जब कभी परेशां सा दिल होता है ।
बिन किसी आशियाँ सा दिल होता है।
हो जाती तेज, उनकी यादों की हवा,
लिये, कोई तूफां सा दिल होता है ।
उनसे भली, ये चंचल लहरें ही रहीं ।
दर्द सहीं, रहीं मरती मिटती यहीं ।
वो तो आये जैसे कोई तूफान बड़ा
गए उजाड़ सब, उड़ के दूर कहीं ।
उदास कभी जब होता हूँ, लहरों के पास चला जाता हूँ ।
सुनातीं हैं वो दास्ताँ अपनी, मैं अपनी कुछ सुनाता हूँ ।
चंचल अठखेलियां उनकी, कर देतीं हैं गम कोसों दूर,
मिलाकर के दिल साथ उनके, मैं खेलने लग जाता हूँ ।
अम्बर में पसरा, धुएं का अम्बार आ गया है ।
सड़क पर उड़ती, धूल का गुबार छा गया है ।
आस पास की, निर्माणों ने लील ली हरियाली,
एक और, कल तक गांव था, शहर खा गया है।
खाते संग दोनों, आइसक्रीम, पानी-पूरी ।
झुरमुट में बैठ करते, बातें, पर अधूरी ।
आती थी विदा होने का सन्देश लेकर,
लगती थी बुरी कितनी, वो शाम सिंदूरी ।
- एस० डी० तिवारी
पति हुए बड़े हैरान,
क्या इतना था आसान ?
बाली ने खींच डाली,
पत्नी का एक कान।
हे पति देव !
तुम हो नेक।
लाओ न एक,
गले का सेट।
जमीन में गड़े।
सड़ जायेंगे पड़े।
रखे जो होंगे
काले नोट बड़े।
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चली निकल,
नदी मचल,
नीर विमल,
बड़ी चपल।
रही मगर,
बहुत विकल,
देख सकल,
जटिल डगर।
लड़ी सतत,
व्यथा निगल,
बना विरल,
राह सकल।
बढ़ी निडर,
गांव शहर,
रही सजल,
थमी न पर।
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करें हम कैसे जतन।
मुश्किल से मिला ये धन।
पल पल पूजा करके,
पाये हैं प्रेम रतन।
लेकर के झूठ का बल,
करके जनता से छल;
बड़ी सरलता से नेता,
बन जाते हैं, आजकल।
- एस० डी० तिवारी
कितना मुझे, दुलारी है तू।
मल के वस्त्र, कचारी है तू।
कभी तनिक भी घृणा न की,
ममता भरी, महतारी है तू।
देखो तो बड़ी झुझारू है ये।
बसा हुआ, घर उजाड़ू है ये।
घसीट कचहरी तक ले जाती
कलियुग की मेहरारू है ये।
चला रहे दुकान धर्म के नाम पर।
दलाली का काम धर्म के नाम पर।
कैसे सिखाएं, बातें नीति की, खेलते
राजनीति के दांव, धर्म के नाम पर।
अब होने लगे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान के नेता ।
जाट, गुजर, दलित, पटेल, पठान के नेता ।
बिखेरे हुए, उन सभी टुकड़ों को जोड़ने वाले,
अब, फिर कब पैदा होंगे, हिंदुस्तान के नेता ।
एस० डी० तिवारी
कई बार पड़ा, दामन पर छींटा है ।
कांटे उलझे तो आँखों को मींचा है ।
मेरे लिए ये महक रहे, तो मैंने भी,
बाग के फूलों को पानी से सींचा है ।
हुई आजकल, बड़ी घमंडी;
भाव दिखाती, सब्जी मंडी ।
धरा देती आम आदमी को
वापस ही घर की पगडण्डी ।
नेता जी चले ।
साथ हुए चेले ।
नारे लगा रहे
किराये के रेले ।
बड़ी दूर तक फैली ।
नेता जी की रैली ।
उगलेगी मंच पर,
बातें कई विषैली ।
लेते तो हो तुम मजा ।
दिवाली पर पटाखे बजा ।
करते हवा को दूषित
पाता कोई और सजा ।
कर दिया बेकाबू, रंगरेजन ने।
डाल दिया है जादू, रंगरेजन ने।
होता कभी, रंगीन बड़ा दिल,
मार दिया है झाड़ू, रंगरेजन ने।
बाहर ज्योति मन भावना काली, यही दिवाली ?
दिखावे में ही फजीहत करा ली, यही दिवाली ?
अंधाधुंध फूंकते हैं कुछ लोग, कमाई काली,
धरती सारी, बीच धुंआ नहा ली, यही दिवाली ?
