Saturday, 21 April 2018

Kah Mukari 3



पांवों को आकर छू जाती,
मन भीतर जाय गुदगुदाती,
दिल करता, जाये वहीँ ठहर।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे लहर।

छुपा कर रखे अनेकों रत्न,
देख नहीं पाते मगर नयन,
जल से भरा दिखता गागर।
क्या सखि तिजोरी ? नहिं सखि सागर।

इससे बड़ा धरा पे न कोय,
अथाह रखा वो भर के तोय,
सहस्रों जीव छुपाये अंदर।
क्या सखि जंगल ? नहिं सखि समुन्दर।

गला बांध लटकाई मटकी।
दूर कहाँ जल, गर्दन लटकी।
हुई तसल्ली जब जल ने छुआ।
क्या सखि घाट ? नहिं सखि कुआँ।

एकत्र हुई पनिहारिन सगरी,
अपनी अपनी लेकर गगरी,
मन की भरी निकालीं झटपट। 
क्या सखि घाट ? नहिं सखि पनघट।


रात होते बढ़ जाती नजर,
दृष्टि दौड़ाता इधर उधर,
वो जागे, मैं चाहूँ सो लूँ।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि उल्लू।

सहकर भी एक बड़ी त्रासदी,
अपना स्थान नहीं पा सकी,
भय में ही सदियां गुजारी।
क्या सखि सौत ? नहिं सखे नारी।

उसपे लगाना चाहें लगाम,
खुद के बेशक क्षुद्र हों काम,
कब तक रहेगी बनी बेचारी !
क्या सखि सौत ? नहिं सखि नारी। 

एक दिवार उसका ही होता,
बारह पोस्टर ले खड़ा होता,
हर एक को एक फेंकती फाड़कर।
क्या सखि साजन ? नहिं कैलेंडर।

मैं सोती वो जगती रहती,
टिक टिक के सिवा कुछ न कहती,
एक ही जगह रहती वो पड़ी।
क्या सखि सौत ? नहिं सखि घड़ी।

रोज सवेरे घर आ जाता,
खबर देश की मुझ तक लाता,
करता भी रहता खबरदार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि अख़बार।

बात बात पर ऐंठे दिखते,
पडोसी का न धर्म समझते,
अकड़ में तन जाती बंदूक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि युद्ध।


जोह रही कई दिन से डगर,
आकर बैठा कल मुँड़ेर पर,
बोला तो समझी भाग जागा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कागा।

आया पितरपख, उसकी शान,
गऊ संग, हुआ वो भी महान,
छत पे रखी, आ ले भागा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कागा।

जीवन में है बड़ा जरूरी,
उसके बिन सफलता अधूरी,
मिलता है वो झुकाये शीश।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि आशीष।

आ जाती मेरे अंगना रोज,
मुझे भी रहती उसकी खोज,
चहक उठती मेरी गुड़िया।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि चिड़िया।

बुढ़ापे में मुंह गया विचक,
बिना दांत के गया जो पिचक,
सबका होना यही है हाल।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गाल।

प्राण से ज्यादा उस पर ध्यान,
उसके ही बल होता गुमान,
भय सताता, होवे न चोरी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तिजोरी।

झेल सके वो खड्ग की धार,
आगे अड़ जाती, होवे वार,
चोट की दे आशंका टाल।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि ढाल।

पौष्टिक बहुत, उसे समझाती,
फिर भी बिटिया मुंह बिचकाती,
बहला फुसलाकर लेती घूंट।
क्या सखि पानी ? नहिं सखि दूध।

जब भी मौसम पतझड़ आता,
घर छोड़ कर अलग हो जाता,
पता कि वापस नहीं आ सकता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पत्ता।

मुहब्बत की गहरी लौ जगा,
ध्यान समूचा, उसी में लगा,
देखे अपने चाँद की ओर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चकोर।

तट पर गया पकड़ने मछली,
थोड़ी देर तपस्या कर ली,
हाथ न आयी स्थान बदला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बगुला।

बादल का छोटा सा टुकड़ा,
लगा बादल के नीचे उड़ा,
झुण्ड देख कर मन उड़ चला।
क्या सखि सपना ? नहिं सखि बगुला।

नजर की उसकी नहीं है तोड़,
योजन कोस तक करके गौर,
कर लेता वो उल्लू सिद्ध।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गिद्ध।

चित्रों में वो भर देती रंग,
उससे अच्छा न किसी को ढंग,
चित्रकार की है वो प्रेमिका।
क्या सखि तस्वीर ? नहिं सखि तूलिका।

मिट जाती है उससे दूरी,
होती मन की इच्छा पूरी,
उसमें है बड़ी भारी शक्ति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भक्ति।

आता जब वो बड़ा सताता,
देखते ही बस रोना आता,
क्या कहूं, जोड़ों में घुस जाता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बुढ़ापा।

उसमें बहुत ही मन लगायी,
मगर उसी से मैं घबराई,
कर देता खाली मस्तिष्क।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गणित।

उसके बिन कैसे कह पाती,
मन की मेरे मन रह जाती,
नहीं वो हो तो संवाद ठप्प।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शब्द।
  
करने लग पड़ता नेता हर,
बरसात के मौसम सा टर्र,
आम जन का बढ़ जाता भाव।
क्या सखि आषाढ़ ? नहिं सखि चुनाव।

एक के लिए झगड़ते अनेक,
वही पायेगा सोचे हरेक,
स्थापित होगा बनके मूर्ति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुर्सी।

निति और संस्कृति को भूल,
व्यभिचार में लिप्त है खुल,
कितना है गिर चुका वो आज।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समाज।

दो घरों की नाव को खेती,
बोझ सारा अपने सिर लेती,
आँचल में पर दर्द समेटी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि बेटी।

छोड़ आयी अपना घर बार,
बसाने हेतु नया संसार,
आते ही चहका घर आंगन।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि दुल्हन।

नारी होती ऐसी कोमल,
गले लग करती हो के विकल,
बिछुड़े या फिर होवे मिलाप।
क्या सखि प्रेम ? नहिं सखि विलाप। 

मैं तो हुई बड़ी परेशान,
हालत का नहीं रखती ध्यान,
खा जाती है सारी कमाई।
क्या सखि सौतन ? नहिं मंहगाई।

जी करता वही दोहराऊं,
कोशिश करूँ पर छोड़ न पाऊं,
देतीं सखियाँ मुझको लानत।
क्या सखि नशा ? ना, बुरी आदत।

माखन खाया मटकी फोड़ी,
ऊपर से बइयाँ मरोड़ी,
उसे मगर अपना ही माना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।

शरारत से हो जाती तंग,
खींच ले गया अपने संग,
माँ ने जब ओखली से बांधा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कान्हा।

कानों पे आन भुनभुन किया,
आयी प्यारी नींद, ले लिया,
क्रोध आया, मारुं खींचकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।

पास वो आये, मन महकाय, 
घिस कर माथे पर सज जाय,
सुगंध से खिल उठता चितवन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चन्दन।

कुर्सी की टांग जोड़े वो ही,
पर्दा, तस्वीर टंगे सभी,
लकड़ी को वो देती है सिल।
क्या सखि दरजी ? नहिं सखि कील।

कितना भी मंहगा हो वस्त्र,
पाया तो दिया तुरंत कुतर,
जिस तरह हुई उसकी मर्जी।
क्या सखि चूहा ? नहिं सखि दरजी।

सिर पर मेरे कितने बाल ?
गिनिए बाबू ये क्या सवाल !
काट गिराया सामने तमाम।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि हजाम।

सफाई से है उसको लगाव,
वस्त्र धोने में रखता चाव,
भिगो देता आता जो भी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि धोबी।

