,
आयी प्यारी नींद, ले लिया,
क्रोध आया, मारुं खींचकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।
पास वो आये, मन महकाय,
घिस कर माथे पर सज जाय,
सुगंध से खिल उठता चितवन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चन्दन।
कुर्सी की टांग जोड़े वो ही,
पर्दा, तस्वीर टंगे सभी,
लकड़ी को वो देती है सिल।
क्या सखि दरजी ? नहिं सखि कील।
कितना भी मंहगा हो वस्त्र,
पाया तो दिया तुरंत कुतर,
जिस तरह हुई उसकी मर्जी।
क्या सखि चूहा ? नहिं सखि दरजी।
सिर पर मेरे कितने बाल ?
गिनिए बाबू ये क्या सवाल !
काट गिराया सामने तमाम।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि हजाम।
सफाई से है उसको लगाव,
वस्त्र धोने में रखता चाव,
भिगो देता आता जो भी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि धोबी।
निकलते ही घर से लटका,
रखवाली करते नहीं थका,
जिम्मे से पर काम संभाला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ताला।
वस्त्रों पर हुई सवार चली,
आते ही उसके महकी गली,
सुगंध सुन्दर भा गयी चित्त।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि इत्र।
बरसात के मौसम सा टर्र,
आम जन का बढ़ जाता भाव।
क्या सखि आषाढ़ ? नहिं सखि चुनाव।
एक के लिए झगड़ते अनेक,
वही पायेगा सोचे हरेक,
स्थापित होगा बनके मूर्ति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुर्सी।
निति और संस्कृति को भूल,
व्यभिचार में लिप्त है खुल,
कितना है गिर चुका वो आज।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समाज।
दो घरों की नाव को खेती,
बोझ सारा अपने सिर लेती,
आँचल में पर दर्द समेटी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि बेटी।
छोड़ आयी अपना घर बार,
बसाने हेतु नया संसार,
आते ही चहका घर आंगन।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि दुल्हन।
नारी होती ऐसी कोमल,
गले लग करती हो के विकल,
बिछुड़े या फिर होवे मिलाप।
क्या सखि प्रेम ? नहिं सखि विलाप।
मैं तो हुई बड़ी परेशान,
हालत का नहीं रखती ध्यान,
खा जाती है सारी कमाई।
क्या सखि सौतन ? नहिं मंहगाई।
जी करता वही दोहराऊं,
कोशिश करूँ पर छोड़ न पाऊं,
देतीं सखियाँ मुझको लानत।
क्या सखि नशा ? ना, बुरी आदत।
माखन खाया मटकी फोड़ी,
ऊपर से बइयाँ मरोड़ी,
उसे मगर अपना ही माना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।
शरारत से हो जाती तंग,
खींच ले गया अपने संग,
माँ ने जब ओखली से बांधा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।
कानों पे आन भुनभुन किया,
आयी प्यारी नींद, ले लिया,
क्रोध आया, मारुं खींचकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।
पास वो आये, मन महकाय,
घिस कर माथे पर सज जाय,
सुगंध से खिल उठता चितवन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चन्दन।
कुर्सी की टांग जोड़े वो ही,
पर्दा, तस्वीर टंगे सभी,
लकड़ी को वो देती है सिल।
क्या सखि दरजी ? नहिं सखि कील।
कितना भी मंहगा हो वस्त्र,
पाया तो दिया तुरंत कुतर,
जिस तरह हुई उसकी मर्जी।
क्या सखि चूहा ? नहिं सखि दरजी।
सिर पर मेरे कितने बाल ?
गिनिए बाबू ये क्या सवाल !