भरी भीड़ में भी, अकेले का सा सबब होता है ।
किसी के लिए भला, किसी का रुकना कब होता है ।
बड़े शहरों में, अपने लिए ही दौड़ते होते हैं सब,
गजब के काम लिए, करने का ढंग अजब होता है।
मनाते हैं हम बाल दिवस, हर वर्ष लगातार ।
कम नहीं होता है पर, बच्चों पर अत्याचार ।
आज भी बच्चे सह रहे, भेद भाव का दंश
निर्धन वंचित शिक्षा से, कुपोषण के शिकार।
कब पाएंगे देश के बच्चे, प्यार भरा संसार ?
कब पाएंगे श्रम से मुक्ति व पौष्टिक आहार ?
शिक्षा में भेद भाव, धनी-निर्धन, गांव-शहर
कब पाएंगे बाल वृन्द, समता का अधिकार ?
पिघलती बर्फ तो, बह चलता पानी ।
मौसम सर्द तो, नभ से झरता पानी ।
नम आँखों से, किसी के दिल में
गलता दर्द तो, निकल पड़ता पानी ।
- एस० डी० तिवारी
समुन्दर की लहरों ने, आकर, कानों में कहा ।
खेलो कुछ घड़ी संग, मेरे अरमानों में, कहा ।
लिए नीर खारा तो क्या! सुनाती गीत मधुर हूँ
तुम भी तो प्यारे एक हो, मेरे दीवानों में, कहा ।
समुद्र तट पर जाता हूँ, बढ़ जाती है धड़कन ।
उनकी यादों की हिलोरें, बढ़ा देती हैं तड़पन ।
खोना चाहता हूँ कुछ पल, लहरों के आगोश में
चिपक जाती हैं, आ यादें, जैसे रोटी पे परथन ।
तुम खारा हो, मगर, मैंने जी भर तुम्हें पिया है ।
बुझाकर प्यास तुमसे ही, जिंदगी को जिया है ।
रे! समुन्दर की लहरों! सुनो, तुम मधुर बड़ी
जिह्वा से नहीं, मैंने तो नैनों से स्वाद लिया है ।
तन्हाइयों में रह के, जब कभी ऊब जाऊं ।
जी चाहता, समुन्दर पे, मेरे मेहबूब, जाऊं ।
जब तक जी चाहे, जी भर के निहारूं उनको,
तेरी यादों से भला कि लहरों में डूब जाऊं ।
चांदनी रात में कभी जाता हूँ ।
झील के तट पर, बैठ जाता हूँ ।
आता चाँद, छवि निहारने अपनी,
मैं उसकी झलक पा जाता हूँ ।
ऐसा भी कभी होता है ।
बिन बात के दिल रोता है ।
तट पर मेरे सिवा सिर्फ,
हवा का झोंका होता है ।
गहरे दर्द के भंवर बनते रहे ।
ज्वार भाटा दिल में उठते रहे ।
तूफानों का अंजाम, क्या कहें,
उठा पटकते रहे, हम लड़ते रहे ।
मुंह में ये क्या दबाये हो ?
कदमों को लड़खड़ाए हो ।
लाल होठों से बॉस आ रही
लगता है पीकर आये हो !
इतना सा काम, मेरा कर दे ।
जाकर उससे तू बस कह दे ।
अभी दीवाना तेरा जिन्दा है
मारना ही है, उसे जहर दे ।
बना चकोर, ताकता रहा तेरी ओर ।
एक ही नाम लेता, शाम हो या भोर ।
गायब होती रही, चाँद सा धीरे धीरे
तू पतंग सी कटी, मैं थामे रहा डोर ।
बड़ी बड़ी बातें तो करते थे वो।
आजन्म रहेंगे साथ, कहते थे वो।
खूबसूरती की दरिया देखते ही,
अनायास प्रवाह में बहते थे वो।
उसके पास जो था, वो यार बनाती ।
मैं चाहता कि उसे वह, प्यार बनाती ।
मगर वह तो इतनी जालिम निकली
उसको ही हरदम, हथियार बनाती ।
हिरनियों से माँगा प्यार, गरमा गयीं ।
कलियों से माँगा प्यार, शरमा गयीं ।
प्यार के लिए रंग भी कुछ कम न थे,
तितलियों से माँगा प्यार, भरमा गयीं ।
मकराना के नगीनों से बना है, ताजमहल ।
जज्बा और यकीनों से बना है, ताजमहल ।
उँगलियों के छाप, होंगे पत्थरों पर अभी,
जिनके खून पसीनों से बना है, ताजमहल।
ज्यादा तेल तो पके तिल में होता है ।
मजा, मन माफिक महफ़िल में होता है ।
ऊँची मंजिल से नजारा दूर तक दिखता,
प्यार उम्र में नहीं, दिल में होता है ।
इन झुर्रियों को देखने से क्या हासिल ।
चढ़ी जवानी पर ऐंठने से क्या हासिल ।
बूढ़े बरगद के नीचे भी छाँव पाओगे
नए तरकुल तले बैठने से क्या हासिल ।
हुस्न ना होता तो फूलों की कद्र क्या होती !