निकलते ही घर से लटका,
रखवाली करते नहीं थका,
जिम्मे से पर काम संभाला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ताला।

वस्त्रों पर हुई सवार चली,
आते ही उसके महकी गली,
सुगंध सुन्दर भा गयी चित्त।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि इत्र।   



वही है सभी सुखों का धाम,
बिगड़े सबके बनाता काम,
रटना बहुत है उसका नाम।
क्या सखि साजन? नहिं सखि राम।

कोरा चिट्टा पहन के चला,
माटी लगी, फिर कभी न धुला,
माटी में ही हो गया दफ़न।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कफ़न।

मिले तो मन, ख़ुशी की बहार,
देना पड़े तो लगता भार,
निभाना पड़ता पर व्यवहार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि उपहार।

सास, बहन, साली का देखा,
मगर नहीं घरवाली का देखा,
परदे में ढके रहे नयन।
क्या सखि सौतन ? नहिं विधवापन।

वही उगाता तो जग खाता,
फिर भी कभी, भूखा रह जाता,
उस पर करे, कौन, जो ध्यान।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि किसान।

खाकर करता, थाली में छेद,
औरों को देता, घर के भेद,
कारण उसके निश्चित हार। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गद्दार।

आती छीन ले जाती साँसें,
भय से खुल ना पातीं आँखें,
सभी के मन में उसका खौफ।
क्या सखि सौत ? नहिं सखि मौत।

रखे तो पौष्टिकता भरपूर,
निर्धन की, पर, थाल से दूर,
महंगाई में है लाचारी।
क्या सखि मक्खन ? नहिं तरकारी।

जब भी आय कोई मुसीबत,
करने आता वही बस मदद,
चाहे हो कोई भी स्थिति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मित्र।

जब देखो लग जाता जाम,
भिड़ जाने का रहता झाम,
जुटे ही रहते अक्सर लोग।
क्या सखि सड़क ? नहिं सखि चौक।

साँस न प्राण थाम के उंगली,
लहंगा पहने नाचने चली,
मारी ठुमके खूब मनचली।
क्या सखि सौत ? नहिं कठपुतली।

छूते ही होंठ लगा वो खास,
मुंह में भर दिया खूब मिठास,
नरमी का भी दिखाया जलवा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि हलवा।

मेरी दही को जी भर फेंटा,
मट्ठा छोड़ मक्कन समेटा,
भायी मुझको उसकी करनी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मथनी।

खौलता तेल, गयी वो लेट,
कुंडली मार, रस पी भर पेट,
आ लगी होठों से मेरे भी।
क्या सखि साँपिन ? नहिं सखि जलेबी।

हुई बरसात बड़ी अकुलाई,
तनिक भी नहीं देर लगायी,
जल ले, पी से मिलने चल दी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि नदी।

अच्छी भली थी, चाल बहकायी,
दिल को काबू कर ना पायी,
करने लग पड़ा है मनमानी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि जवानी।

जब भी जाऊं, मैं सब्जी मंडी,
हाथ थाम चल देता वह भी,
ढोता आखिर वही तो भोला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झोला।

उत्सव हो या तीज त्यौहार,
सजाने चल देती है हाथ,
देख लाल, मैं भी हाँ कह दी।
क्या सखि सहेली ? नहिं सखि मेहंदी।

रोजाना चल देता काम पर,
स्वच्छ रखता वो घर साफ़ कर,
गुब्बार उडाता, हो जाता चालू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झाड़ू।

बने भवन में लगी मशीन,
श्रमिक काम में होते लीन,
वस्तु निकलतीं बन के नाना।
क्या सखि बाजार ? नहिं कारखाना।  

लगता भोला, पर है चालू,
ठूस कर वो पेट भर आलू,
गरम कड़ाही में जा सोता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समोसा।

सबसे बड़ा है पक्षपाती,
आने देता शक्ल जब भाटी,
रात में अक्सर बंद हो जाता।
क्या सखि साजन ? नहिं दरवाजा।

पानी डाल के खाता दाल,
खौलते तेल में देता ताल,
कटोरी में हो जाता खड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बड़ा।

खा ली जब जी भर के चाट,
फिर तो खूब मनाई ठाट,
उसको इससे बहुत है प्रीत।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि जीभ।

कर गयी एक, अम्बर पाताल,
छुप गयी अपने, पिटा कपाल;
फिर भी खुद की समझी जीत।
क्या सखि सौतन ? नहि सखि जीभ।

सिर पर यद्यपि बोझा लगती,
लज्जा मेरी पर ये ढकती,
साथ ले चलती मैं तो सुन री।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि चुनरी।

लेकर खड़ा  मंच पर जोड़ा,
हंसी ठिठोली कर के थोड़ा,
दिया गले एक दूजे के डाल।
क्या सखि निवाला ? नहिं सखि जयमाल। 

रसोई में पूछ होती रोज,
शुभ काम में भी रहती खोज,
सब्जी दाल में रंगत भर दी।
क्या सखि दुल्हन? नहिं सखि हल्दी।

कहीं भी हो भोज भंडारा,
कट जाता है वो बेचारा,
जी करता मैं भी खा लूँ।
क्या सखि खीरा ? नहिं सखि आलू।

चली जाती हूँ उसके ठौर,
पैसा भी देती हूँ बतौर,
मिल जाता जरूरी सामान।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दुकान।

मरू भूमि में खेल रचाता,
यहाँ की रेत वहां ले जाता,
बनाता रहता टीले सघन। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पवन।

पास ना जिसके, हाथ मलता,
उसके बिन व्यापार न चलता,
महिमा उसकी मैं क्या कहूं जी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पूंजी।

पहले का तो अनेकों पड़ा,
नए की पर वो जिद्द पे अड़ा,
खाने हेतु हो रहा मनौना।
क्या सखि वस्त्र ?  नहिं सखि खिलौना।

उसके छूटे देह ये माटी,
किसी बड़े ढेले की भांति,
रोने लगते अपने खास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सांस।

लगता उसी के बदौलत हम,
करे मगर वो अंधे के सम,
भुला देता नीति विवेक सब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि वैभव।

पायी ज्यादा, मन जो मुराद, 
दे दिया उसने छप्पर फाड़,
उसके आगे कुछ न असाध्य।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भाग्य।

जल ही पीना, वही बिछौना,
जल घट जाये, जीवन बौना;
वायु ले लेती सांसें छीन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मीन।

भरे रही वो मन में उमंग,
करी अठखेली हवा के संग,
कट के भी छोड़ी नहीं रंग।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि पतंग।

पैसा उसके मन बस जाता,
पैसे पाय सुख वो मनाता,
पैसे खातिर बेचा जमीर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि अमीर।    

यही है उसके फन की बात,
सामने पड़े पर करता घात,
वैसे न डाकू, न हि लड़ाकू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चाकू।

टहलने जाती वो अति दूर,
साल पश्चात् ही लौटे मुड़,
सर्दी, गर्मी, वर्षा सहती।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि धरती।

वैसे तो वो दिल्ली की रानी,
बरसात गए काला पानी,
विष पीती, जल से कई गुना।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि यमुना।

शक्ति को नहीं व्यर्थ गंवाता,
जहाँ आवश्यक निडर डट जाता,
अँधेरे में न छोड़े तीर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि वीर।

वहां रोज का, उसका जाना,
धीरे धीरे घर का खजाना,
पूरा ही खाली कर डाला।
क्या सखि सौतन ? नहिं मधुशाला।

असर किया उसने कुछ ऐसा,
छोड़ा न आदमी के जैसा,
डाल दिया विवेक पर ताला।
क्या सखि सौतन ? नहिं मधुशाला।

