खुदा के शहर में देखा, दीया है न बाती है।
वहां की न जानूं कैसे, रैना जगमगाती है।
सड़कें ना सेतु वहां पे, लगे न पहिये इंजिन,
जानूं ना उड़ती कैसे, गाड़ी चली जाती है।
कहीं नहीं पंखा कूलर, वातानुकूल कहीं ना,
सुगन्धित पवनिया शीतल, जीया को जुड़ाती है।
कहीं पर अस्नान घर ना, और न ही घाट देखा,
बरसती झड़ी में जनता, उमंग भर नहाती है।
न तन पर पोशाक महंगे, पहने न गहने कोई,
मगर जन जन की वहां के, सुंदरता लुभाती है।
चारु फल पेड़ों पे लटके, कोठिले भरे अन्न से,
फरिश्तों की भीड़ बैठी, खाकर के अघाती है।
शयन जागरण की चिंता, करता न कोई 'देवा',
- एस. डी. तिवारी
खुदा अक्ल दे दे
तेरे अपने इंसानों को, काफिर कहते
खुदा! बेअक्लों को, कुछ अक्ल दे दे ।
तेरी बनाई चीजों को मिटाते बेदर्दी से
उन नासमझों को. कुछ अक्ल दे दे।
कहते जो खुद को, ठेकेदार-ए-खुदाई
उन खुदगर्जों को, कुछ अक्ल दे दे।
सीखे न करना, जो मुहब्बत जीवों से
हमदर्द न बन्दों के, कुछ अक्ल दे दे।
तेरी बख्शी हुई जान का क़त्ल करते
उन बेरहमों को, कुछ अक्ल दे दे।
इंसान के लिवास में छिपे दरिंदे जो
पहचान के वास्ते, वही शक्ल दे दे।
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