उल्फत न होती, खुशबुएँ समग्र क्या होतीं !
उड़ कर चला गया भौंरा, चमन में किसी और
पड़ी, पांखों के बिना, कली उग्र क्या होती !
उसका दिल आईना जान, देखा, दिल अपना ।
भरा है प्यार कितना, नापा, बना के नपना ।
ठूंसना चाहा और, दबा दबा कर जबरदस्ती
वह भी कहाँ की कम थी, लगा लिया ढकना ।
कभी नकाब में छुपी मिली ।
कभी समाज से झुकी मिली ।
दीदार को पहुंचा पास राँझा
हीर कफ़न में ढकी मिली ।
खिली बागों में कली ।
मंडराने आ गए अलि ।
मालिन ने आकर झट,
डाल ओढ़नी, ढक ली ।
हमने मुहब्बत किया ।
अदा, तेरा शुक्रिया ।
मरेंगे बिना दर्द के,
तूने जो बेहोश किया ।
बदले करवट, करके याद, तुझे ही बस ।
सपनों में देखा, कल की रात, तुझे ही बस ।
सोचे हैं, इस जनम की मुहब्बत सारी,
सजाकर, दे देंगे सौगात, तुझे ही बस ।
एक ही बिस्तर।
प्यार भी, मगर;
सो रहे हैं जानू
किये मुंह उधर।
उनके आने से मौसम, खुशगवार हो जाता है।
उनका वापस जाना फिर, जवाल हो जाता है।
उनके झाड़ फूंक के बिना, गोत के रख देता
सिर पर मुहब्बत का भूत, सवार हो जाता है।
उनके जाने का गम कहाँ है !
देखो तो ऑंखें नम कहाँ हैं !
कर चुके पहले, प्यार बहुत
अब खुद में भी दम कहाँ है !
राह को अपनी मोड़ दिया, तुम न दिखे।
दर्पण को मैंने तोड़ दिया, तुम न दिखे।
मुद्दत हो गयी, गए मधुशाला की डगर
पीना अब तो छोड़ दिया, तुम न दिखे।
मेरे दिल की लगी ।
समझी वो दिल्लगी ।
समझाने से पहले
मुझे छोड़ के भगी ।
ना कि वो अल्ला है ।
ना ही राम लल्ला है ।
नफ़रत जो फैलाता
अखिल, अब्दुल्ला है ।
छत पे बोला कागा।
भोर में जब जागा।
खबर मिली उसको
कोई और ले भागा।
अब तो महको ना !
थोड़ा चहको ना !
प्यार की बगिया है,
फूल सा लहको ना !
ना तो गयी मधुशाला ।
ना नशे का रोग पाला ।
खो बैठी हूँ होश मैं तो,
पी के प्यार का प्याला ।
कारे बादल,
आ रे बादल।
इश्क में तरसा,
ना रे बादल ।
हम तेरे द्वार आये ।
एक ना, सौ बार आये ।
कभी न तू दी तवज्जु ,
यूँ ही क्या, बेकार आये ?
इस जाड़े में आई,
घर में नई रजाई।
मची छीना झपटी,
हो गयी हरजाई।
मुझे आने से रोका था।
वो हवा का झोंका था।
समझ न लेना कहीं तुम,
यह प्यार में धोखा था।
किया है बहुत मैंने, तेरी देखभाल;
बचपन से जवानी तक, मेरे लाल !
लगा जबसे, जोरू की खिदमत में तू!
खड़े होने लगे, ममता पर सवाल !
देखी न कभी वो खुद की सुगमता थी।
किया उसने, वो उसी की छमता थी।
भूखी रही, दिल खोली, नीदों को छोड़ी,
खुद से पहले लाल, मां की ममता थी।
हर चाँद का एक सूरज होता है।
हर नए काम का मुहूरत होता है।
हर प्यार करने वाले के दिल में
चेहरा कोई खूबसूरत होता है।
नन्हे से पंछी, सोच में कभी न डूबे देखा।
रहते व्यस्त, काम से कभी न ऊबे देखा।
ना कोई ठिकाना एक, ना आशियाना एक,
हरदम बुलंद फिर भी, उनके मंसूबे देखा।
नन्हां सा पंछी आकर, खूब लुभाता है।
कभी क्षण में. नभ में दूर उड़ जाता है।
बैठता नहीं साथ कि बतिया लूँ उससे
मगर कुछ बातें, जरूर कह जाता है।
तुम्हें क्या पता, तुमको मैं कैसे पाया था !