पड़ी है दूर तक लाल सड़क,
 तन पे वस्त्र, खून से लथपथ।
घेर लोग कर रहे विवेचना।
क्या सखि शूटिंग ? नहिं दुर्घटना।

छोड़ दौड़ रही बेतहाशा,
जूते, चप्पल, बचने की आशा।
भीड़ पर पुलिस रही थी भांज।
क्या सखि परेड ? ना लाठी चार्ज।

रात को ना दीया बुझाती,
चैन से कहाँ सोने पाती,
जगाये रहती कोई चुभन।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि विरहन।

आ गया जब लेने का वक्त,
खुद का पैसा हो गया जप्त,
भूलना दिया बड़ा ही चोट।
क्या सखि साजन ? ना सखि पिनकोड।

उमड़ा देखने पूरा शहर,
तिरंगा ओढ़ के आया वह,
मुल्क समूचा उसका मुरीद।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शहीद। 

देखा चलते गजब बाजार,
बना है मुर्दा खरीददार,
गया जो लिया जरूर सामान।
क्या सखि दुकान ? ना सखि श्मशान।

तोप देता सुन्दर सा चाँद,
देने वाले तरसते, दाद;
ख्वाब लिये दीदारे शबाब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नकाब।

सन्नाटे में गयी जब, सेज,
खोली उसकी खनक ने भेद;
सुनते ही ननदी हंस पड़ी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि चूड़ी।

छत पे लगवा ली एक टंकी,
है भी वो पूरे एक टन की;
बहुत कर लिया है मनमानी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पानी।

कोई न घर, दूध जो दूहे,
चिल्लाता रहा यूँ वो भूखे;
मैं न उठा पायी वो पचड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बछड़ा।

अब तो आ गयी है, द्वार तक,
सबमें मच गयी, बौखलाहट,
स्वागत में जुट गई जमात।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि बारात।

सीधे ही वो मुख पर आया,
आकर चोंच से चोंच लड़ाया;
भुनभुनाया आने का व्यौरा।
क्या साखू साजन ? नहिं सखि भौंरा। 

जमीन से, जकड़ के रहता,
पालतू पशु, पकड़ के रखता;
उदास होता, अगर वो छूटा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि खूंटा।

निर्माण का कोई सामान,
उठा पहुंचाता आसमान;
ऊँचे भवन उसी की देन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि क्रेन।

रहता गन्दा, काम स्वच्छता,
साथ ले जाता मल नगर का;
नाक तनिक ना सिकोड़े मगर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गटर।

बना हुआ है शोभा कबसे,
घर की है सुंदरता उससे,
खड़ा वही है मूर्ति बनकर। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पत्थर।

होती है गरीब में गिनती,
उस बिन पर रोटी ना मिलती।
उसकी तो दीवानी मैं हूँ।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गेहूं।

अच्छा खासा लम्बा है वो,
तन के खड़ा ज्यों खम्बा है वो।
व्याह में अंगना खड़ा वो खास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बांस।

पड़ जाय तो छुड़ा दे भूसी।
अंग फट जाय, मार से उसकी।
तुम क्या जानो, कितना सबल। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि मुसल। 

बूढ़ा है, पर न कोई गिला,
हैं बड़े भाग्य कि ये भी मिला;
इसी की छाँव में, मैं तो तृप्त।
क्या सखि साजन? नहिं सखि वृक्ष।  


समीप आता, देकर झांसा,
रहता मेरे रक्त का प्यासा,
होता सवार, घात लगाकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।

सुनकर उसका कर्कश गान,
पकने लग जाते हैं कान,
नींद हो जाती रफू चक्कर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।  


गर्मी खा के गुस्से से फूली,
चिमटा हाथ, लगा वो भूली,
वरना तो जला दी होती।
क्या सखी सौतन ? नहिं सखी रोटी। 

बना के रख दी मैंने लोई,
एक एक कर के उसने पोई,
सेंक कर किया मैंने सेवन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बेलन।

गर्म पतीला पकड़ उठायी,
देख बहादुरी मैं चकराई,
चूल्हे पास गयी वो पड़ सी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि संडसी।

पैने बड़े थे उसके दांत,
मोटा पेड़ गिराया काट,
फिर उसके टुकड़े कर डाला। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि आरा।


शाम को होते ही अँधेरा।
उन्हें उसकी याद ने घेरा,
आये पान दबाये जनाब।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि शराब।

जबसे थामा उसका दामन,
भटकता रहता उसी में मन,
जानता जब कि वो घर उजाड़ू।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि दारू। 

लगा उसी के संग ये रहने,
बिकवा डाली मेरे गहने,
मस्तिष्क इसका ऐसा फिरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि मदिरा।

अलग दुनिया ले गयी, धकेल,
पाऊं न मैं तो उसको झेल,
जिम्मेदारी से हटायी ध्यान।
क्या सखि सौतन ? नहिं मद्यपान।

उसने किया ऐसे हालात,
डरता ना होने से बर्बाद ,
कटता अब मेरा वक्त बुरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि सुरा। 



मुन्नी का था प्यारा सलोना।
सह ना पायी उसका खोना।
शुरू कर दिया रोना धोना।
क्या सखी साजन ? नहिं सखि खिलौना।


उसके आते दिल खिल जाता।
मानो शीतल सुख मिल जाता।
मुझको लगता अति मनभावन।
क्या सखी साजन ? नहिं सखि सावन।


वह आया तो दिल बौराया। 
कैसे कहूं जो गुल खिलाया। 
बगिया देख मैं हुई प्रसन्न। 
क्या सखी साजन? नहिं सखि बसंत। 

थाम गयी बाँहों में पनघट।  
मेरी ओर लगी सबकी टक; 
ज्यूँ मतवारी सारी नगरी। 
क्या सखी साजन? नहिं सखि गगरी। 


पोते रखी बदन पर मिट्टी।
रंग में फिर भी गोरी चिट्टी।
तीखा स्वभाव मगर मैं भूली।


क्या सखी सौतन? नहिं सखि मूली। 


जब भी आता मैं घबराती।  
उसकी फितरत झेल न पाती।   
भाता संग में चाय व काढ़ा। 
क्या सखी साजन? नहिं सखि जाड़ा। 

काली सूरत मैं डर जाती। 
राह अकेले चल ना पाती। 
धक् धक् करता है जी मेरा। 
क्या सखी साजन? नहिं सखि अँधेरा। 

पड़ गयी मैं बड़ी मुश्किल में। 
मेघ का डर समाया दिल में। 
घेर लिया उसने कल रात। 

क्या सखी साजन? नहिं सखि बरसात। 




बेमतलब के प्रश्न पूछता।  
निजी सूचना खोद खोजता।   
जानकारियों की करता चुगल।  
क्या सखि साजन? नहिं सखि गूगल।  

पहले से ही रखती खोले। 
जान सकूं जैसे ही बोले। 
काम में कभी व्यस्त हूँ होती। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि टोंटी।  


घर पर आता पानी लेकर।  
स्वागत करती मैं खुश होकर। 
कोसों बेचारा रस्ता नापा।   
क्या सखि साजन? नहिं सखि पीपा।  

हिलती डुलती नहीं है मगर।  
लिए उसे चली जाती ऊपर। 
अपनी ही वो जगह पर पड़ी। 
क्या सखि सौतन? नहिं सखि सीढ़ी।  




पड़ा बड़े दिनों से मजबूर,
बिछुड़ अपनी सुग्गी से दूर, 
पिंजरे में दिल बहुत है रोता।
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।

है छलिया पत्तों में छुप जाता,
हरे रंग में नजर न आता,
ऑंखें खा जाती हैं धोखा। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।

कभी न कम होठों की लाली, 
हरे वसन ऑंखें हैं काली,  
देखती रहती बंदी जब होता। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि तोता।



उसको देख दिल है मचलता, 
हवा के संग चाल बदलता, 
फिरे आवारा बन के पागल। 
क्या सखि साजन? नहिं सखि बादल।


उसकी छवि है बड़ी निराली।
देख मैं हो जाती मतवाली।
जोहती वाट होते ही साँझ।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चाँद। 

रोज शाम को मिलने आता।
दिल को मेरे अतिशः भाता। 
आता अंगना छत को फांद।
क्या सखि साजन? नहिं सखि चाँद।


भूल धूल
माजरा बाजरा
सत्ता पत्ता
मिसाल मशाल

शूल फूल


Monday, 9 April 2018

Kya naam dun ghazal

क्या नाम दें
बंधन जिंदगी का बेजोड़, इसे क्या नाम दें ?
खींचती रही प्यार की डोर, इसे क्या नाम दें ?