काट गिराया सामने तमाम।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि हजाम।
सफाई से है उसको लगाव,
वस्त्र धोने में रखता चाव,
भिगो देता आता जो भी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि धोबी।
निकलते ही घर से लटका,
रखवाली करते नहीं थका,
जिम्मे से पर काम संभाला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ताला।
वस्त्रों पर हुई सवार चली,
आते ही उसके महकी गली,
सुगंध सुन्दर भा गयी चित्त।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि इत्र।
वही है सभी सुखों का धाम,
बिगड़े सबके बनाता काम,
रटना बहुत है उसका नाम।
क्या सखि साजन? नहिं सखि राम।
कोरा चिट्टा पहन के चला,
माटी लगी, फिर कभी न धुला,
माटी में ही हो गया दफ़न।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कफ़न।
मिले तो मन, ख़ुशी की बहार,
देना पड़े तो लगता भार,
निभाना पड़ता पर व्यवहार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि उपहार।
सास, बहन, साली का देखा,
मगर नहीं घरवाली का देखा,
परदे में ढके रहे नयन।
क्या सखि सौतन ? नहिं विधवापन।
वही उगाता तो जग खाता,
फिर भी कभी, भूखा रह जाता,
उस पर करे, कौन, जो ध्यान।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि किसान।
खाकर करता, थाली में छेद,
औरों को देता, घर के भेद,
कारण उसके निश्चित हार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गद्दार।
आती छीन ले जाती साँसें,
भय से खुल ना पातीं आँखें,
सभी के मन में उसका खौफ।
क्या सखि सौत ? नहिं सखि मौत।
रखे तो पौष्टिकता भरपूर,
निर्धन की, पर, थाल से दूर,
महंगाई में है लाचारी।
क्या सखि मक्खन ? नहिं तरकारी।
जब भी आय कोई मुसीबत,
करने आता वही बस मदद,
चाहे हो कोई भी स्थिति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मित्र।
जब देखो लग जाता जाम,
भिड़ जाने का रहता झाम,
जुटे ही रहते अक्सर लोग।
क्या सखि सड़क ? नहिं सखि चौक।
साँस न प्राण थाम के उंगली,
लहंगा पहने नाचने चली,
मारी ठुमके खूब मनचली।
क्या सखि सौत ? नहिं कठपुतली।
छूते ही होंठ लगा वो खास,
मुंह में भर दिया खूब मिठास,
नरमी का भी दिखाया जलवा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि हलवा।
मेरी दही को जी भर फेंटा,
मट्ठा छोड़ मक्कन समेटा,
भायी मुझको उसकी करनी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मथनी।
खौलता तेल, गयी वो लेट,
कुंडली मार, रस पी भर पेट,
आ लगी होठों से मेरे भी।
क्या सखि साँपिन ? नहिं सखि जलेबी।
हुई बरसात बड़ी अकुलाई,
तनिक भी नहीं देर लगायी,
जल ले, पी से मिलने चल दी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि नदी।
अच्छी भली थी, चाल बहकायी,
दिल को काबू कर ना पायी,
करने लग पड़ा है मनमानी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि जवानी।
जब भी जाऊं, मैं सब्जी मंडी,
हाथ थाम चल देता वह भी,
ढोता आखिर वही तो भोला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झोला।
उत्सव हो या तीज त्यौहार,
सजाने चल देती है हाथ,
देख लाल, मैं भी हाँ कह दी।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि मेहंदी।
रोजाना चल देता काम पर,
स्वच्छ रखता वो घर साफ़ कर,
गुब्बार उडाता, हो जाता चालू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झाड़ू।
बने भवन में लगी मशीन,
श्रमिक काम में होते लीन,
वस्तु निकलतीं बन के नाना।
क्या सखि बाजार ? नहिं कारखाना।
लगता भोला, पर है चालू,
ठूस कर वो पेट भर आलू,