मंदिरों में जाकर, अगरबत्ती जलाया था।
खोलने जा रहा हूँ आज, उस पीपल से
तीन वर्ष पहले, धागा बांध के आया था।
अभी तक जातियों के कई; मंत्री, अधिकारी पिछड़े हैं !
ले रहे जो मोटा वेतन, सरकारी कर्मचारी पिछड़े हैं !
करोड़पति पिछड़े देखे, भूखा ना पिछड़ों की श्रेणी में!
कोई न कहता, तंगी में जीते लिए लाचारी; पिछड़े हैं ।
झूठ का बल
लूट का धन
किये वो छल
हुए संपन्न
लोभ की तृप्ति में मानव, मुझे क्या मिटाएगा ?
मैं जंगल हूँ, मेरे बिन, तू भी कैसे रह पायेगा ?
तेरा हवा-पानी मैं, कितने जीवों का आश्रय हूँ,
ले मुर्गी की जान कहाँ से, सोने के अंडे खायेगा ?
मचलती, मंद बयार से प्यार है मुझे।
बहती नदी की धार से प्यार है मुझे।
बोलते झरने, डोलते मेघों का झुण्ड,
गिरती रिमझिम फुहार से प्यार है मुझे।
खिले फूलों की महक से प्यार है मुझे।
विहंगों की चहक से प्यार है मुझे।
बजाते ताली, बिखेरते हरियाली; पत्तों,
मस्त हवाओं की बहक से प्यार है मुझे।
पूर्णिमा की बिखरी चांदनी से प्यार है मुझे।
सुरीले कंठ की रागनी से प्यार है मुझे।
जिंदगी का आनंद सब, बसा प्यार में प्यारे
किसी सुभाषिनी, नाजनी से प्यार है मुझे।
एस० डी० तिवारी
बितायीं हैं रातें जाग, बलम परदेशी ।
डंसते रहे काले नाग, बलम परदेशी ।
बने हैं गवाह, पड़े चेहरे पे अब तक
अश्कों के भरे ये दाग, बलम परदेशी ।
छेड़ो ना बसंती राग, पी नहीं संग में।
खेलो ना हमसे फाग, पी नहीं संग में।
जल्दी आने की आज जगी है आस,
बोला मुंडेर पे काग, पी नहीं संग में।
उठते ही प्रातः मुंह लग जाती, चाय की प्याली ।
अच्छे दिन का बिगुल बजाती, चाय की प्याली ।
मैंने पकड़ा हाथ, ये छोड़ी ना अब तक साथ,
प्याली भर जीवन रोज दे जाती, चाय की प्याली ।
मुक्तक शिरोमणि प्रतियोगिता 22 हेतु प्रविष्टि
किया इंतजार, तुम मेरे घर आना ।
अगले इतवार, तुम मेरे घर आना ।
खुश होगी बड़ी, मिलने की घड़ी,
आयेगी बहार, तुम मेरे घर आना ।
करना ना इंकार, तुम मेरे घर आना ।
होंगी बातें हजार, तुम मेरे घर आना ।
दिल में छुपाये, रखे जो अब तक,
करेंगे इजहार, तुम मेरे घर आना।
हूँ बड़ा बेकरार, तुम मेरे घर आना।
ख्वाबों पे सवार, तुम मेरे घर आना।
देख तुम्हें झूमेगी, चढ़ माथे खुशी,
बरसेगा प्यार, तुम मेरे घर आना ।
एस० डी० तिवारी
जब धरती का कटोरा उफन जायेगा।
पूरी ही धरती पर जल भर जायेगा।
मनु स्मृति ही बस, बचे रहेंगे जग में
जीवधारी शेष सभी तो मर जायेगा।
करो ना करम,
करो जो शरम ।
स्वार्थ में लिप्त,
धरो नाधरम ।
इंसानों में घुस आया शैतान।
भीतर तक जड़ जमाया शैतान।
मतलबी जेहन ही घर उसका,
घर घर में है समाया शैतान।
छोड़ गए होते पांवों के निशान।
वहां जाना होता कितना आसान।
पता भी ना भेजे, मिलेंगे वे कहाँ,
हमसे पहले गए जो उस जहान।
कितना पानी रखे धरती।
नीर हेतु नभ को तकती।
चाहती तो करवट बदल,
सर्वांग प्यास बुझा सकती।
धरा का कटोरा उफन भर जायेगा।
सारी ही धरती पर जल भर जायेगा।
मनु ही, बचे रहेंगे इस जगत में बस
जीवधारी शेष सभी तो मर जायेगा।
सोचो, पृथ्वी भी तुम सा जब मचलेगी।
मस्ती में कभी जब, करवट बदलेगी।
सागर का जल, बह चलेगा तट छोड़,
कैसे ये दुनिया तुम्हारी, तब सम्हलेगी ?