साथ साथ चलते रहे हम, धूप, छाँव सहते रहे,
ले आये जिंदगी इस छोर, इसे क्या नाम दें ?

तूफां की परवाह नहीं, सैलाबों की थाह नहीं,
रोक सका न आँधियों का जोर, इसे क्या नाम दें ?

फूलों को चूमा हमने, काँटों को रौंदा हमने,
किये पार अंधियारों का दौर, इसे क्या नाम दें ?

दुखाया होगा दिल को, एक दूसरे के कभी,
सका ना दर्द हमें झकझोर, इसे क्या नाम दें ?

बने हमराही सफर के, ज्यूँ कल की बात हो,
काटे राह लम्बी जिस तौर! इसे क्या नाम दें ?

परस्पर प्यार कि समर्पण, या आपसी विस्वास!
अबूझ 'देव' 
करके भी गौर, इसे क्या नाम दें ?

एस० डी० तिवारी



नगर बनारस
मेरे प्राण बसे हैं साजन] नगर बनारस में। 
काशी वासी शिव अविनाशी] रमे बनारस में।  
गंगा नहान] आत्मा की शुद्धि] 
मिल जाती पापों से मुक्ति]
वेदों का है ज्ञान भरा] नगर बनारस में।
तीर्थों में तीर्थ कkशी घाट]
धूल जाते हैं अनेकों पाप]
विश्व्वनाथ के दर्शन पाएं] नगर बनारस में।    
प्राचीन सभ्यता और संस्कृति] 
रचना यहाँ अमर ग्रंथों की]
तुलसी] कबीर की कलम] उठी नगर बनारस में।     
वास यहाँ पावनता लाती]
अंतिम यात्रा मोक्ष दिलाती]   
बैकुंठ द्वार का धाम बना] नगर बनारस में। 
साधु संतों की आत्मा रमती]
संगीत कला भी संग में बसती] 
परम ज्ञान के चक्षु खुल जाते] नगर बनारस में।  
बुद्ध के ज्ञानोपदेश का उद्गम]
सदियों पुराने मंदिर आश्रम]
इतिहास भी लघु सा लगता] नगर बनारस में।  
भोर भये ही मंत्र गूंजते]
मंदिर घंट] घड़ियाल बजते]
सोहर] ठुमरी] बिरहा] कजरी] नगर बनारस में।  

Mera gharbar geet


मेरा घरबार ये है, छोटा संसार ये है।
तुम्हारी मुस्कराहटों से होता गुलज़ार ये है।

जिंदगी के रस्ते, काटा मैंने हँसते,
खुशियों के बादल हरदम बरसते।
तुम्हारे संग चलके, सफर मजेदार ये है।
मेरा घरबार ये है  ...

महकता चमन यही, चमकता गगन यही,
रखी हूँ सजा करके, मनहर सुमन यही।
तुम्हारी ही दी हुई, जीवन पतवार ये है।
मेरा घरबार ये है  ....

जो कुछ पाया मैंने, सब तुम्हारे सामने है,
उसका ये दिया हुआ, बाकी उसके नाम में है। 
बड़ों का आशीर्वाद और अपनों का प्यार ये है।
मेरा घरबार ये है  .... 

Monday, 2 April 2018

Kah mukari 2


कही खरी खरी, कह मुकरी

हाथ डालकर गला फंसाया ।
तंग इतनी न बटन लगाया ।
छाती खुल्ली न तनिक तमीज
क्यों सखि साजन? नहीं कमीज ।

कहते कहते गयी थी थक
फिर भी उसको ना पड़ा फर्क
अबकी तो बैठी वो रूठी
क्यों सखि साजन? नहीं अंगूठी।



बहुत सताये, पड़े जब गले,
तन भिगो दे, मन को अति खले,
उतारे वस्त्र, इसकी बेशर्मी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गर्मी।

आते ही कर देता निर्वस्त्र,
पक्षी बेचारे रहते त्रस्त,
लगने लगता सब कुछ गड़बड़।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पतझड़।

मतवाला कर देता सावन,
देख मुदित, घन, हो जाता मन,
ले आता छतरी की सौगात।
क्या सखि साजन ? ना सखि बरसात।

गिरते पारा, वो चढ़ जाता,
रात होती और बढ़ जाता,
दूध में डाल खाती छुहाड़ा।
क्या सखी साजन ? नहिं सखी जाड़ा।

बाँध रखी डोर से उसको,
जाए ना छोड़ के मुझको,
आवारा सा हवा के संग।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पतंग


बिना पंख के ही उड़ जाती,
बच्चों के दिल से जुड़ जाती,
झूम, जमाती गगन में रंग।
क्या सखि पत्ती? नहिं सखि पतंग।

बच्चे, बड़े सभी की दुलारी,
जान बचाना फिर भी भारी,
कट कर करती रंग में भंग।
क्या सखि पत्ती ? नहिं सखि पतंग।

ऊंचाई से खेलना आदत,
दीवाने हैं गली के बालक,
भर देती उनके मन उमंग।
क्या सखि पत्ती? नहिं सखि पतंग।


घर बार छोड़ पड़ा वो दूर,
रखता जोश मन में भरपूर,
जान से खेलना काम दैनिक।
क्या सखि साजन ? हाँ सखि, सैनिक।

चिट्ठी आई, उसकी, रुलाई,
इस वर्ष न छुट्टी मिल पायी।
मुझे मिले नहीं चैन तनिक।
क्या सखि साजन ? हाँ सखि, सैनिक।

मुझसे ज्यादा वहां की चिंता,
देश के आगे मुझे न गिनता,
रक्षा कहता जिम्मा नैतिक।
क्या सखि साजन ? हाँ सखि, सैनिक। 

ना खुद वो, ना पाती आयी,
काटूं अकेले रोज तन्हाई,
वर्ष हुए गये गांव से पैतृक।
क्या सखि साजन ? हाँ सखि, सैनिक।

चैन से सोता देश, मैं जगती,
तीज त्यौहार, बेमन सजती,
वो मेरा है या सार्वजनिक!
क्या सखि साजन ? हाँ सखि, सैनिक।


सर्दी गर्मी या बरसात,
सदा ही रहता है तैनात,
काम में न कोई कोताही।
क्या सखि साजन ? ना सखि सिपाही।

उसके खातिर धर्म न जात,
रक्षा में चौकस दिन या रात,
करता तनिक न लापरवाही।
क्या सखि साजन ? ना सखि सिपाही।

अपने प्राण संकट में डाल,
करता है औरों का ख्याल,
फिर भी ना मिलती वाहवाही।
क्या सखि साजन ? ना सखि सिपाही।

सुख सुविधा पे ध्यान न किंचित,
खाने पीने का पल न निश्चित,
कर ना पाता है मनचाही।
क्या सखि साजन ? ना सखि सिपाही।