गरम कड़ाही में जा सोता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समोसा।
सबसे बड़ा है पक्षपाती,
आने देता शक्ल जब भाटी,
रात में अक्सर बंद हो जाता।
क्या सखि साजन ? नहिं दरवाजा।
पानी डाल के खाता दाल,
खौलते तेल में देता ताल,
कटोरी में हो जाता खड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बड़ा।
खा ली जब जी भर के चाट,
फिर तो खूब मनाई ठाट,
उसको इससे बहुत है प्रीत।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि जीभ।
कर गयी एक, अम्बर पाताल,
छुप गयी अपने, पिटा कपाल;
फिर भी खुद की समझी जीत।
क्या सखि सौतन ? नहि सखि जीभ।
सिर पर यद्यपि बोझा लगती,
लज्जा मेरी पर ये ढकती,
साथ ले चलती मैं तो सुन री।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि चुनरी।
लेकर खड़ा मंच पर जोड़ा,
हंसी ठिठोली कर के थोड़ा,
दिया गले एक दूजे के डाल।
क्या सखि निवाला ? नहिं सखि जयमाल।
रसोई में पूछ होती रोज,
शुभ काम में भी रहती खोज,
सब्जी दाल में रंगत भर दी।
क्या सखि दुल्हन? नहिं सखि हल्दी।
कहीं भी हो भोज भंडारा,
कट जाता है वो बेचारा,
जी करता मैं भी खा लूँ।
क्या सखि खीरा ? नहिं सखि आलू।
चली जाती हूँ उसके ठौर,
पैसा भी देती हूँ बतौर,
मिल जाता जरूरी सामान।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दुकान।
मरू भूमि में खेल रचाता,
यहाँ की रेत वहां ले जाता,
बनाता रहता टीले सघन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पवन।
पास ना जिसके, हाथ मलता,
उसके बिन व्यापार न चलता,
महिमा उसकी मैं क्या कहूं जी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पूंजी।
पहले का तो अनेकों पड़ा,
नए की पर वो जिद्द पे अड़ा,
खाने हेतु हो रहा मनौना।
क्या सखि वस्त्र ? नहिं सखि खिलौना।
उसके छूटे देह ये माटी,
किसी बड़े ढेले की भांति,
रोने लगते अपने खास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सांस।
लगता उसी के बदौलत हम,
करे मगर वो अंधे के सम,
भुला देता नीति विवेक सब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि वैभव।
पायी ज्यादा, मन जो मुराद,
दे दिया उसने छप्पर फाड़,
उसके आगे कुछ न असाध्य।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भाग्य।
जल ही पीना, वही बिछौना,
जल घट जाये, जीवन बौना;
वायु ले लेती सांसें छीन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मीन।
भरे रही वो मन में उमंग,
करी अठखेली हवा के संग,
कट के भी छोड़ी नहीं रंग।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि पतंग।
पैसा उसके मन बस जाता,
पैसे पाय सुख वो मनाता,
पैसे खातिर बेचा जमीर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि अमीर।
यही है उसके फन की बात,
सामने पड़े पर करता घात,
वैसे न डाकू, न हि लड़ाकू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चाकू।
टहलने जाती वो अति दूर,
साल पश्चात् ही लौटे मुड़,
सर्दी, गर्मी, वर्षा सहती।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि धरती।
वैसे तो वो दिल्ली की रानी,
बरसात गए काला पानी,
विष पीती, जल से कई गुना।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि यमुना।
शक्ति को नहीं व्यर्थ गंवाता,
जहाँ आवश्यक निडर डट जाता,
अँधेरे में न छोड़े तीर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि वीर।
वहां रोज का, उसका जाना,
धीरे धीरे घर का खजाना,
पूरा ही खाली कर डाला।
क्या सखि सौतन ? नहिं मधुशाला।
असर किया उसने कुछ ऐसा,
छोड़ा न आदमी के जैसा,
डाल दिया विवेक पर ताला।