जैसे जैसे उम्र की चोटी चढ़ती गयी ।
ह्रदय रेखा प्रगाढ़तम कढ़ती गयी ।
पा गयी जब माँ का कलेजा तन में
प्यार की तिजोरी और बढ़ती गयी ।
उसका तन नोचते, फिर भी धरती।
तुम्हारे लिए कितना दर्द है सहती।
छाती पर खेलते बच्चों की खातिर,
चाह के भी, करवट नहीं बदलती।
ज्ञान की बातें सब व्हाट्सअप्प पर आ गयीं ।
भारी भरकम सूक्तियां सभी, आकर छा गयीं ।
देखा नहीं अब तक मगर, बनता ज्ञानी कोई,
नैतिकता तो स्वार्थ की चुहिया कुतर खा गयी ।
मुक्तक शिरोमणि प्रतियोगिता 22 हेतु प्रविष्टि
देख कर पर्वतों से गिरता झरना, दिल हुआ मगन।
सुन, सरिता का कोलाहल करना, दिल हुआ मगन।
विलोक यौवन भरे, सुगंध बिखेरते, हरे उद्यान में,
कलियों के फूलों का रूप धरना, दिल हुआ मगन।
गली के नुक्कड़ पे हंसना हँसाना, यारों के साथ।
कैंटीन में चाय की चुस्की लगाना, यारों के साथ।
लगता है कि वो गुजरा पल, हो अभी बीता कल,
बिना काम मीलों बाइक दौड़ाना, यारों के साथ।
बहुत से लोग तो ताम झाम में आनंद ढूंढते हैं।
होते हैं कुछ ऐसे भी, जाम में आनंद ढूंढते हैं।
हमें तो अपनों का साथ ही बस प्यारा लगता,
तभी तो उनसे दुआ सलाम में आनंद ढूंढते हैं।
बादलों को हवाओं में झूल कर मजा आता है ।
कलियों को डालों पर फूल कर मजा आता है ।
हम भी तो दिल पर खामखाह बोझ नहीं रखते
अपने को उनकी यादें भूल कर मजा आता है ।
बरसती, नन्हीं बूंदों के रेले, मेरे दिल से खेले।
बाजार में आहार के मेले, मेरे दिल से खेले।
मिलते कभी वे जब, दिल हो जाता था गदगद,
मिले जब झुरमुटों में अकेले, मेरे दिल से खेले।
बिन बात के अनबन, याद हैं बचपन की बातें ।
बात बात पर अनसन, याद हैं बचपन की बातें ।
इतराना नए वस्त्र पहन, पाकर नए खिलौने,
पार हो गए पचपन, याद हैं बचपन की बातें ।
कंपकंपाती ठण्ड में तो, हरेक को घाम में आनंद आता है ।
किसी को अपने काम, किसी को जाम में आनंद आता है ।
इस अजीब दुनिया में, होते हैं लोग भी कुछ गजब के बड़े,
जिन्हें गंवाने वक्त, करके बेतुके काम में आनंद आता है।
कहाँ हुआ आरम्भ कहाँ होगा समाप्त, समय ।
बिना किसी ओर छोर युगों से व्याप्त, समय ।
न तो कभी मंद होती न ही गति तेज इसकी
नापने हेतु एक नन्हीं सी घड़ी पर्याप्त, समय ।
एस० डी० तिवारी
बड़े संयोग से मिले थे।
अभी याद वो सिलसिले थे।
जाने क्या पका रहे मन में,
पड़े होठ उनके सिले थे।
हम मुंबई में रहे, वो कांडला।
फेस बुक पर चलता रहा मामला।
संयोग से हो गया उनका भी,
हमारे ही शहर में तबादला ।
हे, देश के वीर जवान ! तुम्हें नमन है ।
होते वतन पे कुर्बान, तुम्हें नमन है ।
रक्षा हेतु हमारी, खेलते हर खतरे से,
तुमसे निर्भय हिंदुस्तान, तुम्हें नमन है ।
उनके लिए, जो राष्ट्र के लिए जिए,
लुटाये सब, हँसते प्राण तक दे दिए;
प्रण लें, सशस्त्र सेना झंडा दिवस पर,
तन मन धन से जुटेंगे, कल्याण के लिए ।
ये मुहब्बत के बीज कहीं और बो चुके थे
इंतजार में इनके दीवाने बहुत रो चुके थे
संयोग कहें या हमारे तक़दीर की लकीर
किसी के फटकने से पहले हमारे हो चुके थे
नदी के किनारे, साँझ के अँधेरे,
धधकती किसी की चिता जल रही थी।
आगोश में अपने, लाश को लपेटे,
लपटों की ऊँची शिखा निकल रही थी।
लेकर उजाला, चल दी थी ज्वाला;