जब देखो सिर पर ही सवार,
फिर भी नहीं लगती है भार,
कान को भी रहती है पकड़ी।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे पगड़ी। 



पकड़ कलाई जंचता मुझको,
जी करता ना हटाऊँ उसको,
जबसे आया हाथ है पकड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कड़ा।

उसके बिन मेरा क्या अस्तित्व,
एक एक सांस उसी के निमित्त,
रह नहीं सकती उससे युदा।
क्या सखि साजन? नहिं सखि खुदा।

जीवन मेरा उसी के नाम,
बाकी जग से मुझे क्या काम,
वो नहीं तो हर कोई मुर्दा।
क्या सखि साजन? नहिं सखि खुदा।

जब भी वह ओझल हो जाता,
आँखों में आकर भर जाता,
कर नहीं पाती हूँ मैं काबू।
क्या सखि साजन? नहिं सखि आंसू।

कैसे मैं सबको सुनाती!
आवाज वहां तक पहुंचाती,
वही बनाया सुनने लायक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि माइक। 

दिल की जब कहना चाहूँ,
दूर से ही बात कर पाऊं,
रह के ओझल पूछता 'कौन'?
क्या सखि साजन ? नहिं सखि फोन। 


भाव दिखाता है वो जरूर,
है मगर ताकत से भरपूर,
करके सेवन, सुडौल बाजू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि काजू

मशीन का युग, हो गया बेकार,
घूमता गांव, खेत, बाजार,
कौन रखे खिलाने का लफड़ा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बछड़ा।   


सोना वो कर देता हराम,
लेने न देता तनिक आराम,
खून पीने को आता तन पर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मच्छर।

ज्ञान का है वो एक भंडार,
महिमा भी बड़ी अपरम्पार,
उसके पास युग युग का हिसाब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि किताब।

मेरे वो बालों पे अटका,
खाता है चोटी का झटका,
मेरा भी बढ़ जाता नखरा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गजरा।

उसकी महक है सबसे अलग,
जगा देता है दिल का अलख,
कोई नहीं है उसका जबाब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गुलाब।


आते ही छाये अँधेरा,
मन होता चिंता में मेरा,
कैसे करूँ पूरे सब काम।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शाम।

बुरा न मानूं सिटी बजाता,
मेरे लिए खाना पकाता,
देता आराम, करती शुकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुकर।  


जाड़ों में ऊपर पड़ जाता,
उसके साथ बदन गरमाता,
छांट परख, मैं ही हूँ लाई।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि रजाई।

पैसे के लिए गया था वो,
जमीर को बेच लिया था वो,
झूठ बोला, हो गयी वाह।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गवाह।

लेकर लायी, उसे पिलाई,
कोई भी न असर दिखाई,
लगता है नकली ही पायी।
क्या सखि पानी? नहिं सखि दवाई।

डाला उसने, फिर भी फांका,
बच्चों की गुल्लक पे डाका,
पीया था लेकर वो उधार।
क्या सखि साजन? नहिं सखि शराब।

पीने की लत जबसे डाली,,
घर में छायी है कंगाली,
सेहत तक कर ली है ख़राब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शराब।

घर में उसने कलह कराई,
पत्नी के गहने बिकवाई,
शाम हमेशा रहता बेताब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शराब।


भर के लायी, दी जो गिलास,
गट गट कर, कर दिया खलास,
नमक डाल उसको अति भाता।
क्या सखि मदिरा ? नहिं सखि माठा।


उसके कारण मुझको भूला,
शाम निकलता बन के दूल्हा,
अकेले मैं निहारूं बदरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि मदिरा।

शाम उसका देर से आना,
रोज कर कोई नया बहाना,
मुझको तो लगता है खतरा।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि मदिरा।

आते ही रोजाना शाम,
लेता है बस उसी का नाम,
फीका लगता मेरा शबाब।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि शराब।

आते ही आँखों पर छाया,
ऐसा अपना रंग जमाया,
उसको तो कर दिया पागल।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि काजल।  


उबड़ खाबड़ में पार लगाए,
पांवों को चुभन से बचाये,
उसके बिन चल लूँ, नहिं बूता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि जूता।

सरकारी दफ्तर में अटका,
दौड़ दौड़ के खायी झटका,
काम हुआ जब कर दिया खुश।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि घूस।

सालों साल झेला फजीता,
दिया निकल न कोई नतीजा,
लग गया उसको जैसे सदमा।
क्या सखि साजन ? ना सखि मुक़दमा।

पांच सितारा कमरे उसके,
शुल्क सुनी तो आये झटके,
ज्ञान से ज्यादा, हवा का व्यय।
क्या सखि होटल ? नहिं विद्यालय।

पहले आये उसी का नाम,
उसके बाद ही दूजा काम,
सुबह रोजाना मुझे भी भाय।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चाय।

सांसों के भीतर भी सांसे,
मानो कहता हो कुछ माँ से,
रहता नटखट, है वो शोख।
क्या सखि मकान ? नहिं सखि कोख।

स्वागत में जुटा पूरा गांव,
बढ़चढ़ कर आतिथ्य भाव,
खिलाने पिलाने में तैनात।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बरात।

पहली बार आया वो गांव,
पापा उसके पखारे पांव,
सिंदूर की डिब्बी रखा खुल्ला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दूल्हा।

मोहल्ला उससे दबा रहता,
दुकानों से उगाही करता,
रास किसी को न उसका ढंग।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दबंग।

अच्छे भले वस्त्रों को कुतर,
रख देता कर के छितर बितर,
संदूक में भी जाता वो घुस।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मूस।

रात भर सारंगी बजाता,
घड़ी घड़ी वो नींद भगाता,
छुपा वो रहता कहीं सिकुड़।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झिंगुर। 


शाम ढले छत पर आ जाता,
रूप बड़ा ही मन को भाता,
हर लेता है मन के विषाद।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चाँद।

जाती हूँ मैं सीधे छत पर,
देखूं उसको ऑंखें भर कर,
जब भी आती उनकी याद।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि चाँद।

काम करते, उधर ही लगी,
बड़ा मनमोहक, मेरी टकी,
खोयी रही मैं पिछली रात।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि चाँद।

तन्हा जब अकेले मैं होती,
जाकर के छत पर ही सोती,
निहार सकूँ मैं छवि साक्षात्। 
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि चाँद।

लगते मन को बड़े ही प्यारे,
हम तो उन पर दिल को हारे,
होते अँधेरा आते सारे।
क्या सखि बच्चे ? नहिं सखि तारे।

झलमल करती उसकी चुनरी,
रातों को अति दूर तक पसरी,
देखती रहती, सदा मैं काश !
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि आकाश।  


लड़की देख नजर घुम जाती,
काम छिछोरे शर्म न आती,
कोई न कहता उसको भला।
क्या सखि साजन ? ना सखि मनचला।

उसकी ओट में थी मैं सोइ,
गुजरता जो बगल से कोई,
झांकने की कोशिश करता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पर्दा।

गया भर जेब आया खाली,
सोचते ही घेरी कंगाली,
जीत जाऊंगा अगली बारी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि जुआरी।  


चुपके से घुसा वो घर में,
जगी सास, सोइ बेखबर मैं,
चारों ओर मच गया शोर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चोर।

कर देती है बड़ा वो काम,
तभी तो होता है इंतजाम,
सबकी रोटी करती पक्की।
क्या सखि सास ? नहिं सखि चक्की।

कान पकड़ कर, मेरा लटका,
आया तो पूर, शौक मन का,
गालों पर लगाता ठुमका।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झुमका।