क्या सखि सौतन ? नहिं मधुशाला।
पड़ी है दूर तक लाल सड़क,
तन पे वस्त्र, खून से लथपथ।
घेर लोग कर रहे विवेचना।
क्या सखि शूटिंग ? नहिं दुर्घटना।
छोड़ दौड़ रही बेतहाशा,
जूते, चप्पल, बचने की आशा।
भीड़ पर पुलिस रही थी भांज।
क्या सखि परेड ? ना लाठी चार्ज।
रात को ना दीया बुझाती,
चैन से कहाँ सोने पाती,
जगाये रहती कोई चुभन।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि विरहन।
आ गया जब लेने का वक्त,
खुद का पैसा हो गया जप्त,
भूलना दिया बड़ा ही चोट।
क्या सखि साजन ? ना सखि पिनकोड।
उमड़ा देखने पूरा शहर,
तिरंगा ओढ़ के आया वह,
मुल्क समूचा उसका मुरीद।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शहीद।
देखा चलते गजब बाजार,
बना है मुर्दा खरीददार,
गया जो लिया जरूर सामान।
क्या सखि दुकान ? ना सखि श्मशान।
तोप देता सुन्दर सा चाँद,
देने वाले तरसते, दाद;
ख्वाब लिये दीदारे शबाब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नकाब।
सन्नाटे में गयी जब, सेज,
खोली उसकी खनक ने भेद;
सुनते ही ननदी हंस पड़ी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि चूड़ी।
छत पे लगवा ली एक टंकी,
है भी वो पूरे एक टन की;
बहुत कर लिया है मनमानी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पानी।
कोई न घर, दूध जो दूहे,
चिल्लाता रहा यूँ वो भूखे;
मैं न उठा पायी वो पचड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बछड़ा।
अब तो आ गयी है, द्वार तक,
सबमें मच गयी, बौखलाहट,
स्वागत में जुट गई जमात।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि बारात।
सीधे ही वो मुख पर आया,
आकर चोंच से चोंच लड़ाया;
भुनभुनाया आने का व्यौरा।
क्या साखू साजन ? नहिं सखि भौंरा।
जमीन से, जकड़ के रहता,
पालतू पशु, पकड़ के रखता;
उदास होता, अगर वो छूटा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि खूंटा।
निर्माण का कोई सामान,
उठा पहुंचाता आसमान;
ऊँचे भवन उसी की देन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि क्रेन।
रहता गन्दा, काम स्वच्छता,
साथ ले जाता मल नगर का;
नाक तनिक ना सिकोड़े मगर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गटर।
बना हुआ है शोभा कबसे,
घर की है सुंदरता उससे,
खड़ा वही है मूर्ति बनकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पत्थर।
होती है गरीब में गिनती,
उस बिन पर रोटी ना मिलती।
उसकी तो दीवानी मैं हूँ।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गेहूं।
अच्छा खासा लम्बा है वो,
तन के खड़ा ज्यों खम्बा है वो।
व्याह में अंगना खड़ा वो खास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बांस।
पड़ जाय तो छुड़ा दे भूसी।
अंग फट जाय, मार से उसकी।
तुम क्या जानो, कितना सबल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि मुसल।
बूढ़ा है, पर न कोई गिला,
हैं बड़े भाग्य कि ये भी मिला;
इसी की छाँव में, मैं तो तृप्त।
क्या सखि साजन? नहिं सखि वृक्ष।
समीप आता, देकर झांसा,
रहता मेरे रक्त का प्यासा,
होता सवार, घात लगाकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।
सुनकर उसका कर्कश गान,
पकने लग जाते हैं कान,
नींद हो जाती रफू चक्कर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।
गर्मी खा के गुस्से से फूली,
चिमटा हाथ, लगा वो भूली,
वरना तो जला दी होती।
क्या सखी सौतन ? नहिं सखी रोटी।
बना के रख दी मैंने लोई,
एक एक कर के उसने पोई,
सेंक कर किया मैंने सेवन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बेलन।