धुंए में ले यादें, हवा चल रही थी।
धरा रो रही थी, गगन रो रहा था,
आंसुओं में भीगी, निशा ढल रही थी।
गांव से उठी ऊँची, गूंजती रुलाई
पसरे हुए, सन्नाटे को खल रही थी।
छल झेल
फूंकने के लिए जो भीड़ आयी थी।
आग लगने में देरी से अकुलाई थी।
घी उड़ेल कर, धधकाई चिता की
पानी डाल कर के आंच बुझाई थी।
रो रो कर लगाया, चिता की आग।
घी से धधकाया, चिता की आग।
बहता हुआ आंसुओं का सैलाब
फिर बुझा न पाया, चिता की आग।
जीते जी, उसके घर होता है,
मर जाने पर, कब्र पर होता है।
धनवान के पास निर्धन से तो
हमेशा अधिक पत्थर होता है।
सरिता जब समुन्दर के घर जाती है।
गन्दगी सब मुहाने पर ठहर जाती है।
आत्मा जाती, जब परमात्मा के पास
पाप की गठरी साथ, मगर जाती है।
स्वच्छ जल समुन्दर में सीधे मिल जाता है।
गंदा जल हो तो नदी का बदन छिल जाता है।
जाती जब परमात्मा में विलय होने के लिए,
मलिन आत्मा का दिल कष्ट से हिल जाता है।
फूंकने के लिए जो भीड़ आयी थी।
आग लगने में देरी से अकुलाई थी।
घी उड़ेल कर धधकाई चिता को,
पानी डाल कर के आंच बुझाई थी।
औरों को आईना दिखाते रहे।
खुद देख कर मुंह छुपाते रहे।
तीन खुद की ओर सोचे बिना,
दूसरों को उंगली दिखाते रहे।
वक्त जब करवट बदलता है।
किसी का कुछ नहीं चलता है।
कोई दब जाता भार में इसके,
किसी का मुकद्दर फलता है।
मजदूर है कि काम करते गर्द सहता।
थोड़े लिवास लिए मौसम सर्द सहता।
धनी, थोड़े घाटे का गम लिए रोता है,
उससे तो पूछो, भूख का दर्द सहता।
देख कर घायल, अच्छे भले हो गए।
कर लें बातें हम भी, हौसले हो गए।
शोखियों से अपने वे मन को छले,
कारगुजारी से हम मनचले हो गए।
एस० डी० तिवारी
गलतफहमियों में शिकवा गिले हो गए।
प्यार में रार के सिलसिले हो गए।
हुईं आपस की बातें कड़वाहट भरी,
काटों के, दिलों में काफिले हो गए।
वादा तो कर लेते सभी, निभाना बड़ी बात है।
चुराना आसान, पर दिल लुटाना बड़ी बात है।
शुरू तो कर देते सभी, मुहब्बत की गाड़ी को,
आखिरी अंजाम तक, पहुँचाना बड़ी बात है।
बेवफाई का गम लिए जिंदगी बिताती रही।
बात अपनों से, अपने मन की बताती रही।
उस जहाँ में भी जाकर वो मिलेगा या नहीं,
चिन्ता उसे, उसकी चिता तक सताती रही।
अपने बराबर किसी को न तोलता था।
धन का घमंड सिर चढ़ के बोलता था।
मची हुई तिजोरी पर महाभारत आज,
अकेले में चुपचाप जो वह खोलता था।
कंगाली को लिए रोता रहा।
तकलीफों का बोझ ढोता रहा।
आज काठ की सेज सज रही,
हमेशा जमीन पर सोता रहा।
- एस० डी० तिवारी
दूर हुआ, गरीबी का संताप जो बरसता था।
पाकर सर्दी में फटा कम्बल भी विहँसता था।
आज नई चादर, तन पर, उड़ेला जा रहा डब्बा,
खाने में चम्मच भर घी के लिए तरसता था।
सपनों के लेकर पंख बिंदास हो गया।
पाले कई चाहतों का दास हो गया।
नाजुक पंख पर किया भरोसा इतना
टूटा कोई सपना, मन उदास हो गया।
परीक्षा सिर पे आयी, अकल ठंडी हो गयी।
देख कर न लिख पाए, नक़ल ठंडी हो गयी।
दिल की बात को बताने का जरिया ढूंढा
उन्हें पढ़ाने से पहले, गजल ठंडी हो गयी।
पकड़ रखती, जब कील का सिर ठुक जाता है।
चमकने के लिए सोना, आग में फुक जाता है।
लिखने के लिए जब मैं अपना सिर झुकाता हूँ
मेरे साथ ही मेरी लेखनी का सिर झुक जाता है।
चमड़ी का रंग कुछ भी, लहू न सफ़ेद देखा।