निर्माण टिके भुगतान तलक,
अगले दिन हो तालाब, सड़क,
खा, खिलाकर चले कारोबार।
क्या सखि साजन ? नहिं ठेकेदार।

रखा सड़ जाये बेशक माल,
चढ़ा के रखे दाम हर हाल,
लगे न हक़ में किसी  के और।
क्या सखि साजन ? नहिं जमाखोर।

क्षेत्र में बस उसी की चलती,
गलत गतिविधि आड़ में पलती,
पैसे खातिर ही वो जीया।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि माफिया। 


रोग से ज्यादा आय की बात,
जाँच कराता कई बिन बात,
रोगी का तो बजट बेहाल।
क्या सखि साजन ? नहिं अस्पताल।

खुद का माल ले जाता चुरा,
उसको मगर ना लगता बुरा,
देना न पड़े सरकार को कर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तस्कर।

आंख चुराए सबसे फिरता,
टोके न कोई, मन में डरता,
देने की न मंशा किसी तौर।
क्या सखि साजन ? नहिं कर्जखोर।


रजनी भागी डर के मारे,
पक्षी चहके ख़ुशी से सारे,
आया वो तो चमका पूरब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सूरज।

गजब नशा था दिल पे छाया,
कैसे कहूं बड़ा तड़पाया,
शूल सी तेज होठों की चुभन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चुम्बन।

वर्षा ऋतु में बड़े काम का,
हल निकालता तेज घाम का,
बादल देख याद वो आता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि छाता।

बढ़ी कमाई उसको पाकर,
लाया वो मछली फंसाकर,
देता रोज नदी में डाल।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि जाल।

कर रहा मुंह से रक्त वमन,
समझे थे देख उसको सजन,
दोनों की हरकत नादान।
क्या सखि बीमार ? नहिं सखि पान।


शिक्षक बोला, शीघ्र खरीदो,
अगर चाहते, तुम कुछ सीखो;
नई कक्षा में दिया दस्तक।
क्या सखि कलम ? नहिं सखि पुस्तक।

गलत लिखे को कभी मिटा लो ,
लेकर ऊपर रबर चला लो,
घिस जाये तो फिर लो छिल।
क्या सखि कलम ? नहिं सखि पेन्सिल।

छोटा मोटा इतिहास लिखा,
खुद का ही परिहास दिखा,
रखे हुए यादों की शायरी।
क्या सखि कलम ? नहिं सखि डायरी।

जी चाहता मिटा दूँ सारी,
मुझे रुलातीं यादें भारी,
समझी उसको प्यार का खेल।
क्या सखि नाम ? नहिं सखि ईमेल।

मेरे सिर पर उसकी साया,
गुलाबी रंग अतिशः भाया,
पाकर उसको मैं हूँ खुश री।
काया सखि साजन ? नहिं सखि चुनरी।

पेड़ों पर ढेरों में लटका,
सोने का लघु रस भर मटका,
जी चाहे ले जाऊं कुछ धाम।
क्या सखि साजन? नहिं सखि आम।

बच्चों के मन खूब है भाता,
फल, बूढ़ा बिन दाँत के खाता,
बीज का कोई नहीं झमेला।
क्या सखि केक? नहिं सखि केला।

रातों को वो सो नहिं पाता,
परीक्षा का डर उसे सताता,
सहानुभूति का है वो पात्र।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि छात्र।

मुझको तो वो सैर कराये,
जब जी चाहे दूर हो आएं,
तेल बिना हो जाये बेकार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कार।


आते ही मन खिल जाता है,
ऋतु का इनाम मिल जाता है,
देखी उसे अति मन हरसा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि वर्षा।

बैठी महीनों से मन मार,
खिल गया दिल आया अषाढ़,
कहीं दूर उछलती चल दी।
क्या सखि सजनी ? नहिं सखि नदी।

नीर फालतू यही समेटा,
पशुओं को पीने को देता, 
इसी से काबू जल सैलाब।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तालाब।

हवा पानी का रखता ध्यान,
मेरे लिए वो है वरदान,
करुँगी रक्षा उसकी सदैव। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पेड़।

घर आँगन को है महकाता,
बगिया मेरी वही खिलाता,
फूलों की करता रखवाली।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि माली।

है वो मगन हुई अच्छी फसल,
सुवर खोजने को चला निकल,
बिटिया व्याहना, लिया है ठान। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि किसान।

छुपा गुलाल में जानी न मैं,
अनजाना, पहचानी ना मैं,
रंग लगाने आया बबुआ।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि फगुआ।



रहता तो है मेरे ही पास,
बिना बात के होता उदास,
भाता ना उसे रहना मौन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि फ़ोन।

खाते न्हाते भी बज जाता,
बीच ही उठाना पड़ जाता,
लगा रखी अंग्रेजी टोन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि फ़ोन।

बच्चों को घेरी इसकी लत,
गेम खेलने से ना फुरसत,
बाकी काम तो आधे पौन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि फोन।

दसवीं मंजिल पर थी सोइ,
तस्वीर ले रहा, मेरी कोई,
खिड़की से देख गई मैं चौंक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ड्रोन।

उसकी मुझसे, मेरी उससे,
और न जाने किससे किससे,
करने लगा है सबकी चुगल।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गूगल।

देखा खड़ा वो रहता तन के,
बाहर सख्त रसीला मन से,
मुंह में भरता मिठास घना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गन्ना।


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फूलों का आशिक बेचारा,
लोभ में रस के, गया मारा,
रात बिताया दल में फंसकर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भ्रमर।

खम्भों पर पूरा शहर दौड़ता,
अपने यूँ अंगों को जोड़ता,
सुबह शाम करे ठेलम ठेल।
क्या सखि साजन ? नहिं मेट्रो रेल।

लोगों को करना पड़ता जंग,
नेता के आगे घिग्घी बंद,
टेढ़ी खीर शिकायत लिखवाना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि थाना।

बीती जिंदगी ये नापती,
बाकी कितना नहीं जानती,
चलती कलाई को पकड़ी।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे घड़ी।

है परछाईं की सुंदरता,
दीवाना हकीकत समझता,
छवि लिए घूमता मन मा।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे सिनेमा।

पैसा ले जाओ, वो धर लेता,
कागज एक आगे कर देता,
पैसे देकर कहते थैंक्स।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बैंक।

दिन भर ध्यान उसी में रहता,
फालतू काम में व्यस्त रखता,
बाकी सारे काम हुए ठप्प।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि व्हाट्सप्प।


सिर पे सवार करता बेकल,
तनाव में बीत रहा है पल.
रहना पड़ता मार के इच्छा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि परीक्षा।

राह में वो करता सुरक्षा,
काम का, भगाने में कुत्ता,
गांव में अकेले में साथी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि लाठी।

खट्टा बड़ा उसका है स्वभाव,
बढ़ा देता भोजन में चाव,
स्वाद को देता है संवार।
क्या सखि सब्जी ? नहिं सखि अंचार।

उसके रहे आ जाती रंगत,
थाल का भोजन, चाहे संगत,
धनिया, पुदीना किसी की बनी।
क्या सखि सब्जी ? नहिं सखि चटनी।

बिना फ्रिज के ठंडा पानी,
घर में रखतीं दादी, नानी,
रहता वो कोने में पड़ा।
क्या सखि शरबत ? नहिं सखि घड़ा।

पेड़ पे लटका हरा मटका,
हाथ लगे तो सारा गटका,
खनिज, विटामिन मिश्रित जल।
क्या सखि शरबत ? नहिं सखि नारियल।

एक गुच्छा में सौ सौ अटका,
भारी इतना नीचे लटका,
बाजार जाता भर भर ठेला।
क्या सखि आम ? नहिं सखि केला।