गर्म पतीला पकड़ उठायी,
देख बहादुरी मैं चकराई,
चूल्हे पास गयी वो पड़ सी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि संडसी।
पैने बड़े थे उसके दांत,
मोटा पेड़ गिराया काट,
फिर उसके टुकड़े कर डाला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि आरा।
शाम को होते ही अँधेरा।
उन्हें उसकी याद ने घेरा,
आये पान दबाये जनाब।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि शराब।
जबसे थामा उसका दामन,
भटकता रहता उसी में मन,
जानता जब कि वो घर उजाड़ू।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि दारू।
लगा उसी के संग ये रहने,
बिकवा डाली मेरे गहने,
मस्तिष्क इसका ऐसा फिरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि मदिरा।
अलग दुनिया ले गयी, धकेल,
पाऊं न मैं तो उसको झेल,
जिम्मेदारी से हटायी ध्यान।
क्या सखि सौतन ? नहिं मद्यपान।
उसने किया ऐसे हालात,
डरता ना होने से बर्बाद ,
कटता अब मेरा वक्त बुरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि सुरा।
मुन्नी का था प्यारा सलोना।
सह ना पायी उसका खोना।
शुरू कर दिया रोना धोना।
क्या सखी साजन ? नहिं सखि खिलौना।
उसके आते दिल खिल जाता।
मानो शीतल सुख मिल जाता।
मुझको लगता अति मनभावन।
क्या सखी साजन ? नहिं सखि सावन।
वह आया तो दिल बौराया।
कैसे कहूं जो गुल खिलाया।
बगिया देख मैं हुई प्रसन्न।
क्या सखी साजन? नहिं सखि बसंत।
थाम गयी बाँहों में पनघट।
मेरी ओर लगी सबकी टक;
ज्यूँ मतवारी सारी नगरी।
क्या सखी साजन? नहिं सखि गगरी।
रंग में फिर भी गोरी चिट्टी।
तीखा स्वभाव मगर मैं भूली।
क्या सखी सौतन? नहिं सखि मूली।
जब भी आता मैं घबराती।
उसकी फितरत झेल न पाती।
भाता संग में चाय व काढ़ा।
क्या सखी साजन? नहिं सखि जाड़ा।
काली सूरत मैं डर जाती।
राह अकेले चल ना पाती।
धक् धक् करता है जी मेरा।
क्या सखी साजन? नहिं सखि अँधेरा।
पड़ गयी मैं बड़ी मुश्किल में।
मेघ का डर समाया दिल में।
घेर लिया उसने कल रात।
क्या सखी साजन? नहिं सखि बरसात।
बेमतलब के प्रश्न पूछता।
निजी सूचना खोद खोजता।
जानकारियों की करता चुगल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि गूगल।
पहले से ही रखती खोले।
जान सकूं जैसे ही बोले।
काम में कभी व्यस्त हूँ होती।
क्या सखि साजन? नहिं सखि टोंटी।
घर पर आता पानी लेकर।
स्वागत करती मैं खुश होकर।
कोसों बेचारा रस्ता नापा।
क्या सखि साजन? नहिं सखि पीपा।
हिलती डुलती नहीं है मगर।
लिए उसे चली जाती ऊपर।
अपनी ही वो जगह पर पड़ी।
क्या सखि सौतन? नहिं सखि सीढ़ी।
पड़ा बड़े दिनों से मजबूर,
बिछुड़ अपनी सुग्गी से दूर,
पिंजरे में दिल बहुत है रोता।
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।
है छलिया पत्तों में छुप जाता,
हरे रंग में नजर न आता,
ऑंखें खा जाती हैं धोखा।
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।
कभी न कम होठों की लाली,
हरे वसन ऑंखें हैं काली,
देखती रहती बंदी जब होता।
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।
उसको देख दिल है मचलता,
हवा के संग चाल बदलता,
फिरे आवारा बन के पागल।
क्या सखि साजन? नहिं सखि बादल।
उसकी छवि है बड़ी निराली।
देख मैं हो जाती मतवाली।
जोहती वाट होते ही साँझ।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चाँद।
रोज शाम को मिलने आता।
दिल को मेरे अतिशः भाता।
आता अंगना छत को फांद।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चाँद।
भूल धूल
माजरा बाजरा
सत्ता पत्ता
मिसाल मशाल
शूल फूल