भेड़ियों को भी न करते, आपस में भेद देखा।
देखे इंसान, गला इंसान का काटने पर उतारू
जंगली जानवर सा, मगर करते न खेद देखा।
गांठों में बंधे रहे, जंजीर बदलते रहे।
मंदिरों में जाकर, तक़दीर बदलते रहे।
दर्पण बदल लिया, चेहरा न बदल पाए
लिवास बदल कर, तस्वीर बदलते रहे।
शूल के लखे, मन की बात।
मन में रखे, मन की बात।
होंगे दुखी इसलिए न कहे
तुमसे सखे! मन की बात।
मेरी लेखनी बड़ी सयानी।
बना रही मुझको भी ज्ञानी।
चली है भर जोश, ज़माने में;
आग उगलने, पीकर पानी।
- एस० डी० तिवारी
पर्व का वास्तविक आनंद तभी आता है।
जब पर्व मन से महसूस किया जाता है।
जुड़ जाती आत्मा जब, पर्व की आत्मा से
पर्व में एक अद्भुत उल्लास भर जाता है।
शेर कहलाने को आदमी बन जाता है जानवर।
बुरा मान जाता जब सीधे कहलाता है जानवर।
जब कभी साधना होता इसे मतलब की बात,
सोया हुआ खुद के भीतर, जगाता है जानवर।
किसी के खौफ से किसी का दिल हंसने लगा।
किसी की सौत से किसी का प्यार पनपने लगा।
किसी का नुकसान किसी और का लाभ हो जाता,
किसी की मौत से किसी का घर चमकने लगा।
मतलब के लिए रोता है आदमी।
मतलब को लिए ढोता है आदमी।
जब तक अपना मतलब दिखता
साथ साथ लगा होता है आदमी।
जिंदगी भर उसने आग ही लगाया।
बिना बात के ही बहुतों को रुलाया।
झोंक दिया वक्त ने आखिरकार उसे
बुझाने को आग, कोई नहीं आया।
वो भी समय था, पड़ोस परिवार सा लगता था।
सारा का सारा गांव ही, घर बार सा लगता था।
अब आँखों में डाह भर, सह लेता दर्द कितना,
कहाँ? जब आपसी बात में, प्यार सा लगता था।
कितनी बात थी दिल में, अनकही रह गयी।
न चाहा दिल ने कभी जो, वही रह गयी।
रखे थे करके जमा, तेरी मुहब्बत के रतन
चोर समय चट कर गया, बस बही रह गयी।
एस० डी० तिवारी
जाने क्यों इतनी दुनिया गिरी जाती है।
ज्ञान पाकर के भी मति फिरी जाती है।
जितना मिलता, बढ़ जाती हवस और
लोभ के वश दुष्कर्मों में घिरी जाती है।
बुद्धि पर कब्ज़ा किया, नियत, खोटी ने।
पथ से भ्रष्ट किया बैठने में, गोटी ने।
भुला दिए हैं, इंसानियत के कायदे सब;
कायदे से मिलती, दो वक्त की रोटी ने।
खामियों को लिए कूढ़ने में, बूढ़े हो चले।
संजो कर इश्क को रुढ़ने में, बूढ़े हो चले।
हर गुण परिपूर्ण मिलना बड़ा मुश्किल
मन पसंद महबूब ढूंढने में, बूढ़े हो चले।
उनकी याद इस कदर जिंदगी से जुडी।
रातों के सपने और नींद भी ले उड़ी।
देख लेते हैं कभी कभी, अब तक पड़ी;
उनकी दी, किताब में फूल की पंखुडी।
बिना मांगे ही बीबी सभी सलाह देती है
जरूरत न भी, फजूल कभी सलाह देती है
जिस विषय से उसका दूर तक नाता नहीं
पूरे विश्वास से, उस पर भी सलाह देती है
चल पड़ा है गजब का दौर
आधुनिकता की अंधी दौड़
मशीनों के आगे रिश्तों का
अब कोई करता नहीं गौर
अनजानी दौड़ में लगी है दुनिया।
अजीब जोड़ तोड़ में लगी है दुनिया।
जैसे भी हो सके, दूसरों का माल
हड़पने की होड़ में लगी है दुनिया।
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किसी को खौफ से किसी का दिल हंसने लग पड़ा।
किसी की सौत से किसी का प्यार पनपने लग पड़ा।
किसी का नुकसान किसी और का मुनाफा हो गया,
किसी की मौत से किसी का घर चमकने लग पड़ा।
चढ़ प्रगति के रथ पर, आये! नया साल।