आते ही आँखों पे छाती,
बिस्तर पर मुझे बुलाती,
पड़े रहने की उसकी जिद्द।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखि नींद।

कहते बीत गये कई साल,
हर बार ही देता है टाल,
जब देखो मंहगे का रोना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सोना।

कभी पैसे का होता लोभ,
कभी तो रुतबे का प्रकोप,
करवाता उससे मनमाना।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि थाना।

उसके घर में आ जाने पर,
मुंह मोड़ के चल देते सब,
कोई नहीं दिखाता करीबी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि गरीबी।

जब जब होती उसकी पिटाई,
रोता वो पर भाती रुलाई,
धुन, कानों में देता घोल।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ढोल। 

छाती पर धरते ही कमान,
सुनाने लगती मीठी तान,
मन को कर देती है रंगीं।
क्या सखे सजनी ? नहिं सारंगी।

मुंह से जब भी फूंक लगाया,
छेदों पर उंगलियां फिराया,
मन को धुन ने वश में कर ली।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मुरली।


कोई देखे आँखों में झील,
कोई देखे गालों पे तिल,
देखे ना उसकी लाचारी।
काया सखि साजन ? नहिं सखि नारी।

प्रजनन से जन के पालन तक,
कुटुंब के क्षुधा निवारण तक,
उठाये सिर पे जिम्मेदारी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नारी।

थी ना कोई जान पहचान,
उतरते ही पकड़ा सामान,
देख वो मेरी सांस फुली।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुली।

मुंह खोलते ही पकड़ लेता,
आये को पिसान कर देता,
राहत बहुत पा जाती आंत।
क्या सखि चक्की ? नहिं सखि दांत।

दो जबड़ों में आया जो भी,
एक भी साबुत बचा न कोई,
पिस जाना उसकी है पक्की।
काया सखी दांत ? नहिं सखी चक्की।


बैठा पंछी कितना उदास,
घर जाने की छोड़ के आस,
लोहे के सिकंजे में घिरा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पिंजरा।

चढ़ा पीठ यूँ पहली बारी,
सजी वो  खुश, लगा हो यारी,
भली दोनों की जमी जोड़ी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि घोड़ी।

दिवार टंगी, याद दिलाती,
टकी लगाये ही सो जाती,
नयन बहाने लगते नीर।
क्या सखि खूंटी ? नहिं सखि तस्वीर।

चिट्टा रंग लम्बा सा कद,
बिगाड़ा मिजाज मुंह से लग,
नाक की जलन मैं ना भूली।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मूली।

मुझको तो वैसे भी भाता,
खाऊं पराठा रंग जमाता,
किसी से दोस्ती, बड़ा ही चालू।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि आलू।

ऊँचा  कद, तान देता तम्बू,
अंगना खड़ा शादी में लम्बू,
विवाह में वो रहता खास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बांस।

उठाया घूँघट बेशर्मी ने,
हिम्मत दिया मेरी नरमी ने,
छूकर गया कहीं दूर नयन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पवन।

पहन लंगोट बाँहों को ऐंठ,
नीचे पटक गया ऊपर बैठ,
जीत की आग, मैं समझी मस्ती।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुश्ती।

अफसर बाबू संलिप्त तमाम,
सरका देता, चाहे बिगड़े काम,
जानता कला करने का खुश।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि घूस।

मैं तो केवल बटन दबाती,
उसी बदौलत बिजली आती,
बिजली गुल गर हुआ बीमार।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तार।

उसके सहारे चलतीं साँसे,
संग खड़ा वो नथनी थामे,
उसकी तो अपनी ही धाक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नाक।

सुरक्षा का वो करता वादा,
संग मेरे सब्जी भी काटा,
करती उस पे भरोसा पूरा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि छूरा।

लगे तो भीतर तक दे चीर,
कलेजे में करती भारी पीर,
दूर न हो उसकी विष घोली।
क्या सखि गोली ? नहिं सखि बोली।

विचार कम कुश्ती कुछ ज्यादा,
हों ज्यों लड़ने को आमादा,
दिखावे में जन शुभचिंतक।
क्या सखि अखाड़ा ? नहिं सखि संसद।

खुद के लिए शब्दों का किला,
रखे सब सुविधा, फिर भी गिला,
जनहित, सोच से रहे नदारद।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सांसद।

जान सकी ना मन के काले,
रखे रही मैं उसे संभाले,
देकर गया, बन सीधा सादा।
क्या सखि सौगात ? नहिं सखि वादा।

जाती चौक, रोज मिल जाता,
इशारों से वो मुझे बुलाता,
दे देती कुछ सोच लाचारी।
क्या सखि साजन ? ना री भिखारी।

पलक उठा, ले लिया तस्वीर,
मैं तो दीवानी उसकी फिर,
घर ले आई, वो मन में घरा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कैमरा।

करतब की जब आयी बारी,
दिखाने लग गया अय्यारी,
जोर से दौड़ा खाकर कोड़ा।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि घोड़ा।

बुने हुये था ताना बाना,
करे कोय, हरकत बचकाना,
चाल में उसकी जाए जकड़ा।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि मकड़ा।

शुद्ध हवा खाने को ताजा,
कोयल, मेढ बजाते बाजा,
मिलती शीतल तरुवर की छाँव।
क्या सखि पहाड़ ? नहिं सखि गांव।

होते बारिश चल दी व्याकुल,
तकदीर गयी, मछली की खुल,
बहुत दूर तक करेगी मस्ती।
क्या सखि मछुआरन ? नहिं सखि नदी।

घेर के मेघ बढ़ाये चिंता,
कैसे करेगा अब वो रक्षा,
चलाया था आज ही चाक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कुम्हार।

रंग काला पर अच्छे करम,
सेंक के देता रोटी गरम,
मैं भी रखती उसको जवां।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तवा।

सामने पड़े, लगता खतरा,
जाने न खेले क्या पैंतरा,
देख के जी जाता है कांप।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सांप।

प्रातः होते मुंह लग जाता,
नन्हीं का तो दिल घबराता,
मम्मी से उसकी रोज अनबन। 
क्या सखि स्नान ? नहिं सखि मंजन।

मेहमानों के बीच जम गया,
ये भी उनके जिया रम गया,
चाय भी मैंने ही परोसा।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि समोसा।

और और की हवश बढ़ाया,
गर्त में अति नीचे गिराया,
चाह को अपनी सकी न रोक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि लोभ।

कैसे करूँ उसका विस्वास,
तोड़ देता है मन की आस,
कहने से यह भला है मूक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि झूठ।

चले पीठ पर सिर से लटके,
खाय मेरी चाल के झटके,
सोचती कर दूँ उसको छोटी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चोटी।

जरूरत पड़े मैं चली जाती,
काम हेतु पैसे ले आती,
बोलती उसको हो के फ्रैंक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बैंक।

कितना बोझ सहती जाती,
ऊपर से ठोकर भी खाती,
रखती मिजाज फिर भी कड़क।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि सड़क।


उसके आगोश, जल सी गयी,
आंच थी इतनी तप सी गयी,
फिर से जाने का लूँ ना नाम।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि घाम।

उसके आते नींद न आयी,
मुर्गे ने भी बांग लगायी,
मैं भी चल दी बिस्तर छोड़।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि भोर।

सब कुछ था आँखों से ओझल,
लगा वहां वो आकर उस पल,
दिया हो ज्यों मेरी ऑंखें मूंद।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि धुंध।

सर्दी की रात, ऊपर ओस,
पड़ी रही दिखाई ना रोष,
भीगी नंगे, ओढ़न न पास।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि घास।