खुशियां ले सबके घर, आये! नया साल।
पूरा करनेवाला सभी की मनोकामना,
हर पल सुखद लेकर, आये! नया साल।
भौंरा चक्कर लगाता ही रहता।
व्यथा को भुनभुनाता ही रहता।
रस के लिए चुभोता है नश्तर
फूल मगर मुस्कराता ही रहता।
निकाल लेती है मक्खी शहद।
फूल नहीं मगर छोड़ता लहक।
हँसते हँसते देता लहू अपना
रखे रखता है फिर भी महक।
प्यार का खुमार, अब उतर गया।
फरेबी उन ख्वाबों से, दिल भर गया।
चले गए हो, मुंह मोड़ कर के तुम
सम्हाल रखे खत, चूहा कुतर गया।
धर्म के नाम पर, इंसान दंगा करता है।
छोटी छोटी बात पर पंगा करता है।
खुद का मतलब होता, नैतिकता का
फेंक आवरण, जमीर नंगा करता है।
जर, जोरू, जमीन।
गाड़ देते नीचे तीन।
हो जाता है आदमी
इनके लिए कमीन।
हाल को अपने, उन्हें सुनाया मैं।
मगर बाद में बहुत पछताया मैं।
ढूंढे उसमें भी वे मतलब की बात
वक्त गुजरा तो समझ पाया मैं।
अब ऐसे को वैसा कह दे,
और वैसे को ऐसा कह दे।
हिम्मत नहीं आदमी में
जो जैसा है तैसा कह दे।
दीवानों की जमात चली, शबाब इतराने लगा।
प्रेमियों की तादाद बढ़ी, गुलाब इतराने लगा।
किस्मत से थाम लिया मेरा भी गुलाब किसी ने,
फिर कहाँ से कम, मैं भी जनाब इतराने लगा।
देश के लिए हुए जो शहीद, उन्हें सलाम ।
राष्ट्र सारा उनका मुरीद, उन्हें सलाम ।
मनाये देश भक्ति का जश्न, वे इस तरह,
मना न सकेंगे अगली ईद, उन्हें सलाम ।
सभी का फूले फले, यह वर्ष नवल ।
प्रगति पथ पर चले, यह वर्ष नवल ।
सिद्धि, समृद्धि, नव भाव, उत्साह भरे;
रखे सुख-अम्बर तले, यह वर्ष नवल।
- एस० डी० तिवारी
नई नई चुगली लेकर, आएंगे चुगलखोर।
कहीं तो अपना हुनर, दिखाएंगे चुगलखोर।
नए साल में कुछ नया करने का जोश लिए,
जहाँ नहीं लगी, आग लगाएंगे चुगलखोर।
बड़े लोग ढूंढ लेंगे नयी चाल, नए साल में।
शिकारी डालेंगे नए जाल, नए साल में।
राजनीतिज्ञ बिछाएंगे नई बिसात अपनी,
जनता रह जाएगी उसी हाल, नए साल में।
नये पैकेट में होगा पुराना माल, नए साल में।
दिखाएंगे नए करतब, नई चाल, नए साल में।
जुटे दिखेंगे सभी अपनी अपनी युगत में नई,
मगर देश का रहेगा वहीँ सवाल, नए साल में।
हमसे ज्यादा तो हमारा फोन मनाता है।
आते ही त्यौहार, संदेशों से भर जाता है।
मिलने जुलने का कहाँ से समय निकालें
जबाब देने में ही, घंटों निकल जाता है।
दुश्मन से हो जाय दोस्तानी भी,
रखना चाहिये सावधानी ही।
जलती आग को बुझा देता है ,
हो कितना ही, गरम पानी भी।
आज नहीं तो कल, हिसाब देना होगा।
पाने, किये का फल, हिसाब देना होगा।
यह नहीं सोचना कि नज़रों से उसकी,
बच जाओगे निकल, हिसाब देना होगा।
खो जाते, मिले प्रेम में जीत, मीत मेरे।
हार से ही पैदा होते हैं गीत, मीत मेरे।
हारा तो हारा ही होता, जीता भी हारा
प्रीत की कुछ ऐसी ही रीत, मीत मेरे।
पहले मिले थे बैसला और अखिलेश ।
अब दो और मिल गए हार्दिक, जिग्नेश।
कब तक ये सोच मिलेगी ? कैसे होगा -
समृद्ध, खुशहाल, उन्नत और अखंड देश।
अलग रंगो में मुल्क को, बांटने वालो !
तीन टुकड़ों में तिरंगे को टांगने वालो !
खेत न केसरिया, चेहरा न हरा होगा;
सुनो! रंगों से मजहब को आंकने वालो!
है अल्ला की गजल
आज नहीं तो कल
मेरी हो के रहेगी
चाहता तुझे मैं पल पल
जाएगी मेरे अरमानों में ढल
तेरे लिए बनाया हूँ
मुहब्बत का महल