आयी बाग़ में एक नर्तकी,
घूम गयी तब नजरें सबकी,
देख रहे सब उसी की ओर।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि मोर।

पूरी रात नहाया गुलाब,
ठण्ड से कांपा सारी रात,
भीगे बदन पड़ा बेहोश।
क्या सखि बारिश ? नहिं सखि ओस।

जाने क्यों हो गयी नाराज,
दूर बसी जा गांव से आज,
कैसे मनाऊं उसको दईया।
क्या सखि सौतन ? नहिं गौरैया।

आकर पी जाती वो दूध,
फिर भी होता कोई न क्षुब्ध
आखिर, वो इसी गांव पली।
क्या सखि सौतन ? नहीं सखि बिल्ली।


जरूरत को समझ वो जाता,
मेरे घर पानी ले आता,
रहता है पर भीतर छिपा।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि पीपा।

लेकर खड़ा रहता वो पुष्प,
ले लेती मैं, न होता रुष्ट,
उसके, मैं हल करती मसला।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि गमला।

हवा के संग बन आवारा,
घूमता रहता मारा मारा,
कभी तो लगता जैसे पागल।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि बादल।

आती तो मन तर कर देती,
सब प्राणी का मन हर लेती,
कभी कभी देती है तरसा।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे वर्षा।

तेज हवा में झूमा वो खूब,
देशभक्त को लगा महबूब,
उड़ान ऊँची, जितना डंडा।
क्या सखि प्रियतम ? नहिं सखि झंडा।

पानी लेकर खड़ी छत पर,
जब चाहूँ, देती बर्तन भर,
वो हो तो, तसल्ली मन की।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि टंकी।

आते बसंत गया वो जाग,
जंगल में ज्यूँ लगाया आग,
धरती पर छाया मधुमास।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पलास।

काम फिसड्डी न्यून योग्यता,
गुणवत्ता से भी समझौता,
योग्य वंचित, उसके कारण।
क्या सखि साजन ? नहिं आरक्षण।

रहती अपने काम में व्यस्त,
काम की ही वो धुन में मस्त,
लक्ष्य को अपने पांव समेटी।
क्या सखि सौतन ? नहिं सखि चींटी।

लेन देन की रखता किताब,
रखे उसी में सबका हिसाब,
मैं क्या जानूं गलत या सही।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बही।

कुर्सी मेज सब वही बनता,
पांव पलंग का भी बन जाता,
उसी ने बनाया मेरी खाट।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि काठ।

बढ़ जाती है रोज जरा सी,
खुजली करती, यूँ छोड़ा भी,
कंघी से ना जाए झाड़ी।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे दाढ़ी।

धूप, ठण्ड में सिर पर होता,
स्नान घर में आवश्यक होता,
बदन का पानी उसने सोखा।
क्या सखि साजन ? ना सखि अंगोछा।

लटक गयी वो गला पकड़ के,
चल पड़े हम घर से अकड़ के,
भरी सभा में रंग जमाई।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे टाई।

वहां जब करवाती मेहनत,
लगने लगती है वो जहमत,
भाव दिखाती जा के मंडी।
क्या सखी सौतन ? नहिं सखि भिंडी।

अपने ऐश का रखे हिसाब,
कर्तव्यों की न खोले किताब,
अधिकारों की जपता जंत्री।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मंत्री।

दो चार नहीं दसियों साल,
तारीख देकर, देते टाल,
जोड़ जोड़ कर नए अध्याय।
क्या धारावाहिक ? नहिं सखि न्याय।

भरी भीड़ में वो ही अकेला,
घोड़ी पर अकड़ा अलबेला,
करने जा रहा फतह किला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दूल्हा।

खड़ा द्वार वायु का प्रहरी,
देता छाँव भरी दोपहरी,
छोटा मोटा है वो हकीम।
क्या सखि साजन? नहिं सखि नीम।

जलता जरूर, माघ या जेठ,
भरता अकेले, सबका पेट,
जगाती अम्मा, बेनी डुला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि चूल्हा।

देखूं उसे, मुझको दिखाता,
मेरी सब खामियां बताता,
देखने को पर चाहे मन।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि दर्पण।

मन में लेकर पुण्य की चाह,
पकड़ी मैं भी उसी की राह,
दर्शन से धुलेगी अपकीर्ति। 
क्या सखि साजन ? नहिं सखि तीर्थ।

आसमान में जैसे तारा,
माथे चमका, रूप संवारा,
कद में है वो बेशक चिन्दी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि बिंदी।

गोल गोल वो चला घूम कर,
बोझ बड़ा ले गया दूर तक,
गाड़ी चलती उसी पे भइया।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पहिया।


हुआ आजकल अजब ही ढंग,
गिरगिटान की भांति वो रंग,
अवसर पाकर बदल लेता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि रिश्ता।

हुआ जब उसका समय पूरा,
शाखा से टूट नीचे गिरा,
होना वही एक दिन सबका।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पत्ता।

चल पड़ा कुछ ऐसा है चक्र,
तन पे भयावह पहने वस्त्र,
उसी रंग का चश्मा डाला।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि काला।

बंगला गाड़ी सब कुछ पाया,
क्या कुछ खोया, सोच न पाया,
दिखा के खुश वो झूठी शान।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि ईमान।

पैसे से ही अब वो मिलती,
निर्धन की है कहीं न गिनती,
गया जहाँ भी वहीँ ना करी।
क्या सखे सजनी ? नहिं सखे नौकरी।

करके सवारी बैतरणी पार,
उसके बदौलत हुआ उद्धार,
नेता के तो बाँट के ठाट।
क्या सखि साजन ? नहिं जातिवाद। 

न्यून योग्य तो माल उड़ाय,
पढ़ लिख के कोई धक्के खाय,
चल के दाना उसकी दाढ़।
क्या सखि जादू ? नहिं जाति प्रमाण।

सुयोग्य फिरे ड्योढ़ी ड्योढ़ी,
अयोग्य को मिल जाय सीढ़ी,
आजाद देश की है सौगात।
क्या सखि चुनाव ? नहिं सखि जाति।

बना है झूठ उसका व्यसन,
माथे पे नहीं रखता शिकन,
अचरज इतना कैसे कह लेता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि नेता।

धन के आते ही खो जाता,
जाने कैसा तब हो जाता,
लग जाती पनपने धृष्ठता।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि शिष्टता।

योग्यता को बिना विचारे,
पैसे और कृपा के सहारे,
किया बन, नेता की तरफदारी।
क्या सखि साजन ? नहिं अधिकारी।

सबसे पहले बनाये काम,
सामने आये झंझट न झाम,
प्रशासन होवे नतमस्तक।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि रिश्वत।

भविष्य हेतु बचाये रखी,
मंहगाई में गल गया सखी,
पहले से कम, रह गया शेष।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि निवेश।

बढ़ता कभी जब अत्याचार,
करना होता उसका विचार,
तभी मिल पाती हक व शांति।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि क्रांति।

रक्तबीज सा बोया भारी,
कैंसर हुई बढ़ के बिमारी,
लहू में सन के रहा जमीर।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि कश्मीर।


८८८८८

वेद बताएं, रास जो आय,
खुश हो के दक्षिणा दे जाय,
जजमान की बात करे न खंडित।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि पंडित।

समान्तर रखना अपनी सत्ता,
संविधान तोड़ दे अलबत्ता,
फतवा बजाये मन की ढोलकी।
क्या सखि साजन ? नहिं सखि मौलवी।

लाभ हेतु सनधि बनवाया,
कहने पर मुक़दमा चलाया,
इसी में क्योंकि स्वार्थ फलित।
क्या सखि साजन ? नहीं सखि दलित।